कहानी// अमरबेल
मंगलू ल जब कभू ढेरा आॅंटना होय त बस्ती के बाहिर म एक ठन गस्ती के पेंड़ हे, तेकरे छांव म जा के बइठय अउ हरहिंछा ढेरा आंटय. एक पूरा कांसी के डोरी ल आंटे म वोला नहीं-नहीं म चार घंटा तो लगी जाय. आने मनखे कहूँ वतका डोरी ल आंटतीस त एक घंटा ले जादा नइ लागतीस. फेर मंगलू ढेरा ल आंटय कम अउ गस्ती के पेंड़ म अवइया चिरई-चिरगुन मनला जादा देखय, तेकर सेती वोला जादा बेरा लागय.
बड़का बांस के घेरा के पुरती झंउरे रिहिसे गस्ती के पेंड़ ह. देखब म बड़ा नीक लागय. गद हरियर, साल म दू पइत पिकरी फरय तेकर सेती दू-दी तीन-तीन महीना के पुरती ले अवइया-जवइया मनला अपन सेवाद चिखावय. पिकरी मन पाक के जब चिरईजाम कस भठहूं रंग के हो जाय न, त अच्छा अच्छा मनखे के उपास-धास ह वोला चीखे के लालच म टूट जाय. एकरे सेती वो पेंड़ म रकम-रकम के चिरई-चिरगुन मनला तको पाते. मार चिंव-चिंव के तुतरू बाजत राहय दिन भर. मंगलू के मंझनिया ह एकरे सेती इहें पहावय. कइसनो गरमी के चरचरावत बेरा होय, फेर गस्ती के छांव ह जुड़ बोलय. एकरे सेती आन गाँव के अवइया-जवइया मन घलो एक घड़ी वोकर छांव म बिलमे के लालच जरूर करयं.
जुड़ छांव ल देख के परदेशी के मन म घलो गस्ती तरी एक घड़ी सुरताए के लालच जागीस. वो सइकिल ले उतर के गस्ती तरी गिस, उहाँ मंगलू ल देख के वोकर संग मुंहाचाही करे लागिस. गोठे-गोठ म वो जानबा कर डारिस के ए गाँव म एको ठन चाय ठेला नइए. वोकर मन म उहाँ नानमुन ठेला राख के चाय अउ वोकर संग अउ कुछू नानमुन जिनिस मन के धंधा करे के बिचार जागीस. वो मंगलू तीर गाँव के बारे म पूरा जानकारी ले खातिर पूछिस- 'अच्छा ए तो बता भइया.. ए गाँव के सरपंच कोन आय?'
-झंगलू दास
-अउ वोकर घर कोन मुड़ा होही ते?
-उही दे.. छेंव मुड़ा के तरिया तीर. मंगलू ह हाथ म इसारा करत कहिस.
परदेसी फेर पूछिस-' अभी घर म भेंट हो सकथे का?'
-'कोन जनी भई.. उहू काम-बुता वाले मनखे आय, एती-तेती अवई-जवई करते रहिथे.' मंगलू ल घलो वो मनखे के बारे म जाने के मन होइस, त पूछ परिस-' अउ तैं कहाँ ले आवत हस जी?'
-एदे.. इही सिलतरा ले.
-अरे त अतका दुरिहा नगरगांव के सरपंच ल नइ जानस जी?
-नहीं.. मैं सिलतरा के खास रहइया थोरे आंव जी. हमन आने देस ले आए हन ग.. आने देस ले.
-अच्छा-अच्छा.. त खाए-कमाए आए हौ इहाँ.
-हहो.. रात पारी म इहें के फेकटरी म काम चलथे, तेकर सेती मैं सोचेंव, दिन-मान घलो कुछू धंधा कर लेतेंव. वोकरे सेती एदे अभी सइकिल म घूम-घूम के चना-मुर्रा अउ बिसकुट-डबलरोटी बेंचत रइथौं. फेर रात कन फेकटरी म जागे मनखे के दिन भर सइकिल म घुमई ह नइ बनय न, तेकरे सेती इहें नानमुन धंधा खोल लेतेंव, एके जगा बइठ के धंधा करे म देंह ल थोरिक सुरताए ले मिल जातीस.
-अच्छा.. त वोकरे सेती सरपंच ल पूछत हस, तेमा वोकर जगा कोनो मेर ठेला-उला राखे खातिर हुंकारू भरवा सकस.
परदेसी हीं-हीं-हीं कहिके हांस दिस. त मंगलू वोकर जगा फेर पूछिस-' त तैं ह अभी कतका दुरिहा ले किंजरथस जी?'
-अभी.. अभी कहे त सिलतरा ले चरौदा-टांड़ा होवत एदे तुंहर गाँव नगरगांव, तहाँ ले एती ले बोहरही-सिलयारी डहार ले कुरूद-गोढ़ी होवत वापिस सिलतरा पहुँच जाथौं.
-हूँ ले का होइस कहिके मंगलू वोला चोंगी-माखुर खातिर पूछिस, फेर परदेसी ह कुछू नइ लागय कहिके सरपंच के घर कोती चल दिस.
मंगलू ढेरा आंटे ल छोड़ के वोला एकटक देखे लागिस. वो जब नजर ले ओझल होइस तहाँ ले खीसा ले बीड़ी-माचिस हेर के धुंगिया उड़ियावत गस्ती पेंड़ म ओध के ऊपर डहार ल देखे लागिस. वोहा देखिस के बुड़ती मुड़ा ले एक ठन कौंवा ह अपन चोंच म अमरबेल के नार ल चाबे आवत हे. आए के बाद अमरबेल के नार ल गस्ती के एक ठन डारा म लामी-लामा ओरमा दिस. मंगलू वोकर बारे म जादा गुनिस घलो नहीं. चोंगी चुहके के बाद ढेरा आंटे के बुता ल पूरा करीस तहाँ ले अपन घर लहुट आइस.
* * * * *
कुछू न कुछू ओढ़र करके मंगलू रोजे गस्ती तरी जाय. कभू गाय-गरू खोजे के बहाना, त कभू ढेरा आंटे के बहाना. अउ अब जब कभू जाय, त कौंवा के ओरमाए अमरबेल ल अवस करके देखय. वोला बड़ा अचरज लागय, बिन जर के नार ह अतेक तालाबेली वाले गरमी म घलोक कइसे सूखावत नइए? कभू-कभू वो गुनय के गस्ती के जुड़ छांव के सेती वोमा घाम के असर नइ होवत होही, तेकर सेती न सूखावत हे, न अइलावत हे. वोला सबले जादा अचरज तो तब लागिस जब पंदरही के बीतत ले अमरबेल ल बाढ़त पाइस! वो अपन आंखी ल रमंज-रमंज के देखय अउ गुनय- कौंवा ह एला लान के ओरमाए रिहिसे तेन दिन तो सवा हाथ असन दूनों मुड़ा ओरमे रिहिसे, फेर आज डेढ़ अउ दू हाथ होए असन कइसे जनावत हे?
मंगलू बिना जर वाले अमरबेल के बाढ़े के गोठ ल गुनतेच रिहिसे, तइसनेच म भंइसा गाड़ा म जोरा के एक ठन लकड़ी के ठेला घलो वो मेर आगे. वोकर संगे-संग परदेसी घलो सइकिल म आके वो मेर ठाढ़ होगे. तहाँ ले देखते-देखत ठउका गस्ती के आगू म परदेसी के चाय ठेला चालू होगे.
अब मंगलू के गस्ती तरी अवई ह थोरिक कमती होगे रिहिसे, काबर ते परदेसी के ठेला के सेती वो मेर लोगन के भीड़-भाड़ बाढ़गे राहय. गस्ती पेंड़ म चिरई-चिरगुन मन के अवई घलो ह थोक कमतियागे राहय, फेर अमरबेल के फुन्नई ह अतलंग बाढ़गे राहय, वइसने परदेसी के ठेला के बढ़वार ह घलो लागय. जइसे गस्ती पेंड़ के रस ल पी-पी के बिना जड़ वाले अमरबेल ह चारों मुड़ा छछलत राहय, तइसने लोक-लाज डर-भय अउ चिंता ले निसफिक्कर परदेसी के ठेला घलो बस्ती वाले मनके रसा ल नीचो-नीचो के छछलंग बाढ़त राहय.
ऐतराब के जम्मो बस्ती म वोकरे चरचा होवय. लोगन काहयं के वो हर तो केहे भर के चाय ठेला आय, असल म तो वो ह जम्मो किसम के नसा अउ जुआ-सट्टा खेलाय-खवाय के ठीहा आय. एकरे सेती उहाँ जम्मो लंदर-फंदर किसम के मनखे मन के भीड़ लगे रहिथे. परदेसी ल गाँव के मान-मर्यादा अउ लाज-शरम ले का लेना-देना? वो इहाँ के मूल निवासी होतीस, चारों मुड़ा के गाँव बस्ती मन म वोकर लाग-मानी, नता-रिश्ता मन होतीन, तब तो वोला कोनो किसम के बात-बानी ह लागतीस? वो तो गस्ती के पेंड़ म बिना जड़ के छछलत अमरबेल कस रिहिसे, जेन सिरिफ दूसर के रस ल पीथे अउ पीये के बाद वोकरेच छाती म छछल जाथे.
देखते-देखत परदेसी के धंधा अतका बाढ़गे के वोला एके मनखे के भरोसा सम्हालना मुसकुल होगे. तब वो अपन 'देस' ले नता-रिश्ता अउ लरा-जरा मनला घलो बलाए लागिस. चारे-पांच साल के बीतत ले आसपास के गाँव मन म परदेसी के नहीं-नहीं म सौ दू सौ अकन परिवार आके बसगे. अब वो मनला कोनो गाँव म दुकानदारी खोले बर पंच-सरपंच मनला घलो पूछे के जरूरत नइ परत रिहिसे. मुड़ भर-भर के लउड़ी धर के दल के दल जावयं अउ जेन मेर पावयं तेने मेर के भुइयां ल अपन बना लेवयं.
अब वोमन सिरिफ दुकानदारी भर नइ करयं, गाँव के सियानी अउ महाजनी घलो करयं. बड़का मनखे होए के अहंकार ले भरे मनखे मन के अत्याचार ले त्रस्त जनता वोकर मनके मीठ-मीठ बात म झट फंस जायं. तहाँ ले वोकर मन करा थोक-बहुत करजा-बाढ़ी लेके बलदा म अपन जम्मो खेती-खार ल उंकरे नांव म चढ़ा देवयं. अब तो बस्ती के जतका बड़े घर-दुवार, बारी-बखरी अउ धनहा-डोली हे, सब वोकरेच मनके पोगरइती होगे हें.
मंगलू महीना दू महीना म गस्ती पेंड़ करा अभी घलो जावय. एक नजर गस्ती के पेंड़ ल अउ एक नजर परदेसी के दुकान ल देखय. दूनों के दूनों चिनहाय कस नइ लागय. गस्ती के पेंड़ ह अब अमरबेल के पेंड़ बरोबर दिखय. न तो वोमा अपन पान-पतइला दिखय, न पहिली असन गुरतुर फर फरय. पेंड़वा घलो ह कतकों जगा ले सूखा-सूखा के चिल्फा छांड़े अस लागय. ठउका परदेसी के दुकान अउ वोकर आड़ म होवत रंग-रंग के उपई के मारे ए बस्ती के मूल निवासी मन के रूप रंग अउ घर दुवार मन घलो अइसने गढ़न दिखय. परदेसी के परिवार चारों मुड़ा मार सोन कस चमकत पिंयर-पिंयर दिखत राहय अउ मूल निवासी मन गस्ती के पेंड़ असन जगा-जगा ले चिल्फा छांड़े अस सूखागे राहयं.
* * * * *
मंगलू के खाली बेरा अब नरवा खंड़ के डूमर तरी बीतथे. कभू-कभू जुन्ना सरपंच झंगलूदास घलो उहाँ पहुँच जाथे. कतकों बेर सरकारी स्कूल के बड़े गुरुजी घलो अभर जाथे. तीनों झन जब सकलावयं त पांच साल पहिली के गाँव अउ आज के गाँव ऊपर जादा गोठियावयं. गुरुजी उनला हमेशा काहय- 'बाहिर के मनखे ल इहाँ खातिर मोह कइसे लागही सरपंच? वो तो पइसा रपोटे बर आए हे, वोकर बर वोला कुछू करना परय वो सबला करही.'
-तभो ले गुरुजी, मान-मर्यादा अउ मानवता घलो तो कुछू चीज आय... संस्कृति अउ संस्कार घलो तो कुछू चीज होथे. अरे भई, ये देश म तो अंगरेज मन घलो राज करे हें, फेर उहू मन इहाँ के इतिहास, गौरव, बोली-भाखा अउ संस्कृति संग कभू अतका छेड़छाड़ नइ करीन, फेर ए मन तो वोकरो ले नहाक गेहें. राष्ट्रीयता के आड़ म क्षेत्रीय चिन्हारी के सत्यानाश करत हें. मैं का सोंच के दुकान खोले खातिर ए परदेसी ल जगा दे रेहेंव, अउ ए सब का होगे?'
-कुछू नहीं सरपंच... अब कइसनो कर के फेर ए गाँव अउ देस-राज के जम्मो शासन-सत्ता ल हम मूल निवासी मनला अपन हाथ म ले बर लागही, तभे इहाँ के मरजाद बांचे पाही, नइते हमर पुरखा मन काय रिहिन हें, कइसे करत रिहिन हें, तेकरो पहिचान मिटा जाही.
-ये सब तो ठीक हे, फेर कइसे करे जाय तेला तुहीं मन बतातेव गुरुजी.
-बस जतका झन समझदार अउ स्वाभिमानी किसम के मनखे हे, ते मनला जोरव, अउ आज ले उनला पंदोली दे खातिर टंगिया के बेंठ बने बइठे हें, ते मनला लेसौ-भूंजौ, तहाँ ले सब ठीक हो जाही. अउ हाँ.. सबले बड़े बात तो ए हे के तहूं मन अपन आदत-बेवहार, बोली-बचन अउ रहन-सहन ल सुधारौ. तुंहर तीर-तखार के मनखे तुंहला छोड़ के वोकर मन के संग खांध म खांध जोरे काबर रेंगथे, तेला गुनौ-बूझौ. काबर ते इही सबके नांव म तो वो मन हमन ल आपस म लड़वावत रहिथें.
-ठीक हे गुरुजी, हम अपने घर-परिवार अउ समाज म काबर लड़-मर के सिरा जाथन तेला तो सोचेच बर लागही. फेर मैं सोचथौं, ये टंगिया के बेंठ मनला सबले पहिली सिरवाए जाय.
-हाँ.. ये तो सबले जादा जरूरी हे.
मंगलू ह सरपंच अउ गुरुजी के गोठ ल कलेचुप सुनत रिहिसे, वो टंगिया के बेंठ ल लेसे-भूंजे के बात ल सुन के पूछ परिस-' गुरुजी, ये टंगिया के बेंठ के अरथ ल तो मैं समझेच नइ पाए हौं.'
गुरुजी कहिस-' मंगलू तैं तो किसान मनखे अस. टंगिया-बंसुला के रोजे उपयोग करथस, फेर बता बिना बेंठ के ए टंगिया-बंसुला मन कुछू काम आथे का?'
मंगलू मुड़ ल खजवावत कहिस-' नइ तो आवय गुरुजी, एक्के तीर परे रहिथे बस.
-हाँ... बस वइसने हमर मन के बीच म जतका झन टंगिया के बेंठ बने बइठे हें, जेकर मनके भरोसा परदेसी हमन ल चारों मुड़ा ले काटत-बोंगत हे, उहू मनला पहिली सिरवाए बर लागही.
मंगलू फेर पूछिस-' फेर ए मनला जानबो कइसे गुरुजी?'
गुरुजी वोला समझाइस-' ए तो एकदम सरल हे मंगलू. जेन भी मनखे वोमन ला धरम के नांव म, भाखा अउ संस्कृति के नांव म, जाति-समाज या फेर चिटुक सुवारथ म बूड़ के पंदोली देवत रहिथें, उही सबो झनला पहिली लेसे अउ सिरवाए बर लागही. चाहे वो कतकों हितु-पिरितु के मनखे होवय, तभो वोला ढनगाएच बर परही.
-अच्छा.. अच्छा.. जइसे गस्ती पेंड़ के अमरबेल ल सिरवाना हे, त वोला जतका डारा-पाना मन वोला अपन रस पिया-पिया के पोंसत हें, ते मनला पहिली काट दिए जाय तहाँ ले अमरबेल खुदे सिरा जाही... कइसे गुरुजी?
-वाह भई मंगलू अब्बड़ सुग्घर बात बोले हस. गस्ती के पेंड़ ल बचाना हे, अउ वोमा नवा डारा-पाना जमवाना हे, त अमरबेल म बिपतियाए जम्मो डारा-पाना ल तो काटेच बर लागही. बस इही किसम के परदेसी के जाल ले ए भुइयाॅं अउ इहाँ के अस्मिता ल बचाए के उपाय घलो हे. बस तुमन दूनों अपन-अपन बुता म भीड़ जावौ. सरपंच जम्मो स्वाभिमानी मनखे मनके फौज बनावय अउ तहाँ ले जनजागरन के बुता करय, अउ तैं ह गस्ती के पेंड़ म नवा डारा-पाना उल्होए के उदिम म भीड़ जा, अउ हां जब कभू सौ-पचास नेवरिया बाबू पिला मनके तुंहला जरूरत परही त वोला मैं पूरा करहूं, ए बात के भरोसा देवत हौं. अपन स्कूल के जम्मो पढ़इया लइका मनला तुंहर संग खांध म खांध मिला के रेंगे बर भेज दे करहूं जी, तुमन देखिहौ तो भला.
गुरुजी के बात ल सुन के मंगलू के मन म फेर गस्ती पेंड़ के जुड़ छांव तरी बइठ के ढेरा आंटे के भरोसा जागिस. वोकर मन-अंतस म रकम-रकम के चिरई-चिरगुन मन के चींव-चींव के भाखा सुनाए लागिस. वो अपन घर म आये के बाद कोठी-कुरिया के संगसा म माढ़े टंगिया ल हेर के मार टेंवना पखरा म टें-टें के अमरबेल ल पोंसत डारा-पाना मनला काटे के उदिम जोंगे लागिस.
(कहानी संकलन 'ढेंकी' ले साभार)
-सुशील भोले
संजय नगर, रायपुर
मो/व्हा. 9826992811
Monday, 28 February 2022
अमरबेल.. कहानी
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