Monday 25 January 2021

15 अगस्त और 26 जनवरी के झंडा फहराने का अंतर..

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15 अगस्त एवं 26 जनवरी के झंडे फहराने मे  अंतर....

15  अगस्त और 26 जनवरी के झंडे फहराने में  निम्नानुसार  अलग अलग महत्व और अंतर है--

*पहला_अंतर*

15 अगस्त स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर झंडे को नीचे से रस्सी द्वारा खींच कर ऊपर ले जाया जाता है, फिर खोल कर फहराया जाता है,  जिसे ध्वजारोहण कहा  जाता है क्योंकि यह 15 अगस्त 1947 की ऐतिहासिक घटना  को सम्मान देने हेतु किया जाता है जब प्रधानमंत्री जी ने ऐसा किया था। संविधान में इसे अंग्रेजी में  Flag Hoisting (ध्वजारोहण) कहा जाता है।

जबकि 26 जनवरी गणतंत्र दिवस के अवसर पर झंडा ऊपर ही बंधा रहता है, जिसे खोल कर फहराया जाता है, संविधान में इसे Flag Unfurling (झंडा फहराना) कहा जाता है।

*दूसरा_अंतर*

15 अगस्त के दिन प्रधानमंत्री जो कि केंद्र सरकार के प्रमुख होते हैं वो ध्वजारोहण करते हैं, क्योंकि स्वतंत्रता के दिन भारत का संविधान लागू नहीं हुआ था और राष्ट्रपति जो कि राष्ट्र के संवैधानिक प्रमुख होते है, उन्होंने पदभार ग्रहण नहीं किया था। इस दिन शाम को राष्ट्रपति अपना सन्देश राष्ट्र के नाम देते हैं।

जबकि 26 जनवरी जो कि देश में संविधान लागू होने के उपलक्ष्य में मनाया जाता है, इस दिन संवैधानिक प्रमुख राष्ट्रपति झंडा फहराते हैं

*तीसरा_अंतर*

स्वतंत्रता दिवस के दिन लाल किले से ध्वजारोहण किया जाता है।
जबकि गणतंत्र दिवस के दिन राजपथ पर झंडा फहराया जाता है।
जय हिन्द 🌹🌹🙏🙏
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छत्तीसगढ़ी के मुस्की ढारत शब्द 😃😃

*Smilies के छत्तीसगढ़ी मायने--*
😂 गेजगेजहा

😁 दत निपोरवा

😋 ललचाहा

😉 अंखमर्रा

🤩 अंखफुट्टा

🥰 मयारू

🥸 मेच्छर्रा

🥲 सुसवाहा

🤪 कुकुर आंखी के

🤓 कंडील वाला टुरा

😡 चिरपोटी मुंहा (गुस्सेलहा)

😏 टेड़गा मुंहा

😭 रोनहा

🤧 रेमटा

😛 जीभ लमरा

😳 गऊ किन

🥵 भारी चुच्चूर

🤔 कोनजनी (confused)

😱 दाई किन

🙄 मुंहु ओथरा

😴 उंघर्रा

🤒 जर धरहा

😬 झरझरा

☺️ मुचमुचहा

😫 कंझटहा

😣 असकटहा

🤫 कलेचुप

😎 डिंगरा

😕 मुरकेटहा

😒 रिसहा

🤯 रंधईया

😷 मुंहुतोपना

🤭 हाय दई

😚 मया वाला चुम्मा

🤥 चिमनी नाक के

😜 मजकिहा

🤬 अलकरहा गारी देवईया

😆😆😆😆😆😆😆😆

Sunday 24 January 2021

नंदावत परंपरा.. बेलन..

#नन्दावत #परम्परा: बेलन..
आज हमन जानबोन नंदावत परम्परा धान मिंजे के पारंपरिक साधन लकड़ी के ठेला (बेलन) गाड़ी के बारे म। ए का हरे अऊ एकर उपयोग का हरे तेला।

छत्तीसगढ़ ह अपन समृद्ध पारम्परिक साधन के कारण प्रसिद्ध हे। फेर आज ओ परम्परा मन ह नंदावत जात हे। हमर पुरखा मन ह पहिली अपन सबो काम बुता मन ल पाराम्परिक साधन के उपयोग ले करय। फेर आज मशिनिकरण के युग म ए सबो पारमपरिक साधन मन ह नंदावत जात हे।पारम्पारिक साधन मन म मेहनत के संगे संग थोड़किन बेरा तको लागय फेर ए साधन मन के उपयोग के  बाद के पपरिनाम मन ह बहुत अच्छा राहय। फेर मशीनीकरण के दौर ह जईसे ही अइस मनखे मन ह आलसी होगे। अब सबो काम बुता मन बर अब मशिन ऊपर निरभरता ह बाढ़ गे हावय। अब मनखे मन ह चाहथे कि सबो काम बुता ह जल्दी ले कम बेरा म हो । इही सबो कारण पारम्परिक साधन मन ह सल्लग नंदावत जात हे।

#नंदावत #परम्परा के एक साधन लकड़ी ले बने #ठेला (बेलन) #गाड़ी :-

छत्तीसगढ़ म नंदावत पारम्परिक साधन के कड़ी म एक नाम लकड़ी ले बने गाड़ी ठेला गाड़ी के नाम ह तको आथे।पहिली जईसे ही धान मींजेके सिजन ह चालू होए त ए ठेला गाड़ी सबो बियारा मन म जगा जगा दिखाई देवय। ठेला गाड़ी ल चलाए बर दू ठन बइला या भैंस्सा के आवस्यक्ता पड़थे। दू ठन बइला ले ए ठेला गाड़ी ह बंधाये रहिथे। जेला चलाए बर एक झन मनखे के आवश्यकता होथे। जेन ह तुतारी(कोड़ा) धरे रहिथे। तुतारी(कोडा) ह लकड़ी ले बने रहिथें जेकर फुंनगी डाहन खिला लगे रहिथे। अऊ संगे संग एकर फुन गी म थोरकुन मोट हा डोरी बंधाये रहिथे। एकर ले बइला मन ल सही रद्दा दिखाए म सहायता मिलथे। बइला ह जईसे ही एती ओती जायेके प्रयास ल करथे। ड्राईवर साहब ह सरपट ले कोड़ा ले मारके ओ बइला मन ल सही रद्दा म लाथे। बियारा(धान मिंजेबर बनाये खाली जगा) म बिगरे धान म ए ठेला गाड़ी ल गोल गोल घुमाए जाथे। जेकर ले धान ह अलग हो जाथे। ए विधी म थोरकुन बेरा लागथे संगे संग मेहनत तको लागथे। ट्रेक्टर के आयेले ए पारम्परिक साधन के उपयोग करई म सल्लग कमी आहे। अब ए जिनिस ह सल्लग नंदावत जात हे।

#कईसे रहिथे #एकर #स्वरूप ह? आवव जानन:-

धान मिंजिके ठेला गाड़ी के स्वरूप ह दतारी असन रहिथे, ठेला गाड़ी के आघू ह तो दतारी बरोबर रहिथे,फेर एकर पाछू भाग म अड़बड़ अंतर हे। ठेला गाड़ी के पाछू भाग म एकठन बड़े जबर लकड़ी के बेलन रहिथे,ए बेलन के saporrt दू ठन खड़ी लकड़ी म होथे। जेन ह 90 डिग्री म होथे। ए दू ठन लकड़ी ल एकठन, दूसर लकड़ी के पाटी ले सपोट करे जाथे। जेन ह दोनों पाटी के 90 डीग्री म फीट करे जाथे। ठेला के बाकी भाग ल आपमन फोटु म देख सकथो।

#ठेला #गाड़ी के #उपयोगिता:-

ठेला गाड़ी ले धान अलग करेमा अड़बड़ फायदा हे काबर एकर ले धान ह अलग होही, धान के चांउर नई फुटे। टेकटर में ज्यादा मिजई ले धान के चांउर ह फुट जाथे। एकर ले मिंजई ले पेरा ह बने रहिथे। पेरा ह ज्यादा खराब नई होवय। ठेला गाड़ी ले मिंजई म मेहनत अउ समय तो लागथे,फेर एकर ले किसान मन ल सुद्ध फायदा होथे।
-गणेश्वर पटेल

Tuesday 19 January 2021

सकट उपास....

सकट उपास...
महतारी मनके सबले जादा चिंता अउ जतन अपन लइका मन बर ही होथे. एकरे सेती उन एकर मनके खवई पियई, दवई पानी के संगे संगे देवता धामी के असीस पाए बर घलो भारी चेत करथें.
हमर छत्तीसगढ़ म महतारी मन अपन लइका मन बर 'कमरछठ' के उपास रहिके सगरी बना के महादेव अउ माता पार्वती के पूजा करथें. ठउका अइसने माघ महीना म अंधियारी पाख म घलो छेरछेरा परब के तीन दिन पाछू 'सकट' के उपास रखथें. इहू उपास ल लइका मन खातिर ही रखे जाथे.
ए दिन महतारी मन दिन भर उपास रहिथें, अउ रतिहा चंदा उवे के बाद वोला अरक (अर्घ्य) दे के पूजा करथें.
चंदा ल अरक दे के संबंध म एकर आध्यात्मिक कारण ए बताये जाथे, के भगवान गणेश के मुड़ ह, जेन पहिली माता पार्वती द्वारा अपन रखवाली खातिर शरीर के मइल के बनाए गे रहिथे. वोला महादेव ह काट देथे, अउ बाद म वोकर जगा हाथी के मुड़ी लगा देथे. (ए प्रसंग ल सबो जानथें, एकरे सेती कथा विस्तार नइ करे गे हे.)  उही गणेश जी के पहिली मुड़ी ह कटा के चंद्रमा ल म जाके शोभायमान हो जाथे, एकरे सेती आज के दिन चंद्रमा रूपी वो गणेश जी के ही पूजा करे जाथे.
  महतारी मन बढ़िया तिल गुड़ के लाड़ू बनाथें, पिड़हा या पाटा म गोबर के डोंगी बनाथें, गाय के दूध अउ गंगाजल ले वोला भरथें, अउ चंद्रमा ल अरक (अर्घ्य) देके पूजा करथें. ए किसम ले लइका मन के ऊपर कोनो किसम के संकट झन आवय कहिके सकट के उपास ल पूरा करथें.
-सुशील भोले-9826992811

Saturday 16 January 2021

किस्सा कहिनी के नंदावत परंपरा...

किस्सा-कहिनी के नंदावत परंपरा...
हमन जब लइका राहन त अपन महतारी के मुंह ले एक ले बढ़के एक किस्सा कहिनी सुनन. मोला सुरता हे, हमर महतारी जब रायपुर ले हमर गाँव नगरगांव जावय, त पारा भर के माईलोगिन मन वोकर जगा जुरिवा जावंय. रोज संझा हमर घर के चौंरा म पारा भर के माईलोगिन मन के संगे-संग अउ कतकों लइका अउ सियान जुरिया जावंत, तहांले एक ले बढ़के  एक कहानी के दौर चलय.
   हमूं मनला ताज्जुब लागय, काबर के हमर महतारी पढ़ई लिखई के नांव निरक्षर रिहिस, फेर किसम किसम के कहिनी अउ लोकगीत मन के खदान रहिस. रोज नवा कहानी सुनावय. परब अउ संस्कार ले संबंधित लोकगीत घलो सुनावंय.
    रायपुर म घलो ए परंपरा चलय. कमरछठ अउ अगहन बिरस्पत जइसन परब म तो हमर पारा के महराज ह हमर घर नरियर धर के आवय, अउ महतारी ल सगरी ठउर म आके कहिनी सुनाय बर अरजी करय.
     पहिली हर घर म अइसन नजारा देखब आ जावय. घर के सियान सियानीन मन अपन नाती नतनीन मनला किसम किसम के कहिनी सुनावत रहंय. फेर अब ये परंपरा कोनो कोनो घर म भले दिख जावत होही, फेर जादा करके ए परंपरा ह लगभग नंदाइच गे हे.
    एकर सबले बड़े कारण तो मनोरंजन के नवा नवा साधन के आविष्कार आय, फेर समाज ले विलुप्त होवत संयुक्त परिवार के परंपरा ह घलो एकर बड़का कारण आय. संयुक्त परिवार म लइका मन अपन घर के सियान मन ले किस्सा कहिनी के संगे संग अपन परंपरा अउ संस्कार ल घलो सीख जावत रहिन हें, जे ह एकल परिवार के चलागन ले नंदावत जावत हे.
     मैं ह इहाँ के मूल संस्कृति ऊपर सरलग बुता करत हंव. हमर मूल संस्कृति अउ परंपरा के धीरे धीरे नंदई अउ बिगड़ई म घलो इही संयुक्त परिवार के बिखरई ह घलो एक बड़का कारण के रूप म दिखथे. काबर के हम अपन पुरखा मनले अपन संस्कृति परंपरा ल तो सीखेच नइ पावत हवन, तेकर सेती दूसर मन के देखिक देखा उंकर मन के परंपरा अउ संस्कृति ल अपना लेथन.
-सुशील भोले-9826992811

Friday 15 January 2021

ऐतिहासिक धार्मिक स्थल तुरतुरिया...

ऐतिहासिक, धार्मिक स्थल तुरतुरिया : जहाँ पूस पूर्णिमा को भरता है विशाल मेला...

         तुरतुरिया एक प्राकृतिक एवं धार्मिक स्थल है। बलौदाबाजार जिला मुख्यालय से 29  किमी की दूरी पर स्थित इस स्थल को सुरसुरी गंगा के नाम से भी जाना जाता है। यह स्थल प्राकृतिक दृश्यों से भरा हुआ एक मनोरम स्थान है, जो कि पहाड़ियों से घिरा हुआ है। सिरपुर- कसडोल मार्ग से ग्राम ठाकुरदिया से 6 किमी पूर्व की ओर  तथा बारनवापारा से 12 किमी पश्चिम की ओर स्थित है.

    बताया जाता है कि सन्  1914 में तत्कालीन अंग्रेज कमिश्नर एच.एम्. लारी ने इस स्थल का महत्त्व समझने पर यहाँ खुदाई करवाई थी, जिसमें अनेक मंदिर और सदियों पुरानी मूर्तियाँ प्राप्त हुई।

     जनश्रुति के अनुसार, त्रेतायुग में महर्षि वाल्मीकि का आश्रम यहीं पर था और लवकुश की यही जन्मस्थली थी।
     इस स्थल का नाम तुरतुरिया पड़ने का कारण यह है कि बलभद्री नाले का जलप्रवाह चट्टानों के माध्यम से होकर निकलता है तो उसमें से उठने वाले बुलबुलों के कारण तुरतुर की ध्वनि निकलती है। जिसके कारण उसे तुरतुरिया नाम दिया गया है। इसका जलप्रवाह एक लम्बी संकरी सुरंग से होता हुआ आगे जाकर एक जलकुंड में गिरता है, जिसका निर्माण प्राचीन ईटों से हुआ है। जिस स्थान पर कुंड में यह जल गिरता है वहां पर एक गाय का मुख बना दिया गया है, जिसके कारण जल उसके मुख से गिरता हुआ दृष्टिगोचर होता है। गोमुख के दोनों ओर दो प्राचीन प्रस्तर की प्रतिमाएं स्थापित हैं, जो कि विष्णु जी की हैं। इनमें से एक प्रतिमा खडी हुई स्थिति में है तथा दूसरी प्रतिमा में विष्णुजी को शेषनाग पर बैठे हुए दिखाया गया है।

     कुंड के समीप ही दो वीरों की प्राचीन पाषाण प्रतिमाएं बनी हुई हैं, जिनमें क्रमश: एक वीर एक सिंह को तलवार से मारते हुए प्रदर्शित किया गया है, तथा दूसरी प्रतिमा में एक अन्य वीर को एक जानवर की गर्दन मरोड़ते हुए दिखाया गया है। इस स्थान पर शिवलिंग काफी संख्या में पाए गए हैं, इसके अतिरिक्त प्राचीन पाषाण स्तंभ भी काफी मात्रा में बिखरे पड़े हैं जिनमें कलात्मक खुदाई किया गया है। इसके अतिरिक्त कुछ शिलालेख भी यहां स्थापित हैं। कुछ प्राचीन बुद्ध की प्रतिमाएं भी यहां स्थापित हैं। कुछ भग्न मंदिरों के अवशेष भी मिलते हैं। इस स्थल पर बौद्ध, वैष्णव तथा शैव धर्म से संबंधित मूर्तियों का पाया जाना भी इस तथ्य को बल देता है कि यहां कभी इन तीनों संप्रदायों की मिलीजुली संस्कृति रही होगी। ऎसा माना जाता है कि यहां बौद्ध विहार थे,  जिनमे बौद्ध  भिक्षुणियों का निवास था। सिरपुर के समीप होने के कारण इस बात को अधिक बल मिलता है कि यह स्थल कभी बौध्द संस्कृति का केन्द्र रहा होगा। यहां से प्राप्त शिलालेखों की लिपि से ऎसा अनुमान लगाया गया है कि यहां से प्राप्त प्रतिमाओं का समय 8-9 वीं शताब्दी है। आज भी यहां स्त्री पुजारिनों की नियुक्ति होती है जो कि एक प्राचीन काल से चली आ रही परंपरा है। पौष माह में पूर्णिमा तिथि के अवसर पर (छेरछेरा पुन्नी) यहां तीन दिवसीय मेला लगता है, तथा बड़ी संख्या में श्रध्दालु यहां आते हैं। धार्मिक एवं पुरातात्विक स्थल होने के साथ-साथ अपनी प्राकृतिक सुंदरता के कारण भी यह स्थल पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करता है।
इसके संबंध में जो कथा प्राप्त होती है, उसमें, तुरतुरिया के बारे मे कहा जाता है, कि भगवान श्री राम द्वारा परित्याग करने पर वैदेहि सीता को फिंगेश्वर के समीप सोरिद अंचल ग्राम के (रमई पाठ ) मे छोड़ गये थे वहीं माता का निवास स्थान था। सीता की प्रतिमा आज भी उस स्थान पर है। जब  सीता के बारे मे महर्षि वालमिकी को पता चला तो उन्हें अपने साथ तुरतुरिया ले आये और सीता यही आश्रम में निवास करने लगी ,यहीं लव कुश का जन्म हुआ।

    रोड की दूसरी ओर से एक पगडंडी पहाड़ के ऊपर जाती है, जहां माता दुर्गा का एक मंदिर है जिसे मातागढ़ कहा जाता है। पहाड़ के ऊपर से भव्य प्राकृतिक दृश्य दिखाई देता है। पहाड़ से दूसरा पहाड़ दिखाई देता है, जहाँ पर एक गुफा भी है जो बहुत ही खतरनाक प्रतीत होता है।
    ऐसी जनश्रुति भी है, कि एक बंजारा (चरवाहा) अपने गाय-बछड़े को लेकर रहता था. माता ने सुंदरी स्त्री का रूप धारण कर उसे दर्शन दिया, लेकिन उस चरवाहे ने उन्हें गलत नजरों से देखा और शापित होकर अपने पशु धन के साथ नष्ट हो गया. गाय गोर्रा नामक स्थान पर घंट-घुमर, सील-लोढ़ा पत्थर के रूप में पाये गये थे, उचित रख-रखाव नहीं होने के कारण चोरी हो गये.
   यहाँ पर संतान प्राप्ति के लिए माता से मन्नत मांगने भी लोग आते हैं, और पशुबलि भी देते हैं.
     पर्यटन स्थल धार्मिक, प्राकृतिक, आस्था, खतरा, रोमांच और पहाड़ों के अद्भुत नजारे का संयोग है तुरतुरिया..
-सुशील भोले-9826992811

ऐतिहासिक धार्मिक स्थल तुरतुरिया...

ऐतिहासिक, धार्मिक स्थल तुरतुरिया : जहाँ पूस पूर्णिमा को भरता है विशाल मेला...

         तुरतुरिया एक प्राकृतिक एवं धार्मिक स्थल है। बलौदाबाजार जिला मुख्यालय से 29  किमी की दूरी पर स्थित इस स्थल को सुरसुरी गंगा के नाम से भी जाना जाता है। यह स्थल प्राकृतिक दृश्यों से भरा हुआ एक मनोरम स्थान है, जो कि पहाड़ियों से घिरा हुआ है। सिरपुर- कसडोल मार्ग से ग्राम ठाकुरदिया से 6 किमी पूर्व की ओर  तथा बारनवापारा से 12 किमी पश्चिम की ओर स्थित है.

    बताया जाता है कि सन्  1914 में तत्कालीन अंग्रेज कमिश्नर एच.एम्. लारी ने इस स्थल का महत्त्व समझने पर यहाँ खुदाई करवाई थी, जिसमें अनेक मंदिर और सदियों पुरानी मूर्तियाँ प्राप्त हुई।

     जनश्रुति के अनुसार, त्रेतायुग में महर्षि वाल्मीकि का आश्रम यहीं पर था और लवकुश की यही जन्मस्थली थी।
     इस स्थल का नाम तुरतुरिया पड़ने का कारण यह है कि बलभद्री नाले का जलप्रवाह चट्टानों के माध्यम से होकर निकलता है तो उसमें से उठने वाले बुलबुलों के कारण तुरतुर की ध्वनि निकलती है। जिसके कारण उसे तुरतुरिया नाम दिया गया है। इसका जलप्रवाह एक लम्बी संकरी सुरंग से होता हुआ आगे जाकर एक जलकुंड में गिरता है, जिसका निर्माण प्राचीन ईटों से हुआ है। जिस स्थान पर कुंड में यह जल गिरता है वहां पर एक गाय का मुख बना दिया गया है, जिसके कारण जल उसके मुख से गिरता हुआ दृष्टिगोचर होता है। गोमुख के दोनों ओर दो प्राचीन प्रस्तर की प्रतिमाएं स्थापित हैं, जो कि विष्णु जी की हैं। इनमें से एक प्रतिमा खडी हुई स्थिति में है तथा दूसरी प्रतिमा में विष्णुजी को शेषनाग पर बैठे हुए दिखाया गया है।

     कुंड के समीप ही दो वीरों की प्राचीन पाषाण प्रतिमाएं बनी हुई हैं, जिनमें क्रमश: एक वीर एक सिंह को तलवार से मारते हुए प्रदर्शित किया गया है, तथा दूसरी प्रतिमा में एक अन्य वीर को एक जानवर की गर्दन मरोड़ते हुए दिखाया गया है। इस स्थान पर शिवलिंग काफी संख्या में पाए गए हैं, इसके अतिरिक्त प्राचीन पाषाण स्तंभ भी काफी मात्रा में बिखरे पड़े हैं जिनमें कलात्मक खुदाई किया गया है। इसके अतिरिक्त कुछ शिलालेख भी यहां स्थापित हैं। कुछ प्राचीन बुद्ध की प्रतिमाएं भी यहां स्थापित हैं। कुछ भग्न मंदिरों के अवशेष भी मिलते हैं। इस स्थल पर बौद्ध, वैष्णव तथा शैव धर्म से संबंधित मूर्तियों का पाया जाना भी इस तथ्य को बल देता है कि यहां कभी इन तीनों संप्रदायों की मिलीजुली संस्कृति रही होगी। ऎसा माना जाता है कि यहां बौद्ध विहार थे,  जिनमे बौद्ध  भिक्षुणियों का निवास था। सिरपुर के समीप होने के कारण इस बात को अधिक बल मिलता है कि यह स्थल कभी बौध्द संस्कृति का केन्द्र रहा होगा। यहां से प्राप्त शिलालेखों की लिपि से ऎसा अनुमान लगाया गया है कि यहां से प्राप्त प्रतिमाओं का समय 8-9 वीं शताब्दी है। आज भी यहां स्त्री पुजारिनों की नियुक्ति होती है जो कि एक प्राचीन काल से चली आ रही परंपरा है। पौष माह में पूर्णिमा तिथि के अवसर पर (छेरछेरा पुन्नी) यहां तीन दिवसीय मेला लगता है, तथा बड़ी संख्या में श्रध्दालु यहां आते हैं। धार्मिक एवं पुरातात्विक स्थल होने के साथ-साथ अपनी प्राकृतिक सुंदरता के कारण भी यह स्थल पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करता है।
इसके संबंध में जो कथा प्राप्त होती है, उसमें, तुरतुरिया के बारे मे कहा जाता है, कि भगवान श्री राम द्वारा परित्याग करने पर वैदेहि सीता को फिंगेश्वर के समीप सोरिद अंचल ग्राम के (रमई पाठ ) मे छोड़ गये थे वहीं माता का निवास स्थान था। सीता की प्रतिमा आज भी उस स्थान पर है। जब  सीता के बारे मे महर्षि वालमिकी को पता चला तो उन्हें अपने साथ तुरतुरिया ले आये और सीता यही आश्रम में निवास करने लगी ,यहीं लव कुश का जन्म हुआ।

    रोड की दूसरी ओर से एक पगडंडी पहाड़ के ऊपर जाती है, जहां माता दुर्गा का एक मंदिर है जिसे मातागढ़ कहा जाता है। पहाड़ के ऊपर से भव्य प्राकृतिक दृश्य दिखाई देता है। पहाड़ से दूसरा पहाड़ दिखाई देता है, जहाँ पर एक गुफा भी है जो बहुत ही खतरनाक प्रतीत होता है।
    ऐसी जनश्रुति भी है, कि एक बंजारा (चरवाहा) अपने गाय-बछड़े को लेकर रहता था. माता ने सुंदरी स्त्री का रूप धारण कर उसे दर्शन दिया, लेकिन उस चरवाहे ने उन्हें गलत नजरों से देखा और शापित होकर अपने पशु धन के साथ नष्ट हो गया. गाय गोर्रा नामक स्थान पर घंट-घुमर, सील-लोढ़ा पत्थर के रूप में पाये गये थे, उचित रख-रखाव नहीं होने के कारण चोरी हो गये.
   यहाँ पर संतान प्राप्ति के लिए माता से मन्नत मांगने भी लोग आते हैं, और पशुबलि भी देते हैं.
     पर्यटन स्थल धार्मिक, प्राकृतिक, आस्था, खतरा, रोमांच और पहाड़ों के अद्भुत नजारे का संयोग है तुरतुरिया..
-सुशील भोले-9826992811

Thursday 14 January 2021

अध्यात्म के रद्दा..

वो नागपंचमी के सुरता//
     अध्यात्म के रद्दा....
    जीवन का उत्तरार्द्ध ईश्वर और अपने आध्यात्मिक सिद्धांतों को पूर्ण करने के लिए होता है। शायद इसीलिए हमारी संस्कृति में इस अवस्था को वानप्रस्थ आदि आदि.. के रूप में प्रचारित किया गया है।   वानप्रस्थ का तात्पर्य ही होता है, गृहस्थ जीवन की जिम्मेदारियों से मुक्त होकर सद्गति के मार्ग पर अग्रसर होना और अपने अनुभवों को लोक हित में समर्पित कर देना।

       मुझे लगता है, मेरी भी यह अवस्था अब प्रारंभ हो चुकी है। वैसे अध्यात्म के प्रति मेरा झुकाव बचपन से ही रहा है। लेकिन गृहस्थ जीवन और साहित्य जगत में प्रवेश करने के पश्चात् इसमें कुछ कमी सी आ गई थी। खासकर साहित्य में जनवादी विचारों से प्रभावित होने के कारण हर प्रकार के शोषक वर्ग के प्रति आक्रोश और ईश्वर के प्रति अन्याय किए जाने का भाव।

         इन सबके बीच 24 जुलाई 1994 नागपंचमी के दिन मेरे जीवन में अजीब मोड़ आया। एक सफेद वस्त्रधारी साधु दिन के करीब 10 - 10.30 बजे मेरे घर के सामने आकर रूक गये। मैं वहाँ बैठा गुड़ाखू (एक प्रकार का नशीला मंजन) घिस रहा था। वे रूके और मेरे पास आकर बोले-  'तुम्हें तर्जनी उंगली को जूठा नहीं करना चाहिए। यह देव स्थान होता है। मंजन ही करना है, तो मध्यमा उंगली से किया करो.' बस इतना बोले और वे चले गये।

       आमतौर पर मैं ऐसे साधुओं की बातों पर ध्यान नहीं देता था। फिर भी जाने क्यों उनकी बातों को मानने की मन में इच्छा हुई। मैं उठा, घर के अंदर गया और तर्जनी उंगली को धोकर वापस बाहर आकर मध्यमा उंगली से गुड़ाखू घिसने लगा। ऐसा करते ही मुझे अपने अंदर मानसिक परिवर्तन का अहसास होने लगा। सावन का महीना चल ही रहा था, दो सोमवार अभी बचा हुआ था। उन दोनों सोमवार को व्रत रखने की इच्छा मेरे अंदर होने लगी। छात्र जीवन में मैं सावन सोमवार का व्रत रखता भी था, लेकिन जब हम हाई स्कूल में थे, तब हमारे दादा जी ऐसे ही सावन सोमवार को स्वर्ग सिधार गये थे, तब से व्रत का वह सिलसिला थम गया था।

         फिर सोमवार आया और मैं व्रत रखकर बढ़िया पूजा-पाठ करने लगा। इसी बीच रांवाभांठा (बंजारीधाम, रायपुर) वाले मेरे साहित्यिक मित्र डॉ. सीताराम साहू मुझसे मिलने मेरे रिकार्डिंग स्टूडियो पर आए। बातों ही बातों में मेरे सामने अनायास उपस्थित हो रही  विभिन्न परेशानियों के समाधान के लिए उनके गाँव में संचालित 'भोले दरबार' में आकर समाधान प्राप्त करने की बात कही।

       आमतौर पर मैं ऐसे दरबार और तंत्र-मंत्र वाले लोगों से दूर ही रहता था। लेकिन एक चिकित्सा पेशा के प्रतिष्ठित व्यक्ति और मेरे घनिष्ठ साहित्यिक मित्र ऐसा कह रहे थे। उनके बार-बार जोर मारने पर मैंने दरबार में का जाने का निश्चय किया। वहाँ शिव जी की हाजिरी आई हुई थी। मुझे सवा महीने तक निर्जला व्रत रखकर शिव उपासना का सुझाव दिया गया। जनवादी विचारधारा में बह रहे एक तार्किक पत्रकार-साहित्यकार के लिए इसे सहज रूप से स्वीकार कर लेना संभव नहीं था। केवल डॉ. सीताराम साहू की बार-बार समझाइश और आग्रह के चलते मैंने कठोर व्रत को करने का निर्णय लिया।

     इसी सवामासी व्रत के 21 वें दिन मेरे जीवन में अद्भुत चमत्कार हुआ। बाबा स्वयं मेरे पास आए। मेरे जीवन के उद्देश्य और कारण से परिचित कराए और उसे पूर्ण करने के लिए नियम-विधि की शिक्षा दिए। तभी मुझे नागपंचमी के दिन आए श्वेतवस्त्र धारी साधु का रहस्य भी ज्ञात हुआ।

        उस नियम और विधि को जीते हुए अब मेरे जीवन का संध्या काल प्रारंभ हो चुका है। साधना काल के वे 21 वर्ष मेरे जीवन में सुशील से भोले बनने की प्रक्रिया भी है। इस बीच अब मेरे गृहस्थ जीवन की जिम्मेदारियां भी लगभग पूरी हो चुकीं थीं। अब जीवन के इस उत्तरार्द्ध को उस ईश्वरीय कार्य को समर्पित कर देने का विचार उत्पन्न हुआ, जिसके लिए मुझे तैयार किया गया था। उनके द्वारा दिए गये ज्ञान, यहां की मूल संस्कृति और धर्म का वास्तविक स्वरूप, जिन्हें जानने-समझने में मुझे 21 वर्ष लग गये थे। उन्हें लोगों से परिचित कराने और सद्मार्ग पर आगे बढ़ाने का प्रयास करना। बस अब जीवन का यही अंतिम ध्येय रह गया है।

    लेकिन जब से मुझे पक्षाघात (लकवा) का बड़ा अटैक आया है, तब से वह उद्देश्य डांवाडोल होता लग रहा है. अपने इस उद्देश्य को मिशनरी रूप देने के लिए, धरातल पर साकार करने के लिए मैंने एक समिति "आदि धर्म जागृति संस्थान" का 28 फरवरी 2018 को विधिवत पंजीयन करवा कर पूरे प्रदेश में दौरा कर इसका चारों तरफ प्रचार प्रसार और जिला इकाइयों का गठन भी किया. इस बीच हर महीने सभा और संगोष्ठी का आयोजन भी होने लगा. प्रदेश के मिडीया में इसका प्रतिसाद भी अच्छा मिलने लगा. अच्छे अच्छे लोग हमसे जुड़ने लगे. इसी बीच 24 अक्टूबर 2018 (शरद पूर्णिमा) को आमदी नगर भिलाई के एक कार्यक्रम में मुझे पक्षाघात (लकवा)  का बड़ा अटैक आ गया. तब से लेकर अब तक मैं लगभग बिस्तर पर ही हूँ, और मेरे साथ ही समिति का कार्य भी मेरी ही अवस्था को प्राप्त कर गई है.
   इस बीच मैंने अपने कई सहयोगियों से मेरी जिम्मेदारी को अपने कंधों पर उठा लेने के लिए अनुरोध भी किया, लेकिन कोई सफलता नहीं मिली. लोग हमारे इस अभियान को धरातल पर साकार होते तो देखना चाहते हैं, लेकिन स्वयं उसके लिए नेतृत्वकर्ता की भूमिका में आना नहीं चाहते.
     बस अब ईश्वर से इतनी ही अपेक्षा है, कि इस मिशन को पूरा करने के लिए कोई योग्य पात्र मुझे दे दे, जो मेरे लकवा और उम्र के थपेड़ों से लाचार हो चुके हाथों के भार को अपने मजबूत और शक्तिशाली हाथों में अच्छे से सम्हाल ले... वैसे एक बात की संतुष्टि है, कि वैज्ञानिक आविष्कार के चलते अभी इंटरनेट के माध्यम से जो सोशलमीडिया संचालित हो रहा है, उनके माध्यम से मैं अपने अर्जित ज्ञान को लौगों तक पहुँचा पाने में सक्षम हो गया हूँ.
🙏🌹ऊँ नमः शिवाय 🌹🙏
-सुशील भोले
संजय नगर, रायपुर
मो. नं. 9826992811