पर्व और मान्यताएं.....
हमारे यहां बहुत से ऐसे पर्व हैं, जिन्हें अलग-अलग समुदायों के लोगों के द्वारा अलग-अलग अवसर पर या अलग-अलग संदर्भों के अंतर्गत मनाया जाता है। उदाहरण के लिए हम "नवा खाई" का पर्व ले सकते हैं।
छत्तीसगढ में "नवा खाई" का पर्व तीन अलग-अलग अवसरों पर मनाया जाता है। ओडिशा राज्य की सीमा से लगे वे लोग जो उत्कल संस्कृति को जीते हैं ,इसे ऋषि पंचमी को, जो कि भादो मास को संपन्न होने वाले गणेश चतुर्थी के पश्चात् आता है, उस दिन मनाते हैं।
गोण्डवाना की संस्कृति जीने वाले लोग इसे कुंवार मास की शुक्ल पक्ष में अष्टमी या नवमी तिथि को मनाते हैं। इसी तरह अन्य पिछड़ा वर्ग और सामान्य वर्ग के अंतर्गत आने वाले लोग जो कि मैदानी भाग में रहते हैं, इसे कार्तिक मास में मनाए जाने वाले दीपावली पर्व के दूसरे दिन गोवर्धन पूजा के अवसर पर अन्नकूट के रूप में मनाते हैं।
नवा खाई पर्व मनाने का सभी का उद्देश्य एक ही है, अपने ईष्ट को अपनी नई फसल को समर्पित करना। किन्तु अलग-अलग तिथि और अलग-अलग रूप में इसे मना लिया जाता है।
ऐसे ही बहुत से ऐसे पर्व हैं, जिन्हें अलग-अलग संदर्भ के अनुसार अलग-अलग समूह के लोग मनाते हैं।
हम "छेरछेरा" पर्व को उदाहरण के रूप में ले सकते हैं। गोंडवाना की संस्कृति को मानने वाले लोग इसे "गोटुल/घोटुल" की शिक्षा में पारंगत हो जाने के पश्चात पूस पूर्णिमा के अवसर पर तीन दिनों का पर्व मनाते हैं।
यहां के मैदानी भाग में रहने वाले अन्य पिछड़े और सामान्य वर्ग के अंतर्गत आने वाले लोग केवल एक दिन का पर्व फसल की लुआई-मिंजाई के पश्चात् अन्न दान के रूप में मनाते हैं। इन सबसे अलग मुझे अपने साधना काल में जो ज्ञान प्राप्त हुआ, उसके अनुसार यह पर्व शिव जी द्वारा पार्वती से विवाह पूर्व लिए गये परीक्षा के अंतर्गत नट बनकर मांगा गया भिक्षा का प्रतीक स्वरूप मनाया जाने वाला पर्व है।
मित्रों, यहां यह जानना आवश्यक है कि यहां के हर पर्व का संबंध किसी न किसी रूप में अध्यात्म से अवश्य है। आज हम उचित जानकारी के अभाव में उसे अन्य संदर्भों के अंतर्गत मनाये जाने को स्वीकार कर लेते हैं। लेकिन मेरा मानना है कि सभी पर्वों का मूल कारण जानने के लिए कागजी प्रमाणों से ऊपर उठ कर तर्क और लोक परंपरा की कसौटी पर उसे परखना आवश्यक है।
यहां पर मैं "होली" पर्व को उदाहरण के रूप में रखना चाहूंगा। हम आम तौर पर यह जानते हैं कि "होलिका दहन" के रूप में इस पर्व को मनाया जाता है। जहां तक हम छत्तीसगढ की मूल संस्कृति के संदर्भ में बात करें तो यह सही नहीं है। यहां जो पर्व मनाया जाता है, वह "काम दहन" का पर्व है। इसीलिए हम इसे "मदनोत्सव" या "वसंतोत्सव" के रूप में भी मनाते हैं।
आप सभी को यह स्मरण होगा कि शिव पुत्र के हाथों मरने का वरदान प्राप्त ताड़कासुर के संहार के संहार के लिए तपस्यारत शिव की तपस्या भंग करने के लिए कामदेव को भेजा गया था। तब कामदेव वसंत का मादक भरे मौसम का चयन कर अपनी पत्नी रति के साथ शिव तपस्या भंग करने का प्रयास कर रहे थे। इस पर शिव जी कुपित हो गये और कामदेव को अपने तीसरे नेत्र से भस्म कर दिए।
हमारे छत्तीसगढ में इसीलिए इस पर्व को वसंत पंचमी से लेकर फाल्गुन पूर्णिमा तक लगभग चालीस दिनों का पर्व मनाया जाता है। वसंत पंचमी के दिन अरंडी नामक पौधे को होली दहन स्थल पर गड़ाया जाता है, जो कि कामदेव के आगमन के प्रतीक स्वरूप होता है। उसके पश्चात् वासनात्मक गीतों और नृत्यों के माध्यम से फाल्गुन पूर्णिमा तक इस पर्व को मनाया जाता है। फाल्गुन पूर्णिमा को होली दहन स्थल पर एकत्रित लकड़ी आदि में अग्नि संचार के पश्चात यह पर्व संपन्न होता है।
आप सोचिए, होलिका तो एक ही दिन में लकड़ी एकत्रित करवा कर उसमें अग्नि प्रज्वलित करवाती है, और स्वयं ही उसमें जलकर भस्म हो जाती है। फिर उसके लिए चालीस दिनों का पर्व मनाने की क्या आवश्यकता है? इस पर्व के अवसर पर प्रयोग किए जाने वाले वासनात्कम शब्दों, दृश्यों और नृत्यों से होलिका का क्या संबंध है?
मित्रों, मैं हमेशा यह कहता हूं कि यहां की मूल संस्कृति को उसके वास्तिवक रूप में पुनः लिखने की आवश्यकता है, तो उसका यही सब कारण है।
-सुशील भोले
संजय नगर, रायपुर
मो नं 9826992811
Saturday, 7 November 2020
पर्व और मान्यताएँ....
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