चंदैनी गोंदा के स्वर्ण जयंती के बेरा म...
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उपरोक्त चित्र चंदैनी गोंदा के मुख्य पर्दे का है जिसमें स्व. प्यारेलाल गुप्त के कविता की पंक्तियां अंकित हैं। ये पंक्तियां चंदैनी गोंदा का प्रदर्शन कैसा होता रहा होगा, इसकी ओर इशारा करती है।
चंदैनी गोंदा की भव्यता, प्रभाव और उद्देश्यों की एक झलक ‘‘चंदैनी गोंदा-छत्तीसगढ़ की एक सांस्कृतिक यात्रा’’ नामक स्मारिका, जो 7 नवम्बर 1976 को विमोचित हुई थी। उसमें लिखे गए सम्पादकीय से मिलती है, जो यथावत प्रस्तुत है।
*लोक-संस्कृति की देहरी पर दो क्षण*
एक छोटे से खलिहान में छत्तीसगढ़ के शीर्षस्थ साहित्यकार, बुद्धिजीवी, राजनेता, लोक कलाकार और दर्शक जब एकत्रित हुए तो कितनी अशेष जिज्ञासा मन में थी। कितने प्रश्न थे जो रह-रह कर उभर रहे थे। सामने मंच था जो लोकनाट्य-शैली में बनाये गये पर्दे से सजा था। *क्या है ‘‘चंदैनी गोंदा’’ के सर्जक के मन में ?* परिष्कृत मनोरंजन या लोक-जीवन से साक्षात्कार की गंभीर चिंता? तमाशबीन की तरह लोक-संस्कृति का विद्रूप प्रस्तुत करना या लोक-संस्कृति की वास्तविक ऊष्मा को सामने लाना? तथाकथित सहानुभूति या वास्तविक करूणा ? पर्दा के उठते ही शंकायें घटने लग जाती हैं और प्रश्नों के कुहासे से एक चांद का जन्म होता है। चांद बी का पुनर्जन्म। *लोक-संस्कृति का पुनर्जागरण।* छत्तीसगढ़ की मिट्टी की सोंधी खुशबू। ‘‘चंदैनी गोंदा’’ जैसी हृदयग्राही सांस्कृतिक अभिव्यक्ति का जन्म।
*स्थान-बघेरा। 07 नवम्बर 1971 की ठंडी रात। संयोजक-निर्माता और प्रस्तुतकर्ता रामचन्द्र देशमुख।*
गुलाबी ठंड से सीजती हुई पैरी की एक और रात। चारों ओर भीड़। मनुष्यों का महासागर। सघन अमराई। रोशनी से झिलमिलाता हुआ ‘‘चंदैनी गोंदा’’ का मंच। पीछे चांद और सितारों से जड़ा आसमान। मंत्रमुग्ध दर्शक। रात 9.00 बजे से सुबह 6.00 बजे तक अपलक निहारती हुई आंखें। एक दूसरे से सटे बैठे हुए लोग। एक दूसरे के सहारे रात भर खड़े हुए लोग। किसे पता रात कैसे गुजर गई। कौन सा सम्मोहन था जो रात भर अपने जादुई संस्पर्श से लोगों को बांधे रखने में समर्थ था। संगीत का वशीकरण या लोकनृत्य की अद्भुत संरचना ? गीतों की मिठास, अभिनय का अनूठा प्रदर्शन, गायकों का स्वर ? कौन बतायेगा ? नौ घंटे का यह कार्यक्रम कितने नये अनुभवों के साक्षात्कार से पूर्ण था। *गये तो अलग-अलग 50 हजार लोग थे लेकिन लौटते समय सब एक कैसे हो गये ? एक सुबह इतनी सार्थक और नई कैसे हो गई ?*
स्थान बदले। लोग बदले। लेकिन सम्मोहक स्थिति नहीं बदली। चंदैनी गोंदा के छोटे-बड़े उनचास प्रदर्शन हुए। लगभग 25 लाख लोगों ने देखा। शहर से लेकर कस्बों और गाँवों तक इस सम्मोहन का विस्तार होता चला गया। *07 नवम्बर 1971 को बघेरा में जिस अभिनव सांस्कृतिक कार्यक्रम की शुरूआत हुई, वह धीरे-धीरे छत्तीसगढ़ अंचल के लोकजीवन की प्रामाणिक कथा बन गई। महानदी की तरह विराट, इस सांस्कृतिक जलधारा का स्पर्श छत्तीसगढ़ को उस समय मिला जब उसके होंठों पर तृषा की विकराल छाया थी और उसके आत्मगौरव की जमीन पर दरारें पड़ चुकी थीं।*
*इस पूरे दृश्य के पीछे एक चांद बी है। छत्तीसगढ़ की चांद बी। महाराष्ट्र और उड़ीसा की चांद बी। गुजरात और बंगाल की चांद बी। भारत वर्ष की चांद बी। मां की गोद और पिता के स्नेह से वंचित चांद बी। रोग भूख से जर्जर चांद बी। एक दिन इसी चांद बी की आहत पुकार ‘‘चंदैनी गोंदा’’ के सर्जक के भीतर उतरती चली गई थी। लगा था, हजारों कमजोर और असहाय हाथ उससे सहारा मांग रहे हैं। पिता का स्नेह और मां की ममता मांग रहें है। जिस्म को ढंकने के लिए वस्त्र और क्षुधा शांत करने के लिए रोटी मांग रहे हैं। कितने आर्तनाद, आहत और विवश आवाजों के बीच ‘‘चंदैनी गोंदा’’ का जन्म हुआ, यह स्वयं में एक महाकाव्य का विषय है। चांद बी आज निराधार नहीं है। उसकी पीड़ा इस अंचल की सबसे जीवंत घटना बन चुकी है और हजारों चांद बी का दर्द लाखों लोगों के भीतर नई बेचैनी के रूप में ढल चुका है। हर सर्जना के लिए ऐसी बेचैनी का होना जरूरी है। इसके बिना किसी सार्थक कृति का जन्म मुश्किल है।*
*‘‘छत्तीसगढ़ और चंदैनी गोंदा’’ धीरे-धीरे दो अगल-अलग संबोधनों की सीमा लांघकर एक दूसरे में आत्मसात हो गये। ‘‘चंदैनी गोंदा’’ प्रतीक रूप में छत्तीसगढ़ बन गया।* ‘‘चंदैनी गोंदा’’ को प्यार करने वाले लोग छत्तीसगढ़ को और अधिक गहराई से प्यार करने लगे। यहां की मिट्टी उनमें कस्तूरी गंध भरने लगी। यहां की हवा उन्हें मलयानिल का आभास देने लगी। यहां की बोली उनके हृदय में मिठास भरने लगी। यहां के लोग उनके अभिन्न और आत्मीय बनने लगे। उनकी पीड़ा और खुशी सबकी पीड़ा और खुशी बन गई। एक कृषक की जिंदगी खेत के मेड़ों को पार कर कस्बों और शहरों के भीतर समा गई। *पहली बार शहर और गाँव के बीच खड़ी हुई दीवार टूटी और सदियों से असंपृक्त लोग एक दूसरे की जिन्दगी में विलीन हो गये। किसी भी सांस्कृतिक पुनर्जागरण की यह सबसे अनिवार्य शर्त होती है, जो पूरी हुई। विगत तीन दशकों की यह सबसे बड़ी घटना थी। मानवीय रिश्तों को प्रगाढ़ बनाने में सांस्कृतिक उपकरण कितने महत्वपूर्ण और प्रभावशाली माध्यम हैं, इसका ज्वलंत प्रमाण ‘‘चंदैनी गोंदा’’ से मिला।*
जिंदगी को बाटने वाली सैकड़ों चीजें हैं, जोडऩे वाली गिनी चुनी। धर्म, राजनीति, शिक्षा, दर्शन जैसे कितने ही सर्जनात्मक तत्व अपनी परिणति तक पहुंचते-पहुंचते खंडित जिंदगी के अवशेष मात्र रह जाते हैं। जिंदगी को खूबसूरत बनाने की कल्पना नये अभिशाप के रूप में बदल जाती है। विघटन का यह सिलसिला तब और तेज हो जाता है जब बदलने का अहम, सर्जनात्मक प्रयासों से भी बड़ा हो जाता है। क्या यह सच नहीं है कि धर्म और राजनीति आदमी को बदलने में जब असमर्थ हो गये तब खुद जंजीर की तरह आदमी के गतिशील पांवों में जड़ गये। अगर इस जंजीर के पाश को तोडऩे वाली संस्कृति की मानवीय ताकत नहीं होती तो बीसवीं सदी का आदमी आज तक अपनी जिंदगी को दांव पर लगा चुका होता। स्वयं को पहचानने के लिए लोक-जीवन में पैठे हुए लोग लोक-संस्कृति के उदात्त तत्वों में केवल झांकते ही नहीं हैं, अपने परिष्कार के लिए उसका प्रयोग भी करते हैं। *‘‘चंदैनी गोंदा’’ छत्तीसगढ़ की आत्मा से साक्षात्कार के साथ ही आत्मपरिष्कार का एक सांस्कृतिक प्रयोग भी है।*
*‘‘चंदैनी गोंदा’’ के आत्ममुग्ध दर्शकों ने हजारों आत्मीय पत्रों में इस सांस्कृतिक विरासत की जो प्रशंसा की है उसके पीछे कोई मजबूरी या व्यावसायिक छद्म नहीं है। यह आत्म अन्वेषण के बाद हुई, अपनत्व भरी प्रतिक्रिया है। लगता है जैसे लोग खुद को संबोधित कर रहे हों’’ मैंने इस कार्यक्रम के अंतर्गत कुछ गीतों को सुना, उन्होंने मुझे गदगद कर दिया’’ - (स्व. पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी) ’’चंदैनी गोंदा को यदि हम छत्तीसगढ़ की माटी से ओतप्रोत उसकी लोक संस्कृति का प्रतीक मान लें तो उचित और उपयुक्त ही होगा’’-(स्व. प्यारेलाल गुप्त)’’ ऐसा लगा कि इसके आयोजक छत्तीसगढ़ की आत्मा को साकार कर अखिल भारतीय मंच पर प्रस्तुत कर रहे हैं’’ -(पतिराम साव) वस्तुत: इस क्षेत्र की कला को भारतीय स्तर पर लाने के लिए यह महान प्रयोग है (चन्दूलाल चन्द्राकर) हम लोग अपनी छत्तीसगढ़ी संस्कृति को भूल गये। इसे जागृत करने का जो प्रयास किया गया वह प्रशंसनीय है। (मोहन लाल भतरिया) ऐसा लगता था जैसे हम गाँव में बैठे हैं और गाँववासियों का वास्तविक जीवन देख रहे हैं (पाल) अपनी जिंदगी में अभी तक ऐसा अद्भुत कार्यक्रम देखने में नहीं आया था। (दिलेश्वर प्रसाद) यह कार्यक्रम इतना मार्मिक है कि छत्तीसगढ़ के लोगों को अपने इतिहास एवं संस्कृति के लिए जान देने की प्रेरणा मिलती है। (पवन दीवान) चंदैनी गोंदा ने मुझे मुग्ध ही नहीं किया अपितु मुझे अपने छत्तीसगढ़ी होने का आत्म गौरव दिया। (विजेन्द्र कुमार श्रीवास्तव) The Programme was so interesting that we (though non-Chhattisgarhi) sat up to 4.30 and enjoyed ourselves thoroughly. It gave a real glimpse of Chhattisgarh. Indeed a commendable show (Mrs. Grover) *
*आज भी ‘‘चंदैनी गोंदा’’ का आयोजन जहां होता है वहां लोग लहरों की तरह उमड़ पड़ते हैं। साठ-पैंसठ हजार लोग जमीन पर, पेड़ों पर, बैलगाड़ी पर और कभी-कभी हाथी पर बैठकर अपलक यह कार्यक्रम देखते हैं। लगता है जैसे किसी विराट उत्सव में हिस्सा ले रहे हों। आफिसर, राजनेता, अध्यापक, वकील, किसान, मजदूर, वृद्ध, बच्चे, महिलायें सब एक साथ बैठकर इसे देखते हुए यह भूल जाते हैं कि उनके बीच कोई दूरी है। सब समान रूप से उद्वेलित होते हैं। ठहाके लगाते हैं। शोषण के दृश्यों को देखकर क्रोध से भर उठते हैं और जब कभी अत्याचार का जीवंत दृश्य साकार होता है, आंखें भीगने लग जाती है। कोई किसी से कुछ नहीं कहता। सब जैसे अपने में डूब जाते हैं। जागते हैं तो लगता है हम सब अभिन्न हैं। आत्मीय रिश्तों से बंधे हुए जीवन संघर्ष में रत एक ही उद्यान के फूल। फूल जो प्रतीक रूप में ‘‘चंदैनी गोंदा’’ है।*
छत्तीसगढ़ भर में फैले हुए पचास-साठ लोक कलाकारों को एकत्रित करना, लोक धुनों का संग्रह करना, लोक गीतों को समसामयिक जिंदगी के निकट ले जाना, लोक कलाकारों की स्वच्छंद अभिव्यक्ति को सर्जनात्मक आयाम देना, एक उद्देश्य पूर्ण कथानक का निर्माण करना और स्वयं प्रभावशाली अभिनेता के रूप में शरीक होना, यह रामचन्द्र देशमुख के ही वश की बात है। भावुक और संवेदनशील लोगों को एक मंच पर टिकाये रखना कितना मुश्किल काम है, यह सांस्कृतिक कार्यक्रम के संयोजकों से छिपा नहीं है। लोकप्रियता के प्रलोभन में समझौता करने वाले लोगों की भी इस क्षेत्र में कमी नहीं है। सांस्कृतिक कार्यक्रमों को अपने संकीर्ण मंतव्य के प्रचार-प्रसार का माध्यम बनाने वाले लोग कहां नहीं मिलते। लोककला के छद्म में व्यवसाय करने वाले कितने ही लोकधर्मी कलाकारनुमा लोग आये दिनों अपना उल्लू सीधा करते हैं। ऐसी विकट स्थिति में भी लोककला का यह मंच गरिमा और अर्थवत्ता से पूर्ण है। इसका श्रेय रामचन्द्र देशमुख की निश्छल कला-दृष्टि और संवेदनशील मानवीय आस्था को ही है। अगर उनकी प्रेरक-संवेदना और कला-चेतना इसके पीछे नहीं होती तो लोक-जीवन की यह मनोरम झांकी बहुत पहले विसर्जित हो जाती।
छत्तीसगढ़ की यह सांस्कृतिक चेतना जिजीविषा का रूप धारण कर चुकी है, उसकी ऊर्जा अशेष है। यह एक अविराम यात्रा है। एक ऐसी यात्रा जो नदी की यात्रा की तरह शुरू होती है और अंतहीन विराट महासागर के रूप में बदल जाती है।
प्रणम्य हैं वे यात्री जो मानवीय-संबंधों को वास्तविक और आत्मीय रूप देने की इस खोज यात्रा में साथ चल रहे हैं।
*नारायण लाल परमार : त्रिभुवन पांडेय*
(मेरे सम्पादन में शीघ्र प्रकाश्य स्मारिका के ‘संशोधित एवं परिवर्धित’ संस्करण का अंश)
*- प्रो. सुरेश देशमुख, धमतरी*
मो.नं. 88897-70085
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