Wednesday 27 February 2013

बइहा होगेंव.....

                                           
(इस भजन को मैंने अपने साधनाकाल में लिखा था। दरअसल लोग मुझे तब पागल हो गया है कहकर मेरे आस-पास भी नहीं आते थे। मेरे घनिष्ठ मित्र भी मुझसे दूर भागते थे। तब मैंने उन्हीं परिस्थितियों को रेखांकित करते हुए छत्तीसगढ़ी भाषा में इस भजननुमा गीत को लिखा था। मैं सन् 1994 से 2009 तक (करीब चौदह-पंद्रह वर्षों तक) आध्यात्मिक साधना में था, उसी समय से मेरे गरुजी के आदेश पर भोले लिखना लगा। उसके पहले मुझे सुशील वर्मा के नाम पर जाना जाता था।)

                                               
                                                  बइहा होगेंव...

                                          मैं तो बइहा होगेंव शिव-भोले,
                                          तोर मया म सिरतोन बइहा होगेंव.....

                                         घर-कुरिया मोर छूटगे संगी, छूटगे मया-बैपार
                                         जब ले होये हे तोर संग जोड़ा, मोरे गा चिन्हार
                                        लोग-लइका बर चिक्कन पखरा कइहा होगेंव गा.....

                                                     खेत-खार सब परिया परगे, बारी-बखरी बांझ
                                                     चिरई घलो मन लांघन मरथे, का फजर का सांझ
                                                     ऊपरे-ऊपर देखइया मन बर निरदइया होगेंव गा......

                                       संग-संगवारी नइ सोझ गोठियावय, देथे मुंह ला फेर
                                       बिन समझे धरम के रस्ता, उन आंखी देथे गुरेर
                                       मैं तो संगी तोरे सही बस आंसू पोछइया होगेंव गा... 



सुशील भोले
संपर्क : 41-191, कस्टम कालोनी के सामने,
 डॉ. बघेल गली, संजय नगर (टिकरापारा)
रायपुर (छ.ग.) मोबा. नं. 098269 92811

                                                                                                                       sushilbhole2@gmail.com

Tuesday 26 February 2013

हीरा गंवाए हे बनकचरा म...


(नोट- छत्तीसगढ़ी व्याकरण के सर्जक हीरालाल चन्नाहू, जिन्हें कलकत्ता में मिली 'काव्योपाध्यायÓ की उपाधि के कारण हम हीरालाल काव्योपाध्याय के नाम से भी हम जानते हैं। उनकी स्मृति में नव उजियारा साहित्य एवं संस्कृति समिति रायपुर द्वारा सन् 2011-12 में एक स्मारिका का प्रकाशन किया गया था। उस स्मारिका में मेरे द्वारा छत्तीसगढ़ी भाषा में लिखे गये संपादकीय को यहां साभार प्रकाशित किया जा रहा है।)

ए ह छत्तीसगढ़ महतारी के दुर्भाग्य आय के वोकर असल 'हीराÓ बेटा मनला चुन-चुन के बनकचरा म फेंके अउ लुकाए के जेन बुता इहाँ के इतिहास लिखे के संग ले चालू होए हे, तेन ह आजो ले चलत हे। एकरे सेती हमला आज हीरालाल काव्योपाध्याय जइसन युगपुरुष मनला लोगन ल जनवाए के उदीम करे बर लागत हे।
 ए ह कतेक लाज के बात आय के छत्तीसगढ़ी लेखन के जेन ह गंगोत्री आय तेने ल इहाँ के इतिहास लेखन ले दुरिहाए के उदीम करे गे हवय। मोला लागथे के अइसन किसम के उजबक बुता ल उही मन करे हें, जिनला इहाँ के मूल निवासी मन के धरम, संस्कृति, इतिहास अउ गौरव ले कोनो किसम के इरखा या दुसमनी रहिस होही। काबर ते, इहाँ के ए सब जिनीस संग जतका दोगलाई करे गे हवय वइसन सिरिफ कोनो दुसमन-बैरीच ह कर सकथे, कोनो हितु-पिरितु अउ संगी-संगवारी मन नहीं।
आप मनला ए जान के आश्चर्य होही के जब कभू छत्तीसगढ़ी लेखन के शुरूवात के बात आथे, त झट ले सुंदर लाल शर्मा के नाम ले देथन, ए कहिके के प्रकाशित रूप म उंकर लिखे 'दान लीलाÓ ह सबले पहिली किताब आय। फेर ए बात ल कइसे भुला जाथन के उंकर ले कतकों बछर पहिली सन् 1885 म हीरालाल काव्योपाध्याय ह 'छत्तीसगढ़ी व्याकरणÓ लिखे रिहीन हें, जेमा व्याकरण के संगे-संग लोक गीत अउ साहित्य ल घलोक सकेले गे रिहीस हे। ए व्याकरण ल वो बखत के दुनिया के सबले बड़का व्याकरणाचार्य सर जार्ज ग्रियर्सन ह अंगरेजी म अनुवाद करके छत्तीसगढ़ी अउ अंगरेजी के समिलहा रूप म सन्् 1890 म छपवाए रिहिस हे।
इहाँ एक अउ बात के चरचा करना चाहथौं के जब सुंदर लाल शर्मा ले आगू निकले के बात होथे, त संत कबीर दास के बड़का चेला धनी धरम दास के बात करे जाथे, उंकर लिखे निरगुन भजन- 'जामुनिया के डार मोर टोर देव होÓ जइसन मन के उदाहरन दिए जाथे। ए ह बिलकुल दोगलाई के बात आय, काबर ते धरम दास के एको ठन रचना मनला छत्तीसगढ़ी के आरुग रूप के अंतर्गत नइ रखे जा सकय। उंकर रचना मन म मिश्रित भाषा के उपयोग करे गे हवय, जइसन कबीर दास जी ह अपन रचना मन म करयं। एकर सेती धरम दास ल छत्तीसगढ़ी के रचनाकार नइ माने जा सकय। अइसने अउ बहुत झन हें, जे मन छत्तीसगढ़ म रहयं भले फेर उन ब्रज, अवधी या खड़ी बोली म रचना करयं। हम जब छत्तीसगढ़ी के बात करथन, त आज के जेन छत्तीसगढ़ी के आरुग रूप हे तेकर बात करथन, अउ आज के रूप म सिरिफ हीरालाल जी के 'छत्तीसगढ़ी व्याकरणÓ ल ही प्रकाशित रूप म सबले जुन्ना किताब या लेखनी माने जा सकथे, अउ कोनो दूसर ल नहीं।
मैं ह इहाँ के मूल संस्कृति अउ इतिहास के बात हमेशा करथौं, अउ जम्मो जगा ए बात ल कहिथौं के इहाँ के साँस्कृतिक इतिहास ल, इहाँ जेन सृष्टिकाल या युग निर्धारण के हिसाब ले कहिन ते सतयुग के  संस्कृति ल नवा सिरा ले लिखे जाना चाही। जेन छत्तीसगढ़ ह आदिकाल ले बूढ़ादेव के रूप म सृष्टिकाल के संस्कृति ल जीथे, वोकर प्रचीनता ह सिरिफ रामायण अउ महाभारत (द्वापर-त्रेता) तक सीमित कइसे हो सकथे? बस्तर के लोकगीत म ए बात के जानकारी मिलथे के जब गणेश  जी ल प्रथमपूज्य के आर्शीवाद दे दिए जाथे, त वोकर बड़का भाई कार्तिक ह रिसा के दक्षिण भारत आ जाथे। कार्तिक ल मना के वापस हिमालय लेगे खातिर भगवान शंकर अउ देवी पार्वती ह सोला साल तक बस्तर म रहे हावयं। जब शिव जी ये छत्तीसगढ़ म रहे हावयं, त निश्चित रूप ले इहाँ के इतिहास ह वतका जुन्ना हे। त फेर अइसन काबर लिखे जाथे के इहाँ के इतिहास ह सिरिफ रामायण-महाभात काल तक सीमित हे।
ए तो जुन्ना बेरा के गोठ होइस अब कुछ आज के बात। इतिहास लेखन के जब गोठ करत हावन त आजो जेन लिखे जावत हे, तेला खलहारना जरूरी हावय, काबर ते आजो वइसनेच चाल चले जावत हे, जइसे पहिली चले गे रिहिसे। अभी कुछ दिन पहिली इहाँ रायपुर म छत्तीसगढ़ी  राजभाषा आयोग के कार्यक्रम होइस, जेमा इहाँ के साहित्यकार अउ पत्रिका के ऊपर जतका भी वक्ता मन बोलिन वोमा छत्तीसगढ़ी भाखा के एकमात्र संपूर्ण मासिक पत्रिका 'मयारु माटीÓ के नाम के उल्लेख एको झन वक्ता मन नइ करीन। अब एला का कहे जाना चाही? वक्ता मन के अधूरा ज्ञान ते जानबूझ के करे गे बदमासी। जबकि ए बात सोला आना सच आय के इहाँ पत्रिका के नाम म जतका भी पत्रिका निकले हे वोमा सिरिफ 'मयारु माटीÓ ल ही संपूर्ण पत्रिका कहे जा सकथे, बाकी अउ कोनो ल नहीं। बाकी मन कोनो कविता संकलन के रूप म निकलत हें, त कोनो कहानी अउ गद्य संकलन के रूप म। एक संपूर्ण पत्रिका के जेन मानक रूप होथे, वोमा कोनो ल पूर्ण रूप से नइ रखे जा सकय।
अइसने बात साहित्यकार मन के संबंध म घलोक हे, लेख लिखने वाला या सभा म वक्ता के रूप म बोलने वाला मन के जतका चिन-चिन्हार के होथे, तेकर मन के नाम ह तो बने जग-जग ले लिखे मिलथे, भले वोकर  रचना के स्तर ह खातू-कचरा किसम के राहय, फेर जे मन सहीं म बहुत अच्छा लिखत हावयं या पहिली लिखे हावयं वोकर मन के नाम ह कोनो मेर खोजे नइ मिलय। ए सबला का कहे जाना चाही? अज्ञानता, मूर्खता या बदमासी?
इहाँ के इतिहास लेखन म अंगरी उठाए के मोर जेन उद्देश्य हे, वो ह कोनो मनखे ल दोसी बताना नइए, फेर अतका जरूर हे के अइसन किसम के काम ल पूरा ईमानदारी अउ पूरा-पूरा जानकारी के आधार म होना चाही, मात्र सुने-सुनाय या अपन-बिरान के आधार म नइ करे जाना चाही। काबर ते इहाँ अइसन मनखे मन के संख्या जादा हावय, जेन मनला 'कौंवा लेगे कान लÓ कहि दे, त उन कान ल टमड़े ल छोड़ के कौंवा के पाछू भागे म अगुवा जाथें।
आज हीरालाल जी ल सुरता करत अउ गजब अकन गोठ करे के मन होवत हे, फेर अभी हर साल उंकर सुरता म ए कारज ल करना हे, तेकर सेती बाकी विषय मनला अउ अवइया बछर खातिर छोडऩा ह ठीक रइही।

सुशील भोले
संपर्क : 41-191, कस्टम कालोनी के सामने,
 डॉ. बघेल गली, संजय नगर (टिकरापारा)
रायपुर (छ.ग.) मोबा. नं. 098269 92811
sushilbhole2@gmail.com

Monday 18 February 2013

राजिम कुंभ बनाम राजिम मेला




छत्तीसगढ़ की संस्कृति मेला-मड़ाई की संस्कृति है, लेकिन यहां जब से भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनी है, तब से यहां की संस्कृति में कुछ जोड़-तोड़ कर परिवर्तित किया जा रहा है। राजिम कुंभ भी इसी प्रकार की एक परिवर्तित संस्कृति का रूप धारण करता जा रहा है, जिसे उचित नहीं कहा जा सकता।
जहां तक मेला को कुंभ कहा जाना तो स्वीकार योग्य है, लेकिन उसके कारण को परिवर्तित किया जाना स्वीकार नहीं है। यहां यह याद रखा जाना चाहिए कि छत्तीसगढ़ में कार्तिक पूर्णिमा से लेकर महाशिवरात्रि तक जो मेला-मड़ई का आयोजन किया जाता है, यहां के तमाम सिद्ध शिव स्थलों पर ही किया जाता है। इसलिए हम यह प्राचीन समय से सुनते और देखते आ रहे हैं कि राजिम मेला कुलेश्वर महादेव के नाम पर भरने वाला मेला कहलाता था। लेकिन जब से इसे कुंभ के रूप में परिवर्तित नाम दिया गया है, तब से इसे राजीव लेचन के नाम पर भरने वाला कुंभ के रूप में प्रचारित किया जा रहा है, जो कि यहां की मूल संस्कृति को समाप्त कर उसके ऊपर बाहरी संस्कृति को थोपने का षडयंत्र मात्र है।
मुझे लगता है कि राजीव लोचन नामकरण के पीछे  राजनीतिक षडयंत्र भी एक मुख्य कारण है। आप सब इस बात को जानते हैं कि राजीव लोचन भगवान राम का ही एक नाम है, और राम भारतीय जनता पार्टी का चुनावी एजेंडा है। शायद इसीलिए इस आयोजन को कुलेश्वर महादेव के स्थान पर राजीव लोचन के नाम पर भराने वाला प्रचारित किया जा रहा है।
मेरा प्रश्न है कि केवल छत्तीसगढ़ में ही नहीं अपितु पूरे देश में जो कुंभ का आयोजन होता है, वह केवल शिव स्थलों पर और उसी से संबंधित तिथियों पर आयोजित होता है, तब भला वह राजीव लोचन या राम के नाम पर आयोजित होने वाला कुंभ कैसे हो सकता है? राम के नाम पर तो अयोध्या में भी मेला या कुंभ नहीं भरता तो फिर राजिम में कैसे भर सकता है? वह भी महाशिवरात्रि के अवसर पर?
महाशिवरात्रि के अवसर पर लगने वाला मेला या कुंभ कुलेश्वर महादेव के नाम पर भरना चाहिए या राजीव लोचन के नाम पर?
मुझे छत्तीसगढ़ के तथाकथित बुद्धिजीवियों पर, उनके क्रियाकलापों पर आश्चर्य होता है। वे इस तरह की सांस्कृतिक विकृतियों पर कैसे खामोश रहकर सरकार की जी-हुजूरी में लगे रहते हैं।

 छत्तीसगढ़ की मूल संस्कृति के संबंध में अधिक जानकारी के लिए मेरे ब्लॉग-   - को या पुस्तक -आखर अंजोर - को भी पढ़ा जा सकता है।

सुशील भोले
संपर्क : 41-191, कस्टम कालोनी के सामने,
 डॉ. बघेल गली, संजय नगर (टिकरापारा)
रायपुर (छ.ग.) मोबा. नं. 098269 92811

sushilbhole2@gmail.com


Wednesday 13 February 2013

जय मां शारदे


        



जय मां शारदे.. मां शारदे.. मां शारदे,
सप्तसुरों को झंकृत कर दे, ज्ञान-कला भर दे। जय मां...

श्वेत हंस पर चढ़कर मैया,
        मेरे दर पर आजा।
अपनी वीणा के सरगम से,
        तन-मन ये झनकाजा।।
फिर गंूजे मेरा भी स्वर, यहां ऐसा कुछ कर दे। जय मां...



                                                                      -सुशील भोले

Tuesday 12 February 2013

बसंत पंचमी और छत्तीसगढ़


                                                     
छत्तीसगढ़ में बसंत पंचमी के अवसर पर दो प्रमुख पर्वों का आयोजन होता है। एक तो ज्ञान और कला की देवी सरस्वती की जयंती का आयोजन होता है, जिसे पूरे देश में एक साथ मनाया जाता है। लेकिन दूसरा - तपस्यारत शिव की तपस्या भंग करने के लिए कामदेव के आगमन स्वरूप होली दहन या काम दहन स्थलों पर अरंडी (अंडा) नामक पेड़ गाड़ा जाता है, जो कि संभवत: पूरे देश में केवल छत्तीसगढ़ में ही होता है।
यहां यह जान लेना आवश्यक है कि छत्तीसगढ़ में जो होली का पर्व मनाया जाता है, वह होलिका दहन के रूप में नहीं मनाया जाता, अपितु काम दहन या मदन दहन के रूप में मनाया जाता है। लेकिन यह दुखद है कि यहां की मूल संस्कृति को विकृत कर अन्य प्रदेशों की संस्कृति के साथ घालमेल कर लिखा जा रहा है।
छत्तीसगढ़ में होली का पर्व बसंत पंचमी को अंडा (अरंडी) का पेड़ गाडऩे से लेकर फाल्गुन पूर्णिमा को शिव जी के द्वारा अपना तीसरा नेत्र खोलकर कामदेव को भस्म करने तक अर्थात लगभग चालीस दिनों तक चलता। इस अवसर पर वासनात्मक शब्दों, दृश्यों और नृत्य-गीतों का बहुतायत में प्रयोग होता है, उसका असल कारण कामदेव द्वारा शिव तपस्या भंग करने के लिए अपनी पत्नी रति के साथ किये गये ऐसे ही दृश्यों का निर्माण करना है।
मेरा प्रश्न है- होलिका तो केवल एक दिन में ही चिता रचती है, उसमें बैठती है और स्वयं ही भस्म हो जाती है। फिर उसके लिए चालीस दिनों का पर्व मनाने का क्या कारण है? इस अवसर पर जो वासनात्मक नृत्य-गीतों का प्रयोग होता है उसका होलिका से क्या संबंध है?
अधिक जानकारी के लिए मेरे अन्य लेखों को या 'आखर अंजोरÓ नामक किताब को पढ़ा जा सकता है।
                                                                                                        (फोटो गूगल से साभार)

सुशील भोले
संपर्क : 41-191, कस्टम कालोनी के सामने,
 डॉ. बघेल गली, संजय नगर (टिकरापारा)
रायपुर (छ.ग.) मोबा. नं. 098269 92811
sushilbhole2@gmail.com

मयारू माटी के कुछ अंक


छत्तीसगढ़ी भाषा की एकमात्र संपूर्ण मासिक पत्रिका 'मयारु माटीÓ का विमोचन 9 दिसंबर 1987 को रायपुर के कुर्मी बोर्डिंग के सभाकक्ष में संध्या 7 बजे छत्तीसगढ़ी सांस्कृतिक मंच के जन्मदाता दाऊ रामचंद्र देशमुख के मुख्य आतिथ्य एवं दैनिक नवभारत के स्थानीय संपादक कुमार साहू की अध्यक्षता में संपन्न हुआ था। इस अवसर पर कला मर्मज्ञ दाऊ महासिंग चंद्राकर विशेष अतिथि के रूप में उपस्थित थे। मयारु माटी के संपादक सुशील वर्मा (भोले), टिकेन्द्रनाथ टिकरिहा, हरि ठाकुर, लक्ष्मण मस्तुरिया, सुशील यदु, पंचराम सोनी सहित बड़ी संख्या में छत्तीसगढ़ी भाषा के साहित्यकार एवं प्रेमीजन उपस्थित थे।
'मयारु माटीÓ के कुछ अंकों के कव्हर पृष्ठ यहां प्रकाशित किये जा रहे हैं। विस्तृत जानकारी के लिए संपर्क किया जा सकता है।









Monday 11 February 2013

संस्कृति के उजले पक्ष के लिए कार्य करें : कोदूराम


 छत्तीसगढ़ के एकमात्र शब्दभेदी बाण अनुसंधानकर्ता कोदूराम वर्मा राज्य निर्माण के पश्चात् यहाँ की मूल संस्कृति के विकास के लिए किए जा रहे प्रयासों से संतुष्ट नहीं हैं। उनका मानना है कि यहाँ के नई पीढ़ी के कलाकारों की रुचि भी अपनी अस्मिता के गौरवशाली रूप को जीवित रखने के बजाय उस ओर ज्यादा है कि कैसे क्षणिक प्रयास मात्र से प्रसिद्धि और पैसा बना लिया जाए। इसीलिए वे विशुद्ध व्यवसायी नजरिया से ग्रसित लोगों के जाल में उलझ जाते हैं। 87 वर्ष की अवस्था पूर्ण कर लेने के पश्चात् भी कोदूराम जी आज भी यहाँ की लोककला के उजले पक्ष को जन-जन तक पहुँचाने के प्रयास में उतने ही सक्रिय हैं, जितना वे अपने कला जीवन के शुरूआती दिनों में थे। पिछले 13 अक्टूबर 2011 को धमतरी जिला के ग्राम मगरलोड में संगम साहित्य समिति की ओर से उन्हें ‘संगम कला सम्मान’ से सम्मानित किया गया, इसी अवसर पर उनसे हुई बातचीत के अंश यहाँ प्रस्तुत है-

0 कोदूराम जी सबसे पहले तो आप यह बताएं कि आपका जन्म कब और कहाँ हुआ? 
मेरा जन्म मेरे मूल ग्राम भिंभौरी जिला-दुर्ग में 1 अप्रैल 1924 को हुआ है। मेरी माता का नाम बेलसिया बाई तथा पिता का नाम बुधराम वर्मा है। 

0 अच्छा अब यह बताएं कि आप पहले लोककला के क्षेत्र में आए या फिर शब्दभेदी बाण चलाने के क्षेत्र में?

सबसे पहले लोककला के क्षेत्र में। बात उन दिनों की है जब मैं 18 वर्ष का था, तब आज के जैसा वाद्ययंत्र नहीं होते थे। उन दिनों कुछ पारंपरिक लोकवाद्य ही उपलब्ध हो पाते थे, जिसमें करताल, तम्बुरा आदि ही मुख्य होते थे। इसीलिए मैंने भी करताल और तम्बुरा के साथ भजन गायन प्रारंभ किया। चँूकि मेरी रुचि अध्यात्म की ओर शुरू से रही है, इसलिए मेरा कला के क्षेत्र में जो पदार्पण हुआ वह भजन के माध्यम से हुआ। 

0 हाँ, तो फिर लोककला की ओर कब आए? 
यही करीब 1947-48 के आसपास। तब मैं पहले नाचा की ओर आकर्षित हुआ। नाचा में मैं जोकर का काम करता था। 

0 अच्छा... पहले नाचा में खड़े साज का चलन था, आप लोग किस तरह की प्रस्तुति देते थे? 
हाँ, तब खड़े साज और मशाल नाच का दौर था, लेकिन हम लोग दाऊ मंदरा जी से प्रभावित होकर तबला हारमोनियम के साथ बैठकर प्रस्तुति देते थे। 

0 अच्छा... नाचा का विषय क्या होता था? 
 उस समय ब्रिटिश शासन था, मालगुजारी प्रथा थी, इसलिए स्वाभाविक था कि इनकी विसंगतियाँ हमारे विषय होते थे। 

0 आप तो आकाशवाणी के भी गायक रहे हैं, कुछ उसके बारे में भी बताइए? 
आकाशवाणी में मैं सन् 1955-56 के आसपास लोकगायक के रूप में पंजीकृत हुआ। तब मैं ज्यादातर भजन ही गाया करता था। मेरे द्वारा गाये गये भजनों में - ‘अंधाधुंध अंधियारा, कोई जाने न जानन हारा’, ‘भजन बिना हीरा जमन गंवाया’ जैसे भजन उन दिनों काफी लोकप्रिय हुए थे। अब भी कभी अवसर मिलता है, तो मैं इन भजनों को थोड़ा-बहुत गुनगुना लेता हूँ। मुझे इससे आत्मिक शांति का अनुभव होता है। 

0 अच्छा, आप लोक सांस्कृतिक पार्टी भी तो चलाते थे? 
हां चलाते थे... अभी भी चला रहे हैं ‘गंवई के फूल’ के नाम से। इसमें पहले 40-45 कलाकार होते थे, अब स्वरूप कुछ छोटा हो गया है। यह साठ के दशक की बात है। तब दाऊ रामचंद्र देशमुख की अमर प्रस्तुति ‘चंदैनी गोंदा’ का जमाना था, उन्हीं से प्रभावित होकर ही हम लोगों ने ‘गंवई के फूल’ का सृजन किया था। 

0 अच्छा.. यह बताएं कि तब की प्रस्तुति और अब की प्रस्तुति में आपको कोई अंतर नजर आता है? 
हाँ... काफी आता है। पहले के कलाकार स्वाधीनता आन्दोलन के दौर से गुजरे हुए थे, इसलिए उनमें अपनी माटी के प्रति, अपनी कला और संस्कृति के प्रति अटूट निष्ठा थी, जो अब के कलाकारों में दिखाई नहीं देती। अब तो संस्कृति के नाम पर अपसंस्कृति का प्रचार ज्यादा हो रहा है। लोगों के अंदर से अपनी अस्मिता के प्रति आकर्षण कम हुआ है, और उनकी नजरिया पूरी तरह व्यावसायिक हो गयी है। निश्चित रूप से इसे अच्छा नहीं कहा जा सकता। 

0 क्या यहाँ का शासन भी इस दिशा में उदासीन नजर आता है? 
पूरी तरह से तो नहीं कह सकते, लेकिन राज्य निर्माण के पश्चात जो अपेक्षा थी वह पूरी नहीं हो पा रही है। 

0 अच्छा... अब आपके उस विषय पर आते हैं, जिसके कारण आपको सर्वाधिक ख्याति मिली है। आप बताएं कि आपने शब्दभेदी बाण चलाना कैसे सीखा? 
ये उन दिनों की बात है जब मैं भजन गायन के साथ ही साथ दुर्ग के हीरालाल जी शास्त्री की रामायण सेवा समिति के साथ जुड़ा हुआ था। तब हम इस सेवा समिति के माध्यम से मांस-मदिरा जैसे तमाम दुव्र्यवसनों से मुक्ति का आव्हान करते हुए लोगों में जन-जागरण का कार्य करते थे। उन्हीं दिनों उत्तर प्रदेश से बालकृष्ण शर्मा जी आए हुए थे। जब शास्त्री जी रामायण का कार्यक्रम प्रस्तुत करते तो कार्यक्रम के अंत में बालकृष्ण जी से शब्दभेदी बाण का प्रदर्शन करने को कहते। बालकृष्ण जी इस विद्या में पूर्णत: पारंगत थे। वे आँखों पर पट्टी बांधकर 25-30 फीट की दूरी से एक लकड़ी के सहारे से घूमते हुए धागे को आसानी के साथ काट देते थे। मैं उनकी इस प्रतिभा से काफी प्रभावित हुआ और उनसे अनुरोध करने लगा कि वे मुझे भी इस विद्या में पारंगत कर दें। बालकृष्ण जी पहले तो ना-नुकुर करते रहे, फिर बाद में इन शर्तों के साथ मुझे इस विद्या को सिखाने के लिए तैयार हो गये कि मैं जीवन भर सभी तरह के दुव्र्यवसनों से दूर रहूँगा। मैं उनके साथ करीब तीन महीने तक रहा। इसी दरम्यान वे मुझे इस विद्या की बारीकियों को सीखाते, और मैं उन्हें सीखकर अपने घर में आकर उन्हें दोहराता रहता। इस तरह इस विद्या में मैं पारंगत हो गया। 

0 तो क्या आपने भी अन्य लोगों को इसमें पारंगत किया है? 
अभी तक तो ऐसा नहीं हो पाया है।
0 क्यों ऐसा नहीं हो पाया? 
असल में यह विद्या मात्र कला नहीं, अपितु एक प्रकार से साधना है। लोग इसे सीखना तो चाहते हैं, लेकिन साधना नहीं करना चाहते। इसे सीखने के लिए सभी प्रकार के दुव्र्यवसनों से मुक्त होना जरूरी है। मुझे कुछ संस्थाओं की ओर से भी वहाँ के छात्रों को धनुर्विद्या सीखाने के लिए कहा गया। मैं उन संस्थानों में गया भी, लेकिन परिस्थितियाँ ऐसी बनी कि मुझे खाली हाथ लौटना पड़ा। 

0 क्या आपको इस धनुर्विद्या के लिए शासन के द्वारा कभी सम्मानित किया गया है? 
नहीं धनुर्विद्या के लिए तो नहीं, लेकिन कला के लिए राज्य और केन्द्र दोनों के ही द्वारा सम्मानित किया गया है। केन्द्र सरकार द्वारा मुझे सन् 2003-04 में गणतंत्र दिवस परेड में करमा नृत्य प्रदर्शन के लिए बुलाया गया था, जिसमें मैं 65 बच्चों को लेकर गया था। इस परेड में हमारी कला मंडली को सर्वश्रेष्ठ कला मंडली का पुरस्कार मिला था, तथा मुझे ‘करमा सम्राट’ की उपाधि से सम्मानित किया गया था। इसी तरह राज्य शासन द्वारा सन् 2007 में राज्योत्सव के दौरान कला के क्षेत्र में विशिष्ट योगदान के लिए दिए जाने वाले ‘दाऊ मंदरा जी सम्मान’ से सम्मानित किया गया था। 

0 नई पीढ़ी के लिए कुछ कहना चाहेंगे? 
बस इतना ही कि वे अपनी मूल संस्कृति को अक्षण्णु बनाये रखने की दिशा में ठोस कार्य करें। 


सुशील भोले
संपर्क : 41-191, कस्टम कालोनी के सामने,
 डॉ. बघेल गली, संजय नगर (टिकरापारा)
रायपुर (छ.ग.) मोबा. नं. 098269 92811
sushilbhole2@gmail.com

छत्तीसगढ़ की मूल संस्कृति

किसी भी अंचल की पहचान वहां की मौलिक संस्कृति के नाम पर होती है, लेकिन यह छत्तीसगढ़ का दुर्भाग्य है, कि पृथक राज्य निर्माण के एक दशक बीत जाने के पश्चात् भी आज तक उसकी अपनी अलग सांस्कृतिक पहचान नहीं बन पाई है। आज भी यहां की संस्कृति की जब बात होती है, तो यहां की मूल संस्कृति को दरकिनार कर अन्य प्रदेशों से आयातित संस्कृति को यहां की संस्कृति के रूप में बताने का प्रयास किया जाता है, और इसके लिए उन ग्रंथों को मानक माने जाने की दलील दी जाती है, जिन्हें वास्तव में अन्य प्रदेशों की संस्कृति के मापदंड पर लिखा गया है। इसीलिए उन ग्रंथों के नाम पर प्रचारित संस्कृति और छत्तीसगढ़ की मूल संस्कृति में कहीं पर भी सामंजस्य स्थापित होता दिखाई नहीं देता।

वास्तव में छत्तीसगढ़ की संस्कृति एक मौलिक संस्कृति है, जिसे हम सृष्टिकाल की या युग निर्धारण के मानक पर कहें तो सतयुग की संस्कृति कह सकते हैं। यहां पर कई ऐसे पर्व और संस्कार हैं, जिन्हें इस देश के किसी अन्य अंचल में नहीं जिया जाता। ऐसे ही कई ऐसे भी पर्व हैं, जिन्हें आज उसके मूल स्वरूप से परिवर्तित कर किसी अन्य घटना के साथ जोड़कर प्रचारित किया जा रहा है। आइए कुछ ऐसे ही दृश्यों पर तार्किक चर्चा कर लें।

सबसे पहले उस बहुप्रचारित व्यवस्था पर, जिसे हम चातुर्मास के नाम पर जानते हैं। ऐसा कहा जाता है कि चातुर्मास (आषाढ़ शुक्ल पक्ष एकादशी से लेकर कार्तिक शुक्ल पक्ष एकादशी तक) में देवता सो जाते हैं, (कुछ लोग इसे योग निद्रा कहकर बचने का प्रयास करते हैं।) इसलिए इन चारों महीनों में किसी भी प्रकार का मांगलिक कार्य नहीं करना चाहिए। अब छत्तीसगढ़ के संदर्भ में देखें, तो यह व्यवस्था यहां लागू ही नहीं होती। यहां चातुर्मास पूर्ण होने के दस दिन पहले ही भगवान शंकर और देवी पार्वती का विवाह पर्व 'गौरा-गौरी उत्सवÓ, जिसे सुरहुत्ती भी कहते हैं, के रूप में मनाया जाता है।

यहां पर यह जानना आवश्यक है कि गौरा-गौरी उत्सव को यहां का गोंड आदिवासी समाज शंभू शेक या ईसर देव और गौरा के विवाह के रूप में मनाता है, जबकि यहां का ओबीसी समाज शंकर-पार्वती का विवाह मानता है। मेरे पैतृक गांव में गोंड समाज का एक भी परिवार नहीं रहता, मैं रायपुर के जिस मोहल्ले में रहता हूं यहां पर भी ओबीसी के ही लोग रहते हैं, जो इस गौरा-गौरी उत्सव को मनाते हैं। ये मुझे आज तक यही जानकारी देते रहे कि यह पर्व शंकर-पार्वती का ही विवाह पर्व है। खैर यह विवाद का विषय नहीं है कि गौरा-गौरी उत्वस किसके विवाह का पर्व है। महत्वपूर्ण यह है कि यहां देवउठनी के पूर्व भगवान के विवाह का पर्व मनाया जाता है।

और जब भगवान की शादी का पर्व देवउठनी से पहले मनाया जाता है, तो फिर उनके सोने (शयन करना) या फिर इन महीनों को मांगलिक कार्यों के लिए किसी भी प्रकार से अशुभ मानने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। बल्कि यहां पर यह कहना ज्यादा अच्छा होगा कि छत्तीसगढ़ की संस्कृति में चातुर्मास के इन चारों महीनों को ही सबसे ज्यादा शुभ और पवित्र माना जाता है, क्योंकि इन्हीं चारों महीनों में यहां के सभी प्रमुख पर्व संपन्न होते हैं।

श्रावण अमावस्या को मनाए जाने वाले पर्व 'हरेलीÓ से लेकर देखें तो इस महीने की शुक्ल पक्ष पंचमी को 'नागपंचमीÓ तथा पूर्णिमा को 'शिव लिंग प्राकट्यÓ दिवस के रूप में मनाया जाता है। भादो मास में कृष्ण पक्ष षष्ठी को स्वामी कार्तिकेय का जन्मोत्सव पर्व 'कमर छठÓ के रूप में, अमावस्या तिथि को नंदीश्वर का जन्मोत्सव 'पोलाÓ के रूप में, शुक्ल पक्ष तृतीया को देवी पार्वती द्वारा भगवान शंकर को पति रूप में प्राप्त करने के लिए किए गए कठोर तप के प्रतीक स्वरूप मनाया जाने वाला पर्व 'तीजाÓ तथा चतुर्थी तिथि को विघ्नहर्ता और देव मंडल के प्रथम पूज्य भगवान गणेश का जन्मोत्सव पर्व।

क्वांर मास का कृष्ण पक्ष हमारी संस्कृति में स्वर्गवासी हो चुके पूर्वजों के स्मरण के लिए मातृ एवं पितृ पक्ष के रूप में मनाया जाता है। शुक्ल पक्ष माता पार्वती (आदि शक्ति) के जन्मोत्सव का पर्व नवरात्र के रूप में (यहां यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि यहां की संस्कृति में वर्ष में दो बार जो नवरात्र मनाया जाता है, उसका कारण आदि शक्ति के दो बार अवतरण को कारण माना जाता है। प्रथम बार वे सती के रूप में आयी थीं और दूसरी बार पार्वती के रूप में। सती के रूप में चैत्र मास में तथा पार्वती के रूप में क्वांर मास में)। क्वांर शुक्ल पक्ष दशमीं तिथि को समुद्र मंथन से निकले विष का हरण पर्व दंसहरा (दशहरा) के रूप में मनाया जाता है। (बस्तर में इस अवसर पर जो रथयात्रा का आयोजन किया जाता है, वह वास्तव में मंदराचल पर्वत के माध्यम से समुद्र मंथन का पर्व है। आगे इसकी विस्तृत चर्चा करेंगे)। तथा विष हरण के पांच दिनों के बाद क्वांर पूर्णिमा को अमृत प्राप्ति का पर्व 'शरद पूर्णिमाÓ के रूप में मनाया जाता है।

इसी प्रकार कार्तिक मास में अमावस्या तिथि को मनाया जाने वाला भगवान शंकर तथा देवी पार्वती का विवाह पर्व 'गौरा-गौरी उत्सवÓ में सम्मिलित होने के लिए लोगों को संदेश देने का आयोजन 'सुआ नृत्यÓ के रूप में किया जाता है, जो पूरे कृष्ण पक्ष में पंद्रह दिनों तक उत्सव के रूप में चलता है। इन पंद्रह दिनों में यहां की कुंवारी कन्याएं 'कार्तिक स्नानÓ का भी पर्व मनाती हैं। यहां की संस्कृति में मेला-मड़ई के रूप में मनाया जाने वाला उत्सव भी कार्तिक मास की पूर्णिमा तिथि से ही प्रारंभ होता है, जो भगवान शंकर के जटाधारी रूप में प्रागट्य होने के पर्व महाशिवरात्रि तक चलता है।

चातुर्मास के अंतर्गत हम 'दंसहराÓ की चर्चा कर रहे थे। तो यहां यह जान लेना आवश्यक है दशहरा (वास्तव में दंस+हरा) और विजया दशमी दो अलग-अलग पर्व हैं। दशहरा या दंसहरा सृष्टिकाल के समय संपन्न हुए समुद्र मंथन से निकले दंस विष के हरण का पर्व है तो विजयी दशमी आततायी रावण पर भगवान राम के विजय का पर्व है। यहां के बस्तर में दशहरा के अवसर पर जो 'रथयात्राÓ का पर्व मनाया जाता है, वह वास्तव में दंस+हरा अर्थात दंस (विष) हरण का पर्व है, जिसके कारण शिवजी को 'नीलकंठÓ कहा गया। इसीलिए इस तिथि को नीलकंठ पक्षी (टेहर्रा चिरई) को देखना शुभ माना जाता है, क्योंकि इस दिन उसे विषपान करने वाले शिवजी का प्रतीक माना जाता है।

बस्तर के रथयात्रा को वर्तमान में कुछ परिवर्तित कर उसके कारण को अलग रूप में बताया जा रहा है, बिल्कुल वैसे ही जैसे राजिम के प्रसिद्ध पारंपरिक 'मेलेÓ के स्वरूप को परिवर्तित कर 'कुंभÓ का नाम देकर उसके स्वरूप और कारण को परिवर्तित कर दिया गया है। पहले दशहरा के अवसर पर प्रतिवर्ष नया रथ बनाया जाता था, जो कि मंदराचल पर्वत का प्रतीक होता था, क्योंकि मंदराचल पर्वत के माध्यम से ही समुद्र मंथन किया गया था। चूंकि मंदराचल पर्वत को मथने (आगे-पीछे खींचने) के कार्य को देवता और दानवों के द्वारा किया गया था, इसीलिए इस अवसर पर बस्तर क्षेत्र के सभी ग्राम देवताओं को इस दिन रथयात्रा स्थल पर लाया जाता था। उसके पश्चात रथ को आगे-पीछे खींचा जाता था, और जब आगे-पीछे खींचे जाने के कारण रथ टूट-फूट जाता था, तब विष निकलने का दृश्यि उपस्थित करने के लिए उस रथ को खींचने वाले लोग इधर-उधर भाग जाते थे। बाद में जब वे पुन: एकत्रित होते थे, तब उन्हें विष वितरण के रूप में दोने में मंद (शराब) दिया जाता था।

इस बात से प्राय: सभी परिचित हैं कि समुद्र मंथन से निकले 'विषÓ के हरण के पांच दिनों के पश्चात 'अमृतÓ की प्राप्ति हुई थी। इसीलिए हम लोग आज भी दंसहरा तिथि के पांच दिनों के पश्चात अमृत प्राप्ति का पर्व 'शरद पूर्णिमाÓ के रूप में मनाते हैं।

यहां के मूल पर्व को किसी अन्य घटना के साथ जोड़कर लिखे जाने के संदर्भ में हम 'होलीÓ को उदाहरण के रूप में ले सकते हैं। छत्तीसगढ़ में जो होली मनाई जाती है वह वास्तव में 'काम दहनÓ का पर्व है, न कि 'होलिका दहनÓ का। यह काम दहन का पर्व है, इसीलिए इसे मदनोत्सव या वसंतोत्सव के रूप में भी स्मरण किया जाता है, जिसे माघ महीने की शुक्ल पक्ष पंचमी तिथि से लेकर फाल्गुन मास की पूर्णिमा तिथि तक लगभग चालीस दिनों तक मनाया जाता है।

सती आत्मदाह के पश्चात तपस्यारत शिव के पास आततायी असुर के संहार के लिए शिव-पुत्र प्राप्ति हेतु देवताओं द्वारा कामदेव को भेजा जाता है, ताकि उसके (शिव) अंदर काम वासना का उदय हो और वे पार्वती के साथ विवाह करें, जिससे शिव-पुत्र के हाथों मरने का वरदान प्राप्त असुर के संहार के लिए शिव-पुत्र (कार्तिकेय) की प्राप्ति हो। देवमंडल के अनुरोध पर कामदेव बसंत के मादकता भरे मौसम का चयन कर अपनी पत्नी रति के साथ माघु शुक्ल पक्ष पंचमीं को तपस्यारत शिव के सम्मुख जाता है। उसके पश्चात वासनात्मक शब्दों, दृश्यों और नृत्यों के माध्यम से शिव-तपस्या भंग करने की कोशिश की जाती है, जो फाल्गुन पूर्णिमा को शिव द्वारा अपना तीसरा नेत्र खोलकर उसे (कामदेव को) भस्म करने तक चलती है।

छत्तीसगढ़ में बसंत पंचमी (माघ शुक्ल पंचमी) को काम दहन स्थल पर अंडा (अरंडी) नामक पेड़  गड़ाया जाता है, वह वास्तव में कामदेव के आगमन का प्रतीक स्वरूप होता है। इसके साथ ही यहां वासनात्मक शब्दों, दृश्यों और नृत्यों के माध्यम से मदनोत्सव का सिलसिला प्रारंभ हो जाता है। इस अवसर पर पहले यहां 'किसबीन नाचÓ की भी प्रथा थी, जिसे रति नृत्य के प्रतीक स्वरूप आयोजित किया जाता था। 'होलिका दहनÓ का संबंध छत्तीसगढ़ में मनाए जाने वाले पर्व के साथ कहीं पर भी दृष्टिगोचर नहीं होता। होलिका तो केवल एक ही दिन में चिता रचवाकर उसमें आग लगवाती है, और उस आग में स्वयं जलकर भस्म हो जाती है, तब भला उसके लिए चालीस दिनों का पर्व मनाने का सवाल ही कहां पैदा होता है? और फिर वासनात्मक शब्दों, दृश्यों और गीत-नृत्यों का होलिका से क्या संबंध है?

मूल संस्कृति की चर्चा करते हुए कुछ बातें यहां के इतिहास लेखन की भी हो जाए तो बेहतर होगा, क्योंकि यहां की मूल संस्कृति के नाम पर अभी तक हम सृष्टिकाल या कहें कि सतयुग की संस्कृति की चर्चा करते आए हैं तो फिर प्रश्न उठता है कि छत्तीसगढ़ के इतिहास को केवल रामायण और महाभारत कालीन ही क्यों कहा जाता है? इसे सतयुग या सृष्टिकाल तक विस्तारित क्यों नहीं कहा जाता? जबकि बस्तर के लोक गीतों में इस बात का उल्लेख मिलना बताया जाता है, कि शिवजी देवी पार्वती के साथ अपने जीवन काल में सोलह वर्षों तक बस्तर में व्यतीत किए हैं।

इस संदर्भ में एक कथा प्राप्त होती है, जिसके अनुसार भगवान गणेश को प्रथम पूज्य का आशीर्वाद प्राप्त हो जाने के कारण उनके ज्येष्ठ भ्राता कार्तिकेय नाराज हो जाते हैं, और वह हिमालय का त्याग कर दक्षिण भारत में रहने के लिए चले जाते हैं। उन्हीं रूठे हुए कार्तिकेय को मनाने के लिए शिवजी देवी पार्वती के साथ यहां बस्तर में आकर सोलह वर्षों तक रूके हुए थे। छत्तीसगढ़ की मूल संस्कृति में शिव और शिव परिवार का जो वर्चस्व है, शायद उसका यही कारण है कि शिवजी यहां सोलह वर्षों तक निवासरत रहे थे।

यह भी ज्ञातव्य है कि दक्षिण भारत में कार्तिकेय की ही सबसे ज्यादा पूजा होती है। उन्हें मुरगन स्वामी के नाम पर जाना जाता है। शायद उनके दक्षिण भारत में निवासरत रहने के कारण ही ऐसा संभव हुआ है। तब प्रश्न यह उठता है कि हमारे इतिहासकारों को इतना गौरवशाली अतीत क्यों  ज्ञात नहीं हुआ? क्यों वे यहां के इतिहास को मात्र द्वापर और त्रेता तक सीमित कहते हैं?

मुझे ऐसा लगता है कि इन सबका एकमात्र कारण है, उनके द्वारा मानक स्रोत का गलत चयन। वे जिन ग्रंथों को यहां के इतिहास एवं संस्कृति के मानक के रूप में उद्घृत करते हैं, वास्तव में उन्हें छत्तीसगढ़ के मापदंड पर लिखा ही नहीं गया है। इस बात से तो सभी परिचित हैं कि यहां के मूल निवासी शिक्षा के प्रकाश से कोसों दूर थे, इसलिए वे अपनी संस्कृति और इतिहास को लिखित स्वरूप नहीं दे पाए। इसलिए जब अन्य प्रदेशों से यहां आकर बस जाने वाले लोगों ने यहां के इतिहास और संस्कृति को लिखित रूप देना प्रारंभ किया तो वे अपने साथ अपने मूल प्रदेशों से लाए गए ग्रंथों और संस्कृति को मानक मानकर 'छत्तीसगढ़Ó को परिभाषित करने लगे।

आज उस लिखित स्वरूप और यहां की मूल (अलिखित) स्वरूप में जो अंतर दिखाई देता है, उसका वास्तविक कारण यही है। इसलिए यहां के मूल निवासी जो अब स्वयं भी शिक्षित हो चुके हैं, वे चाहते हैं कि यहां की संस्कृति एवं इतिहास का पुनर्लेखन हो, और उस लेखन का आधार अन्य प्रदेशों से लाए गए ग्रंथों की बजाय यहां की मूल संस्कृति और लोक परंपरा हो।

सुशील भोले
संस्थापक, आदि धर्म सभा
संजय नगर, रायपुर (छ.ग.)
मोबा. नं. 080853-05931, 098269-92811
ईमेल -  sushilbhole2@gmail.com

Saturday 9 February 2013

गीत गाना चाहता हंू...



मैं तुम्हारे आंसुओं का गीत गाना चाहता हूं
भूख और बेचारगी पर ग्रंथ गढऩा चाहता हंू....

जब जमीं पर श्रम का तुमने, बीज बोया था कभी
पर सृजन के उस जमीं को, कोई रौंदा था तभी
मैं उसी पल को जहां को दिखाना चाहता हूं... मैं तुम्हारे...

जब तुम्हारे घर पर पहरा, था पतित इंसान का
बेडिय़ों में जकड़ा रहता, न्याय सदा ईमान का
उन शोषकों को तुम्हारे बेनकाब करना चाहता हूं.. मैं तुम्हारे...

दर्द की परिभाषा मैंने, समझी थी वहीं पहली बार
जब तुम्हारे नयन बांध ने, ढलकाये थे अश्रु-धार
उसी दर्द को अब जीवन से, मैं भगाना चाहता हूं... मैं तुम्हारे..

सुशील भोले
संपर्क : 41-191, कस्टम कालोनी के सामने,
 डॉ. बघेल गली, संजय नगर (टिकरापारा)
रायपुर (छ.ग.) मोबा. नं. 098269 92811
sushilbhole2@gmail.com

 

Friday 8 February 2013

छत्तीसगढ़ के मूल परब-तिहार


     
सावन अमावस            - हरेली (मांत्रिक शक्ति प्रागट्य दिवस)
सावन अंजोरी पंचमी     - नाग पंचमी (वासुकी जन्मोत्सव)
सावन पुन्नी                - परमात्मा के शिवलिंग रूप म अवतरण दिवस
भादो अंधियारी छठ      - कमरछठ (कार्तिकेय जन्मोत्सव)
भादो अमावस            - पोरा (नंदीश्वर जन्मोत्सव)
भादो अंजोरी तीज        - तीजा (पार्वती द्वारा शिव प्राप्ति खातिर करे गए तप दिवस)
भादो अंजोरी चौथ        - गणेश जन्मोत्सव
कुंवार अंधियारी पाख    - पितर पाख
कुंवार अंजोरी नवमी     - नवरात (माता शक्ति के पार्वती रूप म अवतरण दिवस)
कुंवार अंजोरी दशमी     - दसहरा (समुद्र मंथन ले निकले विष के हरण दिवस)
कुंवार पुन्नी                - शरद पुन्नी (अमरित पाए के परब)
कातिक अंधियारी पाख  - कातिक नहाए अउ सुवा नाच के माध्यम ले शिव-पार्वती बिहाव के तैयारी पाख
कातिक अमावस्या       - गौरा-गौरी पूजा (शिव-पार्वती बिहाव परब)
कातिक पुन्नी ले शिवरात्रि तक - मेला-मड़ई के परब
अगहन पुन्नी              - परमात्मा के ज्योति स्वरूप म प्रगट दिवस
माघ अंजोरी पंचमी      - बसंत पंचमी (शिव तपस्या भंग करे बर कामदेव अउ रति के आगमन के प्रतीक        स्वरूप अंडा पेंड़ गडिय़ाना, नाचना-गाना, सवा  महीना के परब मनाना)
पूस पुन्नी                   - छेरछेरा (शिव जी द्वारा पार्वती के घर नट बनके जाके भिक्षा मांगे के परब)
फागुन अंधियारी तेरस     - महाशिवरात्रि (परमात्मा के जटाधारी रूप म प्रगटोत्सव पर्व)
फागुन पुन्नी                - होली या काम दहन परब (तपस्या भंग करे के उदिम रचत कामदेव ल क्रोधित       शिव द्वारा तीसरा नेत्र खोल के भस्म करे के परब)
चैत अंजोरी नवमी        - नवरात (माता शक्ति के सती रूप म अवतरण दिवस)
बइसाख अंजोरी तीज      - अक्ति (किसानी के नवा बछर)

---------------------------------------------------------------------------------------------

                     सिरिफ अपन धरम अउ संस्कृति ह मनखे ल आत्म गौरव के बोध कराथे, 
                                  दूसर के संस्कृति ह गुलामी के रस्ता देखाथे।
----------------------------------------------------------------------------------------------
                                      -सुशील भोले-
  संपर्क : 41-191, डॉ. बघेल गली, संजय नगर (टिकरापारा) रायपुर (छ.ग.) मोबा. नं. 098269 92811                                          

Wednesday 6 February 2013

बसंती रंग झूम-झूम जाथे...



बगिया म आगे हे बहार, बसंती रंग झूम-झूम जाथे
पुरवइया छेड़ देहे फाग, मन के मिलौना ल बलाथे

मउहा ममहाथे अउ तीर म बलाथे
मंद सहीं नशा म मन ल मताथे
संग म सजन के सोर करवाथे....बसंती रंग....

परसा दहक गे हे नंदिया कछार
झुंझकुर ले झांकत हे मुड़ी उघार
लाली-लाली आगी कस जनाथे... बसंती रंग....

अमरइया अइसन कभू नइ सुहाय
उल्हवा पाना संग मउर ममहाय
कोइली तब मया गीत गाथे... बसंती रंग...

लाली-लाली लुगरा के छींट घलो लाल
राजा बसंत जइसे छींच दे हे गुलाल
अब तो तरी ऊपर लाले-लाल जनाथे... बसंती रंग...

सुशील भोले
41-191, कस्टम कालोनी के सामने,
डॉ. बघेल गली, संजय नगर (टिकरापारा)
रायपुर (छ.ग.) मोबा. नं. 098269 92811
sushilbhole2@gmail.com

Monday 4 February 2013

काम दहन के आय परब- होली



छत्तीसगढ़ आदिकाल ले बूढ़ादेव के रूप म भगवान शिव अउ वोकर परिवार ले जुड़े संस्कृति ल जीथे, एकरे सेती इहां के जतका मूल परब अउ तिहार हे सबो ह सिव या सिव परिवार ले जुड़े हावय। उही किसम होली जेला इहां के भाखा म होली कहे जाते। इहू हर भगवान भोलेनाथ द्वारा कामदेव ल भसम करे के परब आय।
छ त्तीसगढ़ म हमन जेन होली के परब मनाथन वो हर असल म काम दहन के परब आय। बाहिर ले आए मनखे मन इहां के सांस्कृतिक स्वरूप अउ इतिहास ल अब्बड़ ख़दर-बदर कर दिए हे। तेकरे सेती हमू मन वोकर मन सही ये होली के परब ल होलिका दहन के रूप म जानथव। ये हर असल म उत्तर भारत ले आये लोगन अउ उंकर मन के ग्रंथ के माध्यम ले इहां थोपे गे स्वरूप आय।
छत्तीसगढ़ आदिकाल ले बूढ़ादेव के रूप म अग्रवाल शिव अउ वोकर परिवार ले जुड़े संस्कृति ल जीथे, एकरे सेती इहां के जतका मूल परब अउ तिहार हे सबो ह सिव या सिव परिवार ले जुड़े हावय। उही किसम होली जेला इहां के भाखा म होली कहे जाते। इहू हर भगवान भोलेनाथ द्वारा कामदेव ल भसम करे के परब आय।
जे मन छत्तीसगढ़ के ‘होले’ ल होलिका दहन संग जोड़थें वोकर मन ले मोर एक ठन प्रश्न हे- होलिका तो सिरिफ एकेच दिन म चिता रचिस, वोमा आगी ढिलीस अउ प्रहलाद ल धर के लहुटिस। येमा प्रहलाद तो बांचगे फेर खुदे ह जर-भुंज के लेसागे। तब फेर एकर खातिर बसंत पंचमी ले लेके फागुन पुन्नी तक के करीब चालीस दिन के परब मनाए के ये अवसर म नाचे गाए अउ वासनात्मक शब्द मन के उपयोग करे के का आवश्यकता हे। आखिर ए सब के होलिका संग का संबंध हे?
असल म ये जम्मो दृश्य के संबंध भगवान शिव अउ ओकर द्वारा तीसरा नेत्र खोल के भसम करे गे कामदेव के संग हे। आप मन ये प्रसंग ल जानत होहू के त्रिपुर नामक राक्षस के आतंक ले पीड़ित होके देवता मन भगवान शिव के पुत्र के कामना खातिर कामदेव ल तपस्यारत शिव जगा भेजथे तेमा शिवजी के अंदर काम वासना के जनम होवय। अउ वोहर माता पार्वती संग बिहाव करय ताकि वोकर ले शिवपुत्र के जन्म हो सकय जेन हर ये अत्याचारी राक्षस के संहार कर सकय। काबर के वो राक्षस ह तपस्या करके शिवपुत्र के द्वारा ही अपन मरन के आसीरवाद मांगे रहिथे तेकरे सेती वो हर अउ कोनो देवता के द्वारा नइ मरत राहय।
देवता मन के अरजी बिनती करे म कामदेव ह अपन सुवारी पत्नी संग बसंत के मादकता भरे मौसम म जाथे शिव तपस्या भंग करे बर। हमर इहां बसंत पंचमी के दिन जेन अंडा नांव के पेड़ गडियाए जाथे वोहर असल म कामदेव के आगमन के प्रतीक आय। अउ वोकर बाद तहां ले इहां वासनात्मक गीत नृत्य के चलन-चालू हो जाथे जे हा फागुन पुन्नी तक चलथे। काबर ते भगवान भोलेनाथ ह इही फागुन पुन्नी के तीसरा नेत्र ल खोल के कामदेव ल भसम करे रिहिसे।
सिरिफ होली तिहार भर नहीं, भलुक इहां के जतका भी मूल परब अउ तिहार हे, इहां के इतिहास हे जम्मो के रांही-छांही कर दिए गे हावय। जेमन ला नवा सिरा ले वोकर मूल रूप म लिखे के जरूरत हे। छत्तीसगढ़ के इतिहास अउ एकर सांस्कृतिक स्वरूप ल जब तक बाहिर के प्रदेश मन म बइठ के लिखे गे ग्रंथ मन के मापदण्ड म लिखे जाही तब तक एकर सही स्वरूप ह लोगन के आगू म नइ आ सकय। एकर सेती इहां के जम्मो अस्मिता प्रेमी मन ला बाहिरी लोगन अउ बाहिर म लिखे गे ग्रंथ के भंवरजाल ले निकल के इहां के वास्तविक कारण ल जाने बर परही अउ फेर वोकर मापदण्ड म एला नवा सिरा ले लिखे बर लागही।
सुशील भोले
                 संपर्क : 41-191,कस्टम कालोनी के सामने,
                 डॉ. बघेल गली, संजय नगर, रायपुर (छ.ग.)
                 मोबा. नं. 098269 92811   
                 sushilbhole2@gmail.com

छत्तीसगढ़ी : कामकाज अउ लेखन के रूप


जबले छत्तीसगढ़ी ल राजभाषा के दरजा दे के ए भरोसा जगाये गे हवय के अवइया बेरा म ए ह शिक्षा के संगे-संग राजकाज के भाषा बन सकथे, तबले एकर साहित्यिक लेखन के रूप अउ कामकाज माने प्रशासकीय रूप ऊपर भारी गोठ-बात अउ तिरिक-तीरा चलत हे। ए संबंध म राजभाषा आयोग ह एक ठ विचार गोष्ठी के आयोजन घलोक करे रिहिसे, जेमा ए बात प्रमुखता ले आइस के कामकाज के भाषा ल आम बोलचाल के रूप म ही लिखे जाना चाही।
ए विचार ले लगभग महूं सहमत हवंव। काबर के प्रशासनिक काम-बुता म बहुत अकन अइसन शब्द आथें, जेकर मनके अनुवाद करे म आने के ताने असन लागथे, वोकर मूल अभिव्यक्ति नइ हो पावय। ए बात ल उही मन समझ सकथें, जेमन छत्तीसगढ़ी म सरलग लिखत हें, उहू म गद्य रूप म। फेर पद्य लेखक मन या फेर वोमन, जेकर मन के लेखन ह सिरिफ नेंग छूटे असन हावय, वोमन ह आरुग भाषा के संगे-संग लिपि (वर्णमाला) के प्रयोग के मामला म घलोक परंपरावादी रूप के प्रयोग के बात करथें।
मोला लगथे के एला हमन ल उही रूप म लेना चाही, जइसे हिन्दी ह लोकभाषा ले राष्ट्रभाषा के खुरसी म बइठे खातिर अपनाइस हे। माने जब तक वोला खड़ी बोली के रूप म लिखे गेइस तब तक श,ष, ऋ जइसन शब्द के प्रयोग ले दूरिहा रखे गेइस फेर जइसे राष्ट्रभाषा के खुरसी म बइठे के उदिम रचे गेइस वइसनेच एकर रूप ल उच्चारण के शुद्धता के अनुरूप कर दे गेइस। माने नागरी लिपि के जम्मो वर्ण मनला आत्मसात कर ले गेइस। मोला लागथे के अब हमूं मनला अइसने करना चाही। छत्तीसगढ़ी  लेखन खातिर हमन नागरी लिपि ल अपनाए हावन त वोकर सब्बो वर्णमाला ल घलोक अपनाना चाही। जब तक छत्तीसगढ़ी ह बोली के रूप म जाने जावत रिहिसे तब तक भले हम श,ष, ऋ जइसे वर्ण मनके प्रयोग नइ करत रेहे हावन, फेर अब जब इहू ल प्रदेश स्तर म राजभाषा के दरजा दे दिए गे हवय, प्रशासनिक काम-काज ल एमा करे के जोखा मढ़ाए जावत हावय त एला भाषा के जम्मो मानक के अनुरूप बनाये जाना चाही। ए हम सबके जिम्मेदारी आय।
अभी साहित्यिक लेखन म दू किसम के रूप देखे जावत हे। पहला रूप तो परंपरावादी मनके हे, जेमन संस्कृति ल संसकिरिति, शंकर ल संकर, प्रसार ल परसार, ऋषि ल रिसि लिखत रहिथें। मोला लागथे के छत्तीसगढ़ी के अइसन रूप ल आज के वैश्विक (ग्लोबल) दुनिया ह पचो नइ पावय, आत्मसात नइ कर पावय। फेर सबले बड़े बात ये हे के कोनो भी आने क्षेत्र के मनखे मन अपन भाषा ल बिगाड़ के दूसर के भाषा ल नइ सिखंय।     हमला छत्तीसगढ़ी ल ए पूरा राज के हर आदमी मन के संगे-संग विश्व के लोगन संग जोडऩा हे, उनला छत्तीसगढ़ी लिखे, पढ़े अउ बोले खातिर प्रेरित करना हे, त ए जरूरी हवय के हमला अपन दृष्टिकोण ल बड़े बनाए बर लागही, हमला अपन सोच ल विश्वव्यापी बनाए बर लागही अउ पूरा एकमई होवत दुनिया (ग्लोबल होवत) के हर वो संपर्क भाषा ल अपन संग जोड़े बर लागही, वोकर मनके वो प्रचलित शब्द मनला अपन संग संघारे बर लागही, जेमन कोनो न कोनो किसम ले हर दिनचर्या म शामिल होवत जावत हें।
आज हमन अंतर्राष्ट्रीय भाषा अंग्रेजी के ए कहि के विरोध करथन के वोकर सेती हमर अपन भाषा के अस्तित्व खतरा म परत हावय। फेर वोकर वो बड़प्पन ल काबर भुला जाथन के वोहर अपन आप ल बड़े बनाए खातिर दुनिया के हर भाषा अउ वोकर प्रचलित शब्द मनला आत्मसात करके अपन आप ल बड़े बनाए हे। वोकरे सेती वोहर आज पूरा दुनिया म राज करत हे। अउ एक हमन हावन जेन कुआं के मेचका बरोबर बने रहना चाहथन, अउ सपना देखथन के ए हर जन-जन के भाषा बनय, राजकाज अउ शिक्षा के भाषा बनय।
मोर अरजी हे के जतका जल्दी हो सकय एकर व्यापकता ल देखत-समझत अपन सोच अउ दायरा ल बड़े बनाय के दिशा म कदम बढ़ावन।
सुशील भोले
संपर्क : 41-191, कस्टम कालोनी के सामने,
 डॉ. बघेल गली, संजय नगर (टिकरापारा)
रायपुर (छ.ग.) मोबा. नं. 098269 92811

sushilbhole2@gmail.com

गीत मेरा बन जाता है...



जब-जब पाँवों में कोई कहीं, कांटा बन चुभ जाता है।
दर्द कहीं भी होता हो,  गीत मेरा बन जाता है।।

मैं वाल्मीकि का वंशज हूं, हर दर्द से नाता रखता हूं
कोई फूल टूटे या शूल चुभे, हर जख्म मैं ही सहता हूँ
क्रंदन करता क्रौंच पक्षी, पर मन मेरा कंप जाता है.....
                                                   
मैं सावन का घुमड़ता बादल हूँ, सुख की फसलें उपजाता हूँ
कोई राजा हो या रंक सभी को, जीवन गीत सुनाता हूँ
आँखों में किसी की तिनका चुभे, तो आँसू मेरा बह जाता है..
                                                       
मैं श्रमवीरों का सहोदर हूँ, कल-पुर्जों को धड़काता हूँ
देश की हर गौरव-गाथा में, ऊर्जा बन बह जाता हूँ
सीमा पर कभी फन उठता तो, लहू मेरा बह जाता है...

       सुशील भोले 
म.नं. 54-191, डॉ. बघेल गली,
संजय नगर (टिकरापारा) रायपुर (छ.ग.)
मोबा. नं. 080853-05931, 098269-92811
ईमेल - sushilbhole2@gmail.com

Saturday 2 February 2013

छत्तीसगढ़ के मूल संस्कृति अउ आज के नवा रूप-चाल

कोनो भी राज या देश के चिन्हारी उहां के भाखा अउ संस्कृति होथे, एकरे सेती ये देश म सन् 1956 म राज्य पुनर्गठन आयोग के स्थापना करे गे रिहिसे, के जे-जे क्षेत्र के अपन अलग भाखा अउ संस्कृति हे, वोमन ल अलग राज के रूप म नवा चिन्हारी दिए जाय। वो बखत छत्तीसगढ़ ल अलग राज के दरजा तो नइ मिल पाइस, फेर इहां के राजनेता अउ जन-प्रतिनिधि  मन छत्तीसगढ़ के अपन खुद के भाखा अउ संस्कृति हे कहिके राज्य आन्दोलन चालू कर देइन, जेकर सुखद परिणाम 1 नवंबर 2000 के देखे ले मिलिस, जब छत्तीसगढ़ ल एक अलग राज के दरजा दिए गेइस।
 फेर ये कतेक दुर्भाग्य के बात आय के आज राज बने के डेढ़ दशक ले उपराहा बेरा बीत जाये के बाद घलोक हमर भाखा अउ संस्कृति के अलग चिन्हारी नइ बन पाये हे। भाखा के जिहां तक बात हे त राज सरकार के द्वारा तो एला राजभाखा के दरजा दे दिए गे हवय, फेर केन्द्र सरकार ह अभी तक संविधान के आठवीं अनुसूची म एला शामिल नइ करे हे।
जिहां तक संस्कृति के बात हे, त इहां के मूल संस्कृति अउ आज लिखे जावत संस्कृति म कोनो किसम के तालमेल नइ देखे जावत हे, अउ एकर बर सरकार ले जादा दोषी वो लेखक अउ तथाकथित संस्कृति मर्मज्ञ मन हें, जे इहां के मूल रूप के उपेक्षा कर के आने राज मन ले आए लोगन के संस्कृति अउ वोकर मन के ग्रंथ मन के मापदंड म छत्तीसगढ़ के संस्कृति ल लिखत हें। एकरे सेती ए ग्रंथ मन के मापदंड म लिखे जावत संस्कृति अउ छत्तीसगढ़ के मूल संस्कृति म कोनो किसम के तालमेल नइ दिखत हे।
वाजिब म छत्तीसगढ़ के संस्कृति एक मौलिक संस्कृति आय, जेला हम सृष्टिकाल के या युग निर्धारण के हिसाब ले कहिन ते सतयुग के संस्कृति कहि सकथन। इहां अइसन कतकों परब अउ तिहार हे, जे ए देश के अउ कोनो भाग म न तो जिए जाय अउ न मनाए जाय। कतकों अइसन परब घलोक हे, जेकर मूल रूप ल परिवर्तित कर के आज वोला कोनो आने संदर्भ के संग जोड़े के उदिम करे जावत हे। आवव कुछ अइसने दृश्य मन ऊपर तार्किक ढंग ले चर्चा कर लेइन।
सबले पहिली हिन्दुत्व के वो सबले जादा प्रचारित व्यवस्था जेला हम चातुर्मास के नांव म जानथन। अइसे कहे जाथे के चातुर्मास म (असाढ़ अंजोरी एकादशी ले कातिक अंजोरी एकादशी तक) देंवता मन सूत जाथें, तेकरे सेती ए चार महीना तक कोनो किसम के बर-बिहाव या मांगलिक (शुभ) कारज नइ करना चाही। अब इही बात ल छत्तीसगढ़ के संदर्भ म देखिन त ये जनाही के छत्तीसगढ़ म तो ए व्यवस्था ह लागूच नइ होवय। इहां चातुर्मास पूरा होए के दस दिन पहिलीच कातिक अमावस्या के भगवान शंकर अउ देवी पार्वती के बिहाव के परब 'गौरा-गौरीÓ या 'गौरा पूजाÓ के रूप म मनाये जाथे।
 इहां ये जानना जरूरी हे के गौरी-गौरा परब ल इहां के आदिवासी गोंड़ समाज के मन शंभू शेक या ईसर देव अउ गौरा के बिहाव के रूप म मानथें। फेर अन्य पिछड़ा वर्ग मन शंकर-पार्वती के बिहाव के रूप म मनाथें। मोर गांव म एको घर के गोंड़ समाज के मन नइ राहय हमर इहां े परब ल अन्य पिछड़ा वर्ग के मन ही मनाथें, अउ वोला आज तक मोला शंकर-स पार्वती के रूप म ही मनाये के जानबा दिए हें। खैर काकरो बिहाव के परब होवय फेर े बात तो हावय के इहां देवउठनी ले पहिली बिहाव के परब मनाए जाथे, जेहा चातुर्मास के व्यवस्था ह इहां के संस्कृति म लागू नइ होवय ए बात के जानबा देथे।  
अउ जब इहां भगवानेच मन के बर-बिहाव जेठवनी (देवउठनी) के पहिली होगे त फेर उंकर मन के सुतई या फेर ये चार महीना ल मांगलिक कारज खातिर अशुभ कइसे माने जा सकथे? भलुक ये कहना जादा वाजिब होही के चातुर्मास के इही चारों महीना ह छत्तीसगढ़ के संस्कृति म सबले जादा शुभ अउ पवित्र होथे, तेकर सेती जतका शुभ अउ पवित्र कारज हे, वोमन ल इही चारों महीना म करे जाना चाही।
चातुर्मास के ए चारों महीना ल देखिन त सावन अमावस के हरेली, अंजोरी पंचमी के नागपंचमी, अउ पुन्नी के दिन 'शिव लिंग प्रगटÓ दिवस के रूप म मनाए जाथे। भादो महीना म अंधियारी पाख छठ के स्वामी कार्तिकेय के जनम दिन ल 'कमर छठÓ के रूप म, अमावस के नंदीश्वर के जनम दिन ल 'पोराÓ के रूप म, अंजोरी पाख के तीज के देवी पार्वती के द्वारा भगवान शंकर ल पति के रूप म पाये  खातिर जेन कठोर तपस्या करे गे रिहिसे तेकर प्रतीक स्वरूप मनाये जाने वाला परब 'तीजाÓ, अउ वोकर बिहान दिन माने चउथ के देव मंडल के प्रथम पूज्य भगवान गणेश के जन्मोत्सव के परब।
इही किसम कुंवार महीना म अंधियारी पाख ल सरग सिधार चुके हमर पुरखा मनके सुरता के परब 'पितर पाखÓ के रूप म मनाए जाथे। अंजोरी पाख म माता पार्वती (शक्ति) के जन्मोत्सव के परब ल नवरात्र के रूप म मनाए जाथे। (इहां ए जान लेना जरूरी हे, के हमर संस्कृति म नवरात्र परब ल साल म दू पइत मनाए जाथे, वोकर असल कारण हे आदिशक्ति माता के मानव रूप म दू पइत अवतरण लेना। पहिली बेर उन चइत महीना म सती के रूप म आए रिहिन हें, अउ दूसर पइत कुंवार महीना म पार्वती के रूप म। एकरे सेती सिरिफ नवरात्रि परब भर ल साल म दू पइत मनाए जाथे।)
कुंवार महीना म ही अंजोरी पाख दसमी के समुद्र मंथन ले निकले विष (जहर या दंस) के हरण के परब 'दंसहराÓ के रूप म मनाए जाथे। (बस्तर म ए अवसर म जेन रथयात्रा के आयोजन करे जाथे, वो ह मंदराचल पर्वत के माध्यम ले समुद्र मंथन के परब आय। आगू एकर विस्तृत चरचा करबो)। दंसहरा या विषहरण के पांच दिन पाछू फेर कुंवार पुन्नी के अमरित पाये के परब ल 'शरद पूर्णिमाÓ के रूप म मनाये जाथे।
इही किसम कातिक महीना म अमावस तिथि के मनाये जाने वाला भगवान शंकर अउ देवी पार्वती के बिहाव के परब 'गौरा-गौरीÓ म शामिल होए खातिर लोगन ल जेन नेवता दे खातिर उदिम करे जाथे, वोला हम 'सुआ नृत्यÓ के रूप म जानथन, जेन पूरा अंधियारी पाख भर माने पूरा पंदरा दिन चलथे। ये पंदरा दिन म इहां के कुंवारी कन्या मन 'कातिक स्नानÓ के परब घलोक मनाथें। माने ये पंदरा दिन उन मुंदराहा ले नहाथें-धोथें, पूजा-पाठ करथें अउ संझा बेरा गौरा-गौरी के खरचा खातिर सुआ नाच के पइसा-कउड़ी, चांउर-दार सकेलथें। इहां के संस्कृति म मेला-मड़ई के रूप म मनाये जाने वाला उत्सव घलोक इहीच महीना माने कातिक पुन्नी ले चालू होथे, जेन ह भगवान शंकर के जटाधारी रूप म प्रगट होय के तिथि महाशिवरात्रि तक चलथे।
चातुर्मास के अंतर्गत हमन 'दंसहराÓ के चरचा करत रेहेन। त इहां ए जान लेना जरूरी हे के दंसहरा या दशहरा असल म दंस+हरा=दंसहरा आय। अउ एकर अरथ होथे- 'विष के हरणÓ। इहां इहू जानना जरूरी हे के दंसहरा (दशहरा) अउ विजय दशमी दू अलग-अलग परब आय। विजया दशमी जिहां आततायी रावण ऊपर भगवान राम के विजय के परब आय, त दंसहरा ह सृष्टिकाल म समुद्र ले निकले विष (दंस) के हरण के परब आय। इही विषपान के सेती भगवान शंकर ल 'नीलकंठÓ कहे गेइस, एकरे सेती आज घलो ए दंसहरा तिथि के दिन नीलकंठ पक्षी (टेहर्रा चिरई) ल देखे म शुभ माने जाथे। काबर ते ये दिन वोला भगवान शंकर के प्रतीक अर्थात् 'नीलकंठÓ माने जाथे।
बस्तर के 'रथयात्राÓ ल वर्तमान म कुछ परिवर्तित कर के वोकर कारण ल अलग रूप म बताये जावत हे, बिल्कुल वइसने जइसे राजिम के प्रसिद्ध मेला ल परिवर्तित कर के 'कुंभÓ बना दिए गे हवय, अउ कुलेश्वर महादेव के नांव म भरने वाला मेला ल राजीव लोचन के नांव भराने वाला कुंभ कहे जावत हे। जबकि ये बात ल सबो जानथें के पूस पुन्नी ले महाशिवरात्रि तक चलने वाला मेला-मड़ई सिरिफ शिव स्थल म भराथे।  काबर के ए ह महाशिवरात्रि म प्रगट होने वाला जटाधारी शिव के उत्सव के रूप म होथे, त फेर वो ह राजीव लोचन के नांव म भराने वाला मेला या कुंभ कइसे हो सकथे?
बिल्कुल इही किसम बस्तर के रथयात्रा के मूल स्वरूप अउ कारण ल घलोक बदल दिए गे हवय। पहिली दंसहरा के अवसर म हर बछर नवा रथ बनाए जावय, जे ह असल म मंदराचल पर्वत के प्रतीक स्वरूप होवय। काबर के मंदराचल पर्वत के माध्यम ले ही समुद्र के मंथन करे गे रिहिसे। मंदराचल पर्वत ल मथे (माने आगू-पाछू खींचे) के कारज ल देवता अउ दानव मन मिलके करे रिहिन हें। एकरे सेती ए अवसर म पूरा बस्तर राज के ज मो गांव के देवी-देवता मनला रथयात्रा ठउर म लाये जाथे। एकर पाछू रथ ल आगू-पाछू खींचे जावय, अउ अइसन करई म जब रथ ह टूट जावय त विष निकले के दृश्य उपस्थित करे खातिर ज मो रथ खींचइया मन आंखी-कान मूंद के चारों मुड़ा भागंय। बाद म उन फेर रथ ठउर म जुरियावंय त उनला 'विष पानÓ के दृश्य उपस्थित करे के प्रतीक स्वरूप दोना मन म 'मंदÓ दिए जावय। वर्तमान म ये देश म बस्तर के छोड़ सिरिफ कल्लू (मनाली) भर म ए दंसहरा के परब ह जीवित रहि गे हवय, जेला पूरा देश अउ दुनिया म फेर से बगराये के जरूरत हावय।
ए बात ल तो सबो जानथें के समुद्र मंथन ले निकले विष के हरण के पांच दिन पाछू 'अमृतÓ मिले रिहिसे। एकरे सेती आज घलोक दंसहरा के पांच दिन पाछू अमरित पाये के परब ल 'शरद पूर्णिमाÓ केे रूप म मनाये जाथे।  
इहां के मूल परब मनला बिगाड़े अउ वोला आने संदर्भ के साथ जोड़ के लिखे के उदाहरण के रूप म हम 'होलीÓ परब ल घलो ले सकथन। छत्तीसगढ़ म जेन होली के परब मनाये जाथे वो ह 'काम दहनÓ के परब आय, 'होलिका दहनÓ के नहीं। ए ह काम दहन के परब आय एकरे सेती एला मदनोत्सव या वसंतोत्सव के रूप म घलोक सुरता करे जाथे, जेला माघ महीना के अंजोरी पाख के पंचमी तिथि ले लेके फागुन महीना के पुन्नी तक माने करीब चालीस दिन तक चलथे।
सती आत्मदाह के बाद तपस्या म लीन महादेव जगा ज मो देवता मन कामदेव अउ रति ल ए खातिर भेजथें, के शिव तपस्या ल भंग कर के वोकर अंदर काम-वासना के संचार करे जाय, तेमा उन पार्वती संग बिहाव कर लेवयं, अउ फेर बिहाव के पाछू शिवपुत्र (कार्तिकेय) के जनम होवय। काबर के ताड़कासुर नांव के दानव ह शिवपुत्र के हाथ म मरे के वरदान मांग के अत्याचार करत राहय।
देवमंडल के अनुरोध म कामदेव ह बसंत के मादकता भरे मौसम के चयन कर अपन सुवारी रति संग माघ महीना के अंजोरी पाख के पंचमी तिथि म तपस्या करत शिव तीर जाथे, अउ वासनात्मक नृत्य, गीत अउ दृश्य के माध्मय ले शिव तपस्या भंग करे के उदिम करथे। कामदेव के ये उदिम ह तब सिराथे, जब फागुन पुन्नी के महादेव ह अपन तीसरा नेत्र ल खोल के वोला भसम कर देथे।
छत्तीसगढ़ म बसंत पंचमी (माघ अंजोरी पंचमी) के दिन जेन अंडा या अरंडी नांव के पेंड़ गडिय़ाये जाथे, वो ह कामदेव अउ रति के आगमन के प्रतीक स्वरूप होथे। एकरे संग फेर इहां वासनात्मक शब्द, दृश्य अउ नृत्य के माध्यम ले मदनोत्सव या वसंतोत्सव के सिलसिला चालू हो जाथे। ए अवसर म पहिली इहां 'किसबीन नाचÓ के घलोक रिवाज रिहिसे, जेन ह रति नृत्य के प्रतीक स्वरूप होवय। 'होलिका दहनÓ के संबंध ह छत्तीसगढ़ म मनाये जाने वाला परब संग कोनो मेर मेल खावत नइ दिखय। होलिका तो एकेच दिन म चिता रचीस, वोमा बइठ के आगी ढिलवाइस अउ खुदे जल के भसम होगे, त फेर वोकर खातिर चालीस दिन तक परब मनाये के सवाले कहां उठथे? अउ ए बखत जेन वासनात्मक शब्द, नृत्य अउ दृश्य देखब म आथे वोकर संग होलिका के का संबंध हे?
मूल संस्कृति के चरचा करत इहां के इतिहास लेखन के चरचा घलोक होना चाही, अइसे मोला लागथे। काबर ते अभी हम सृष्टिकाल के या कहिन सतयुग के संस्कृति के चरचा करत रेहेन, त फेर ये प्रश्न उठथे के छत्तीसगढ़ के इतिहास के जब भी बात होथे त इहां के प्राचीनता ल सिरिफ रामायण अउ महाभारत काल अर्थात त्रेता अउ द्वापर तक ही सीमित काबर करे जाथे? एला सतयुग या सृष्टिकाल तक विस्तारित काबर नइ करंय? जबकि बस्तर के लोक गीत म ए बात के उल्लेख मिलथे के शिवजी देवी पार्वती संग सोलह साल तक बस्तर म रहे हें।
ए संदर्भ म एक कथा मिलथे, जेकर अनुसार भगवान गणेश ल प्रथम पूज्य के आशीर्वाद मिले के बाद वोकर बड़का भाई कार्तिकेय ह रिसा के कैलाश ल छोड़ के दक्षिण भारत म रहे खातिर आ जथे। उही रिसाय काार्तिकेय ल मना के लेगे खातिर शिवजी पार्वती संग इहां सोला बछर तक डेरा डारे रिहिन हें। कार्तिकेय के दक्षिण म रहे के ए बात ले घलोक पुष्टि होथे के दक्षिण भारत म कार्तिकेय के ही सबले जादा पूजा-पाठ अउ मान-गौन होथे। वोला ए क्षेत्र म मुरगन स्वामी या सेनापति मुरगन के रूप म स्मरण करे जाथे।
अब प्रश्न ये उठथे के इहां के तथाकथित इतिहास मर्मज्ञ मनला अतका गौरवशाली अतीत के ज्ञान कइसे नइ हो पाइस? काबर उन इहां के इतिहास ल सिरिफि द्वापर अउ त्रेता तक कैद कर देथें? जिहां तक मैं समझ पाए हौं, त एकर कारण सिरिफ अतके आय के इहां केवल कागज के कतरन बटोरइया मन बड़े-बड़े इतिहास अउ संस्कृति के ज्ञाता होए के चोला ओढ़ लिए हें, एकर ले जादा उंकर कोई औकात नइए। एकरे सेती उन वो ग्रंथ मनके उदाहरण देवत रहिथें, जे मन ल छत्तीसगढ़ के संबंध म नहीं भलुक आने प्रदेश मन के संस्कृति के मापदंड म लिखे गे हवय।
एक अउ बात समझ म आइस के इहां के मूल निवासी मन ह शिक्षा के अंजोर ले बड़ दुरिहा रिहिन हें, एकरे सेती उन अपन इतिहास अउ संस्कृति ल लिखित रूप नइ दे पाइन। एकर परिणाम ए होइस के बाहिर ले आके इहां बसने वाला मन छत्तीसगढ़ के इतिहास अउ संस्कृति ल लिखित रूप देना चालू करीन। फेर एमा वोमन गड़बड़ी ए कर देइन के अपन संग बाहिर के प्रदेश ले लाने संस्कृति अउ ग्रंथ मन के मापदंड म छत्तीसगढ़ के इतिहास-संस्कृति ल लिखे के उदिम करीन। एकरे सेती उंकर मन के द्वारा लिखे गे इतिहास-संस्कृति ह इहां के मूल इतिहास-संस्कृति संग कोनो मेर मेल नइ खावय।
आज इहां के मूल निवासी मन घलोक पढ़-लिख डारे हें, एकर सेती उन जाने अउ समझे ले धर लिए हें के उंकर मन ऊपर बाहिरी इतिहास  अउ संस्कृति ल थोपे के भरी उदिम रचे गे हवय, जेला अब झटकारे अउ फेंके के उदिम करे के जरूरत हे। अउ अइसन तभे हो सकथे, जब इहां के सांस्कृतिक इतिहास के नवा सिरा ले फेर से लेखन होय अउ वोकर मापदंड आने प्रदेश ले आये लोगन के संस्कृति या उंकर मन के ग्रंथ नहीं भलुक इहां के मूल संस्कृति अउ लोक परंपरा ह बनय।

संपर्क : 54 / 191, कस्टम कालोनी के सामने,
 डॉ. बघेल गली, संजय नगर (टिकरापारा) रायपुर (छ.ग.)
मोबा. नं. 080853 05931, 098269 92811