Sunday, 8 November 2020

आरंग कैसे पड़ा नाम...

आरंग कैसे पड़ा नाम....
           राजधानी रायपुर से करीब 35 किलोमीटर दूरी पर स्थित आरंग कई ऐतिहासिक धरोहरों को समेटे हुए हैं, साथ ही धार्मिक आस्था का केंद्र भी है। सोशल मीडिया में इस नगर के नामकरण की कहानी इन दिनों खूब वायरल हो रही है। मान्यता है कि आरा+अंग से नाम पड़ा है आरंग। कहा जाता है कि द्वापर युग में राजा मोरध्वज वीरता व दानशीलता के लिए प्रसिद्ध थे। दानवीरता के बारे में सुनते ही महाभारत काल के वीर योद्धा कर्ण का नाम स्वाभाविक ही मन में आ जाता है, किंतु कर्ण के समकालिक एक और महान योद्धा और परमदानी थे हैहय वंशीय राजा मोरध्वज कोशल राज्य के महाराज। उनकी राजधानी आरंग थी, जिसका नाम आधे अंग को आरे से काटे जाने के कारण आरंग पड़ा।
पौराणिक कथा के अनुसार महाभारत युद्ध के विजय के बाद पांडवों द्वारा अश्वमेघ यज्ञ का आयोजन किया गया। उसमें एक अश्व को स्वत: विचरण करने के लिए छोड़ दिया जाता था और यदि उस अश्व को किसी ने पकड़ लिया तो यह इस बात को सिद्ध करता था कि घोड़ा पकड़ने वाला व्यक्ति युद्ध करना चाहता है। पांडवों द्वारा छोड़ा गया अश्व प्रतापी राजा मोरध्वज ने पकड़ लिया, तो अर्जुन क्रोधित होकर उनके राज्य में चढ़ाई करने के लिए तैयार हो गए। यह देख भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को रोका और कहा कि क्या तुम्हें पता है कि राजा मोरध्वज मेरे बहुत बड़े भक्त हैं। वह युधिष्ठिर के समान धर्मपालक, भीम के समान शक्तिशाली, तुम्हारे समान धनुर्धर, नकुल समान सुंदर और सहदेव जैसे सहनशील हैं। अर्जुन को भगवान की यह बात गले से न उतरी। उन्होंने कहा प्रभु आप कह रहे हैं तो मैं यह मान लेता हूं, परंतु मुझे मोरध्वज के व्यक्तित्व का अनुभव स्वयं करना है। श्रीकृष्ण ने कहा ठीक है तो मैं जैसे बोलता हूं वैसे ही करना।

भगवान श्री कृष्ण और अर्जुन ने ली थी मोरध्वज की परीक्षा

मोरध्वज की परीक्षा लेने को भगवान श्रीकृष्ण स्वयं एक ब्राह्मण और अर्जुनः एक सिंह के रूप में पहुंचे। मोरध्वज उनके स्वागत सत्कार के लिए जैसे ही आए ब्राह्मण-रूपी श्रीकृष्ण ने कहा-राजन मेरा यह सिंह बहुत दिनों से भूखा है। इसे मांस चाहिए, जिस पर मोरध्वज ने कहा- इसे मैं भेड़-बकरी ला के दे देता हूं, तो ब्राह्मण ने कहा मूर्ख यह कोई साधारण सिंह नहीं है। इसे केवल इंसान के दाहिने भाग का मांस ही चाहिए। मोरध्वज तत्काल अपने दाहिने भाग के अंग दान के लिए तैयार होकर उठे, तो फिर ब्राम्हण ने कहा- मेरे सिंह को तुम्हारे पुत्र के दाहिने अंग का मांस चाहिए। यह सुनकर राजा और रानी भावुक हो उठे। तभी नन्हें राजकुमार ताम्रध्वज दरबार में पहुंचे और कहा-हे मुनिवर मैं अपना दाहिना अंग देने के लिए तत्पर हूं।

ब्राह्मण ने एक और शर्त रखी कि राजकुमार ताम्रध्वज के आधे अंग को काटने के लिए राजा और रानी दोनों को मिलकर आरा चलानी होगी। इस पर राजा मोरध्वज ने कहा आपकी आज्ञा शिरोधार्य है। आरा मंगवाई गयी और बालक ताम्रध्वज के सिर से लेकर बीचो-बीच बराबर दो भागों में विभाजित करना प्रारंभ हुआ, तभी ब्राह्मण (श्रीकृष्ण) ने देखा कि ताम्रध्वज के बाएं भाग के आंख से आंसू बहने लगा है। इससे क्रुद्ध होकर ब्राह्मण ने कहा-मुझे यह मांस स्वीकार नहीं जो रोते हुए दिया जाए। तब नन्हें राजकुमार ने कहा- हे! ब्राह्मण देव, मैं रो नहीं रहा, यह तो मेरा बायां अंग रो रहा कि वो कितना अभागा है कि वो दाहिने अंग के समान आपके काम नहीं आ पा रहा है। ऐसा सुनते ही श्रीकृष्ण और अर्जुन अपने वास्तविक रूप में आकर उन्हें दर्शन दिए तथा श्रीकृष्ण ने बालक के मस्तक पर अपना हाथ फिराया, जिससे राजकुमार के अंग पुन: जुड़ गए। यह घटना जहां पर घटी वह आज आरंग के नाम से जाना जाता है।
(संकलित पोस्ट)

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