सुरहुत्ती के दीया...
कातिक अमावस के मनाए जाने वाले परब ल हमर छत्तीसगढ़ म 'सुरहुत्ती' के नॉव ले जाने जाथे. सुरहुत्ती के दिन हमर इहाँ 'दीपदान' या कहिन के दीया चघाय के परंपरा हे. गाँव के नान्हे लइका मन ए दिन अपन तीर-तखार के जम्मो लोगन, पारा-परोसी अउ नता-रिश्ता जम्मो घर जा-जा के उंकर घर के तुलसी चौरा या अउ कोनो पबरित जगा म बरत दीया ल ले जाके मढ़ाथें. ए दिन घर के सियान मन लइका मनला कुंआ, तरिया, मंदिर-देवाला, घर के जम्मो खास-खास ठउर के संगे-संग बारी-बखरी अउ खेत के मेड़ मन म घलो दीया चढ़ाय खातिर कहिथें.
ए बेरा म पहिली जेन दीया बनाय जाय वोहा धान के नवा फसल ले निकले चांउर पिसान के बनाए जाय. अब धीरे-धीरे ए परंपरा म बदलाव देखे बर मिलत हे. अब तो लोगन माटी के बने दीया ले ही काम चला लेथे. मोला सुरता हे. हमन जब लइका राहन त पिसान के जेन दीया चघाय राहन, वोहा बाती म जल के सेंकाय असन हो जावय तेकर तेल ल झर्रा के खा घलो देवत रेहेन. ए रतिहा सियान मन हमन ल रात भर जागे बर काहय, त रात भर जागे बर कतकों किसम के उदिम करत राहन, जेमा पिसान के सेंकाय दीया मनला चारों मुड़ा किंजर-किंजर के खाना, जुआ ठउर मन म जाके जुआ खेले बर भिड़ जाना या खेलइया मनला ठाढ़ होके देखत रहना. गौरा-ईसरदेव बिहाव के बाजा गदकय तहाँ ले उहू डहार जाके 'एक पतरी रैनी- बैनी... अउ भड़भड़ बोकरा.. ' कहिके हुंत करावत लोगन मन संग संघर जाना, सब शामिल राहय.
हमर इहाँ नवा फसल ल अपन ईष्टदेव ल समर्पित करे के परंपरा हे, जेला इहाँ 'नवा खाई' के रूप म जाने जाथे. हमर छत्तीसगढ़ म ए नवा खाई के परंपरा ल अलग अलग समाज के लोगन तीन अलग अलग बेरा म मनाथें. इहाँ के ओडिशा सीमा ले लगे लोगन जेन उत्कल संस्कृति ल जीथें वोमन एला ऋषि पंचमी के मनाथें. गोंडी संस्कृति ल जीने वाले मन एला दशहरा के पहिली अष्टमी/नवमी के मनाथें अउ मैदानी भाग के लोगन देवारी परब म अन्नकूट के रूप म नवा खाई मनाथें.
सुरहुत्ती परब म जेन नवा फसल के पिसान के दीया बनाए जाथे, उहू ह इही परंपरा के एक किसम के निर्वहन आय.
-सुशील भोले
संजय नगर, रायपुर
मो/व्हा. 9826992811
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सुरहुत्ती के दीया ...
कार्तिक अमावस्या को मनाया जाना वाला पर्व दीपावली छत्तीसगढ़ में सुरहुत्ती के नाम पर जाना जाता है। इस अवसर पर यहाँ दीपदान की परंपरा है। गांव के छोटे-छोटे बच्चे अपने आसपास और परिचितों के घरों में एक छोटा सा जलता हुआ दीपक लेकर जाते हैं, और उनके यहां के तुलसी चौंरा पर या किसी अन्य पवित्र स्थल पर उसे रख आते हैं। घर के मुखिया बच्चों को कुंआ, तालाब, मंदिर, घर के प्रमुख स्थलों और बाड़ी एवं खेतों आदि में भी दीया रखने के लिए निदेर्शित करते हैं।
इस अवसर पर जो दीपक बनाया जाता है, वह धान की नई फसल से प्राप्त चावल के आटे से बना होता है, लेकिन नई पीढ़ी के लोग इस बात को विस्मृत करते जा रहे हैं। इसलिए वे मिट्टी से बने हुए दीपक या अन्य साधनों से बने दीए का इस्तेमाल कर लेते हैं।
ज्ञात रहे हमारे यहां नई फसल को अपने ईष्टदेव को समर्पित कर उसे प्रसाद के रूप में ग्रहण करने की परंपरा है, जिसे हम *नवा खाई* के नाम पर जानते हैं। यहां नवा खाई को तीन अलग-अलग अवसरों पर मनाने का रिवाज है। कई लोग ऋषि पंचमी के अवसर पर नवा खाई मनाते हैं, कई दशहरा के अवसर पर मनाते हैं और कई दीपावली के अवसर पर।
सुरहुत्ती के अवसर पर नई फसल से प्राप्त चावल के आटे से बनाये जाने वाला दीपक भी इसी परंपरा का निर्वाह है। हम लोग जब गाँव में रहते थे. इसी नए चावल के बने दीये को बुजुर्गों के द्वारा निर्देशित स्थानों पर रखते थे. और जब दीया अपनी रोशनी बिखरने के पश्चात शांत हो जाते थे. तब हम लोग उस चावल आटे के दीए को, जो तेल और बाती से जलने की प्रक्रिया में एक प्रकार से रोटी की तरह सिंक से जाते थे. उसे उठाकर हम लोग बड़े चाव के साथ खा जाया करते थे.
* सुशील भोले -9826992811
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