Wednesday 20 November 2019

दैवीय उपस्थिति और ऊर्जा का अहसास.....

दैवीय उपस्थिति और ऊर्जा का अहसास
चाहे किसी भी धर्म, पंथ या सम्प्रदाय का उपासना स्थल हो सभी जगह एक जैसी ही दैवीय उपस्थिति और ऊर्जा का अहसास होता है।
मैं बचपन से ही ऐसे स्थलों पर जाता रहा हूं, तब मुझे इस बात का अहसास तो नहीं हो पाता था, लेकिन जब से विधिवत साधना के मार्ग पर आया हूं, तब से मुझे इसका स्पष्ट अहसास और अनुभव होने लगा है।
अनेक मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, चर्च, मठ, साधना और तपस्या स्थल पर जाने का संयोग बनता रहा है। कई ऐतिहासिक और पुरातत्वीय महत्व के स्थलों को भी देखने-जानने का अवसर मिला। जहां भी विधिवत पूजा-उपासना होती है, सभी जगह उनकी उपस्थिति और उनसे मिलने वाली ऊर्जा का अहसास हुआ।
इस बात से एक चीज तो स्पष्ट हुआ कि हर धर्म, पंथ और सम्प्रदाय से संबंधित उपासना स्थल और पूजा-उपासना की विधि का एक जैसा ही महत्व है। सभी के माध्यम से आध्यात्मिक अनुभव और ऊर्जा प्राप्त की जा सकती है।
-सुशील भोले-9826992811
संजय नगर, रायपुर

तीरथ बरत कर आएन जोहीं....

तीरथ-बरत कर आएन जोहीं देव-दर्शन ल पाएन
अलग-अलग देव-ठिकाना फेर एके तत्व जनाएन
पूजा विधि सबके अलगे किस्सा घलो आनेच आन
फेर सार-तत्व ल सबके गोई सिरतोन एक्के जान
-सुशील भोले-9826992811
संजय नगर, रायपुर

Tuesday 19 November 2019

एक जनम बर होथे लिखे भाग के रेखा.....

एक जनम बर होथे पक्का लिखे भाग के रेखा
कर ले कुछू उदिम चाहे तैं कर ले कुछू सरेखा
नइ बदलय एक अंश तोर बीते करनी के लेखा
भोगना परथे निच्चट सबला इही आंखी के देखा
* सुशील भोले
संजय नगर, रायपुर (छ.ग.)
मो. 98269 92811,

गढ़ना हे त नवा जनम के....

गढ़ना हे त गढ़ले बइहा तोर नवा जनम के रस्ता
झन बीतन दे ए जनम ल निच्चट एकदम सस्ता
परमारथ के कारज ले तैं परलोक म पाबे आसन
होही कहूं फेर दुनिया म आना मिलही सुख-रासन
* सुशील भोले
संजय नगर, रायपुर (छ.ग.)
मो. 98269 92811,

Thursday 7 November 2019

कातिक पुन्नी स्नान...

कातिक पुन्नी स्नान....
हमारी संस्कृति में पूर्णिमा का व्रत महत्वपूर्ण स्थान रखता है। प्रत्येक वर्ष 12 पूर्णिमाएं होती हैं। जब अधिकमास या मलमास आता है, तब इनकी संख्या बढ़कर १3 हो जाती है। कार्तिक पूर्णिमा को त्रिपुरी पूर्णिमा या गंगा स्नान के नाम से भी जाना जाता है। इस पूर्णिमा को त्रिपुरी पूर्णिमा की संज्ञा इसलिए दी गई है, क्योंकि आज के दिन ही भगवान भोलेनाथ ने त्रिपुरासुर नामक महाभयानक असुर का अंत किया था और वे त्रिपुरारी के रूप में पूजित हुए थे। ऐसी मान्यता है कि इस दिन कृतिका में शिव शंकर के दर्शन करने से सात जन्म तक व्यक्ति ज्ञानी और धनवान होता है। इस दिन चन्द्र जब आकाश में उदित हो रहा हो उस समय शिवा, संभूति, संतति, प्रीति, अनुसूया और क्षमा इन छ: कृतिकाओं का पूजन करने से शिव जी की प्रसन्नता प्राप्त होती है। इस दिन गंगा नदी या अन्य पवित्र नदियों  में स्नान करने से भी पूरे वर्ष स्नान करने का फल मिलता है।
-सुशील भोले
आदि धर्म जागृति संस्थान रायपुर
मो.9826992811

Tuesday 5 November 2019

पर्व और मान्यताएं.....

पर्व और मान्यताएं.....
हमारे यहां बहुत से ऐसे पर्व हैं, जिन्हें अलग-अलग समुदायों के द्वारा अलग-अलग अवसर पर या अलग-अलग संदर्भों के अंतर्गत मनाया जाता है। उदाहरण के लिए हम "नवा खाई" का पर्व ले सकते हैं।
छत्तीसगढ में "नवा खाई" का पर्व तीन अलग-अलग अवसरों पर मनाया जाता है। ओडिशा राज्य की सीमा से  लगे वे लोग जो उत्कल संस्कृति को जीते हैं ,इसे ऋषि पंचमी को, जो कि भादो मास को संपन्न होने वाले गणेश चतुर्थी के पश्चात् आता है, उस दिन मनाते हैं।
गोण्डवाना की संस्कृति जीने वाले लोग इसे कुंवार मास की शुक्ल पक्ष में अष्टमी या नवमी तिथि को मनाते हैं। इसी तरह अन्य पिछड़ा वर्ग और सामान्य वर्ग के अंतर्गत आने वाले लोग जो कि मैदानी भाग में रहते हैं, इसे कार्तिक मास में मनाए जाने वाले दीपावली पर्व के दूसरे दिन गोवर्धन पूजा के अवसर पर अन्नकूट के रूप में मनाते हैं।
नवा खाई पर्व मनाने का सभी का उद्देश्य एक ही है, अपने ईष्ट को अपनी नई फसल को समर्पित करना। किन्तु अलग-अलग तिथि और अलग-अलग रूप में इसे मना लिया जाता है।
ऐसे ही बहुत से ऐसे पर्व हैं, जिन्हें अलग-अलग संदर्भ के अनुसार अलग-अलग समूह के लोग मनाते हैं।
हम "छेरछेरा" पर्व को उदाहरण के रूप में ले सकते हैं। गोंडवाना की संस्कृति को मानने वाले लोग  इसे "गोटुल/घोटुल" की शिक्षा में पारंगत हो जाने के पश्चात पूस पूर्णिमा के अवसर पर तीन दिनों का पर्व मनाते हैं।
यहां के मैदानी भाग में रहने वाले अन्य पिछड़े और सामान्य वर्ग के अंतर्गत आने वाले लोग केवल एक दिन का पर्व फसल की लुवाई-मिंजाई के पश्चात् अन्न दान के रूप में मनाते हैं। इन सबसे अलग मुझे अपने साधना काल में जो ज्ञान प्राप्त हुआ, उसके अनुसार यह पर्व शिव जी द्वारा पार्वती से विवाह पूर्व लिए गये परीक्षा के अंतर्गत नट बनकर मांगा गया भिक्षा का प्रतीक स्वरूप मनाया जाने वाला पर्व है।
मित्रों, यहां यह जानना आवश्यक है कि यहां के हर पर्व का संबंध किसी न किसी रूप में अध्यात्म से अवश्य है। आज हम उचित जानकारी के अभाव में उसे अन्य संदर्भों के अंतर्गत मनाये जाने को स्वीकार कर लेते हैं। लेकिन मेरा मानना है कि सभी पर्वों का मूल कारण जानने के लिए कागजी प्रमाणों से ऊपर उठ कर तर्क और लोक परंपरा की कसौटी पर उसे परखना आवश्यक है।
यहां पर मैं "होली" पर्व को उदाहरण के रूप में रखना चाहूंगा। हम आम तौर पर यह जानते हैं कि "होलिका दहन" के रूप में इस पर्व को मनाया जाता है। जहां तक हम छत्तीसगढ की मूल संस्कृति के संदर्भ में बात करें तो यह सही नहीं है।यहां जो पर्व मनाया जाता है, वह "काम दहन" का पर्व है। इसीलिए हम इसे "मदनोत्सव" या "वसंतोत्सव" के रूप में भी मनाते हैं।
आप सभी को यह स्मरण होगा कि शिव पुत्र के हाथों मरने का वरदान प्राप्त ताड़कासुर के संहार के संहार के लिए तपस्यारत शिव की तपस्या भंग करने के लिए कामदेव को भेजा गया था। तब कामदेव वसंत का मादक भरे मौसम का चयन कर अपनी पत्नी रति के साथ शिव तपस्या भंग करने का प्रयास कर रहे थे। इस पर शिव जी कुपित हो गये और कामदेव को अपने तीसरे नेत्र से भस्म कर दिए।
हमारे छत्तीसगढ में इसी लिए इस पर्व को वसंत पंचमी से लेकर फाल्गुन पूर्णिमा तक लगभग चालीस दिनों का पर्व मनाया जाता है। वसंत पंचमी के दिन अरंडी नामक पौधे को होली दहन स्थल पर गड़ाया जाता है, जो कि कामदेव के आगमन के प्रतीक स्वरूप होता है। उसके पश्चात् वासनात्मक गीतों और नृत्यों के माध्यम से फाल्गुन पूर्णिमा तक इस पर्व को मनाया जाता है। फाल्गुन पूर्णिमा को होली दहन स्थल पर एकत्रित लकड़ी आदि में अग्नि संचार के पश्चात यह पर्व संपन्न होता है।
आप सोचिए, होलिका तो एक ही दिन में लकड़ी एकत्रित करवा कर उसमें अग्नि प्रज्वलित करवाती है, और स्वयं ही उसमें जलकर भस्म हो जाती है। फिर उसके लिए चालीस दिनों का पर्व मनाने की क्या आवश्यकता है? इस पर्व के अवसर पर प्रयोग किए जाने वाले वासनात्कम शब्दों, दृश्यों और नृत्यों से होलिका का क्या संबंध है?
मित्रों, मैं हमेशा यह कहता हूं कि यहां की मूल संस्कृति को उसके वास्तिवक रूप में पुनः लिखने की आवश्यकता है, तो उसका यही सब कारण है।
-सुशील भोले
संयोजक, आदि धर्म जागृति संस्थान
संजय नगर, रायपुर
मो नं 9826992811

Sunday 20 October 2019

सुवा: गौरा-ईसरदेव बिहाव के संदेशा देथे....

* सुवा गीत-नृत्य के संदेश...
* गौरा-ईसरदेव बिहाव के आरो कराथे
छत्तीसगढ़ी लोक साहित्य के नांव म आज जतका भी किताब, शोध ग्रंथ या आलेख उपलब्ध हे, सबो म कातिक महीना म गाये जाने वाला सुवा नृत्य-गीत ल "नारी-विरह" के गीत के रूप म उल्लेख करे गे हे। मोर प्रश्न हे- सुवा गीत सिरतोन म नारी विरह के गीत होतीस, त एला आने गीत मन सहीं बारों महीना काबर नइ गाये जाय? सिरिफ कातिक महीना म उहू म अंधियारी पाख भर म कुल मिला के सिरिफ पंदरा दिन भर काबर गाये जाथे? गाये जाथे इहां तक तो ठीक हे, फेर माटी के बने सुवा ल टोपली म रख के ओकर आंवर-भांवर ताली पीट-पीट के काबर नाचे जाथे? का बिरहा गीत म अउ कोनो जगा अइसन देखे या सुने बर मिलथे? अउ नइ मिलय त फेर एला नारी विरह के गीत काबर कहे जाथे? का ये हमर धरम अउ संस्कृति ल अपमानित करे के, भ्रमित करे के या वोला दूसर रूप अउ सरूप दे के चाल नोहय?

ये बात तो जरूर जान लेवौ के छत्तीसगढ़ म जतका भी पारंपरिक गीत हे, नृत्य हे सबके संबंध धर्म आधारित संस्कृति संग हे। चाहे वो फुगड़ी के गीत हो, चाहे करमा के नृत्य हो, सबके संबंध विशुद्ध अध्यात्म संग हे। हमर इहां जब भी संस्कृति के बात होथे, त वोहर सिरिफ नाचा-गम्मत या मनोरंजन के बात नइ होय, अइसन जिनिस ल हमन कला-कौशल के अंतर्गत गिनथन, संस्कृति के अंतर्गत नहीं। ये बात ल बने फोरिया के समझना जरूरी हे, संस्कृति वो होथे जेला हम जीथन, आत्मसात करथन, जबकि कला मंच आदि म प्रदर्शन करना, जनरंजन के माध्यम बनना होथे। जे मन इहां के धरम अउ संस्कृति ल कुटिर उद्योग के रूप म पोगरा डारे हें, वो मन जान लेवंय के अब इहां के मूल निवासी खुद अपन धरम, संस्कृति अउ कला वैभव ल सजाए-संवारे अउ चारों खुंट वास्तविक रूप म बगराए के बुता ल सीख-पढ़ डारे हे। अब  ए मन ल ठगे, भरमाए अउ लूटे नइ जा सकय। इंकर अस्मिता ल बिगाड़े अउ सिरवाए नइ जा सकय।

सुवा गीत असल म गौरा-ईसरदेव बिहाव के संदेशा दे के गीत-नृत्य आय। हमर इहां जेन कातिक अमावस के गौरा-गौरी या कहिन गौरा-ईसरदेव के पूजा या बिहाव के परब मनाए जाथे, वोकर संदेश या नेवता दे के कारज ल सुवा के माध्यम ले करे जाथे। हमर इहां कातिक नहाए के घलो रिवाज हे। मुंदरहा ले नोनी मन (कुंवारी मन जादा) नहा-धो के भगवान भोलेनाथ के बेलपत्ता, फूल, चंदन अउ धोवा चांउर ले पूजा करथें, ताकि उहू मनला उंकरे असन योग्य वर मिल सकय। अउ फेर तहां ले संझा के बेरा जम्मो झन जुरिया के सुवा नाचे बर जाथें। सुवा नाचे के बुता पूरा गांव भर चलथे, एकर बदला म वोमन ल जम्मो घर ले सेर-चांउर या पइसा-रुपिया मिलथे, जे हा कातिक अमवस्या के दिन होने वाला गौरा-ईसरदेव के बिहाव के परब ल पूरा करे के काम आथे। उंकर जम्मो व्यवस्था एकर ले ठउका पूर जाथे।

कातिक अमावस के पूरा नेंग-जोंग के साथ ईसरदेव के संग गौरा के बिहाव कर दिए जाथे। इही ल हमर इहां गौरा पूजा परब घलो कहे जाथे। सुवा गीत के संबंध ह एकरे संग हे, जेन ह एक प्रकार ले नेवता या संदेश दे के काम आथे। एला अइसनो कहे जा सकथे के गौरा-ईसरदेव के बिहाव-नेवता ल माईलोगिन मन घरों-घर जाके सुवा गीत-नृत्य के माध्यम ले देथें, अउ बिहाव-भांवर म होने वाला खर्चा के व्यवस्था खातिर सेर-चांउर या रुपिया-पइसा  लेथें।
जिहां तक ए परब अउ वोकर संग सुवा गीत-नृत्य के शुरूवात के बात हे, त इहां के जम्मो मूल संस्कृति सृष्टिकाल के संस्कृति त एकर मतलब इहू आय के एकरो शुरूवात सृष्टिकाल ले ही होही होही।

इहां इहू जाने अउ गुने के बात आय, के ये गौरा-गौरी परब ह कातिक अमावस के होथे। माने जेठउनी (देव उठनी) के दस दिन पहिली। माने हमर परंपरा म भगवान के बिहाव ह देवउठनी के दस दिन पहिली हो जाथे, त फेर वो चार महीना के चातुर्मास के व्यवस्था, सावन, भादो, कुंवार, कातिक म कोनो किसम के मांगलिक कारज या बर-बिहाव के बंधना कइसे लागू होइस? वइसे भी मैं ये बात ले सहमत नइहौं के कोनो भगवान ह चार महीना ले सूतथे या कोनो दिन, पक्ष या महीना ह कोनो शुभ कारज खातिर अशुभ होथे। हमर संस्कृति निरंतर जागृत देवता के संस्कृति आय। एकरे सेती मैं कहिथौं के हर कारज ल कोनो भी दिन करे जा सकथे। भलुक मैं तो कहिथौं के हमर संस्कृति म इही चार महीना (सावन, भादो, कुंवार, कातिक) सबले शुभ अउ पवित्र होथे, तेकर सेती जतका भी शुभ कारज हे इही चार महीना म करे जाना चाही।

-सुशील भोले
आदि धर्म जागृति संस्थान
54/191, डॉ. बघेल गली, संजय नगर , रायपुर (छग.)
मो. 98269 92811

Monday 14 October 2019

तीन पिंड माटी के होथे घर म....

तीन पिंड माटी के होथे घर म जिंकर कुलदेवता
उही आय असल म जेला मैं कहिथौं मूलदेवता
मातृशक्ति पितृशक्ति अउ गणशक्ति के उन रूप
उही हमर पहिचान आय अउ उही ईश-स्वरूप
-सुशील भोले

Sunday 13 October 2019

कुलदेवी/कुलदेवता की पूजा पहले जरूरी क्यों....?

कुलदेवी/कुलदेवता का आशीर्वाद क्यों जरूरी है?

इस विषय को समझते वक़्त सभी साधना , कुण्डलिनी , श्रीविद्या , दसमहाविद्या जो भी कोई साधना आप कर रहे हो , सब एक बाजू रखें ।

क्योंकि कुलदेवी/कुलदेवता की कृपा का अर्थ है , सौ सुनार की एक लोहार की , बिना इसके कृपा से किसीके कुल का वंश ही क्या कोई नाम फेम कुछ भी आगे बढ नहीं सकता ।

लोग भावुक होकर अथवा आकर्षित होकर कई साधनाएं तो करते हैं , पर वो जानते नहीं कि जब आप अपनी कुलदेवी को पुकारे बिना किसी भी देवी देवता की साधना करते हो , वो साधना कभी यशस्वी नहीं होती; उलटा कुलदेवी का प्रकोप अथवा रुष्टता और ज्यादा बढ़ती हैं ।

कई जगहों पर आज भी कुछ परंपरा हैं , घर के पूजा घर में कुलदेवी के रूप में सुपारी अथवा प्रतिमा का पूजन करना , घर से बहार लंबी यात्रा हो तो कुलदेवी को पहले कहना , साल में दो बार कुलदेवी पर लघुरूद्र अथवा नवचंडी करना ...... यह सब आज भी हैं ।

हर घर की होती है एक कुलदेवी/कुलदेवता

आज भारत में 70% परिवार अपने कुलदेवी को नहीं जानता। कुछ परिवार बहुत पीढ़ियों से कुलदेवी का नाम तक नहीं जानते ।

इसके कारण , एक निगेटिव दबाव उस घर के कुल के ऊपर बन जाता है और अनुवांशिक प्रॉब्लम पैदा होती हैं ।

बहुत जगहों पर देखा जाता है--

(1) कुलदेवी की कृपा के बिना अनुवांशिक बीमारी पीढ़ी में आती है , एक ही बीमारी के लक्षण सभी लोगो को दिखते हैं

(2) मनासिक विकृतियाँ अथवा स्ट्रेस पूरे परिवार में आना

(3) कुछ परिवार एय्याशी की ओर इतने जाते है कि सबकुछ गवा देते हैं

(4):- बच्चे भी गलत मार्ग पर भटक जाते हैं

(5):- शिक्षा में अड़चनें आती है

(6):- किसी परिवार में सभी बच्चे अच्छे पढ़ते हैं फिरभी जॉब ठीक नहीं मिलती

(7):- कभी तो किसीके पास पैसा बहुत होता है पर मनासिक समाधान नहीं होता

(8):- यात्राओं में अपघात होते है अथवा अधूरी यात्रा होती हैं

(9):- बिजनेस में भी  ग्राहक पर प्रभाव नहीं बनता अथवा आवश्यक स्थिरता नहीं आती ।

(10):- विदेशों में बहुत भारतिय बसे है , उनके पास पैसा होकर भी एक असमाधानी वृत्ति अथवा कोई न कोई अड़चन आती है , इतने लंबा सफर से भारत में कुलदेवी के दर्शन के लिए नहीं आ सकते ।

यह सब परेशानी हम देख रहे हैं ।

मित्रों , यह सब परेशानी आप किसी हीलिंग अथवा किसी ध्यान अथवा किसी दसमहाविद्या के मंत्रो से दूर नहीं कर सकते ।

बल्कि , अगर और अंदर कहूँ तो कोई भी दसमहाविद्या की दीक्षा में सबसे पहले गुरु उस साधक की कुलदेवी का जागरण करवाने की दीक्षा अथवा साधन पहले देता हैं ।ऊ

आजकल ये महाविद्याओं की साधनाओ में कोई करता नहीं  सभी सीधा मंत्र देते है , बाद उसका फल यह मिलता है कि वो साधक ऐसे जगह पर फेक दिया जाता है , जहाँ से वो कभी उठ ही न पाए ।

आजकल बड़ी बड़ी शिविरों में हम यही माहौल देखते हैं ।

इसलिए , कोई भी महाविद्या के प्रति आकर्षित होने से पहले अपने कुलदेवी को पुकारो ।

अगर आज नहीं तो कल की पीढ़ी के लिए बहुत दिक्कतें होगी ।

कईयों को लगेगा वो श्रीनाथ जी जाते हैं , तिरुपती जाते हैं , चारधाम जाते हैं , शिर्डी जाते हैं,  या हर कहीं माथा रगड़ने जाते ... साल में एक दो बार दर्शन के लिए । इससे कुलदेवी प्रसन्न नहीं होती । बल्कि वो शक्तियाँ भी आपको यही कहेंगी की पहले अपने माँ बाप को याद करो फिर मेरे पास आओ।

कुलदेवी के रोष में कई संस्थान , राजवाड़े , महाराजे खत्म हुए । कई परिवार के वंश नष्ट हुए ।

इसलिए कुलदेवी/कुलदेवता का पूजन पहले करो।
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Thursday 10 October 2019

शरद की वह रात......

शरद की वह रात......
शरद ऋतु के आगमन के साथ ही मौसम में ठंड का हल्का सा अहसास होने लगा था। रात के आठ बज चुके थे, चांद दुधिया रोशनी लिए आसमान पर अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहा था।
आमदी नगर, भिलाई के "अगासदिया परिसर" में छत्तीसगढ़ के लोकप्रसिद्ध कलाकार और शब्दभेदी बाण के संधानकर्ता रहे, स्व. कोदूराम जी वर्मा की स्मृति में आयोजित "शरदोत्सव" कार्यक्रम अपने पूरे शबाब पर था। इसी बीच कार्यक्रम के संयोजक अंचल के सुविख्यात कथाकार डा. परदेशी राम वर्मा  जी माइक पर आकर मुझे कविता पाठ के लिए आमंत्रित किए।
शरद पूर्णिमा को महर्षि वाल्मीकि की जयंती भी होती है, इसलिए मैंने छत्तीसगढ़ के तुरतुरिया में उनके आश्रम होने की बात बताकर, उनके दुनिया के प्रथम कवि होने का स्मरण करा कर उनके दर्द से निकली कविता को आगे बढ़ाने का प्रयास इन पंक्तियों से किया -"जब-जब पांवों में कोई कहीं कांटा बन चुभ जाता है, दर्द कहीं भी होता हो गीत मेरा बन जाता है।"
गीत के समाप्त होते ही तालियों की गड़गड़ाहट मेरे कानों में सुनाई दी। स्टेज से उतरकर मैं नीचे जाने का प्रयास करने लगा, पर अपनी जगह से हिल नहीं पाया, वहीं पर गिरने लगा। तब कुछ लोग आगे बढ़कर मुझे सम्हाले और स्टेज से नीचे लाए। कुर्सी पर बिठाने का प्रयास किए, लेकिन मैं बैठ नहीं पाया, तब पास के कक्ष में ले जाकर मुझे जमीन पर लिटाया गया।
कुछ लोगों ने मुझसे प्रश्न किया- क्या पहले भी ऐसा हो चुका है? मैंने नहीं कहा। मेरी जुबान लड़खड़ाने लगी थी, तभी किसी के कहने की आवाज मेरे कानों में गूंजी -"जा इसे तो पैरालिसिस हो गया।"
गत वर्ष यह शरद पूर्णिमा 24 अक्टूबर को आई थी, अब के 13 अक्टूबर को है। लगभग एक वर्ष पूरा होने को है, तब से लेकर आज तक मैं एक बिस्तर पर ही हूँ।
हां, इस बीच इतना अवश्य हुआ कि हजारों मित्र और रिश्तेदार मुझे देखने के लिए आते रहे, अपनी दुआएं और शुभकामनाएं व्यक्त करते रहे, उन्हीं दुआओं के परिणाम स्वरूप अब तक मैं कुछ कुछ स्वस्थ हो गया हूँ। एकाद लकड़ी का सहारा लेकर थोड़ा बहुत चलफिर लेता हूँ, लेकिन अभी भी घर से अकेला कहीं बाहर जा पाने की स्थिति में नहीं आ पाया हूँ. पूर्ण रूप से स्वस्थ होने में अभी भी आप लोगों की दुआओं की आवश्यकता है।
शुभेच्छु
सुशील भोले, रायपुर
मो./व्हाट्सएप 9826992811

Wednesday 9 October 2019

गोदना की परंपरा और...

गोदना की परंपरा और शिव-पार्वती का छत्तीसगढ़ प्रवास..
छत्तीसगढ़ में गोदना की परंपरा उतनी ही पुरानी है, जितनी पुरानी यहां की सभ्यता है। ऐसा कहा जाता है कि शिव जी पार्वती के साथ लगभग 16 वर्षों तक छत्तीसगढ़ प्रवास पर थे, उसी समय इस गोदना प्रथा का यहां पर चलन प्रारंभ हुआ।

इसके संबंध में जो जनश्रुति मिलती है उसके अनुसार शिव जी पार्वती के साथ यहां निवास कर रहे थे। तब उनसे मिलने के लिए यहां के वनवासी और उनके भक्त आते थे। एक बार शिव जी ने अपने यहां भोज का आयोजन किया और सभी लोगों को अपने परिवार के साथ आने का न्यौता दिया।

भोज का आमंत्रण प्राप्त होने पर गोंड़ देवता अपनी पत्नी के साथ शिव जी के यहां गये। वहां खूब आव-भगत हुई। छककर खाना-पीना हुआ। वापस घर जाने के समय गोंड़ देवता अपनी पत्नी को, जो अन्य महिलाओं के साथ पीछे मुंह करके खड़ी थी, को पहचान नहीं पाये। उन्होंने डिल-डौल से अंदाज लगाकर एक महिला के कंधे पर हाथ रख दिया। वह महिला उसकी पत्नी नहीं, अपितु पार्वती निकली। उसे देखकर गोंड़ राजा को दुख हुआ, और उसने पार्वती माफी भी मांग ली।

पार्वती इस घटना से दुखी हुई, किन्तु भोलेनाथ गलती को महसूस कर मंद-मंद मुस्कुराए और इस तरह के धोखे से बचने के लिए महिलाओं को अलग-अलग आकार-प्रकार के गोदना गोदाने की सलाह दिए, तब से यहां की आदिवासी महिलाएँ अपने शरीर में विशेष पहचान बनाने और स्थाई श्रृंगार करने के लिए गोदना गोदाने लगीं।

इस जनश्रुति में कितनी सच्चाई है, इसे तो प्रमाणित तौर पर कहा नहीं जा सकता, लेकिन इस बात को असत्य भी नहीं कहा जा सकता। एक और जनश्रुति है, जिससे गोदना वाली परंपरा को बल मिलता है।

कहते हैं कि जब गणेश जी को प्रथम पूज्य का आशीर्वाद दे दिया गया तो उनके बड़े भाई कार्तिकेय रूठकर कैलाश छोड़कर दक्षिण भारत चले आये। ज्ञात रहे कि दोनों भाईयों के बीच इसके लिए प्रतियोगिता रखी गई थी कि जो भी पृथ्वी की पहली परिक्रमा कर आयेगा उसे ही प्रथम पूज्य का अधिकार दिया जायेगा। कार्तिकेय तो अपने मयूर पर उड़कर पृथ्वी की परिक्रमा करने लगे, लेकिन गणेश जी अपने माता-पिता की परिक्रमा कर उनके सामने बैठ गये। माता-पिता को भी पृथ्वी का रूप मानकर गणेश को प्रथम पूज्य का अधिकार दे दिया गया।

नाराज कार्तिकेय को मनाकर वापस कैलाश ले जाने के लिए शिव जी माता पार्वती के साथ सोलह वर्षों तक छत्तीसगढ़ के बस्तर इलाके में रहे। लेकिन  रूठे हुए कार्तिकेय को मना नहीं पाये। कार्तिकेय दक्षिण भारत में ही रम गये, और शिव धर्म का प्रचार-प्रसार करने लगे। दक्षिण भारत में इसीलिए कार्तिकेय की ही सबसे ज्यादा पूजा होती है, उन्हें यहाँ मुरुगन स्वामी के नाम से भी जाना जाता है।

जो लोग छत्तीसगढ़ की प्राचीनता को मात्र रामायण और महाभारत कालीन कहकर इसकी प्राचीनता को बौना बनाने का प्रयास करते हैं, उन लोगों की बुद्धि पर तरस आता है। जिस छत्तीसगढ़ में आज भी सृष्टिकाल की संस्कृति जीवंत रूप में हम सबके समक्ष उपस्थित है, उसकी प्राचीनता मात्र द्वापर या त्रेता तक ही सीमित कैसे हो सकती है। सतयुग तक विस्तारित कैसे नहीं हो सकती?

ज्ञात रहे कि छत्तीसगढ़ की मूल संस्कृति, जिसे मैं आदि धर्म कहता हूं वह सृष्टिकाल की संस्कृति है। युग निर्धारण की दृष्टि से कहें तो सतयुग की संस्कृति है, जिसे उसके मूल रूप में लोगों को समझाने के लिए हमें फिर से प्रयास करने की आवश्यकता है, क्योंकि कुछ लोग यहां के मूल धर्म और संस्कृति को अन्य प्रदेशों से लाये गये ग्रंथों और संस्कृति के साथ घालमेल कर लिखने और हमारी मूल पहचान को समाप्त करने की कोशिश कर रहे हैं।

मित्रों, सतयुग की यह गौरवशाली संस्कृति आज की तारीख में केवल छत्तीसगढ़ में ही जीवित रह गई है, उसे भी गलत-सलत व्याख्याओं के साथ जोड़कर भ्रमित किया जा रहा। मैं चाहता हूं कि मेरे इसे इसके मूल रूप में पुर्नप्रचारित करने के इस सद्प्रयास में आप सब सहभागी बनें...।

सुशील भोले
आदि धर्म जागृति संस्थान
संजय नगर, रायपुर (छ.ग.)
मोबा. नं.098269-92811