Thursday, 8 February 2024

राजिम मेला बनाम कुंभ कल्प

राजिम मेला बनाम कुंभ कल्प
  छत्तीसगढ़ की संस्कृति मेला-मड़ई की संस्कृति है। यहाँ के लोक पर्व मातर के दिन मड़र्ई जागरण के साथ ही यहाँ मड़ई-मेला की शुरूआत हो जाती है, जो महाशिव रात्रि तक चलती है।
मड़ई का आयोजन जहाँ छोटे गाँव-कस्बे या गाँवों में भरने वाले बाजार-स्थलों पर आयोजित कर लिए जाते हैं, वहीं मेला का आयोजन किसी पवित्र नदी अथवा प्राचीन सिद्ध शिव स्थलों पर आयोजित होता चला आ रहा है। इसी कड़ी में राजिम का प्रसिद्ध मेला भी कुलेश्वर महादेव के नाम पर आयोजित होता था। बचपन में हम लोग आकाशवाणी के माध्यम से एक गीत सुना करते थे- "चल चलना संगी राजिम के मेला जाबो, कुलेसर महादेव के दरस कर आबो।" लेकिन अब पुनः इस पारंपरिक मेला को परिवर्तित कर कुंभ कल्प के रूप में आयोजित करने का निर्णय लिया गया है.
     पूर्ववर्ती सरकार के पहले पॉंच वर्ष पूर्व तक भी हम लोग इसे काल्पनिक कुंभ के रूप में भरते देखते रहे हैं. मुझे स्मरण है, इस कल्प कुंभ में शाही स्नान का भी आयोजन होता था. इसके लिए त्रिवेणी संगम स्थल के एक ओर एक छोटा तालाब नुमा गड्ढा (डबरा) बना लिया जाता था, जिसमें ऊपर के बॉंध से पानी लाकर भर दिया जाता था. फिर इसी में विशेष पर्व पर शाही स्नान का आयोजन होता था.
    मुझे स्मरण है, उक्त डबरानुमा जलाशय में सैकड़ों लोगों के एक साथ स्नान करने के कारण उसका पानी प्रदूषित हो जाता था. इसलिए उसमें जो भी व्यक्ति स्नान करता था, उसे खुजली की तकलीफ जरूर होती थी. इसके संबंध में एक बार छत्तीसगढ़ के गॉंधी के नाम से प्रसिद्ध पं. सुंदरलाल शर्मा जी की पौत्री शोभा शर्मा जी ने कहा था- 'सुशील भैया, ए ह शाही स्नान नोहय, भलुक खजरी स्नान आय. हमन तो राजिम म रहिथन तभो उहाँ नहाय बर नइ जावन.' 
   चूंकि उस समय तक मैं राजधानी रायपुर के एक समाचार पत्र के साथ जुड़ा हुआ था, और राजिम कल्प कुंभ पर विशेषांक प्रकाशित करने की जिम्मेदारी मिलने के कारण मेरा वहाँ नियमित जाना होता था, इसलिए वहाँ की वास्तविकताओं को देखने समझने के साथ ही उस क्षेत्र के तमाम बुद्धिजीवियों के साथ मिलता और उनके विचारों से भी अवगत होता था.
     जहाँ तक इस पारंपरिक राजिम मेला को भव्यता प्रदान करने की बात है, तो इसे हर स्तर पर स्वागत किया जाएगा। सभी लोग इससे सहमत थे, किन्तु इसका नाम और कारण को परिवर्तित करना किसी भी सूरत में स्वीकार नहीं करने की बात कही जाती थी । 
     इस बात से हम सभी परिचित हैं कि छत्तीसगढ़ आदि काल से ही बूढ़ादेव के रूप में शिव संस्कृति का उपासक रहा है, इसीलिए यहाँ के प्रसिद्ध शिव स्थलों पर ऐसे मेलों का आयोजन होता था. लेकिन जब से इसका नाम कुंभ कल्प किया गया था, तब से कुलेश्वर महादेव के नाम पर भरने वाला मेला का नाम परिवर्तित कर राजीव लोचन के नाम पर भरने वाला कुंभ कल्प किया गया था. 
     कितने आश्चर्य की बात है, कि यहाँ के तथाकथित बुद्धिजीवी और जिम्मेदार  जनप्रतिनिधि भी इस पर कभी कोई टिका-टिप्पणी करते नहीं देखे जाते थे। बाद में जब हमारे जैसे कुछ सिरफिरे इस पर कलम चलाने लगे, तब पूर्व मुख्यमंत्री समेत कुछ विपक्ष के राजनीतिक लोग भी इस पर बोलने लगे थे.  जबकि धंधेबाज किस्म के पत्रकार और साहित्यकार और कलाकार लोग तो वहाँ आयोजित होने वाले कार्यक्रमों में भागीदारी पाने के लिए लुलुवाते हुए या अपने पत्र-पत्रिका के लिए विज्ञापन उगाही करने के अलावा और कुछ भी करते नहीं पाये जाते थे।
    सबसे आश्चर्य की बात तो यह है, कि यहाँ के तथाकथित संस्कृति और इतिहास के मर्मज्ञों को भी यह समझ में नहीं आया था कि महाशिव रात्रि के अवसर पर भरने वाला मेला महादेव के नाम पर भरा जाना चाहिए या किसी अन्य के नाम पर? 
    मित्रों, जिस समाज के  बुद्धिजीवी और मुखिया दलाल हो जाते हैं, उस समाज को गुलामी भोगने से कोई नहीं बचा सकता। आज छत्तीसगढ़ अपनी ही जमीन पर अपनी अस्मिता की स्वतंत्र पहचान के लिए तड़प रहा है, तो वह ऐसे ही दलालों के कारण है। शायद छत्तीसगढ़ इस देश का एकमात्र राज्य है, जहाँ मूल निवासियों की भाषा, संस्कृति और लोग हासिए पर जी रहे हैं और बाहर से आकर राष्ट्रीयता का ढोंग करने वाले लोग तमाम महत्वपूर्ण ओहदे पर काबिज हो गये हैं।
    इस देश में जिन चार स्थानों पर वास्तविक कुंभ आयोजित होते हैं, वे भी शिव स्थलों के नाम पर ही जाने और पहचाने जाते हैं, तब यह कुंभ कल्प भी कुलेश्वर महादेव के नाम पर पहचाना जाना चाहिए था? 
    अब देखते हैं, इस वर्ष से पुनः प्रारंभ हो रहे कुंभ कल्प में क्या कुछ देखने को मिलता है, क्योंकि यह पावन स्थल राजनीतिक दल वालों के लिए एक प्रकार से अहम तुष्टि और मनमर्जी का केंद्र बन गया है.
जय कुलेश्वर महादेव... जय राजिमलोचन.. सभी को सदबुद्धि प्रदान करें.
-सुशील भोले
संजय नगर, रायपुर
मो/व्हा. 9826992811

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