Tuesday, 22 October 2013

बइहा होगेंव...


(यह फोटो मेरे साधनाकाल की है। सन् 1994 से लेकर 2008 तक मैं इसी तरह रहता था। इसी दौरान मुझे यहां की मूल संस्कृति, जिसे मैं आदि धर्म कहता हूं, का ज्ञान प्राप्त हुआ था। इन वर्षों में जीवकोपार्जन के लिए भी मैं कोई काम नहीं कर पाया था, परिणाम स्वरूप मेरे घर पर भूखमरी की स्थिति निर्मित हो गई थी। उसी समय इस गीत का लेखन हुआ था। )

मैं तो बइहा होगेंव शिव-भोले,
तोर मया म सिरतोन बइहा होगेंव.....

घर-कुरिया मोर छूटगे संगी, छूटगे मया-बैपार
जब ले होये हे तोर संग जोड़ा, मोरे गा चिन्हार
लोग-लइका बर चिक्कन पखरा कइहा होगेंव गा.....

खेत-खार सब परिया परगे, बारी-बखरी बांझ
चिरई घलो मन लांघन मरथे, का फजर का सांझ
ऊपरे-ऊपर देखइया मन बर निरदइया होगेंव गा......

संग-संगवारी नइ सोझ गोठियावय देथे मुंह ला फेर
बिन समझे धरम के रस्ता, उन आंखी देथें गुरेर
मैं तो संगी तोरे सही सबके आंसू पोछइया होगेंव गा...

सुशील भोले
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