काया लोंदा होगे रे....
(करमा शैली के इस गीत को तब लिखा गया, जब शरद पूर्णिमा २०१८ को मुझे पक्षाघात का अटैक आया था। चार महीने तक मैं बिस्तर पर रहा। उसी दौरान बिस्तर पर ही इसे लिखा गया था।)
हाय रे हाय रे काया लोंदा होगे रे
अहंकार के बूढ़ना झरगे, काया लोंदा होगे रे.....
ज्ञान-गरब के चादर ओढ़े काया फूले रिहिस
कर्म-दोष अनदेखना बनके एती-ओती झूले रिहिस
हिरना कस मेछरावत सपना तब गोंदा-गोंदा होगे रे......
शरद के वो रात रहिस, अमरित बरसा के आस रहिस
भोलेनाथ के किरपा बर मोला तो बड़ बिसवास रहिस
फेर कोन कोती ले कारी छाया आइस कवि कोंदा होगे रे.....
धूप-छांव तो जिनगी म हमेशा आगू-पाछू आथे
फेर अइसन बेरा ह लोगन ल आत्म समीक्षा करवाथे
तब जानबा होथे कोन अपन अउ कोन स्वारथ के बोंडा हे....
धन ल छोड़ जन के पाछू हमेशा भागत राहंव
एकरे सेती ताना, गारी अउ अपमान पावत राहंव
जन-भावना के समंदर पा आज वो फैसला मोर हुड़दंगा होगे रे.....
-सुशील भोले
संजय नगर, रायपुर
मो/व्हा. 9826992811
No comments:
Post a Comment