1. समाज को समय और परिस्थितियों के अनुरूप सही दिशा देने वाली रचनाएँ ही साहित्य की श्रेणी में आती हैं। चूंकि मैं छत्तीसगढ़ राज्य आन्दोलन में जुड़े रहने के साथ ही छत्तीसगढ़ी भाषा एवं संस्कृति के लिए भी निरंतर प्रयासरत रहा हूँ, इसलिए मेरा लेखन, चिंतन और पठन पाठन सबकुछ इसी के अंतर्गत रहा है।
2. वैसे तो मैं अपने पिताजी को घर पर लिखते पढ़ते देखकर छात्र जीवन से ही टूटे फूटे शब्दों में कुछ कुछ लिखने लगा था। (हमारे पिताजी श्री रामचंद्र जी वर्मा का लिखा हुआ प्राथमिक व्याकरण एवं रचना उस समय संयुक्त मध्यप्रदेश के कक्षा 3, 4 एवं कक्षा 5 में पाठ्यपुस्तक रूप में चलता था, उन्हें ही देखकर मुझे भी लिखने का मन होता था) पर जब मैं सन् 1983 में अखबार लाईन में आया और इसके साथ ही रायपुर के साहित्यिक बिरादरी के साथ जुड़ने लगा तब से लेखन में थोड़ा सुधार हुआ।
मेरा सौभाग्य है कि मुझे शुरूआती दिनों में ही साहित्यकार और पत्रकार पं. स्वराज प्रसाद त्रिवेदी जी, अंचल के प्रसिद्ध व्यंग्यकार रहे विनोद शंकर शुक्ल जी, छत्तीसगढ़ी के प्रतिष्ठित साहित्यकार और पत्रकार टिकेन्द्रनाथ टिकरिहा जी जैसे महत्वपूर्ण व्यक्तित्वों का सानिध्य मिला जिसके कारण लेखन की गति और दिशा में निखार आता गया।
3. मैं पूरी तरह से छत्तीसगढ़ी भाषा, संस्कृति और अस्मिता में रम गया हूँ। पिछले पॉंच वर्ष से मैं लकवा ग्रस्त होने के कारण घर पर ही रहकर सोशलमीडिया में निरंतर लिख रहा हूँ, तथा सोशलमीडिया को ही अपना कर्मक्षेत्र बना लिया हूँ, इसलिए अभी सोशलमीडिया का पहला धारावाहिक 'कोंदा-भैरा के गोठ' पिछले करीब डेढ़ वर्ष से प्रतिदिन लिख रहा हूँ। इस धारावाहिक को रायगढ़ से प्रकाशित होने वाला दैनिक सुग्घर छत्तीसगढ़ अपने प्रथम पृष्ठ पर स्थान देता है। इसी तरह कोरबा से प्रकाशित दैनिक लोकसदन भी किसी किसी कड़ी को व्यंग्य के रूप में प्रकाशित कर देता है। कुछ न्यूज़ पोर्टल वाले भी किसी किसी कड़ी को प्रसारित कर देते हैं।
4. छत्तीसगढ़ में अब लोकसाहित्य की स्थिति काफी अच्छी है। छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण के पश्चात जब से छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग का गठन हुआ है, उसके पश्चात से लोकसाहित्य के सृजन के साथ ही प्रकाशन में भी काफी बढ़ोत्तरी देखी जा रही है। यहाँ के अनेक समाचार पत्र के साथ ही न्यूज़ चैनल भी छत्तीसगढ़ी को अच्छा स्थान दे रहे हैं। कुछ विश्वविद्यालयों में छत्तीसगढ़ी भाषा में एम. ए. का पाठ्यक्रम पढ़ाया जा रहा है।
5. इंटरनेट ने साहित्य को जन-जन तक पहुँचाने का अच्छा कार्य किया है। मैं छत्तीसगढ़ी के संदर्भ में बात करूँगा, आज इंटरनेट के कारण ही छत्तीसगढ़ी को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पढ़ा और समझा जा रहा है। यह कहें कि छत्तीसगढ़ी को इंटरनेट के रूप में पंख लग गया है, तो अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगी। केन्द्र सरकार के एक दो बड़े संस्थान भी इसके लिए सार्थक कार्य कर रहे हैं। निजी स्तर पर नार्थ अमेरिका छत्तीसगढ़ एसोसिएशन 'नाचा' नामक संस्था ने छत्तीसकोश नाम से एक ऐप बनाया है, जिसके माध्यम से छत्तीसगढ़ी से अंगरेजी और अंगरेजी से छत्तीसगढ़ी अनुवाद भी किया जा सकता है। इस ऐप के माध्यम से विश्व के लगभग चौबीस देशों में निवासरत छत्तीसगढ़ी मूल के लोग सात समंदर पार बैठकर भी अपनी भाषा और माटी की खुश्बू के साथ जुड़े होने का अहसास कर पा रहे हैं। इंटरनेट में छत्तीसगढ़ी के अनेक साहित्यकारों के ब्लाग आदि उपलब्ध हैं, जिसे देश विदेश के पाठक नियमित रूप से पढ़ रहे हैं।
6. मंचीय कविता आज पूरी तरह से मनोरंजन का माध्यम बन गई है। मुझे स्मरण है, पहले ऐसा नहीं था। पहले मंच पर भी सार्थक और उद्देश्य परक रचनाएँ सुनने को मिलती थीं ।मुझे स्मरण है, 1970-80 के दशक तक रायपुर में केवल राठौर चौक में एक अखिल भारतीय कवि सम्मेलन होता था, तब हम लोग रात भर जाग कर उसका आनंद लेते थे। आज ऐसी स्थिति नहीं है, मेरा घर पुलिस मैदान के पास है, इसके बावजूद वहाँ होने वाले कवि सम्मेलनों में मैं जा नहीं पाता। जिस तरह से सांस्कृतिक मंचों पर लगातार गिरावट देखी जा रही है, लगभग यही स्थिति कवि सम्मेलन के मंचों की भी है।
7. रायपुर की साहित्यिक गतिविधियों में पहले की अपेक्षा अब गंभीरता की कमी दिखाई देती है। दो चार अच्छी संस्थाओं को छोड़ दें तो अधिकतर समितियों का उद्देश्य कवि मंच की प्राप्ति और उसी के अनुरूप लेखन ही दिखाई देता है। इसके लिए कहीं न कहीं साहित्यकारों को सम्मानित किए जाने का मापदंड भी दोषी है। एक तरफ हास्य के नाम पर जोकरगिरी करने वालों को पद्मश्री जैसे सम्मान से नवाजा जाएगा और सार्थक और समाजोपयोगी रचना धर्मियों को ठेंगा दिखाया जाएगा तो, स्वभाविक है लेखन के मार्ग पर आने वाले लोग उन लोगों को ही अपना आदर्श मानकर अनुसरण करेंगे जिन्हें नवाजा जा रहा है।
8. नई पीढ़ी के रचनाकारों का ज्यादातर ध्यान कवि सम्मेलन का मंच ही होता है। मैं चाहता हूँ कि नई पीढ़ी गंभीर साहित्य का अध्ययन करे और यहाँ की अस्मिता पर ठोस कार्य करे। चूंकि छत्तीसगढ़ को गलत तरीका से हिंदी भाषी राज्य घोषित कर यहाँ हिंदी के माध्यम से शिक्षा दी जाती रही है, इसलिए यहाँ के छात्र और लोग छत्तीसगढ़ से ज्यादा अन्य हिंदी भाषी राज्यों की भाषा, संस्कृति, इतिहास और गौरव से परिचित होते रहे हैं।
अभी केंद्र सरकार द्वारा नई शिक्षा नीति की जो घोषणा की गई है, उसे यहाँ भी अनिवार्य रूप से लागू किया जाना चाहिए, तथा यहाँ भी यहाँ की असली मातृभाषा छत्तीसगढ़ी के माध्यम से शिक्षा दी जानी चाहिए। छत्तीसगढ़ राज्य में छत्तीसगढ़ी मातृभाषा बोलने वालों की संख्या 65 प्रतिशत है, जबकि हिंदी मातृभाषा वालों की संख्या मात्र 6 प्रतिशत है, इसके बावजूद यहाँ की मातृभाषा हिंदी बताकर बहुत गड़बड़ किया गया है, अब नई शिक्षा नीति के अंर्तगत इसे सुधार कर सही किया जाय, यहाँ के छात्रों को यहाँ की अपनी भाषा में यहाँ के इतिहास और गौरव से परिचित कराया जाए।
छत्तीसगढ़ी संस्कृति के साथ भी बहुत उपेक्षित दृष्टिकोण अपनाया जाता रहा है, अन्य हिंदी भाषी राज्यों की संस्कृति को छत्तीसगढ़ की संस्कृति बताकर यहाँ की मूल संस्कृति की उपेक्षा की जाती रही है, जबकि छत्तीसगढ़ राज्य का निर्माण ही यहाँ की अपनी स्वयं की भाषा और संस्कृति के मापदंड पर हुआ है, लेकिन खेद के साथ कहना पड़ रहा है कि इस बात को लगातार नजरअंदाज किया जाता रहा है।
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