रिखी क्षत्रिय |
रिखी क्षत्रिय ने बताया कि विगत 26 सालों से वह छत्तीसगढ़ के दूरदराज गांव में जाकर उन्होंने 156 लोकवाद्यों का संग्रह किया है। रिखी क्षत्रिय कहते हैं छत्तीसगढ़ में लोकवााद्यों की पैठ संस्कृति से है। कई वाद्य ऐसे हैं, जिन्हें देवस्थल पर रखकर पूजा जाता है। इन वाद्यों को आमतौर पर आदिवासी नहीं बेचते हैं।
डांहक वाद्य के संबंध में रिखी क्षत्रिय ने बताया कि वनबिलाव के चमड़े से बना यह वाद्य नवरात्रि में सिर्फ ज्योत स्थापना के समय ही बजाया जाता है। डमरुनुमा घुंघरुओं से आबद्ध इस वाद्य को पैर में बांधकर बजाया जाता है। झरी डंडा का बस्तर में चलन है। बीजों की मदद और खास तकनीक से बजे बांस के वाद्य से झरने की ध्वनि आती है।
धातु की खोज जब नहीं हुई थी। उस समय बैल के सींग की तुरही का उपयोग किया जाता था। सूपे में घुंघरु और कौड़ी की मदद से बनाया गया। लोकवाद्य 'सुरपा" बस्तर में प्रचलित है। आमतौर पर नवाखाई के समय इसका उपयोग किया जाता है। इसी तरह रेला नृत्य के साथ 'चटका" लोकवाद्य बजाने की परंपरा है।
अंजली जोशी, रिखी क्षत्रिय और मैं सुशील भोले |
रोंझू एक ऐसा वाद्य है। जिसका प्रयोग खरगोश को पकडऩे के लिए किया जाता था। इसी तरह घड़े से बनाया गया लोकवाद्य 'घूमरा"
जिसकी आवाज शेर की दहाड़ की तरह होती है। खेती की रखवाली के लिए की जाती थी।
भेर का प्रयोग रायगढ़ जिले में स्थान शुद्धि के लिए, चटका का उपयोग रेला नृत्य में और माडिय़ा ढोल का उपयोग गौर नृत्य के लिए किया जाता है। रिखी क्षत्रिय का मानना है कि लोकवाद्य छत्तीसगढ़ की धरोहर है इस नाते से वह उसका व्यक्तिगत तौर पर संरक्षण कर रहे हैं और इस संरक्षण के लिए शासन से वह किसी तरह की उम्मीद नहीं रखते हैं।
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