Thursday, 10 September 2020

काव्योपाध्याय हीरालाल चन्नाहू...

11 सितम्बर स्मरण दिवस....
छत्तीसगढ़ी के प्रथम व्याकराणाचार्य - काव्योपाध्याय हीरालाल चन्नाहू

छत्तीसगढ़ में 2004 में राज्य सरकार ने राजभाषा का दर्जा दिया तो उसकी विकास यात्रा को नई गति मिली। छत्तीसगढ़ी भाषा में लेखन और प्रकाशन में बढ़ोत्तरी हुई लोकभाषा छत्तीसगढ़ी को राजभाषा के सिंहासन तक पहुंचाने में अनेक विद्वानों ने लम्बे समय तक साधना की। डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा और डॉ. शंकर शेष ने छत्तीसगढ़ी के भाषा वैज्ञानिक अध्ययन पर महत्वपूर्ण ग्रंथों की रचना की। पंडित रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय के भाषा विज्ञान विभाग के संस्थापक अध्यक्ष डॉ. रमेश चंद्र मेहरोत्रा ने छत्तीसगढ़ी को भाषा के रूप में स्थापित करने में काफी योगदान दिया। पंडित लोचन वे प्रसाद पांडेय और पद्मश्री पंडित मुकुटधर पांडेय ने छत्तीसगढ़ी को समृद्ध बनाने के लिए उसमें श्रेष्ठ रचनाएं लिखी और विश्व विख्यात ग्रंथों का छत्तीसगढ़ी में अनुवाद किया।
छत्तीसगढ़ में जो राजभाषा बनाने अथवा पूर्ण भाषा के रूप में स्वीकार करने जब चर्चा तक नहीं थी तब छत्तीसगढ़ के एक महान सपूत श्री हीरालाल ने छत्तीसगढ़ी के व्याकरण की रचना कर दी थी। यह कितना महत्वपूर्ण ग्रंथ था इसका अनुमान इस तथ्य से लगता है कि उसका अंग्रेजी में अनुवाद सर जॉर्ज ग्रियर्सन ने किया। श्री हीरालाल को उनके योगदान के लिए अपने समय की प्रसिद्ध उपाधि काव्योपाध्याय प्रदान की गई। श्री हीरालाल का जन्म 1856 ईस्वी में रायपुर में हुआ। आपके पिता श्री बालाराम एक व्यापारी थे। चंद्रनाहू कुर्मी समाज में उनका बड़ा सम्मान था। श्री बालाराम के आठ बच्चों में हीरालाल सबसे बड़े थे श्री हीरालाल के घर का वातावरण पवित्र था। माता जी बड़ी धर्मपरायण थीं। बचपन से ही हीरालाल में पढ़ने की लगन थी आपने 1874 में मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की। अगले ही वर्ष उन्हें रायपुर के जिला स्कूल में सहायक शिक्षक की नियुक्ति मिल गई।
पढ़ाने के साथ ही उन्हें पढ़ने में भी बहुत आनंद आता था। छत्तीसगढ़ी तो उनकी मां बोली थी उन्होंने अंग्रेजी, संस्कृत, उड़िया, गुजराती, बंगाली, मराठी, उर्दू आदि भाषाओं का गंभीर अध्ययन किया। रायपुर और फिर बिलासपुर में अध्ययन करने के बाद श्री हीरालाल धमतरी के एंग्लो वर्नाकुलर टाउन स्कूल में प्रधानाध्यापक हो गये। धमतरी में उन्होंने स्थायी रूप से रहने का मन बना लिया। प्रधान पाठक वह 1882 में हो गये थे। पढ़ने-पढ़ाने के साथ ही वे धमतरी के सार्वजनिक कार्यक्रमों में भी सक्रिय रहते थे, वे श्रेष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता थे, जिससे उन्हें बहुत प्रतिष्ठा मिली। वे धमतरी नगरपालिका के अध्यक्ष भी रहे।
छत्तीसगढ़ी के व्याकरण की रचना का कार्य उन्होंने 1881 में शुरु किया, जिसे 1885 में उन्होंने पूरा कर लिया। प्रसिद्ध लेखक और इतिहासकार पंडित लोचन प्रसाद पांडेय ने इस व्याकरण पर एक महत्वपूर्ण लेख लिखा। प्रसिद्ध भाषाविद सर जार्ज ग्रिर्यसन ने उसका अंग्रेजी में अनुवाद किया और उसे ‘जर्नल ऑफ एशियाटिक सोसायटी ऑफ’ बंगाल में प्रकाशन के लिए भेजा। सन् 1890 में उसका प्रकाशन हुआ तो श्री हीरालाल की गिनती देश के प्रमुख व्याकरण शास्त्रियों में होने लगी। पंडित लोचन प्रसाद पांडेय ने लिखा कि सर जॉर्ज ग्रियर्सन ने इस व्याकरण की जी खोल कर प्रशंसा की। श्री पांडेय ने अपने लेख में कहा, ‘हीरालाल जी अध्ययनशील स्वभाव के। वे अनेक भाषाओं के ज्ञाता थे श्रेष्ठ भाषाशास्त्री थे। सन् 1885 में बंगाल अकादमी ऑफ म्यूजिक के महाराजा सर सुरेंद्र मोहन ठाकुर ने उन्हें नवकांड दुर्गायन के लेखन के लिए काव्योपाध्याय की पद्वी प्रदान की। छत्तीसगढ़ी उन्हें छत्तीसगढ़ के प्रथम वैयाकरणी के रूप में सदैव याद रखेगा।’
सर जॉर्ज ग्रियर्सन ने श्री हीरालाल के छत्तीसगढ़ी व्याकरण का अंग्रेजी में अनुदित उपन्यास दो खंडों में प्रकाशित कराया तो हीरालाल जी का यश तो चारों तरफ फैला ही, स्वयं उनमें भी एक नया आत्मविश्वास जाग उठा। वह लेखन के कार्य को अधिक गंभीरता से लेने लगे। वे गीत एवं कविताएं भी लिखते थे। सन् 1881 में उनकी पुस्तक ‘शाला गीत चंद्रिका’ लखनऊ के नवल किशोर प्रेस ने प्रकाशित किया। हिंदी के अनेक साहित्यकारों ने उनकी प्रतिभा को पहचाना। लेखन में उनकी रूचि बढ़ती गई। दोनों की शैली में श्री हीरालाल ने दुर्गा सप्तशती का रूपांतरण किया। इस धार्मिक पुस्तक का नाम उन्होंने 'दुर्गायन' रखा। काव्योपाध्याय सम्मान उन्हें इसी काव्य कृति पर मिला था। उन दिनों बंगाल कला, साहित्य एवं संस्कृति का महत्वपूर्ण केंद्र था। बंगाल का विद्वत समाज सहज ही किसी से प्रभावित नहीं होता था। बहुत सूक्ष्म परीक्षण के पश्चात् ही वह किसी लेखक तथा उसकी पुस्तक को मान्यता देता था।
‘दुर्गायन’ के प्रकाशन के बाद बंगाल संगीत अकादमी, जो ‘बंगाल अकादमी ऑफ म्यूजिक’ के नाम से दूर-दूर तक विख्यात थी ने एक भव्य सम्मान समारोह आयोजित किया, राजा सुरेंद्र मोहन ठाकुर की पहल पर उसमें श्री हीरालाल को आमंत्रित करके उनका अभिनंदन किया था। ग्यारह सितम्बर, 1884 में आयोजित उस ऐतिहासिक समारोह में उन्हें एक स्वर्ण पदक सहित काव्योपाध्याय की उपाधि प्रदान की गई।
श्री हीरालाल सार्वजनिक जीवन भेंट लेखन दोनों में इतने सक्रिय रहने लगे कि अपने स्वास्थ्य की देखभाल का समय नहीं निकाल पाते थे। वे धमतरी की डिस्पैंसरी कमेटी के सभापति के रूप में नागरिकों के स्वास्थ्य को तो पूरा ध्यान रखते, परंतु अपने शरीर के प्रति असावधान होते गाय। परिणाम यह हुआ कि उनका स्वास्थ्य बिगड़ने लगा। परंतु उस स्थिति में भी लिखने-पढ़ने के कार्य को उन्होंने जारी रखा। बीमारी की हालत में ही उनकी तीसरी पुस्तक ‘गीत रसिक’ शीर्षक से प्रकाशित हुई। इसके बाद उनकी दो और पुस्तकें ‘अंग्रेजी रायल रीडर खंड-1 और अंग्रेज रायल रीडर खण्ड-दो’ प्रकाशित हुई। ये मुख्यतः विद्यार्थियों के लिए उपयोग पुस्तकें थीं।
श्री हीरालाल बड़े दयालु और परोपकारी थे। दीन-दुखियों की बहुत सहायता करते थे। दुर्भाग्य से उनका पारिवारिक जीवन सुखी न रहा। उनके दो विवाह हुए परंतु दोनों ही पत्नियां अधिक समय तक जीवित नहीं रह सकीं। दोनों में किसी के भी कोई संतान नहीं हुई, इसलिए हीरालाल जी संतान-सुख से वंचित रहे। परंतु अपने निजी जीवन के अभाव से वह कभी दुखी नहीं रहे। एक बड़े समाज को वे अपना परिवार मानते थे। इस विशाल परिवार के बच्चे-बच्चियों को अच्छी शिक्षा देने उनके स्वास्थ्य की देखभाल में वह काफी समय दिया करते थे।
श्री हीरालाल आशुकवि थे। किसी भी विषय पर तत्काल कविता कह देते थे। छत्तीसगढ़ के अन्य महापुरुष पिंगलाचार्य जगन्नाथ प्रसाद भानु उनके प्रशंसक थे। भानु जी का कहना था कि श्री हीरालाल चलते- बड़ी सहजता के साथ काव्य रचना कर लेते हैं। हिंदी और छत्तीसगढ़ी के श्रेष्ठ कवि, इतिहासकार और पत्रकार श्री हरि ठाकुर ने अपनी पुस्तक 'छत्तीसगढ़ के रत्न' में काव्योपाध्याय श्री हीरालाल के जीवन एवं लेखन पर विस्तार से प्रकाश डाला है। श्री ठाकुर के अनुसार हीरालाल जी कुछ कविताओं का इतालवी भाषा में अनुवाद हुआ था उनकी अंतिम और प्रसिद्ध पुस्तक 'छत्तीसगढ़ व्याकरण' और उसके लेखक की प्रशंसा करते हुए श्री ग्रिर्यसन ने लिखा, ‘‘मैं श्री हीरालाल को गिने-चुने विद्वतजनों की मंडली के एक महत्वपूर्ण सदस्य की मान्यता देता हूं। आप जैसे विद्वान अपने समय एवं क्षेत्र की दो गंभीर एवं प्रामाणिक जानकारी देते हैं उसी के आधार पर ज्ञान का संचय होता है। भारत की विभिन्न भाषाओं के राष्ट्रीय सर्वेक्षण का कार्य इन्हीं विद्वानों के योगदान से संपन्न हो पाता है। इन्हीं के माध्यम से प्राप्त ज्ञान से हम भारत की भिन्न-भिन्न भाषाओं के पारस्परिक संबंधों को जान पाने में समर्थ होते हैं।’’
श्री हीरालाल काव्योपाध्याय संगीत एवं गणित के भी श्रेष्ठ जानकार थे। उनकी बहुमुखी प्रतिभा से ज्ञान के क्षेत्र को बहुत बड़े योगदान की अपेक्षा थी। परंतु उदर रोग से पीड़ित होने के कारण उनकी जीवन शक्ति क्षीण होने लगी। उनकी इच्छा शक्ति तो प्रबल थी, परंतु शरीर साथ छोड़ता जा रहा था।
वे संगीत और गणित पर महत्वपूर्ण ग्रंथ लिखना चाहते थे,परंतु छत्तीसगढ़ी व्याकरण के बाद वे और कोई पुस्तक नहीं लिख सके, अक्टूबर 1890 में मात्र 44 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया। हिंदी एवं छत्तीसगढ़ी के श्रेष्ठ कवि तथा इतिहासकार पंडित लोचन प्रसाद पांडेय ने उनके द्वारा लिखित और जॉर्ज ग्रियर्सन द्वारा अंग्रेजी में अनूदित 'छत्तीसगढ़ी व्याकरण' का परिवर्धन करके उनके प्रति अपना सम्मान व्यक्त किया। श्री हीरालाल काव्योपाध्याय के व्याकरण से प्रेरणा लेकर अनेक भाषा शास्त्रियों ने उसके कार्य को विस्तार दिया। डॉ. नरेंद्र देव वर्मा ने छत्तीसगढ़ी को लोकभाषा से एक भारतीय भाषा के रूप में मान्यता दिलाने के लिए 'छत्तीसगढ़ी भाषा का उद्वविकास' ग्रंथ की रचना की। इतिहासकार डॉ. प्रभुलाल मिश्रा और डॉ. रमेंद्र नाथ मिश्रा ने सर जॉर्ज ग्रियर्सन तथा श्री हीरालाल काव्योपाध्याय के योगदान पर आधारित एक विस्तृत पुस्तक तैयार की है।
-रमेश नैयर

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