Wednesday 26 June 2019

सुशील भोले से जयंत साहू की बातचीत....

स्मृति चर्चा ...
सांस्कृतिक जागरण का शंखनाद है दाऊ जी का 'चंदैनी गोंदा’: सुशील भोले
छत्तीसगढ़ की मूल संस्कृति और छत्तीसगढ़ी अस्मिता पर बेबाकी से कलम चलाते हुए वर्तमान समय में हुई छत्तीसगढ़ी कला, संस्कृति और साहित्य लेखन को सिरे से खारिज कर कोई व्यक्ति यह कह दे कि हमारी संस्कृति को गलत तरीके से लिखा गया है, इसका पुनर्लेखन होना चाहिए तो समझ लेना वही शख्स वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुशील भोले जी हैं। वैसे तो कई साहित्यकारों ने छत्तीसगढ़ को कागजों पर उतारा है किन्तु जिस दृष्टि से भोले जी ने छत्तीसगढ़ की संस्कृति को देखा और लिखा वह अन्य किसी के कलम में नजर नहीं आता है। भोले जी माटी के जुड़े हुए व्यक्ति हैं और साहित्य सृजन भी छत्तीसगढ़ की माटी के लिये करते है। लेखन के साथ-साथ 1987 से 'मयारू माटी’ नामक छत्तीसगढ़ी मासिक पत्रिका का संपादन करते हुये कई नये कलमकारों को अवसर दिये हैं, तथा अनेक पत्र-पत्रिकाओं में सेवा देने के बाद अब छत्तीसगढ़ की मूल संस्कृति के प्रचार-प्रसार में लगे श्री सुशील भोले जी का छत्तीसगढ़ के माटी पुत्रों से काफी नजदीकियां रही हैं । छत्तीसगढ़ी लोक कलामंच के सर्जक दाऊ रामचंद्र देशमुख जी से भी उनका गहरा नाता रहा है। छत्तीसगढ़ी साहित्यकार और पत्रकार के नाते दाऊ जी से अक्सर छत्तीसगढ़ की कला, संस्कृति और साहित्य पर लंबी चर्चाएं होती थीं। आज छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ साहित्यकार सुशील भोले जी दाऊ रामचंद्र देशमुख जी से जुड़ी कुछ स्मृतियां हमारे साथ साझा कर रहे हैं -  
0 दाऊ रामचंद्र देशमुख जी से आपका परिचय कब, कैसे और कहां हुआ?
00 साहित्य और पत्रकारिता से जुड़े होने के कारण मीडिया के माध्यम से तो जानते थे किन्तु प्रत्यक्ष मुलाकात मयारू माटी पत्रिका प्रकाशन के दौरान 1987 में हुई। बात उन दिनों की है जब मैं छत्तीसगढ़ी भाषा में मासिक पत्रिका की नींव रख रहा था और प्रथम अंक के विमोचन के लिये मुझे ऐसे व्यक्ति की तलाश थी जिनका छत्तीसगढ़ी भाषा, संस्कृति और साहित्य में उल्लेखनीय योगदान हो। तभी वरिष्ठ साहित्यकार श्री टिकेन्द्रनाथ टिकरिहा जी ने सुझाव दिए कि दाऊ रामचंद्र देशमुख जी के हाथों विमोचन कराया जाए। फिर मैं टिकेन्द्रनाथ टिकरिहा जी के साथ दाऊ जी के गांव बघेरा गया। वहां उनसे मिलकर मयारू माटी के बारे में बताया कि हम लोक छत्तीसगढ़ी भाषा में एक पत्रिका शुरू कर रहे हैं और आपके हाथों से ही विमोचन कराना चाहते हैं। दाऊ जी छत्तीसगढ़ी पत्रिका का नाम सुनकर खुश हो गये और स्वीकृति देते हुए मुझसे पूछने लगे कि और कौन-कौन आ रहे है। मैंने कहा आप हैं और दाऊ महासिंग चंद्राकर जी रहेंगे। दाऊ जी ने एक सुझाव दिया कि कार्यक्रम की अध्यक्षता नवभारत अखबार के स्थानीय संपादक कुमार साहू जी से करा लो, मेरा नाम बता कर मिल लेना मना नहीं करेंगे। वहां से लौटने के बाद मैंने नवभारत के तत्कालीन संपादक कुमार साहू जी से मिला और सहर्ष उनकी भी सहमती मिल गई। दाऊ रामचंद्र देशमुख, दाऊ महासिंग चंद्राकर, हरि ठाकुर, टिकेन्द्रनाथ टिकरिहा, सुशील यदु और पंचराम सोनी के साथ और भी कई वरिष्ठ साहित्यकारों की उपस्थिति में 9 दिसंबर 1987  को 'मयारू माटी’ का विमोचन हुआ।
0 दाऊ जी के व्यक्तित्व का कौन-सा पहलू आपको अधिक प्रभावित करता है?
00 दाऊ जी के छत्तीसगढ़ी लोक कला के प्रति लगाव और समर्पण से मैं काफी प्रभावित था। दाऊ जी कला मर्मज्ञ तो थे, साथ ही उनके भीतर एक बहुत अच्छा लेखक और चिंतक भी छुपा हुआ था। उनका एक विशेष लेख मयारू माटी में प्रकाशित भी हुआ, जिसमें उन्होंने चंदैनी गोंदा के विषय में अपना अनुभव लिखा था कि किस प्रकार वे कला के क्षेत्र में आये और कैसे चंदैनी गोंदा का सृजन हुआ।
0 दाऊ जी की किन-किन प्रस्तुतियों को अपने देखा है, कहां और कब?
00 चंदैनी गोंदा का नाम तो शुरूआती दौर से ही बहुत सुना था किन्तु मंचीय प्रस्तुति देखने का अवसर 1987 में ही मिला। जब दाऊ जी से मेरी पहली मुलाकात हुई तो उन्होने बताया कि दुर्ग के पास एक गांव में चंदैनी गोंदा का कार्यक्रम है। मेरी दिली इच्छा भी थी कार्यक्रम देखने की और दाऊ जी ने आमंत्रित भी कर दिए तो मैं और मेरे एक साथी साहित्यकार चंद्रशेखर चकोर हम दोनों रायपुर से दुर्ग कार्यक्रम देखने गये थे।
0 दाऊ जी के अवदान को आप किस तरह से रेखांकित करेंगे?
00 दाऊ जी ने छत्तीसगढ़ी कला, संस्कृति और साहित्य के लिये बहुत बड़ा काम किया है। कार्यक्रम की शुरूआत में वें हमेशा छत्तीसगढ़ी के साहित्यकारों का सम्मान करते थे। दाऊ जी कला के प्रति समर्पित तो थे साथ ही साहित्य को भी प्रोत्साहन देते थे। उन्होंने सांस्कृतिक मंच के लिये अद्भुत काम किया है, इसमें कोई दो मत नहीं है कि दाऊ जी से ही प्रेरणा लेकर कई अन्य सांस्कृतिक मंचों का उदय हुआ। 
0 1971 में चंदैनी गोंदा की प्रस्तुति से पहले समाचार पत्रों की स्थिति छत्तीसगढ़ के बारे में कैसी थी?
00 प्रकाशन का माध्यम कम था गिने चुने ही अखबार प्रकाशित होते थे वह भी हिन्दी में। 1971 में चंदैनी गोंदा की प्रस्तुति के बाद छत्तीसगढ़ में छत्तीसगढ़ी लोक कला का ऐसा माहौल बना कि दाऊ जी के कार्यक्रमों की प्रशंसा छत्तीसगढ़ अंचल से देश की राजधानी नई दिल्ली तक के अखबारों में भी प्रमुखता से प्रकाशित होने लगी। जब भी मैं बघेरा जाता था तो दाऊ जी उन अखबारों के कतरन मुझे दिखाया करते थे।
0 छत्तीसगढ़ के जनमानस में ‘चंदैनी गोंदा ’ का क्या प्रभाव पड़ा?
00 चंदैनी गोंदा का लोक जीवन में बहुत बड़ा प्रभाव है उन्ही की बदौलत ही तो मस्तुरिहा जी जैसे कई गीतकारों और गायकों को नाम और पहचान मिली। चंदैनी गोंदा का गीत रेडियो के 'सुर श्रृंगार’ कार्यक्रम में हमेशा बजता था। रेडियो का बड़ा क्रेज था गांव-गांव में लोग रेडियो सुनते थे। उन दिनों राष्ट्रीय स्तर का एक कार्यक्रम आता था रेडियो सीलोन से 'बिनाका गीत माला’ नाम से जो छत्तीसगढ़ में भी बहुत चर्चित था। लेकिन जब सुर श्रृंगार में चंदैनी गोंदा के छत्तीसगढ़ी गीत बजने लगे तो पूरे छत्तीसगढ़ में उस कार्यक्रम की इतनी दीवानगी छाई कि घर और दुकानों से लेकर खेत खलिहानों तक, कई लोग तो सफर के दौरान कंधे में रेडियो लटकाये चलते थे कि कहीं सुर श्रृंगार कार्यक्रम छूट न जाये। इस तरह छत्तीसगढ़ी को शिष्ट और सम्मानित दर्जा दिलाने में चंदैनी गोंदा की अहम भूमिका रही है। इससे पहले तक छत्तीसगढ़ी गीत और साहित्य को छोटी नजरों से देखा जाता था चंदैनी गोंदा के बाद ही जनमानस का नजरिया बदला है।
0 दाऊ रामचंद्र देशमुख जी के ‘चंदैनी गोंदा’ को आप एक साहित्यकार के नाते किस रूप में देखते हैं?
00 चंदैनी गोंदा केवल छत्तीसगढ़ी गीत-संगीत प्रस्तुत करने वाली मंडली नहीं वरन एक अभियान था। ये बाते स्वयं दाऊ जी ने मुझसे कई बार कही है, मेरी उनसे इतनी आत्मियता बन गई थी कि कई रात मैं बघेरा में रूका हूं। दाऊ जी के प्रेरणा स्त्रोत डॉ. खूबचंद बघेल जी थे, जिनके निर्देशानुसार ही उन्होंने सांस्कृतिक आंदोलन शुरू किया। डॉ. खूबचंद बघेल जी का नाटक जरनैल सिंह, करम छड़हा आदि का मंचन चंदैनी गोंदा में होता था। मनोरंजन तो एक माध्यम था असल अभियान तो छत्तीसगढ़ की अस्मिता, संस्कृति और स्वाभिमान को जगाना था।
0 पृथक छत्तीसगढ़ राज्य आंदोलन में दाऊ जी की भूमिका और अब राज्य बनने के बाद क्या छत्तीसगढ़ की विभूतियों को उचित सम्मान दे पा रही है सरकार?
00 दाऊ रामचंद्र देशमुख जी तो छत्तीसगढ़ राज्य आंदोलन में 1971 से ही कूद चुके थे मिशन ‘चंदैनी गोंदा’ लेकर। बहरहाल इस बात को तो सभी मानते है कि पृथक छत्तीसगढ़ राज्य सांस्कृतिक और साहित्यिक आंदोलन का परिणाम है तो इस हिसाब से उनकी भूमिका भी जग जाहिर है। रही बात अलग छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद छत्तीसगढ़ की विभूतियों के मान सम्मान की तो यह सरकार की जिम्मेदारी बनती है और यदि सरकार भी अपनी जिम्मेदारी को ठीक तरह से नहीं निभायेगा तो फिर आंदोलन होगा। बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि इतने वर्षों बाद भी हम दाऊ जी की विरासत को सहेज नहीं पाये। वैसे वर्तमान सरकार से बहुत कुछ उम्मीद है और इस दिशा में पहल भी हो रहा है। आज यह जानकर प्रसन्नता हो रही है कि सुरेश देशमुख भैया उनके उपर काम कर रहे हैं, मेरी उनको बहुत-बहुत शुभकामनाएं हैं। निश्चित ही उनके प्रयासों से आज की नई पीढ़ी दाऊ रामचंद्र देशमुख जी के व्यक्तित्व और कृतित्व को जानेंगे। 0
- जयंत साहू, डूण्डा रायपुर छ.ग.
9826753304
jayantsahu9@gmail.com

Tuesday 25 June 2019

छत्तीसगढ़ी म पद्य लेखन....

छत्तीसगढ़ी म पद्य लेखन....
दुनिया म जतका भाखा हे,  सबो के लेखन अउ उच्चारण म कोनो न कोनो किसम के मौलिकता जरूर हे, एकरे सेती वोकर आने सबले हट के अलग अउ स्वतंत्र पहचान बनथे।
हमर छत्तीसगढ़ी के पद्य लेखन म घलो एक अलग अउ स्वतंत्र चिन्हारी हे, एकर लेखन स्वर अउ ताल के माध्यम ले लिखे के हे। छत्तीसगढ़ी पद्य ल स्वर अउ ताल बद्ध लिखे जाथे। महान संगीतकार स्व. खुमान लाल जी साव एकर संबंध म एक बहुत बढ़िया उदाहरण देवंय। उन बतावंय के "चंदैनी गोंदा " के रिकार्डिंग खातिर जब वोमन मुंबई गे राहंय, त एक करमा गीत म ताल पांच मात्रा के बाजय। उन बतावंय के दुनिया म अउ कहूं पांच मात्रा के विषम ताल नइ होवय। सब म दू अउ चार मात्रा के सम ताल होथे।
उन बतावंय, बंबई के जतका संगीतकार उहां  राहंय, सब माथा धर लिए राहंय, वोमन म के एको संगीतकार वो पांच मात्रा के ताल ल बजा नइ पाइन।
आज छत्तीसगढ़ी म घलो अपन मौलिक चिन्हारी ल छोड़ के दूसर भाषा मन के परंपरा ल लादे के रिवाज चल गे हवय। दूसर भाषा के लेखन शैली ल थोर बहुत अपनाना तो स्वागत योग्य बात आय। फेर आरुग उहिच ल हमर मूड़ में खपल देना ल स्वीकार नइ करे जा सकय। आजकाल छंद के नांव म हिन्दी अउ उर्दू के परंपरा के जइसन बढ़वार देखे ले मिलत हे, वो ह सोचे के बात आय।
कोनो भी भाषा के विकास अउ सम्मान वोकर खुद के लेखन रूप के बढ़वार हो सकथे, आने के परंपरा ल थोपना नहीं।
-सुशील भोले
संजय नगर, रायपुर
मो. 9826992811

Tuesday 18 June 2019

रामगढ़ की नाट्य शाला...

देश की प्राचीनतम् नाट्यशाला रामगढ़ छत्तीसगढ़ में..

जहां आषाढ़ मास के प्रथम दिवस नाट्यमंचन किया जाता है...
न्यायधानी बिलासपुर से 170 कि.मी. दूर तुर्रापानी बस स्टाफ से 3 कि.मी.पैदल रामगढ़ की पहाड़ी जिसका आकार दूर से ही एक सूंड उठाए हुए हाथी की शक्ल में  दिखाई दे जाती है। इस पहाड़ी को ही रामगढ़ कहते हैं। यह सरगुजा जिले के उदयपुर ब्लाक में है। छत्तीसगढ़ शासन यहां प्रतिवर्ष आषाढ़ मास के प्रथम दिवस पर राष्ट्रीय स्तर की नृत्यांगनाओं को आमंत्रित कर नृत्य आयोजन करती है।
मान्यताओं के अनुसार महाकवि कालिदास ने जब राजा भोज से नाराज हो उज्जैनी का परित्याग किया था, तब यहीं महाकवि कालीदास ने शरण लिया एवं महाकाब्य "मेघदूतम्" की रचना  इसी जगह पर की। यहीं पर एक नाट्यशाला जो सीताबेंगरा गुफा के ऊपर में है, जिसे देखकर यह आभाष होता है कि प्राचीन में नाट्यशाला के रूप उपयोग किया जाता रहा होगा, पूरी ब्यवस्था ही कलात्मक है। गुफा के बाहर 50-60 लोगों के बैठने परिसर अर्धचन्द्राकार  में आसन बने हुए है। गुफा में प्रवेश स्थल की फर्श पर 2 छेद है , जिनका उपयोग सम्भवतः पर्दे में लगाए जाने वाली लकड़ी के डंडों को फंसाने के लिए किया जाता था।पूरा परिदृश्य रोमन रंगभूमि की याद दिलाता है।
सुशील भोले

Monday 17 June 2019

भूपेश सरकार का छह माह पूरा....

डंका बजगे माटी पुत के, गाँव-गाँव आगे सुराज
हमर मुंह के कौंरा ल अब नइ झपटय कोनो बाज
नइ अदियावन सहीं, कोनो अब डरभय म राहय
लोकतंत्र के जय-जय होगे, हमर जी सरी राज
(भूपेश सरकार का छह माह पूरा होने पर)
सुशील भोले
मोबा. नं. 098269-92811

Thursday 13 June 2019

सुकरात और आईना....

सुकरात और आईना....
              दार्शनिक सुकरात दिखने में कुरुप थे। वह एक दिन अकेले बैठे हुए आईना हाथ मे लिए अपना चेहरा देख रहे थे।तभी उनका एक शिष्य कमरे मे आया; सुकरात को आईना देखते हुए देख उसे कुछ अजीब लगा। वह कुछ बोला नही सिर्फ मुस्कराने लगा।
विद्वान सुकरात शिष्य की मुस्कराहट देख कर सब समझ गए और कुछ देर बाद बोले, *”मैं तुम्हारे मुस्कराने का मतलब समझ रहा हूँ…….शायद तुम सोच रहे हो कि मुझ जैसा कुरुप आदमी आईना क्यों देख रहा है ?”*
शिष्य कुछ नहीं बोला, उसका सिर शर्म से झुक गया।
        सुकरात ने फिर बोलना शुरु किया , *“शायद तुम नहीं जानते कि मैं आईना क्यों देखता हूँ”*
*“नहीं ”,* शिष्य बोला ।
गुरु जी ने कहा  *“मैं कुरूप हूं इसलिए रोजाना आईना देखता हूँ। आईना देख कर मुझे अपनी कुरुपता का भान हो जाता है। मैं अपने रूप को जानता हूं। इसलिए मैं हर रोज कोशिश करता हूं कि अच्छे काम करुं ताकि मेरी यह कुरुपता ढक जाए।"*
       शिष्य को ये बहुत शिक्षाप्रद लगी । परंतु उसने एक शंका प्रकट की-
*” तब गुरू जी, इस तर्क के अनुसार सुंदर लोगों को तो आईना नही देखना चाहिए ?”*
                   *“ऐसी बात नही!”* सुकरात समझाते हुए बोले,
             *” उन्हे भी आईना अवश्य देखना चाहिए”! इसलिए ताकि उन्हे ध्यॉन रहे कि वे जितने सुंदर दीखते हैं उतने ही सुंदर काम करें, कहीं बुरे काम उनकी सुंदरता को ढक ना ले और परिणामवश उन्हें कुरूप ना बना दे ।*
    शिष्य को गुरु जी की बात का रहस्य मालूम हो गया। वह गुरु के आगे नतमस्तक हो गया।
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Monday 10 June 2019

शिवलिंग की वैज्ञानिकता....

एक वैज्ञानिक विश्लेषण....
शिवलिंग की वैज्ञानिकता ...
भारत का रेडियोएक्टिविटी मैप उठा लें, तब हैरान हो जायेगें ! भारत सरकार के नुक्लिएर रिएक्टर के अलावा सभी ज्योत्रिलिंगो के स्थानों पर सबसे ज्यादा रेडिएशन पाया जाता है।
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शिवलिंग और कुछ नहीं बल्कि न्यूक्लिअर रिएक्टर्स ही हैं, तभी उन पर जल चढ़ाया जाता है ताकि वो शांत रहे।
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महादेव के सभी प्रिय पदार्थ जैसे किए बिल्व पत्र, आक, आकमद, धतूरा, गुड़हल, आदि सभी न्यूक्लिअर एनर्जी सोखने वाले हैं। क्यूंकि शिवलिंग पर चढ़ा पानी भी रिएक्टिव हो जाता है, तभी जल निकासी नलिका को लांघा नहीं जाता। भाभा एटॉमिक रिएक्टर का डिज़ाइन भी शिव लिंग की तरह है।
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शिवलिंग पर चढ़ाया हुआ जल नदी के बहते हुए जल के साथ मिलकर औषधि का रूप ले लेता है। तभी हमारे बुजुर्ग हम लोगों से कहते कि महादेव शिव शंकर अगर नराज हो जाएं गे तो प्रलय आ जाएगी।
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ध्यान दें, कि हमारी परम्पराओं के पीछे कितना गहन विज्ञान छिपा हुआ है। ये इस देश का दुर्भाग्य है कि हमारी परम्पराओं को समझने के लिए जिस विज्ञान की आवश्यकता है, वो हमें पढ़ाया नहीं जाता और विज्ञान के नाम पर जो हमें पढ़ाया जा रहा है, उससे हम अपनी परम्पराओं को समझ नहीं सकते है।
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जिस संस्कृति की कोख से हमने जन्म लिया है, वो सनातन है, विज्ञान को परम्पराओं का जामा इसलिए पहनाया गया है ताकि वो प्रचलन बन जाए और हम भारतवासी सदा वैज्ञानिक जीवन जीते रहें।

ॐ नमः शिवाय।

Sunday 2 June 2019

तोरे भरोसा चुल्हा सजथे तोरे भरोसा खार...

घर-बाहिर जम्मो के जोखा तोरे बांटा आय
जनम देवइया तहींच अउ पालनहारी माय
तहीं घर के साज-संवांगा, बाहिर के रखवार
तोरे भरोसा चुल्हा सजथे, तोरे भरोसा खार
-सुशील भोले
संजय नगर, रायपुर
मो./व्हा. 9826992811

Saturday 1 June 2019

रिश्ता अइसन ले बांचथे...

सरी मंझनिया साथ देवइया केवल बिरला होथे
कोन हे संगी हित-पिरित एकरे ले परखो मिलथे
रिश्ता-नाता कहत भर के भाई-भतीजा बोचकथे
तब बिन मुंह के अइसन संगी ले रिश्ता ह बांचथे
-सुशील भोले
संजय नगर, रायपुर
मो/व्हा. 9826992811