कब पोंछाही अस्मिता के आंसू...?
छत्तीसगढ़ आज अपनी अस्मिता की स्वतंत्र पहचान के लिए संघर्ष कर रहा है। जिस मानक पर राज्य निर्माण की आधारशिला रखी गई थी, उसे स्थापित करने के लिए छटपटा रहा है। प्रश्न यह है कि राज्य निर्माण के 18 वर्षों के बीत जाने के बाद भी ऐसी स्थिति क्यों है? क्या इसके लिए सरकार के तंत्र पर बैठे लोग जिम्मेदार हैं, या वे लोग जो अस्मिता के नाम धंधा कर रहे हैं, दलाली कर रहे हैं?
निश्चित रूप से यह चिंतन का विषय है। क्योंकि आज अस्मिता का अर्थ बोली-भाषा और केवल नाचा-गम्मत को ही बताया जा रहा है। इसके नाम पर काम करने वालों को केवल 'परी' जैसे 'सम्हरा' कर तमाशा करना सिखाया जा रहा है। जो इसका मूल तत्व है, उसे पूरी तरह से छिपाया जा रहा है।
मैं जिस अस्मिता की बात करता हूं, वह यहां की मूल अध्यात्म आधारित संस्कृति है। जिसे यहां पूरी तरस से कुचला जा रहा है। खासकर पूर्ववर्ती सरकार में जो लोग यहां की सत्ता पर काबिज थे, वे लोग यहां की अस्मिता को रौंदने, उसे बिगाड़ने, भ्रमित करने में जितनी तत्परता दिखाई, उतना इतिहास में कभी नहीं हुआ था।
जिस तरह से राष्ट्रीयता के नाम पर यहां के मूल निवासियों के हाथों से राजनीतिक, सामाजिक और प्रशासनिक अधिकारों को छीना गया, उसके ऊपर अन्य प्रदेशों से लाए गये मोहरों को बिठाया गया। ठीक उसी तरह ही कथिक हिन्दुत्व के नाम पर यहां की मूल अध्यात्म आधारित संस्कृति को रौंदा गया।
हमारी मेला-मड़ई की संस्कृति को बिगाड़ कर उसके ऊपर फर्जी कुंभ थोप दिया गया। अन्य प्रदेशों के भूखे-भिखमंगों को किराए में लाकर साधू-संत बना दिया गया है। जहां तक यहां के इतिहास की बात है, तो उसे उत्तर भारत में लिखे गये ग्रंथों के मानक पर परिभाषित किया जा रहा था।
प्रश्न यह है, कि उत्तर भारत के प्रदेशों में वहां के मापदण्ड पर लिखे गये ग्रंथ या संदर्भ साहित्य छत्तीसगढ़ के लिए मानक कैसे हो सकते हैं? जिन ग्रंथों में छत्तीसगढ़ की संस्कृति को, यहां के इतिहास और गौरव को लिखा ही नहीं गया है। वह छत्तीसगढ़ के लिए धर्म ग्रंथ कैसे हो सकता है? जबकि यहां पर अपनी स्वयं की मौलिक उपासना पद्धति है, जीवन शैली है। फिर इसे किसी उधारी की विधियों से क्यों परिचित करा कर भ्रमित किया जाता रहा है?
जहां तक यहां की राजनीति से जुड़े, खासकर कथित राष्ट्रीय पार्टियों से जुड़े लोगों को कभी भी यहां की अस्मिता के लिए ईमानदार राजनीतिज्ञ की भूमिका में नहीं देखा गया। सरकार के पिछलग्गू बने कथित संस्कृति कर्मियों, साहित्यकारों, पत्रकारों और बुद्धीजीवियों को भी सत्य के पैमाने पर ढुलमुल ही देखा गया। यही वजह है, आज छत्तीसगढ़ अपनी अस्मिता की स्वतंत्र पहचान के लिए आंसू बहा रहा है। अपनी धरती पर अपने लोगों के बीच उसकी स्वतंत्र पहचान के लिए छटपटा रहा है।
नई सरकार के वर्तमान कार्यों को देखकर, इनसे काफी उम्मीद बढ़ गई है, कि अब अस्मिता की आंखों से आंसू पोंछा जाएगा। छत्तीसगढ़ी में कहावत है ना- "घुरूवा के दिन बहुरथे, त हमरो अस्मिता अउ गौरव के दिन बहुरही'"।
जय हो छत्तीसगढ़ी चिन्हारी🙏🌷
-सुशील भोले
आदि धर्म जागृति संस्थान
संजय नगर, रायपुर
मो.व्हा. 9826992811
Wednesday, 9 January 2019
कब पोंछाही छत्तीसगढ़ी अस्मिता के आंसू..,?
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