कथाकार सुशील भोले गांव गंवई
के रचनाकार हैं, उनकी रचनाओं में गांव मुखरित होता है. वे वर्तमान परिवेश में ग्राम्य
जीवन का बेहतर विश्लेषण करते हैं. देशज भाषा में उनके कहानियों का कथोपकथन और
बिम्बों का संयोजन पाठकों को मोहित करता है. वे समस्याओं, विद्रूपों पर विमर्श
करते हुए उनके समाधान भी प्रस्तुत करते हैं. रूढि़वादी परम्पराओं और विगत के इतिहास पर गर्व करने की
भोथली रचनाशीलता के स्थान पर वर्तमान के पथरीली धरातल पर कथा संसार रचते हैं.
छत्तीसगढ़ी की प्रतिनिधि
कहानियों के पुर्नपाठ की कड़ी में हम सुशील भोले जी की बहुचर्चित छत्तीसगढ़ी
कहानी ‘ढ़ेंकी’ का हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत कर रहे हैं. छत्तीसगढ़ी
कथा संसार के विकास यात्रा पर यदि हम नजर डाले तो छत्तीसगढ़ी के प्रथम उपन्यास ‘हीरू के कहिनी’ के समय उपस्थित समस्याओं का लेखकीय
द्वंद एवं पंचायती राज्य व्यवस्था हेतु लेखक का स्वप्न, स्वतंत्रता प्राप्ति के बरसों बाद अस्सी के
दसक में इस कहानी को पढ़ते हुए, पूरा होता
प्रतीत होता है. मूल छत्तीसगढ़ी से इसे
हिन्दी अनुवाद करते समय हमने कथाकार के भाषायी संप्रेषणीयता को बरकरार रखने का
भरपूर यत्न किया है, आशा है आप छत्तीसगढ़ी कहानियों की आत्मा से साक्षात्कार
कर पायेंगें. .. संजीव तिवारी.
ढ़ेंकी
(छत्तीसगढ़ी कहानी)
कथाकार : सुशील भोले. अनुवादक
: संजीव तिवारी
आकाश की छाती पर धुंधलके का
शुक्र टंग गया है.
आकाश में शुक्र के उदित होते ही सुकवारो के पांव खाट को छोड़, माटी
के साथ मित्रता गांठने लगते हैं. उठने के बाद उसका काम होता
है, मवेशी चराने वाले को जगाना ताकि वह समय रहते मवेशियों के
झुंड को लेकर गौठान जा सके. उसके पीछे वो घर के अन्य काम,
लीपना-बुहारना, मांजना—धोना करती थी. आज
भी वह अपने पहटिया को जगाने के बाद स्त्री धर्म के कार्य में जुट गई.
सुकवारो रात के जूठे बर्तनों
को राख में मांज रही थी,
उसी समय पहटिया मुह धो कर, दैनिक कर्म से निवृत होकर आया और अंगोछी
में मुह पोंछते हुए बोला- 'पहटनीन थोड़ा सा चाय बनाओ ना, आज कुछ
ठंड जैसी लग रही है.'
'लो रहने दो आपके
नखरे को, रोज किसी ना किसी बहाने से आपको चाय पीना हैं!
ये रोज के गरम गरम चाय में आपका पेट बफुआता नहीं.' सुकवारो बर्तन मांजते हुए बोली.
सुकवारो की बात को सुन कर
पहटिया थोड़ा मुस्कुराया,
उसके बाद मसखरी करते हुए बोला- ‘अरी नयी नवेली
बहु .. जब से आई हो बस चोट पहुंचाने वाली बोली बोलती हो ..
कभी तो ..’
पहटिया अपनी बात पूरा भी
नहीं कर पाया और पहटनिन बीच में बोल उठी – 'नहीं तो .. आपके साथ मक्खन लगाए जैसे बोलूं.'
'तो क्या हो जायेगा..
अहीर जात.. दूध दही, मक्खन
जैसे बात कर लोगी तो.'
'लो रहने दो..
ये सब काम को कौन नौकरानी है जो कर देगी..? आपका
क्या है, सो के उठे तो चाय ही पीना.. उसके बाद खैनी मलते
मवेशियों के झुड की ओर चल देते हो. हम लोगों के काम को भी
कभी देखे हो ? कितना मरते खपते हैं.. उसे हम ही जानते हैं,
उसके बाद भी स्त्री का काम नाम का ना यश का.' कहते हुए सुकवारो बर्तन धोना छोड़कर चाय बनाने चली गई.
सुकवारो पहटिया को विदा कर
पुन:
बर्तन- भांडे में जुट गई. घर का सभी काम खत्म
हो गया तो काठा भर धान लेके ढ़ेंकी मे उसे कूटने लगी. ढ़ेंकी
के पूछ को पांव में दबाने के बाद उसके मुह के उठने और फिर बहने में गिरने के साथ
जो सुन्दर सुर ताल निकला उसके साथ सुकवारो अपनी भाषा में गीत गुनगुनाने लगी -
रोपा लगाए कस हमू लग जाथन
मइके ले खना के ससुरार म
बोवाथन
फर-फूल धरथे फेर हमरो परान
कइसे तिरिया-जनम दिये
भगवान...
(बाड़ी में लगाए धान के छोटे पौधे को उखाड़ कर खेत में
लगाने जैसे हम स्वयं भी मायके से उखड़कर स्वशुराल में लगती हैं. धान सा हममे भी
फल-फूल लगता है किन्तु हमारे प्राण.. स्त्री
का जनम कैसे दिये हो भगवान..)
'सुकवारो.. ओ सुकवारो.. क्या बहरी हो गई हो? बाहर से भर्राई आवाज सुनाई दी, लगा कि उसे कोई पुकार रहा है. सुकवारो ढ़ेंकी कूटना छोड़ के किवाड़ खोलने चली गई, दरवाजे
को खोला तो सामने भागा खड़ी थी. 'आवो भागा, आवो!' कहते हुए सुकवारो दरवाजे से पीछे पलटी.
भागा अंदर आते हुए बोली - 'बहुत मगन होकर ढ़ेंकी कूटती हो सुकवारो तुम तो, तुम्हारे
किवाड़ के सांकल को हिला हिला कर, मेरा हाथ भी दर्द देने लगा..
फिर भी क्या हो गया तुम्हें .. कान में क्या
रूई ठूंसे रहती हो?'
भागा की ओर देख कर सुकवारो
मुस्कुरा दी, बोली कुछ भी नहीं. आंगन पार करके दोनों ढ़ेंकी
कमरे में आ गए, और आते ही भागा को बैठने को बोल सुकवारी फिर
ढ़ेंकी कूटने लगी.
बहना के पास धान खोने के लिए
बैठती भागा फिर बोली - 'तुम्हें यह रोज रोज का भुकरस भुकरस ढ़ेंकी कुटना अच्छा लगता है सुकवारो?
हमें तो इसकी आवाज सुनते ही, ऐसा लगने लगता हैं जैसे हांथ पांव में
फफोले पड़ गए?'
'इसमें अच्छे और बुरे
की क्या बात है भागा?'
'तब भी.... गांव में
धनकुट्टी आ गया है फिर भी थक थक कर काम करती रहती हो.'
'क्या करें बहन,
हमारे पहटिया को धनकुट्टी से कुटाये चांवल के भात में स्वाद नहीं
आता.'
'उई.. बड़ा रंगीला है तुम्हारा पहटिया, हमारे पहटिया के
सामने तो जैसे भी परोस दो, वैसे ही खा लेते हैं.' भागा नें अपने पहटिया की सिधाई बतलाते हुए कहा.
सुकवारो और भागा के पति एक
ही पहट में मवेशी चराने हेतु काम में लगे थे. इसी कारण सुकवारो
और भागा एक ही साथ अपने मालिकों के घर में, पानी भरती इसीलिए रोज सुबह भागा
सुकवारो के घर आती फिर दोनों कुंवाँ के तरफ चल देतीं.
'छत वाले लोग आज क्या
चीज पाले हैं जो भारी खिलखिला रहे हैं?' पहटिया नें भात खाते
हुए सुकवारो से पूछा.
'उसकी बेटी दांमांद
लोग शहर से आए है ना, इसीलिए थोड़ी जोरदार आवाज आ रही है. सुकवारो ने कहा
'हुँ.. कब आये हैं?'
'आज ही तो आये हैं.
लो आप जल्दी जल्दी खा लो... नींद आ रही है..
मैं भी बोर सकेल के सोंउंगी.. उधर अलसुबह उठना
पड़ता है, और इधर आप आधी रात कर देते हो... ठीक से नींद भी पूरी नहीं हो पाती.' सुकवारों ने
उंघते हुए कहा.
खा तो रहा हूं कहकर पहटिया
जल्दी जल्दी खाने लगा.
गांव रात के गहरानें के पहले ही सियार की आवाज के साथ सांय सांय
करने लगता है. छत वाले घर से आ रही हंसी मजाक की
आवाजें अभी भी कान में पड़ रही थी. सुकवारो ये सब से अनमनी
खटिया में पांव पसार सुकी थी. बिचारी को सबेरे से उठ कर सभी
काम जो करने होते हैं. पहटिया भी चोंगी चुहकते खटिया में घुस
गया. चोंगी का आखरी कश खींचा फिर जमीन में रगड़कर बुझा दिया,
फिर कथरी को ओढ़ के सुकवारो के सपने में समा गया.
प्रतिदिन की भांति शुक्र के
दिखते ही सुकवारो खटिया से उठी और नारी धर्म में डूब गई. पहटिया को चाय पिला के विदा किया, फिर काठा भर धान लेके ढेंकी के साथ
जूझने लगी. थोड़ी देर बाद उसे लगा कि बाहर से कोई किवाड़
खटखटा रहा है. सोंची भागा होगी, पानी
भरने के लिए आई होगी. ढेंकी कूटने को छोड़ कर वह किवाड़
खोलने चली गई.
किवाड़ खोल के देखा तो आगे
छतवाले घर की सेठाईन खड़ी थी. सुकवारो अचकचा गई, क्योंकि सारी
जिंदगी बीत गई सेठाईन कभी किसी सुख दुख में भी सुकवारो के घर झांकने नहीं आई थी, फिर
आज कौन सी बात आन पड़ी? तब भी सुकवारो ने कहा 'आईये सेठाईन जी भीतर आईये, किस जीच के लिए अटक गई
हैं जो आज सुबह से ही यहॉं.'
सुकवारो की बात पूरी भी नहीं
हो पाई थी कि सेठानी उसके उपर बमकने लगी 'कैसे रे भडडो!
तुम भाड़ भाड़ ढेंकी कूट के हमारी नींद की तो पूरा सत्यानाश कर रही
हो. आज तो कम से कम इसे सुलाती. जानती
नहीं आज हमारी बेटी दामांद लोग पहली बार शहर से यहाँ आये हैं.. तेरे कारण इंनकी नींद टूट गई...’
सेठाईन के हृदयभेदी बात
सुनकर सुकवारो आश्चर्यचकित हो गई, फिर भी बात आगे ना बढे यह सोंचकर बोली - ’क्या करें सेठाईन.. आप जैसे मालिकों के घर से काठा पईली पाते हैं, उसे ही
इसी समय कूट काट के रखते हैं, तभी घर में चूल्हा जलता है...उसके बाद तो दिन भर
काम ही काम.. बैठने की भी फुरसत नहीं मिलती.’
सुकवारो की यथास्थिति की बातें
और सरल स्वभाव सेठाईन का क्रोध शांत नहीं हुआ, बात तिल का ताड़ बनते गया. देखते
ही देखते अड़ोस-पड़ोस के लोग अपने-अपने घर से निकल निकल कर वहां इकट्ठा होने लगे.
सेठाईन के सेठ, उसकी बेटी दांमांद सब इकट्ठे हो गए. सुकवारो के घर के पास इकट्ठे सभी
लोग सुकवारो को चुप होने को कहने लगे, पर
सेठाईन की फुहर पाती की गाली देना सुनके भी कोई उसे चुप रहने को नहीं कह सके. कहते
हैं ना कि सीधे की पत्नी को सभी भाभी कहते हैं, फिर बदमास के लिए एक भी देवर नहीं
मिलते, उसी प्रकार.
सुकवारो भभकते आग में पानी
डालने का यत्न करती, पर सेठाईन अपनी बातों से मिट्टी तेल जैसे उसे बढ़ा देती. अब
तो उसकी बेटी भी यज्ञ में हवि डालने लग गई. सुकवारो के तरफ कोई नहीं बोल रहा था.
और तो और भागा पानी भरने के लिए उसे बुलाने आई थी वह भी सुकड़दुम खड़ी थी. अब सेठाईन
और उसकी बेटी दोनों मिलकर सुकवारो के बाल को पकड़ के खींचने लगीं, दोनों उसकी छाती
में चढ़के गाल को अंगाकर रोटी जैसे पो डाले, हाथ पांव की हड्डी को भरूआ काड़ी जैसे
तोड़ डाले .. पर वाह री जनता.. पैसे वाले के अन्याय को देखकर भी कैसे तुमको लकवा
मार देती है.. और तो और .. तुम्हारी जीभ भी फड़फड़ा नहीं सकती.
बरदी के गांव में पहुचते ही
पीपल पेंड के नीचे गांव के लोग इकट्ठे होने लगे, देखते देखते पंचायती चौंरा खचा खच
भर गया. कितने ही लोग चौंरा में जगह नहीं मिलने पर इधर उधर, जिधर स्थान मिला वहीं
पसर गए, कितने ही फूलपैंट वाले लोग खड़े ही रहे. चारो तरफ सैमो-सैमो आवाज फैल गयी.
सरपंच बुद्धुराम के साथ सभी पंच अपने अपने स्थान में बैठ गए. सुकवारो के पहटिया
चारो तरफ घूम घूम के लोगों को चोगीं माखुर बाटता रहा. पर सेठ अभी तक नहीं आया था.
इसी बात को लेकर लोग खांसने खखारने जैसे बोलने लगे - ‘बड़ा आदमी है ना.. हम होते तो इतना देरी कर दिये कहके दंड जुर्माना कर
देतें... पर उसे .. पूछते तक नहीं .. क्यों देरी कर रहे हो करके.’
पहले की बात सुनकर दूसरे नें
कहा - ‘जान रहे हैं जी, इन बड़े आदमी के चाल को. वो पहटनिन बेचारी को इतना मारे
पीटे हैं, तब भी ये सभी एक होकर दोष बकरे की ओर ही डालेंगें. इस बिचारे पहटिया का
दो चार सौ लूटेंगें.’
तभी छतवाले सेठ दो चार लट्ठबाज लोगों के साथ आया. और उसके आते ही पंचायती
शुरू हो गई.
सरपंच ने पहटिया से पूछा –‘ कैसे जी पहटिया किस कारण ये पंचायत इकट्ठा किये हो?’
पहटिया हाथ जोड़ के अपने स्थान
में खड़ा हुआ और सुबह पहटनिन के साथ ढ़ेंकी कूटने की बात पर सेठाईन से हुई लड़ाई
की सभी बात को खोल खोल कर बताने लगा. उसकी बात को सुनकर एक पंच पूछा –‘ तुम वहां थे क्या?’
’नहीं था मालिक मेरी
पहटनिन जैसे बताई उसे आप लोगों के पास कह रहा हूं.’
पंच नें फिर कहा –‘ हम तुम्हारी बात को कैसे मान ले पहटिया.. जावो अपनी पहटनिन को यहां बुला
के ला, वही बतायेगी कि सेठाईन और उसकी बेटी उसे मारें हैं कि नहीं ..’
पहटिया की बात को पंच लोगों
नें नहीं माना, विवश होकर पहटिया अपनी पहटनिन को खाट में सुला कर, चार लोगों के साथ उठा के पंचायत में लाया.
पंच लोग सुकवारो से खोद खोद
कर पूछने लगे, किन्तु वह बेचारी तो मार खाकर अचेत जैसी हो गई थी, कुछ भी बोल नहीं
पा रही थी.
गांव के पढ़े लिखे नौजवानों को
ये सब देख कर आश्चर्य हुआ कि एक स्त्री लाश जैसी पड़ी है, उससे ये पंच लोग कैसा
व्यवहार कर रहे हैं. उनसे जब यह सब सहा न गया तो उनमें से एक युवक गुस्सा कर बोल
ही पड़ा –‘ सेठ और उसकी बेटी को भी यहां बुलाके पूछो ना कि ढ़ेंकी कूटने जैसे साधारण
सी बात में ये बिचारी को कैसे उन लोगों ने कूट छर दिए हैं.’
उस जवान छोकरे की बात सेठ को
अच्छा नहीं लगा, सेठ नें तमतमाते हुए कहा –‘हमारे घर की बहू
बेटी पंचायती संचायती में नहीं जातीं.’ दो चार पंच लोग भी
सेठ के हॉं में हो मिलाने लगे. किन्तु जवान लड़कों की आवाज एक से दो और दो से चार
होने लगी. वे अड़ ही गए कि सेठाईन को अपनी बेटी के साथ यहां आना ही पडे़गा.
जवान लड़कों के बल को पाकर
पहटिया का साहस बढ़ गया. वो भी अपने सिर भर उंचे लाठी को पकड़ कर गरजने लगा ‘जब मैं यहां अपनी पहटनिन को इस हालत में खाट में उठा के ले आया तो इस सेठ
की बेटी बहू को भी यहां आना चाहिए... अरे उसके घर की कुल मर्यादा की बात है तो मेरी
भी तो कुल मर्यादा है.’
सरपंच बुद्धुराम चारो तरफ से
उठते सत की आवाज के मर्म को समझ गया कि अब मेरा गांव जागने लगा है. ऐसे में यदि
अन्याय का पक्ष लिया तो सत्यानाश हो जायेगा, आखिर में उसे बोलना पड़ा-
’सेठ तुम्हें अपनी
बेटी बहु को यहां बुलाना ही पड़ेगा, और यदि नहीं बुलाओगे तो एक ही पक्ष की बात देख
सुन कर जो निर्णय होगा उसे तुम्हें मानना पड़ेगा.’
सरपंच ऐसी बात भी करेगा, सेठ
को भरोसा नहीं था. पर क्या करें समय बलवान होता है... उसे भी समय और नवजागरण की बयार
का अनुमान हो गया, एक एक करके सत की ज्योति जो जलने लगी है उसे मशाल बनते देर ना
लगेगी... और सत की ज्योति जब मशाल बनती है तो उसमें झूठ फरेब, शोषण अत्याचार का
कितना ही घनघोर अंधकार हो, सबका नाश हो जाता है.
सेठ अपने स्थान में ही बैठे
हुए बोला –‘उस घटना के समय तो मैं भी था भाई.. जो हुआ उसे देखा सुना हूं.. मैं अपनी
पत्नी और बेटी की तरु से पंचायत से माफी मांग रहा हूं.. जो भी सजा देना हो दें,
मैं मानूगा.’
सेठ को इस तरह से बोलते
सुनकर पंच सरपंच को बड़ा अचरज हुआ... किन्तु सेठ के द्वारा स्वयं जुर्म स्वीकार करने पर इनका भी
साहस बढ़ गया, और उन्होंनें झट फैसला सुना दिया कि सेठ पहटनिन के दवा दारू का
खर्च पांच सौ रूपया देवे और पंचायत में भी इतना ही राशि जमा करे. साथ ही साथ यह भी
कहा गया कि यह तुम्हारे घर की पहली गलती है इस कारण ज्यादा कुछ नहीं कर रहे हैं,
किन्तु आगे कहीं किसी किस्म की जानकारी मिलेगी तो और बड़ी सजा दी जायेगी.
पंचायत का फैसला सुन कर जनता
में खुशी की लहर दौंड़ गई. गांव में सत और न्याय का उजियारा फैलते देखकर गांव की
जनता पूरे उल्लास के साथ जयकारा लगाने लगी ‘बोलो पंच परमेश्वर
की जय.. बोलो पंच परमेश्वर की जय..’
बड़ा सुग्घर लागिस
ReplyDeletehttp://mayakegoth.blogspot.in/
मोरो ब्लोग ल देखे राइहू
Deletehttp://mayakegoth.blogspot.in/
अउ
http://kavyormi.blogspot.in/