Wednesday 9 October 2013

दशहरा या दंसहरा...?


क्वांर मास की शुक्लपक्ष दशमी तिथि को मनाये जाने वाला पर्व दशहरा है या दंस+हरा = दंसहरा है ..?
ज्ञात रहे कि विजया दशमी और दशहरा दो अलग-अलग पर्व हैं। लेकिन हमारी अज्ञानता के चलते इन दोनों को गड्ड-मड्ड कर एक बना दिया गया है।
जहां तक विजया दशमी की बात है, तो इसे प्राय: सभी जानते हैं कि यह भगवान राम द्वारा आततायी रावण पर विजय प्राप्त करने के प्रतीक स्वरूप मनाया जाने वाला पर्व है। लेकिन दशहरा वास्तव में दंसहरा है, और यह पर्व आज की तारीख में केवल छत्तीसगढ़ के बस्तर में जीवित रह गया है, लेकिन दुर्भाग्य से इसकी कथा को भी बिगाड़ कर लिखा जाने लगा है।
दशहरा वास्तव में दंस+हरा=दंसहरा है। दंस अर्थात विष हरण का पर्व है।  सृष्टिकाल में जब देवता और दानव मिलकर समुद्र मंथन कर रहे थे, और समुद्र से विष निकल गया था, जिसका पान (हरण) भगवान शिव ने किया था, जिसके कारण उन्हें नीलकंठ कहा गया था। इसीलिए इस तिथि को नीलकंठ नामक पक्षी को देखना आज भी शुभ माना जाता है। क्योंकि इस दिन उन्हें शिव जी (अपने कंठ में विषधारी नीलकंठ) का प्रतीक माना जाता है।
समुद्र मंथन सभी देवता और दानव मिलकर किये थे, इसीलिए बस्तर (छत्तीसगढ़) में जो दशहरा (रथयात्रा) का पर्व मनाया जाता है, उसमें भी पूरे बस्तर अंचल के देवताओं को एक जगह (रथ स्थल पर) लाया जाता है, और रथ को खींचा जाता है। वास्तव में यह रथ मंदराचल पर्वत का प्रतीक स्वरूप होता है।
ज्ञात रहे कि पूर्व में प्रति वर्ष बनने वाले इस रथ को आगे-पीछे खींचा जाता था, और इस दौरान रथ के टूट जाने पर रथ खींचने वाले सभी लोग रथ को छोड़कर चारों तरफ भागते थे। यह विष निकलने के प्रतीक स्वरूप होता था। बाद में सभी लोग पुन: रथ स्थल पर एकत्रित होते थे। तब उन्हें दोना में मंद (शराब) दिया जाता था, जो कि विष (पान या हरण) का प्रतीक स्वरूप होता था।
लेकिन बहुत दुख के साथ यह कहना पड़ रहा है कि इसके मूल स्वरूप और कथा को वैसे ही बिगाड़ा जा रहा है, जैसे कि राजिम (छत्तीसगढ़) के प्रसिद्ध पारंपरिक मेला को कुंभ के नाम पर बिगाड़ा जा रहा है। कुलेश्वर महादेव के नाम पर भरने वाले मेले को राजीव लोचन के नाम पर भरने वाला कुंभ कहा जा रहा है।
आप लोगों को तो यह ज्ञात ही है कि समुद्र से निकले विष के हरण के पांच दिनों के पश्चात अमृत की प्राप्ति हुई थी। इसीलिए हम आज भी दंसहरा के पांच दिनों के पश्चात अमृत प्राप्ति का पर्व शरद पूर्णिमा के रूप में मनाते हैं।
ज्ञात रहे कि छत्तीसगढ़ की मूल संस्कृति, जिसे मैं आदि धर्म कहता हूं वह सृष्टिकाल की संस्कृति है। युग निर्धारण की दृष्टि से कहें तो सतयुग की संस्कृति है, जिसे उसके मूल रूप में लोगों को समझाने के लिए हमें फिर से प्रयास करने की आवश्यकता है, क्योंकि कुछ लोग यहां के मूल धर्म और संस्कृति को अन्य प्रदेशों से लाये गये ग्रंथों और संस्कृति के साथ घालमेल कर लिखने और हमारी मूल पहचान को समाप्त करने की कोशिश कर रहे हैं।
मित्रों, सतयुग की यह गौरवशाली संस्कृति आज की तारीख में केवल छत्तीसगढ़ में ही जीवित रह गई है, उसे भी गलत-सलत व्याख्याओं के साथ जोड़कर भ्रमित किया जा रहा। मैं चाहता हूं कि मेरे इसे इसके मूल रूप में पुर्नप्रचारित करने के सद्प्रयास में आप सब सहभागी बनें...।

सुशील भोले
संस्थापक, आदि धर्म सभा
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