Thursday 31 October 2013

आइये संकल्प लें...


आज छत्तीसगढ़ राज्य का 13 वां स्थापना दिवस है। इस अवसर पर आइये हम सब संकल्प लें कि हमारे पुरखों ने जिन उद्देश्यों को लेकर अलग राज्य का स्वप्न देखा था, उसे साकार करेंगे। यहां का शासन-प्रशासन, भाषा-संस्कृति और संपूर्ण अस्मिता की रखवाली का काम मूल निवासियों के हाथों में सौंपेंगे। जिन षडयंत्रकारी हाथों से मुक्ति के लिए अलग राज्य का आन्दोलन चला, उन हाथों से इसे मुक्त करा कर शोषण, दोहन, छल-कपट और अराजकता की स्थिति से इसे मुक्त करायेंगे। हर प्रकार के दमनकारी दृश्यों को परिवर्तित कर इसे सच्चे अर्थों में खुशहाल और समृद्ध बनायेंगे।
जय छत्तीसगढ़... जय भारत....  

Wednesday 30 October 2013

धर मशाल ल तैं ह संगी...

धर मशाल ल तैं ह संगी, जब तक रतिहा बांचे हे
पांव संभाल के रेंगबे बइहा, जब तक रतिहा बांचे हे....

अरे मंदिर-मस्जिद कहूं नवाले, माथा ल तैं ह संगी
फेर पीरा तोर कम नइ होवय, जब तक रतिहा बांचे हे....

देश मिलगे राज बनगे, फेर सुराज अभी बांचे हे
जन-जन जब तक जबर नइ होही, तब तक रतिहा बांचे हे...

अबड़ बड़ाई सब गाये हें, सोसक ल सरकार कहे हें
हम तो सच ल कहिबो संगी, जब तक रतिहा बांचे हे...

नवा किरण तो लटपट आथे, तभो उदिम करना परही
चलौ यज्ञ कराबो आजादी के, जब तक रतिहा बांचे हे....

सुशील भोले
संजय नगर, रायपुर (छ.ग.)
मोबा. नं. 080853-05931, 098269-92811
ईमेल - sushilbhole2@gmail.com
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Tuesday 29 October 2013

रौशनी बांटने का पर्व *सुरहुत्ती*


छत्तीसगढ़ में कार्तिक अमावस्या को मनाया जाने वाला पर्व *सुरहुत्ती* और *गौरा-गौरी* का विवाह ही मुख्य है, लेकिन अब इनके साथ *लक्ष्मी पूजन* को भी शामिल कर लिया गया है।
लक्ष्मी पूजन और गौरा-गौरी के विवाह पर्व को प्राय: हम सभी जानते हैं। इसलिए आज थोड़ी सी चर्चा सुरहुत्ती के संबंध में।
सुरहुत्ती छत्तीसगढ़ की मूल संस्कृति है। कार्तिक अमावस्या के दिन सूर्यास्त के पश्चात यह दीपदान या कहें रौशनी बांटने का पर्व प्रारंभ हो जाता है। लोग अपने-अपने घरों में, खेत-खलिहानों में, कुआं-बावली जैसे जीवनदायिनी जलस्रोतों पर, रोजी-रोजगार के अन्य साधनों के पास दीपक से रौशनी करते हैं। और इन सबसे बड़ी बात यह कि जितने भी अपने ईष्ट-मित्र और पड़ोसी होते हैं, उन सबके यहां भी दीपक लेकर जाते हैं और उनके घरों के तुलसी-चौरा या घर के अन्य प्रमुख स्थल पर दीपक रख कर प्रकाश फैलाते हैं।
मुझे लगता है कि रौशनी के आदान-प्रदान का ऐसा पर्व शायद ही दुनिया के किसी अन्य भागों में होता हो, जिसमें अपने ईष्ट-मित्रों या पड़ोसियों के घर जाकर रौशनी बांटी जाती हो।
इस दिन जिस दीपक का इस्तेमाल होता है, वह नई फसल से प्राप्त चावल के आटे का होता है। आजकल लोग नये चावल के आटे उपलब्ध नहीं हो पाने के कारण मिट्टी के दिये का भी इस्तेमाल कर लेते हैं।
मित्रों, आप सभी के जीवन में *सुरहुत्ती* की रौशनी फैले इन्हीं शुभकामनाओं के साथ... ऐसी गौरवशाली संस्कृति को और भी आगे बढ़ाने का आग्रह....

सुशील भोले
संजय नगर, रायपुर (छ.ग.)
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Monday 28 October 2013

देखे सपना धुआं होगे...


(1 नवंबर को छत्तीसगढ़ राज्य का 13 वां स्थापना दिवस है। हम लोग बचपन से राज्य आन्दोलन के साथ ही साथ यहां की भाषा, साहित्य, संस्कृति और संपूर्ण अस्मिता के लिए कार्यरत थे। लेकिन अब लग रहा है कि हम लोगों का आन्दोलन अभी भी अधूरा है। कहने के लिए भोगोलिक तौर पर राज्य का निर्माण तो हो गया है, लेकिन जिन उद्देश्यों को लेकर यह आन्दोलन प्रारंभ हुआ था, वह अब भी वैसा ही उपेक्षित पड़ा हुआ है।  कुछ इसी भाव पर छत्तीसगढ़ी भाषा में लिखा गया मेरा यह गीत...)

राज बनगे-राज बनगे, देखे सपना धुआं होगे
चारों मुड़ा कोलिहा मन के, देखौ हुआं-हुआं होगे

का-का सपना देखे रिहिन पुरखा अपन राज बर
नइ चाही उधार के राजा, हमला सुख-सुराज बर
राजनीति के पासा लगथे, महाभारत के जुआ होगे.....

शेर-बघवा भालू-चीता, हाथी के चिंघाड़ नंदागे
सत रद्दा रेंगइया मन के इतिहास ले नांव भुलागे
जतका ढोंगी, जोगी-भोगी, तेकरे मन बर दुआ होगे....

तिड़ी-बिड़ी छर्री-दर्री, हमर चिन्हारी के परिभाषा
कला-साहित्य सबो जगा, चील-कौंवा के होगे बासा
बाहिर ले आये मन संतवंतीन, अउ घर के नारी छुआ होगे....

अरे कूदौ-फांदौ टोरौ-पोंछौ, काजर कस अंधरौटी ल
अपने खातिर बेलव-सेंकव, स्वाभिमान के रोटी ल
खूब पेराये हौ कुसियार बरोबर, सरबस छुहा-छुहा होगे...

सुशील भोले
संपर्क : 41-191, डॉ. बघेल गली,
संजय नगर (टिकरापारा), रायपुर (छ.ग.)
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Sunday 27 October 2013

मुखौटा ही मुखौटा है...

मुखौटा ही मुखौटा है, अदब के इस जमाने में
जुल्म जो करते, कृपा बरसती उनके तराने में....

कहां जायें किसे मानें, भरोसा हर पल बिखरता है
पाखंड के दौर में, जुगनू सूरज बन फुदकता है
कैसा ये बेशर्म जमाना, डरता नहीं लजाने में....

कैसा रिश्ता कैसा नाता, कैसा प्रेम का बंधन है
हर बात पर छलने वाला, पाता यहां अभिनंदन है
मक्कारों का बाजार सजा है, लगे हैं सच छिपाने में....

लुटेरों ने गजब ढाया, बनाया रूप सेवक का
आवरण साधु का ओढ़ा, फैलाया भ्रम देवत्व का
फिर सेंध लगाये हौले से, जनता के खजाने में....

सुशील भोले
म.नं. 41-191, कस्टम कालोनी के सामने,
डॉ. बघेल गली, संजय नगर (टिकरापारा)
रायपुर (छ.ग.) मोबा. नं. 098269 92811
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Friday 25 October 2013

गीत गाना चाहता हूं...

मैं तुम्हारे आंसुओं का गीत गाना चाहता हूं
भूख और बेचारगी पर ग्रंथ गढऩा चाहता हूं....

जब जमीं पर श्रम का तुमने, बीज बोया था कभी
पर सृजन के उस जमीं को, कोई रौंदा था तभी
मैं उसी पल को जहां को दिखाना चाहता हूं... मैं तुम्हारे...

जब तुम्हारे घर पर पहरा, था पतित इंसान का
बेडिय़ों में जकड़ा रहता, न्याय सदा ईमान का
उन शोषकों को तुम्हारे बेनकाब करना चाहता हूं.. मैं तुम्हारे...

दर्द की परिभाषा मैंने, समझी थी वहीं पहली बार
जब तुम्हारे नयन बांध ने, ढलकाये थे अश्रु-धार
उसी दर्द को अब जीवन से, मैं भगाना चाहता हूं... मैं तुम्हारे..

सुशील भोले
41-191, कस्टम कालोनी के सामने,
संजय नगर (टिकरापारा) रायपुर (छ.ग.)
मोबा. नं. 080853 05931, 098269 92811
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Thursday 24 October 2013

एसो के पानी....











एसो के पानी, पानी-पानी कर दिस,
जम्मो फसल के नुकसानी कर दिस।
रोग-राई हमागे, जम्मो आसा बोहागे,
भारी परसानी म किसानी कर दिस।।
                             एसो के पानी....

Wednesday 23 October 2013

नोटा के सोंटा...













नोटा... तोर देखे सब झन के कांपत हावय पोटा
जतका लंदर-फंदर प्रत्याशी हें परही सबला सोंटा

मतदाता ल जे मन रात-दिन खेलत रहिन हें गोंटा
वो दोगला-दलाल मन के मसकाही अब टोटा

                               जय हो नोटा... जय-जय नोटा...
                                            
                                              सुशील नोटा/सोंटावाला

Tuesday 22 October 2013

बइहा होगेंव...


(यह फोटो मेरे साधनाकाल की है। सन् 1994 से लेकर 2008 तक मैं इसी तरह रहता था। इसी दौरान मुझे यहां की मूल संस्कृति, जिसे मैं आदि धर्म कहता हूं, का ज्ञान प्राप्त हुआ था। इन वर्षों में जीवकोपार्जन के लिए भी मैं कोई काम नहीं कर पाया था, परिणाम स्वरूप मेरे घर पर भूखमरी की स्थिति निर्मित हो गई थी। उसी समय इस गीत का लेखन हुआ था। )

मैं तो बइहा होगेंव शिव-भोले,
तोर मया म सिरतोन बइहा होगेंव.....

घर-कुरिया मोर छूटगे संगी, छूटगे मया-बैपार
जब ले होये हे तोर संग जोड़ा, मोरे गा चिन्हार
लोग-लइका बर चिक्कन पखरा कइहा होगेंव गा.....

खेत-खार सब परिया परगे, बारी-बखरी बांझ
चिरई घलो मन लांघन मरथे, का फजर का सांझ
ऊपरे-ऊपर देखइया मन बर निरदइया होगेंव गा......

संग-संगवारी नइ सोझ गोठियावय देथे मुंह ला फेर
बिन समझे धरम के रस्ता, उन आंखी देथें गुरेर
मैं तो संगी तोरे सही सबके आंसू पोछइया होगेंव गा...

सुशील भोले
संपर्क - 41/191, डा. बघेल गली,
संजय नगर (टिकरापारा) रायपुर (छ.ग.)
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Monday 21 October 2013

गुन-गुन आथे हांसी....

पहुना मन बर पलंग-सुपेती, अपन बर खोर्रा माची
उंकर दोंदर म खीर-सोंहारी, हमर बर जुच्छा बासी
मोला गुन-गुन आथे हांसी, रे मोला......

जेन उमर म बघवा बनके, गढ़ते नवा कहानी
तेन उमर म पर के बुध म, गंवा डारेस जवानी
आज तो अइसे दिखत हावस, जइसे चढग़े हावस फांसी ... रे मोला...

ठग-जग बनके आथे इहां, जइसे के ज्ञानी-ध्यानी
पोथी-पतरा के आड़ म उन, गढ़थें किस्सा-कहानी
तुम कब तक उनला लादे रइहौ, कब तक रही उदासी... रे मोला...

धरम-करम के माने नोहय, पर के बुध म रेंगत राहन
दुख-पीरा अउ सोसन ल, फोकट के साहत राहन
ये तो आरुग अंधरौटी ये, नोहय अंजोर उजासी... रे मोला...
सुशील भोले
संजय नगर (टिकरापारा) रायपुर (छ.ग.)
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धनुष-बाण और खुमरी का मजा....

संगम साहित्य समिति, मगरलोड के वार्षिक कार्यक्रम में पारेपरिक उपकरणों की प्रदर्शनी लगाई थी, जिसमें जांता, छकड़ा गाड़ी, ढेंकी, बाहना-मुसर, खुमरी, धनुष-बाण, मोहरी जैसे कई यंत्र थे। हमें लगा कि धनुष-बाण और खुमरी का फोटोग्राफिक आनंद तो लिया ही जा सकता है......


Saturday 19 October 2013

छत्तीसगढ़ की मूल संस्कृति

छत्तीसगढ़ की मूल संस्कृति

किसी भी अंचल की पहचान वहां की मौलिक संस्कृति के नाम पर होती है, लेकिन यह छत्तीसगढ़ का दुर्भाग्य है, कि पृथक राज्य निर्माण के एक दशक बीत जाने के पश्चात् भी आज तक उसकी अपनी अलग सांस्कृतिक पहचान नहीं बन पाई है। आज भी यहां की संस्कृति की जब बात होती है, तो यहां की मूल संस्कृति को दरकिनार कर अन्य प्रदेशों से आयातित संस्कृति को यहां की संस्कृति के रूप में बताने का प्रयास किया जाता है, और इसके लिए उन ग्रंथों को मानक माने जाने की दलील दी जाती है, जिन्हें वास्तव में अन्य प्रदेशों की संस्कृति के मापदंड पर लिखा गया है। इसीलिए उन ग्रंथों के नाम पर प्रचारित संस्कृति और छत्तीसगढ़ की मूल संस्कृति में कहीं पर भी सामंजस्य स्थापित होता दिखाई नहीं देता।

वास्तव में छत्तीसगढ़ की संस्कृति एक मौलिक संस्कृति है, जिसे हम सृष्टिकाल की या युग निर्धारण के मानक पर कहें तो सतयुग की संस्कृति कह सकते हैं। यहां पर कई ऐसे पर्व और संस्कार हैं, जिन्हें इस देश के किसी अन्य अंचल में नहीं जिया जाता। ऐसे ही कई ऐसे भी पर्व हैं, जिन्हें आज उसके मूल स्वरूप से परिवर्तित कर किसी अन्य घटना के साथ जोड़कर प्रचारित किया जा रहा है। आइए कुछ ऐसे ही दृश्यों पर तार्किक चर्चा कर लें।

सबसे पहले उस बहुप्रचारित व्यवस्था पर, जिसे हम चातुर्मास के नाम पर जानते हैं। ऐसा कहा जाता है कि चातुर्मास (आषाढ़ शुक्ल पक्ष एकादशी से लेकर कार्तिक शुक्ल पक्ष एकादशी तक) में देवता सो जाते हैं, (कुछ लोग इसे योग निद्रा कहकर बचने का प्रयास करते हैं।) इसलिए इन चारों महीनों में किसी भी प्रकार का मांगलिक कार्य नहीं करना चाहिए। अब छत्तीसगढ़ के संदर्भ में देखें, तो यह व्यवस्था यहां लागू ही नहीं होती। यहां चातुर्मास पूर्ण होने के दस दिन पहले ही भगवान शंकर और देवी पार्वती का विवाह पर्व 'गौरा-गौरी उत्सवÓ, जिसे सुरहुत्ती भी कहते हैं, के रूप में मनाया जाता है।

यहां पर यह जानना आवश्यक है कि गौरा-गौरी उत्सव को यहां का गोंड आदिवासी समाज शंभू शेक या ईसर देव और गौरा के विवाह के रूप में मनाता है, जबकि यहां का ओबीसी समाज शंकर-पार्वती का विवाह मानता है। मेरे पैतृक गांव में गोंड समाज का एक भी परिवार नहीं रहता, मैं रायपुर के जिस मोहल्ले में रहता हूं यहां पर भी ओबीसी के ही लोग रहते हैं, जो इस गौरा-गौरी उत्सव को मनाते हैं। ये मुझे आज तक यही जानकारी देते रहे कि यह पर्व शंकर-पार्वती का ही विवाह पर्व है। खैर यह विवाद का विषय नहीं है कि गौरा-गौरी उत्वस किसके विवाह का पर्व है। महत्वपूर्ण यह है कि यहां देवउठनी के पूर्व भगवान के विवाह का पर्व मनाया जाता है।

और जब भगवान की शादी का पर्व देवउठनी से पहले मनाया जाता है, तो फिर उनके सोने (शयन करना) या फिर इन महीनों को मांगलिक कार्यों के लिए किसी भी प्रकार से अशुभ मानने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। बल्कि यहां पर यह कहना ज्यादा अच्छा होगा कि छत्तीसगढ़ की संस्कृति में चातुर्मास के इन चारों महीनों को ही सबसे ज्यादा शुभ और पवित्र माना जाता है, क्योंकि इन्हीं चारों महीनों में यहां के सभी प्रमुख पर्व संपन्न होते हैं।

श्रावण अमावस्या को मनाए जाने वाले पर्व 'हरेलीÓ से लेकर देखें तो इस महीने की शुक्ल पक्ष पंचमी को 'नागपंचमीÓ तथा पूर्णिमा को 'शिव लिंग प्राकट्यÓ दिवस के रूप में मनाया जाता है। भादो मास में कृष्ण पक्ष षष्ठी को स्वामी कार्तिकेय का जन्मोत्सव पर्व 'कमर छठÓ के रूप में, अमावस्या तिथि को नंदीश्वर का जन्मोत्सव 'पोलाÓ के रूप में, शुक्ल पक्ष तृतीया को देवी पार्वती द्वारा भगवान शंकर को पति रूप में प्राप्त करने के लिए किए गए कठोर तप के प्रतीक स्वरूप मनाया जाने वाला पर्व 'तीजाÓ तथा चतुर्थी तिथि को विघ्नहर्ता और देव मंडल के प्रथम पूज्य भगवान गणेश का जन्मोत्सव पर्व।

क्वांर मास का कृष्ण पक्ष हमारी संस्कृति में स्वर्गवासी हो चुके पूर्वजों के स्मरण के लिए मातृ एवं पितृ पक्ष के रूप में मनाया जाता है। शुक्ल पक्ष माता पार्वती (आदि शक्ति) के जन्मोत्सव का पर्व नवरात्र के रूप में (यहां यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि यहां की संस्कृति में वर्ष में दो बार जो नवरात्र मनाया जाता है, उसका कारण आदि शक्ति के दो बार अवतरण को कारण माना जाता है। प्रथम बार वे सती के रूप में आयी थीं और दूसरी बार पार्वती के रूप में। सती के रूप में चैत्र मास में तथा पार्वती के रूप में क्वांर मास में)। क्वांर शुक्ल पक्ष दशमीं तिथि को समुद्र मंथन से निकले विष का हरण पर्व दंसहरा (दशहरा) के रूप में मनाया जाता है। (बस्तर में इस अवसर पर जो रथयात्रा का आयोजन किया जाता है, वह वास्तव में मंदराचल पर्वत के माध्यम से समुद्र मंथन का पर्व है। आगे इसकी विस्तृत चर्चा करेंगे)। तथा विष हरण के पांच दिनों के बाद क्वांर पूर्णिमा को अमृत प्राप्ति का पर्व 'शरद पूर्णिमाÓ के रूप में मनाया जाता है।

इसी प्रकार कार्तिक मास में अमावस्या तिथि को मनाया जाने वाला भगवान शंकर तथा देवी पार्वती का विवाह पर्व 'गौरा-गौरी उत्सवÓ में सम्मिलित होने के लिए लोगों को संदेश देने का आयोजन 'सुआ नृत्यÓ के रूप में किया जाता है, जो पूरे कृष्ण पक्ष में पंद्रह दिनों तक उत्सव के रूप में चलता है। इन पंद्रह दिनों में यहां की कुंवारी कन्याएं 'कार्तिक स्नानÓ का भी पर्व मनाती हैं। यहां की संस्कृति में मेला-मड़ई के रूप में मनाया जाने वाला उत्सव भी कार्तिक मास की पूर्णिमा तिथि से ही प्रारंभ होता है, जो भगवान शंकर के जटाधारी रूप में प्रागट्य होने के पर्व महाशिवरात्रि तक चलता है।

चातुर्मास के अंतर्गत हम 'दंसहराÓ की चर्चा कर रहे थे। तो यहां यह जान लेना आवश्यक है दशहरा (वास्तव में दंस+हरा) और विजया दशमी दो अलग-अलग पर्व हैं। दशहरा या दंसहरा सृष्टिकाल के समय संपन्न हुए समुद्र मंथन से निकले दंस विष के हरण का पर्व है तो विजयी दशमी आततायी रावण पर भगवान राम के विजय का पर्व है। यहां के बस्तर में दशहरा के अवसर पर जो 'रथयात्राÓ का पर्व मनाया जाता है, वह वास्तव में दंस+हरा अर्थात दंस (विष) हरण का पर्व है, जिसके कारण शिवजी को 'नीलकंठÓ कहा गया। इसीलिए इस तिथि को नीलकंठ पक्षी (टेहर्रा चिरई) को देखना शुभ माना जाता है, क्योंकि इस दिन उसे विषपान करने वाले शिवजी का प्रतीक माना जाता है।

बस्तर के रथयात्रा को वर्तमान में कुछ परिवर्तित कर उसके कारण को अलग रूप में बताया जा रहा है, बिल्कुल वैसे ही जैसे राजिम के प्रसिद्ध पारंपरिक 'मेलेÓ के स्वरूप को परिवर्तित कर 'कुंभÓ का नाम देकर उसके स्वरूप और कारण को परिवर्तित कर दिया गया है। पहले दशहरा के अवसर पर प्रतिवर्ष नया रथ बनाया जाता था, जो कि मंदराचल पर्वत का प्रतीक होता था, क्योंकि मंदराचल पर्वत के माध्यम से ही समुद्र मंथन किया गया था। चूंकि मंदराचल पर्वत को मथने (आगे-पीछे खींचने) के कार्य को देवता और दानवों के द्वारा किया गया था, इसीलिए इस अवसर पर बस्तर क्षेत्र के सभी ग्राम देवताओं को इस दिन रथयात्रा स्थल पर लाया जाता था। उसके पश्चात रथ को आगे-पीछे खींचा जाता था, और जब आगे-पीछे खींचे जाने के कारण रथ टूट-फूट जाता था, तब विष निकलने का दृश्यि उपस्थित करने के लिए उस रथ को खींचने वाले लोग इधर-उधर भाग जाते थे। बाद में जब वे पुन: एकत्रित होते थे, तब उन्हें विष वितरण के रूप में दोने में मंद (शराब) दिया जाता था।

इस बात से प्राय: सभी परिचित हैं कि समुद्र मंथन से निकले 'विषÓ के हरण के पांच दिनों के पश्चात 'अमृतÓ की प्राप्ति हुई थी। इसीलिए हम लोग आज भी दंसहरा तिथि के पांच दिनों के पश्चात अमृत प्राप्ति का पर्व 'शरद पूर्णिमाÓ के रूप में मनाते हैं।

यहां के मूल पर्व को किसी अन्य घटना के साथ जोड़कर लिखे जाने के संदर्भ में हम 'होलीÓ को उदाहरण के रूप में ले सकते हैं। छत्तीसगढ़ में जो होली मनाई जाती है वह वास्तव में 'काम दहनÓ का पर्व है, न कि 'होलिका दहनÓ का। यह काम दहन का पर्व है, इसीलिए इसे मदनोत्सव या वसंतोत्सव के रूप में भी स्मरण किया जाता है, जिसे माघ महीने की शुक्ल पक्ष पंचमी तिथि से लेकर फाल्गुन मास की पूर्णिमा तिथि तक लगभग चालीस दिनों तक मनाया जाता है।

सती आत्मदाह के पश्चात तपस्यारत शिव के पास आततायी असुर के संहार के लिए शिव-पुत्र प्राप्ति हेतु देवताओं द्वारा कामदेव को भेजा जाता है, ताकि उसके (शिव) अंदर काम वासना का उदय हो और वे पार्वती के साथ विवाह करें, जिससे शिव-पुत्र के हाथों मरने का वरदान प्राप्त असुर के संहार के लिए शिव-पुत्र (कार्तिकेय) की प्राप्ति हो। देवमंडल के अनुरोध पर कामदेव बसंत के मादकता भरे मौसम का चयन कर अपनी पत्नी रति के साथ माघु शुक्ल पक्ष पंचमीं को तपस्यारत शिव के सम्मुख जाता है। उसके पश्चात वासनात्मक शब्दों, दृश्यों और नृत्यों के माध्यम से शिव-तपस्या भंग करने की कोशिश की जाती है, जो फाल्गुन पूर्णिमा को शिव द्वारा अपना तीसरा नेत्र खोलकर उसे (कामदेव को) भस्म करने तक चलती है।

छत्तीसगढ़ में बसंत पंचमी (माघ शुक्ल पंचमी) को काम दहन स्थल पर अंडा (अरंडी) नामक पेड़  गड़ाया जाता है, वह वास्तव में कामदेव के आगमन का प्रतीक स्वरूप होता है। इसके साथ ही यहां वासनात्मक शब्दों, दृश्यों और नृत्यों के माध्यम से मदनोत्सव का सिलसिला प्रारंभ हो जाता है। इस अवसर पर पहले यहां 'किसबीन नाचÓ की भी प्रथा थी, जिसे रति नृत्य के प्रतीक स्वरूप आयोजित किया जाता था। 'होलिका दहनÓ का संबंध छत्तीसगढ़ में मनाए जाने वाले पर्व के साथ कहीं पर भी दृष्टिगोचर नहीं होता। होलिका तो केवल एक ही दिन में चिता रचवाकर उसमें आग लगवाती है, और उस आग में स्वयं जलकर भस्म हो जाती है, तब भला उसके लिए चालीस दिनों का पर्व मनाने का सवाल ही कहां पैदा होता है? और फिर वासनात्मक शब्दों, दृश्यों और गीत-नृत्यों का होलिका से क्या संबंध है?

मूल संस्कृति की चर्चा करते हुए कुछ बातें यहां के इतिहास लेखन की भी हो जाए तो बेहतर होगा, क्योंकि यहां की मूल संस्कृति के नाम पर अभी तक हम सृष्टिकाल या कहें कि सतयुग की संस्कृति की चर्चा करते आए हैं तो फिर प्रश्न उठता है कि छत्तीसगढ़ के इतिहास को केवल रामायण और महाभारत कालीन ही क्यों कहा जाता है? इसे सतयुग या सृष्टिकाल तक विस्तारित क्यों नहीं कहा जाता? जबकि बस्तर के लोक गीतों में इस बात का उल्लेख मिलना बताया जाता है, कि शिवजी देवी पार्वती के साथ अपने जीवन काल में सोलह वर्षों तक बस्तर में व्यतीत किए हैं।

इस संदर्भ में एक कथा प्राप्त होती है, जिसके अनुसार भगवान गणेश को प्रथम पूज्य का आशीर्वाद प्राप्त हो जाने के कारण उनके ज्येष्ठ भ्राता कार्तिकेय नाराज हो जाते हैं, और वह हिमालय का त्याग कर दक्षिण भारत में रहने के लिए चले जाते हैं। उन्हीं रूठे हुए कार्तिकेय को मनाने के लिए शिवजी देवी पार्वती के साथ यहां बस्तर में आकर सोलह वर्षों तक रूके हुए थे। छत्तीसगढ़ की मूल संस्कृति में शिव और शिव परिवार का जो वर्चस्व है, शायद उसका यही कारण है कि शिवजी यहां सोलह वर्षों तक निवासरत रहे थे।

यह भी ज्ञातव्य है कि दक्षिण भारत में कार्तिकेय की ही सबसे ज्यादा पूजा होती है। उन्हें मुरगन स्वामी के नाम पर जाना जाता है। शायद उनके दक्षिण भारत में निवासरत रहने के कारण ही ऐसा संभव हुआ है। तब प्रश्न यह उठता है कि हमारे इतिहासकारों को इतना गौरवशाली अतीत क्यों  ज्ञात नहीं हुआ? क्यों वे यहां के इतिहास को मात्र द्वापर और त्रेता तक सीमित कहते हैं?

मुझे ऐसा लगता है कि इन सबका एकमात्र कारण है, उनके द्वारा मानक स्रोत का गलत चयन। वे जिन ग्रंथों को यहां के इतिहास एवं संस्कृति के मानक के रूप में उद्घृत करते हैं, वास्तव में उन्हें छत्तीसगढ़ के मापदंड पर लिखा ही नहीं गया है। इस बात से तो सभी परिचित हैं कि यहां के मूल निवासी शिक्षा के प्रकाश से कोसों दूर थे, इसलिए वे अपनी संस्कृति और इतिहास को लिखित स्वरूप नहीं दे पाए। इसलिए जब अन्य प्रदेशों से यहां आकर बस जाने वाले लोगों ने यहां के इतिहास और संस्कृति को लिखित रूप देना प्रारंभ किया तो वे अपने साथ अपने मूल प्रदेशों से लाए गए ग्रंथों और संस्कृति को मानक मानकर 'छत्तीसगढ़Ó को परिभाषित करने लगे।

आज उस लिखित स्वरूप और यहां की मूल (अलिखित) स्वरूप में जो अंतर दिखाई देता है, उसका वास्तविक कारण यही है। इसलिए यहां के मूल निवासी जो अब स्वयं भी शिक्षित हो चुके हैं, वे चाहते हैं कि यहां की संस्कृति एवं इतिहास का पुनर्लेखन हो, और उस लेखन का आधार अन्य प्रदेशों से लाए गए ग्रंथों की बजाय यहां की मूल संस्कृति और लोक परंपरा हो।

सुशील भोले
संस्थापक, आदि धर्म सभा
संजय नगर, रायपुर (छ.ग.)
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Friday 18 October 2013

सुआ नृत्य के माध्यम से गौरा-गौरी विवाह की तैयारी प्रारंभ....



छत्तीसगढ़ में कार्तिक अमावस्या को शिव-पार्वती के विवाह को गौरा-गौरी पर्व के रूप में मनाया जाता है। कार्तिक माह के प्रारेभ (कृष्ण पक्ष की प्रथमा तिथि) से ही शिव-पार्वती के विवाह की तैयारियां प्रारंभ हो जाती हैं। इस तिथि से यहां प्रात:काल में कार्तिक स्नान, तथा शाम के समय सुआ नृत्य की परंपरा प्रारंभ हो जाती है।
यहां की महिलाएं शाम के समय टोली बनाकर गांव के सभी घरों में जाती हैं। अपने साथ एक टोकरी में सुआ (तोता) रखकर उसके चारों ओर घूम-घूम कर नाचती और गाती हैं, तथा लोगों के द्वारा दिये गये धन (पैसा या चावल आदि) को कार्तिक अमावस्या को संपन्न होने वाले गौरा-गौरी विवाह के लिए संग्रहित करती हैं।
ज्ञात रहे कि शिव-पार्वती के इस विवाह पर्व को देश के अन्य भागों में अन्य-अन्य तिथियों पर मनाया जाता है। लेकिन छत्तीसगढ़ में यह पर्व कार्तिक अमावस्या अर्थात देवउठनी के दस दिन पूर्व ही संपन्न हो जाता है। यह इस बात का भी प्रमाण है कि छत्तीसगढ़ की मूल संस्कृति में चातुर्मास की व्यवस्था लागू नहीं होती। यहां किसी भी प्रकार के मांगलिक कार्यों के लिए इन चारों महीनों में भी कोई प्रतिबंध नहीं है।
ज्ञात रहे कि छत्तीसगढ़ की मूल संस्कृति, जिसे मैं आदि धर्म कहता हूं वह सृष्टिकाल की संस्कृति है। युग निर्धारण की दृष्टि से कहें तो सतयुग की संस्कृति है, जिसे उसके मूल रूप में लोगों को समझाने के लिए हमें फिर से प्रयास करने की आवश्यकता है, क्योंकि कुछ लोग यहां के मूल धर्म और संस्कृति को अन्य प्रदेशों से लाये गये ग्रंथों और संस्कृति के साथ घालमेल कर लिखने और हमारी मूल पहचान को समाप्त करने की कोशिश कर रहे हैं।
मित्रों, सतयुग की यह गौरवशाली संस्कृति आज की तारीख में केवल छत्तीसगढ़ में ही जीवित रह गई है, उसे भी गलत-सलत व्याख्याओं के साथ जोड़कर भ्रमित किया जा रहा। मैं चाहता हूं कि मेरे इसे इसके मूल रूप में पुर्नप्रचारित करने के सद्प्रयास में आप सब सहभागी बनें...।

सुशील भोले
संस्थापक, आदि धर्म सभा
संपर्क - 41/191, डा. बघेल गली,
संजय नगर (टिकरापारा) रायपुर (छ.ग.)
मोबा. नं. 080853-05931, 098269-92811
ईमेल - sushilbhole2@gmail.com

Thursday 17 October 2013

अमृत प्राप्ति पर्व पर शुभकामनाएं....

 विष हरण (दंसहरा) के पांच दिनों के पश्चात समुद्र मंथन से प्राप्त हुए अमृत पर्व पर आप सभी को हार्दिक शुभकामनाएं... आप सभी के जीवन में अमृत तत्व का संचार हो.....


Wednesday 16 October 2013

वाल्मीकि जयंती पर.....

गीत मेरा बन जाता है... 
(इस गीत की प्रेरणा महर्षि वाल्मीकि जी हैं। एक बहेलिया द्वारा क्रौंच पक्षी के जोड़े को धनुष-तीर से मार देने पर अचानक उनके मुंह से कविता निकल पड़ी थी, जिसके कारण हम उन्हें दुनिया का प्रथम कवि कहते हैं। हमारे छत्तीसगढ़ में तुरतुरिया नामक स्थान पर वाल्मीकि आश्रम है, जो कि मेरे घर से मात्र 45 कि.मी. की दूरी पर है। शरद पूर्णिमा 18 अक्टूबर को वाल्मीकि जयंती पर विनम्र श्रद्धांजलि सहित .... )

जब-जब पाँवों में कोई कहीं, कांटा बन चुभ जाता है
दर्द कहीं भी होता हो, पर गीत मेरा बन जाता है.....

मैं वाल्मीकि का वंशज हँू, हर दर्द से नाता रखता हँू
कोई फूल टूटे या शूल चुभे, हर जख्म मैं ही सहता हूँ
क्रंदन करता क्रौंच पक्षी, तो मन मेरा कंप जाता है.....

मैं सावन का घुमड़ता बादल हूँ, सुख की फसलें उपजाता हूँ
कोई राजा हो या रंक सभी को, जीवन गीत सुनाता हूँ
आँखों में किसी की तिनका चुभे, तो आँसू मेरा बह जाता है..

मैं श्रमवीरों का सहोदर हूँ, कल-पुर्जों को धड़काता हूँ
देश की हर गौरव-गाथा में, ऊर्जा बन बह जाता हूँ
सीमा पर कभी फन उठता तो, लहू मेरा बह जाता है... 


सुशील भोले
संपर्क : 41-191, डॉ. बघेल गली,
संजय नगर (टिकरापारा), रायपुर (छ.ग.)
मो.नं. 080853-05931, 098269-92811
http://www.youtube.com/watch?v=ye5HkmbTVS8&feature=youtu.be

Wednesday 9 October 2013

दशहरा या दंसहरा...?


क्वांर मास की शुक्लपक्ष दशमी तिथि को मनाये जाने वाला पर्व दशहरा है या दंस+हरा = दंसहरा है ..?
ज्ञात रहे कि विजया दशमी और दशहरा दो अलग-अलग पर्व हैं। लेकिन हमारी अज्ञानता के चलते इन दोनों को गड्ड-मड्ड कर एक बना दिया गया है।
जहां तक विजया दशमी की बात है, तो इसे प्राय: सभी जानते हैं कि यह भगवान राम द्वारा आततायी रावण पर विजय प्राप्त करने के प्रतीक स्वरूप मनाया जाने वाला पर्व है। लेकिन दशहरा वास्तव में दंसहरा है, और यह पर्व आज की तारीख में केवल छत्तीसगढ़ के बस्तर में जीवित रह गया है, लेकिन दुर्भाग्य से इसकी कथा को भी बिगाड़ कर लिखा जाने लगा है।
दशहरा वास्तव में दंस+हरा=दंसहरा है। दंस अर्थात विष हरण का पर्व है।  सृष्टिकाल में जब देवता और दानव मिलकर समुद्र मंथन कर रहे थे, और समुद्र से विष निकल गया था, जिसका पान (हरण) भगवान शिव ने किया था, जिसके कारण उन्हें नीलकंठ कहा गया था। इसीलिए इस तिथि को नीलकंठ नामक पक्षी को देखना आज भी शुभ माना जाता है। क्योंकि इस दिन उन्हें शिव जी (अपने कंठ में विषधारी नीलकंठ) का प्रतीक माना जाता है।
समुद्र मंथन सभी देवता और दानव मिलकर किये थे, इसीलिए बस्तर (छत्तीसगढ़) में जो दशहरा (रथयात्रा) का पर्व मनाया जाता है, उसमें भी पूरे बस्तर अंचल के देवताओं को एक जगह (रथ स्थल पर) लाया जाता है, और रथ को खींचा जाता है। वास्तव में यह रथ मंदराचल पर्वत का प्रतीक स्वरूप होता है।
ज्ञात रहे कि पूर्व में प्रति वर्ष बनने वाले इस रथ को आगे-पीछे खींचा जाता था, और इस दौरान रथ के टूट जाने पर रथ खींचने वाले सभी लोग रथ को छोड़कर चारों तरफ भागते थे। यह विष निकलने के प्रतीक स्वरूप होता था। बाद में सभी लोग पुन: रथ स्थल पर एकत्रित होते थे। तब उन्हें दोना में मंद (शराब) दिया जाता था, जो कि विष (पान या हरण) का प्रतीक स्वरूप होता था।
लेकिन बहुत दुख के साथ यह कहना पड़ रहा है कि इसके मूल स्वरूप और कथा को वैसे ही बिगाड़ा जा रहा है, जैसे कि राजिम (छत्तीसगढ़) के प्रसिद्ध पारंपरिक मेला को कुंभ के नाम पर बिगाड़ा जा रहा है। कुलेश्वर महादेव के नाम पर भरने वाले मेले को राजीव लोचन के नाम पर भरने वाला कुंभ कहा जा रहा है।
आप लोगों को तो यह ज्ञात ही है कि समुद्र से निकले विष के हरण के पांच दिनों के पश्चात अमृत की प्राप्ति हुई थी। इसीलिए हम आज भी दंसहरा के पांच दिनों के पश्चात अमृत प्राप्ति का पर्व शरद पूर्णिमा के रूप में मनाते हैं।
ज्ञात रहे कि छत्तीसगढ़ की मूल संस्कृति, जिसे मैं आदि धर्म कहता हूं वह सृष्टिकाल की संस्कृति है। युग निर्धारण की दृष्टि से कहें तो सतयुग की संस्कृति है, जिसे उसके मूल रूप में लोगों को समझाने के लिए हमें फिर से प्रयास करने की आवश्यकता है, क्योंकि कुछ लोग यहां के मूल धर्म और संस्कृति को अन्य प्रदेशों से लाये गये ग्रंथों और संस्कृति के साथ घालमेल कर लिखने और हमारी मूल पहचान को समाप्त करने की कोशिश कर रहे हैं।
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Tuesday 8 October 2013

मोर घर...

खुमरी कस खदर ओढ़े बइठे हे मोर घर
फरिका म ओंगन आंजे हे झन लागय नजर....

जाड़ म बुढुवा कस खांसत रहिथे
कोनो बीमरहा कस कांखत रहिथे
एक्के तीर परे रहिथे, जइसे आय अजगर...

                                                     सुशील भोले

Monday 7 October 2013

शोषण...














बछरु ह
एक दिन गाय जघा पूछिस-
दाई...
शोषण काला कहिथे...?

त... गाय कहिस-
बेटा...
तैं ह....
खूंटा म बंधाये
जुच्छा पैरा ल पगुरावत रहिथस
अउ
हमर मालिक ह
मोर थन के दूध ल दुह के
अपन बेटा ल पियाथे
इही ल तो शोषण कहिथे।

सुशील भोले
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Sunday 6 October 2013

शबरी नदी के तट पर....

छत्तीसगढ़ और ओडिशा राज्य की सीमारेखा के रूप में पहचाने जाने वाली शबरी नदी के तट पर....


Saturday 5 October 2013

जाग छत्तीसगढ़....

बाजा बजगे फेर चुनाव के निर्णय के बटन दबाना हे
छल-छिद्र अउ भ्रष्टाचार म, बूड़े मनला हराना हे....

कोनो पार्टी के होवय, फेर लबरा मनखे झन होवय
पांच बछर म बेरा आये हे, फेर हार सत्य के झन होवय...

जाति-पाति अउ धरम के झांसा ले सबला अब उठना हे
जतका मानवता के दुश्मन, उन सबला ठउका कूटना हे....

सुशील भोले
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बस्तर की वादियों में....

बड़े दिनों के बाद बस्तर की मनोरम वादियों में जाने का अवसर मिला। अवसर था जागृत छत्तीसगढ़ कार्यक्रम के अंतर्गत आयोजित कवि सम्मेलनों का। 29 सितंबर से लेकर 2 अक्टूबर तक लगातार चार दिनों तक बस्तर के विभिन्न स्थानों पर गये उनमें से कुछ तस्वीरें आपके लिए....




Thursday 3 October 2013

जागृत छत्तीसगढ़ / कवि सम्मेलन

छत्तीसगढ़ शासन के समाज कल्याण विभाग द्वारा जागृत छत्तीसगढ़ कार्यक्रम के अंतर्गत बस्तर के सुदूर अंचलों में कवि सम्मेलनों का आयोजन किया गया। इसके अंतर्गत 30 सितंबर को सुकमा, 1 अक्टूबर को छिंदगढ़ और 2 अक्टूबर को दोरनापाल में कवि सम्मेलन का आयोजन किया गया। बस्तर के इन सुदूर क्षेत्रों में कवि सम्मेलन का यह पहला आयोजन था। इसके पूर्व इस अंचल के लोगों को कवि सम्मेलन का कोई अनुभव नहीं था। इसके बावजूद लोगों की उपस्थिति और उनकी सहभागिता देखने लायक थी। इस ऐतिहासिक कार्यक्रम में मैं प्रतिभागी बना इस बात की खुशी जीवन भर रहेगी।