अगहन बिरस्पत कहनी - 4
ऊँच-नीच के भेद नहीं..
एक बखत के बात ए , अगहन के महीना रहीस , माता लक्ष्मी जी भगवान जगन्नाथ अर्थात कृष्ण जी ले कहीन- प्रभु आज मोर नाम से धरती के नर-नारी मन पूजा पाठ करत हें । आप आज्ञा दव तो मैं अपन भक्त मन से मिल के आतेंव ।
भगवान जगन्नाथ बोलिन - ये तो अच्छा बात हे । अवश्य जाओ फेर ध्यान रखना केवल नगर परिभ्रमण कर अउ देखके आबे ।
भगवान के आज्ञा पाके लक्षमी दाई बहुत खुस होइस अउ सोलह श्रृंगार कर एक डोकरी बम्हनीन के रूप धर के नगर म गीस ।
उहाँ ये का ? - सब सूनसान ! पूजा -पाठ के नाम म कुछु नहीं। सब नगर वासी सुते । ए देख के लक्षमी दाई बहुत दुखी होगे ।
लक्षमी दाई ल नगर के बाहिर एक छोटे से घर दिखिस । घर दुरहिया ले साफ दिखत रहीस सीढ़िया म दिया जलत रहीस । वो घर शहर के साफ-सफाई करइया सीरिया सहिनी के रहीस । लक्षमी दाई वो घर के तीर पहुँच गे । देखथे - सीरिया ह विधिपूर्वक लक्षमी जी के पूजा करत रहीस । लक्षमी दाई खुस हो के ओखर घर म घुसरगे अउ कहीन - बेटी सीरिया मैं तोर से बहुत खुस हंव । जो मांगना हे मांग ले ।
लक्षमी दाई सीरिया ल मनवांछित वरदान दीन अउ परसाद खा के निकलत रहीस , ओतके बेरा बलदाऊ , कृष्ण जी बन म बिचरे बर आय रहिन । सीरिया के घर ले लक्षमी माई ल निकलत बलदाऊ जी देख डरिस । बलदाऊ जी अड़बड़ गुस्सा गे। कृष्ण भगवान ल बोलिस - लक्षमी सीरिया सहिनी के घर गे हे , अब वोला घर म नई रखना हे। तैं वोला घर ले निकाल दे ।
कृष्ण भगवान बलदाऊ जी ले बहुत विनती करीन - ये दरी माफ कर दौ। फेर बलदाऊ जी टस के मस नई होइस ।
अंत में कृष्ण जी , लक्षमी दाई जब आइस तो वोला घर के भीतरी म आए से मना कर दीस अउ कहीस - तैं सीरिया सहिनी के घर गे रेहेस अब घर म नई आ सकस जिहां जाना हे चल दे ।
लक्षमी दाई बहुत विनती करीन क्षमा मांगिन फेर कृष्ण जी नई मानीस ।
अंत म लक्षमी दाई दूनों भाई ल श्राप दे दीस - यदि मोर पतिव्रत धरम में सत होही अउ चंदा सूरुज के आना-जाना सत हे त तुमन दूनों भाई ल बारह बछर तक अन्न, वस्त्र , जल नई मिलय ।
लक्षमी दाई अइसन श्राप देके घर ले निकल गे । घनघोर बन म पहुंच गे । उहाँ विश्वकर्मा जी ल बलाइस अउ बहुत सुंदर महल बनाय ल कहीस ।
विश्वकर्मा जी सब कारीगर मन ल बलाके बहुत सुंदर महल बना दीन । लक्षमी दाई अपन सब दासी मन ल बलाके वोश्रमहल म रेहे लगीस।
अपन दूत मन ल बैकुंठपुर भेज के उहाँ के सबो जिनिस ल मंगा लीस। अउ पूछिस उहाँ का बचे हे ।
दूत मन कहीन सबो जिनीस ल ले आए हन फेर सोनहा पलंग हे । प्रभु सूते रहीस तो नई लानेंन ।
लक्षमी दाई गुस्साई अउ कहीस सबले लाने ल कहे रेहेंव न - जावव ओमन ल भुइयां म पटक दुहू फेर पलंग लानव, हांडी-फाड़ी सब ल फोड़ दुहू कुच्छू झन बांचय ।
का करय दूत मन गीस अउ लक्षमी दाई के आज्ञा अनुसार रसोई म जा के सबे हाड़ी ल पटक- फोड़ दीन अउ भगवान मन ल भुइयां में सुता के सोनहा पलंग ल ले आईन।
एती सुबेरे बलदाऊ कृष्ण जी के नींद खुलीस त अकबका गे । पलंग नई भुइयां में सूते । मुहँ धोए ल गीन तव पानी नहीं । रसोई घर म गीन त सबे हांडी-फाड़ी फूटे ।
जइसे जइसे बेर होत गीस भूख -प्यास म कलबलाए लगीन ।
आखिर म दूनों झन भीख मांगे लगीन । फेर उन दूनों ल कोनों भीख नइ दीन । भीख देवइ तो दूर दूवारी ले दुत्कार दीन । दूनों व्याकुल होंगे ।
बलदाऊ जी के अंगूरी म एकठन सोनहा मुंदरी बांच गे रहीस । ओला देख के कहीस - चल एला बेंच देथन कुछ तो मिलहि ।
ये का ? अंगूरी ले उतारते ही मुंदरी पीतल के होगे ।
दूनों भूखे -प्यासे अन्न-जल खोजत भटके लगीन । भटकत भटकत बन म पहुँच गीन । कृष्ण जी कहीस बड़े भाई ओ देख तो दीया जगमगावत हे महल असन लागत हे चल ओही कोती जाबो कुछ मिल जाए ।
बलदाऊ कहीस- दिखत तो हे फेर ए कोनों माया तो नोहय। यहा घनघोर बन म काखर महल हो ही ।
कृष्ण जी कहीन - जेन भी होही चल ओही कोती जाबो।
जइसे-जइसे आगू जावय महल ह दुरहिया जावेय । बलदाऊ जी कहन लगीस अब मैं नई रेंग सकौं पाँव भूंजागे हे ।
कृष्ण भगवान धीर धराइस - बस थोड़ कन अउ दाऊ भैय्या पहुँच जबो ।
जइसे-तइसे दूनों झन महल तक पहुंच गीन अउ जोर जोर से मंत्रोच्चार कर -भिक्षाम देहि! केहे लगीन ।
ऊंखर बोली ल सुन के लक्षमी दाई एक झन दासी ल कहीस देख के आतो कोन आय हे ? पूछबे काबर आय हे ?
दासी गीस अउ बड़का दरवाजा ल खोलीस अउ पूछिस - कइसे आना होय हे ? का चाही?
दासी के रूप अउ बोली भाखा ल सुनके दूनों अकबका गें ।
फेर कृष्ण जी थोड़कन सम्हल के कहीन - कुछु नहीं हमन ल थोरकन अन्न जल चाही । भूखे प्यासे हन ।
ऊंखर बात सुनके दासी भीतर गीस अउ लक्षमी माइ ले बोलीस -
दू झन साधु हें बहुत रूपवान हे । भूखे प्यासे हे, ओमन ल बस अन्न जल चाही ।
दासी के बात ल सुन के लक्षमी माई समझ गीस एमन हो न हो दूनो भाई ए ।
दासी ले बोलीस- जा ओमन ल आदर पूर्वक भीतर ले आन अउ ऊंखर भोजन के व्यवस्था कर ।
दासी लक्षमी दाई के आज्ञा पाके दूनों झन ल भीतर बुला लीस ।
महल भीतर आए के बाद बलराम जी ल जानकारी होइस के अभी तक जेन ऊँच-नीच के भेद करत मैं लछमी ल अपन घर ले निकाले बर कृष्ण ल कहे रेहेंव, वोकरे सेती ए बीपत के बेरा ल देखना परिस. अब समझ गेंव लक्ष्मी काकरो संग भेदभाव नइ करय. जेन वोकर श्रद्धा ले सुमरथे, वो वोकर घर जाथे.
मोर कहानी पुरगे.. दार-भात चुरगे.
(प्रस्तुति : सुशील भोले)
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