Wednesday 30 September 2015

इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में छत्तीसगढ़ी...

छत्तीसगढ़ राज्य से प्रसारित होने वाले  इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के कई चैनल  छत्तीसगढ़ी भाषा में भी समाचार तथा कुछेक अन्य कार्यक्रम प्रस्तुत करने लगे हैं। सबसे पहले तो उन्हें साधुवाद, यहाँ की जनभाषा को प्रसारण का माध्यम बनाने के लिए, साथ ही एक अनुरोध भी कि वे भाषा के स्तर और शुद्धता को सुधारें। समाचारों के साथ दिखाए जाने वाले कैप्शन को भी ठीक करें। हिन्दी या अंगरेजी भाषा के शब्दों को छत्तीसगढी करण करने के लिए अनावश्यक रूप से टोड़ें-मरोड़े नहीं... और हो सके तो नागरी लिपि के सभी वर्णौं का प्रयोग करें। ज्यादा अच्छा होगा कि सभी चैनल वाले छत्तीसगढ़ी के अच्छे जानकारों को अपने साथ जोड़े। हम लोग छत्तीसगढ़ी में बनने वाली फिल्मों के लिए जिस तरह से आलोचनात्मक  शब्दों का इस्तेमाल करते हैं, वैसा  इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लिए ना करना पड़े तो बहुत अच्छा होगा।

धन्यवाद,
सुशील भोले
मो. 080853-05931, 098269-92811

झालर उतरही बाबू के....










झालर उतरही बाबू के, फूफू लेही सकेल
मरदनिया तो छूरा टेंवत, पाछू देथे ढकेल
कहिथें कोंख ले महतारी के जे चूंदी ह आथे
झोंक के अंचरा म वोला नंदिया म देही झेल
सुशील भोले
मो. 080853-05931, 098269-92811

Sunday 27 September 2015

पितर पाख के.....














बरा-बोबरा संग चुरे हे आज तो गुरहा चीला
नंगत झड़कबोन हम सिरतो जम्मो माईपिला
पितर पाख के तेरस के बबा धमकही पक्का
रहिथें पुरखन पाख भर देखाथें अपन लीला

 सुशील भोले
 मो. 080853-05931, 098269-92811

Saturday 26 September 2015

तीरथगढ़ के झरने ...

तीरथगढ़ के झरने छत्तीसगढ़ के बस्तर ज़िले में कांगेर घाटी पर स्थित हैं। ये झरने जगदलपुर की दक्षिण-पश्चिम दिशा में 35 कि.मी. की दूरी पर हैं। "कांगेर घाटी के जादूगर" के नाम से मशहूर तीरथगढ़ झरने भारत के सबसे ऊँचे झरनों में से हैं। छत्तीसगढ़ के सबसे ऊंचे जलप्रपात में इसे गिना जाता है। यहां 300 फुट ऊपर से पानी नीचे गिरता है। कांगेर और उसकी सहायक नदियां 'मनुगा' और 'बहार' मिलकर इस सुंदर जलप्रपात का निर्माण करती हैं।
तीरथगढ़ के झरने 

तीरथगढ़ जलप्रपात 

लेखक सुशील भोले कांगेर घाटी पर जहां यह जल प्रपात स्थित है

Friday 25 September 2015

छत्तीसगढ़ में सांस्कृतिक आन्दोलन की आवश्यकता....

किसी भी राज्य की पहचान वहां की भाषा और संस्कृति के माध्यम से होती है। इसी को आधार मानकर इस देश में भाषाई एवं सांस्कृतिक आधार पर राज्य पुनर्गठन आयोग की स्थापन की गई थी, और नये राज्यों का निर्माण भी हुआ।

छत्तीसगढ़ को अलग राज्य के रूप में स्वतंत्र अस्तित्व में आये 15 वर्ष होने वाला है। लेकिन अभी भी उसकी स्वतंत्र भाषाई एवं सांस्कृतिक पहचान नहीं बन पाई है। स्थानीय स्तर पर छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग की स्थापना कर छत्तीसगढ़ी को हिन्दी के साथ राजभाषा के रूप में मान्यता दे दी गई है, लेकिन अभी तक उसका उपयोग केवल खानापूर्ति कर लोगों को ठगने के रूप में ही किया जा रहा है। यहां के राजकाज या शिक्षा में इसकी कहीं कोई उपस्थिति नहीं है।

छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक पहचान के क्षेत्र में तो और भी दयनीय स्थिति है। यहां की मूल संस्कृति की तो कहीं पर चर्चा ही नहीं होती। अलबत्ता यह बताने का प्रयास जरूर किया जाता है, कि अन्य प्रदेश से लाये गये ग्रंथ और उस पर आधारित संस्कृति ही छत्तीसगढ़ की संस्कृति है।

छत्तीसगढ़, छत्तीसगढ़ी और छत्तीसगढ़िया के नाम पर यहां समय-समय पर आन्दोलन होते रहे हैं, और आगे भी होते रहेंगे। लेकिन एक बात जो अधिकांशतः देखने में आयी, वह यह कि कुछ लोग इसे राजनीतिक चंदाखोरी के माध्यम के रूप में इस्तेमाल करते रहे। जब राजनीतिक स्थिति डांवाडोल दिखती तो छत्तीसगढ़िया का नारा बुलंद करने लगते, और रात के अंधेरे में उन्हीं लोगों से पद या पैसा की दलाली करने लगते, जिनके कारण मूल छत्तीसगढ़िया आज भी उपेक्षित है।

आश्चर्यजनक बात यह है कि आज तक इस राज्य में यहां की मूल संस्कृति के नाम पर कहीं कोई आन्दोलन नहीं हुआ है। जो लोग छत्तीसगढ़िया या छत्तीसगढ़ी भाषा के नाम पर आवाज बुलंद करते रहे हैं, एेसे लोग भी संस्कृति की बात करने से बचते रहे हैं। मैंने अनुभव किया है, कि ये वही लोग हैं, जो वास्तव में आज भी जिन प्रदेशों से आये हैं, वहां की संस्कृति को ही जीते हैं, और केवल भाषा के नाम छत्तीसगढ़िया होने का ढोंग रचते हैं। जबकि यह बात सर्व विदित है कि किसी भी राज्य या व्यक्ति की पहचान उसकी संस्कृति ही होती है।

एेसे लोग एक और बात कहते हैं कि छत्तीसगढ़ के मूल निवासी तो केवल आदिवासी हैं, उसके बाद जितने भी यहां हैं वे सभी बाहरी हैं, तो फिर यहां की मूल  संस्कृति उन सभी का मानक कैसे हो सकती है? एेसे लोगों को मैं याद दिलाना चाहता हूं कि यहां पूर्व में दो किस्म के लोगों आना हुआ है। एक वे जो यहां कमाने-खाने के लिए कुदाल-फावड़ा लेकर आये और एक वे जो  जीने के साधन के रूप में केवल पोथी-पतरा लेकर आये। जो लोग कुदाल-फावड़ा लेकर आये वे धार्मिक- सांस्कृतिक रूप से अपने साथ कोई विशेष सामान नहीं लाए थे, इसलिए यहां जो भी पर्व-संस्कार था, उसे आत्मसात कर लिए। लेकिन जो लोग अपने साथ पोथी-पतरा लेकर आये थे, वे यहां की संस्कृति को आत्मसात करने के बजाय अपने साथ लाये पोथी कोे ही यहां के लोगों पर थोपने का उपक्रम करने लगे, जो आज भी जारी है।  इसीलिए ये लोग आज भी यहां की मूल संस्कृति के प्रति ईमानदार नहीं हैं।

जहां तक भाषा की बात है, तो  भाषा को तो कोई भी व्यक्ति कुछ दिन यहां रहकर सीख और बोल सकता है। हम कई एेसे लोगों को देख भी रहे हैं, जो यहां के मूल निवासियों से ज्यादा अच्छा छत्तीसगढ़ी बोलते हैं, लेकिन क्या वे यहां की संस्कृति को भी जीते हैं? उनके घरों में जाकर देखिए वे आज भी वहीं की संस्कृति को जीते हैं, जहां से लोटा लेकर आये थे। एेसे में उन्हें छत्तीसगढ़िया की श्रेणी में कैसे रखा जा सकता है ? एेसे लोग यहां की कुछ कला को जिसे मंच पर प्रस्तुत किया जाता है, उसे ही संस्कृति के रूप में प्रचारित कर लोगों को भ्रमित करने की कुचेष्ठा जरूर करते हैं। जबकि संस्कृति वह है, जिसे हम संस्कारों के रूप में जीते हैं, पर्वों के रूप में जीते हैं।

आज की सबसे बड़ी आवश्यकता यह है, कि हम अपनी मूल संस्कृति को जानें, समझें, उसकी मूल रूप में पहचान कायम रखने का प्रयास करें और उसके नाम पर पाखण्ड करने वालों के नकाब भी नोचें। छत्तीसगढ़ी या छत्तीसगढ़िया आन्दोलन तब तक पूरा नहीं सकता, जब तक उसकी आत्मा अर्थात संस्कृति उसके साथ नहीं जुड़ जाती।

सुशील भोले
संजय नगर, रायपुर (छ.ग.)
मोबा. नं. 080853-05931, 098269-92811
ईमेल - sushilbhole2@gmail.com

Thursday 24 September 2015

आज बड़ा अलकरहा होगे.....











आज बड़ा अलकरहा होगे, कोंदा टूरा लपरहा होगे
रिंंगी-चिंगी मन हीरा-मोती, टन्नक माल बजरहा होगे....
हमर गांव म देवता-धामी, अउ सरग बरोबर डेरा हे
तभो ले कइसे सूत-उठके, दरुहा मन के फेरा हे
ज्ञानी-ध्यानी जकला-भकला, पोथी पढ़इया अड़हा होगे.....
आज देश के हवा बदलगे, धरती के जम्मो पेड़ उजरगे
एसी-फ्रीज के चक्कर म, तन म कतकों रोग संचरगे
बड़े बिहनिया ले दंड-पेलइया, पहलवान बीमरहा होगे....
धरम-करम के साफा बांधे, अब तो भोगी, जोगी हे
सतयुग के आभा देखाथे, फेर मन के बिल्कुल रोगी हे
झकझक ले कपड़ा चमकाये, उज्जर रूप कजरहा होगे...
सुशील भोले
संजय नगर, रायपुर (छ.ग.)
मोबा. नं. 080853-05931, 098269-92811
ईमेल - sushilbhole2@gmail.com

Wednesday 23 September 2015

अब छेरी चराथन गांव म...














ममता माया जया अउ सुषमा, सब रहिथन एकेच ठांव म
सोनिया घलो संघरगे हावय, अब छेरी चराथन गांव म...
दाई-ददा मन स्कूल के बदला, भेजीन हमला खार म
बरदिहा के पाछू किंजरत, कभू जावन नदी-कछार म
हर्रो-हर्रो चिचियावत गोई, कांटा गड़ जावय पांव म.....
हमूं कहूं थोरको पढ़तेन त, राजनीति म अव्वल रहितेन
हमरे सहीं नांव वाली कस, अलग-अलग झंडा धरतेन
तब छेरी-भेंड़ी कस मनखे के रेला, गिरतीन हमरो पांव म....
सुशील भोले 
संजय नगर, रायपुर (छ.ग.)
मो.नं. 080853-05931, 098269-92811
ई-मेल - sushilbhole2@gmail.com

सरकारी आयोजन बनकर रह गया सर्व पिछड़ा वर्ग सम्मेलन

* पिछड़ों के विकास और अधिकार की बात तक नहीं हुई
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सर्व पिछड़ा वर्ग महासभा के पदाधिकारियों के सम्मेलन में अधिकार और उनसे जुड़े नीतिगत मुद्दों को छोड़कर अन्य ऐसी बातों पर चर्चा हो जिनके कारण पिछड़ों के विकास और अधिकार बाधित होते रहे हों तो उसे क्या कहा जायेगा? यह प्रश्नचिन्ह बीते 20 सितम्बर को राजधानी रायपुर के शहीद स्मारक भवन में सम्पन सर्व पिछड़ा वर्ग महासभा के पदाधिकारियों के महासम्मेलन में उभरकर आया।

कार्यक्रम के प्रारंभ से ही यह अहसास होने लगा था कि यह आयोजन पूर्णत: प्रायोजित है। जिसे उन लोगों के द्वारा आयोजित करवाया जा रहा है जो लोग समस्त मानव समाज में असमानता के बीज बोएं हैं और समता और समरसता की बात भी वे ही करते हैं।

छत्तीसगढ़ राज्य में जहां पिछड़ों को आरक्षण के लिए निर्धारित 27 प्रतिशत कोटा का पालन नहीं किया जाता इस पर किसी भी बड़े वक्ता ने एक शब्द तक नहीं कहा। पिछड़ों की शिक्षा, उनकी संस्कृति और स्वतंत्र धार्मिक पहचान की कहीं कोई चर्चा नहीं हुई। अलबत्ता वृन्दावन से एक ऐसे संत को लाकर पिछड़ों के मस्तक पर बैठाने का उपक्रम रचा गया जो वास्तव में पिछड़ों के पिछडऩे का मूल कारण वर्ण व्यवस्था की सरेआम सराहना कर रहा था। लोगों को उस सड़ी-गली व्यवस्था का अनुपालन करने को प्रेरित कर रहा था।

आश्चर्य तब हुआ जब पिछड़ा वर्ग के एक बड़े नेता जो एक बड़ी पार्टी के मुखौटा बने हुए हैं उन्होंने अपने उद्बोधन में कहा कि मजबूत पेड़ का आश्रय लेकर एक बेल भी उसकी ऊंचाई को छूने और उससे आगे निकलने का प्रयास कर लेती है। इसलिए हमें भी उसका परिपालन करना चाहिए।

वास्तव में उनके उद्बोधन का सार यह होना चाहिए था कि हम कब तक बेल की तरह दूसरे के आश्रय पर जीवित रहेंगे। हमें बेल या लता नहीं अपितु मूसलाजड़ों से जमीन की गहराईयों को नापने वाला विशाल वृक्ष बनना चाहिए।

देश की उच्च सदन को प्रतिनिधित्व देने वाले प्रदेश के दो अलग-अलग वर्गों से आने वाले महानुभवों ने अवश्य शोषित समाज के साथ ही साथ सम्पूर्ण छत्तीसगढिय़ा समाज के अधिकार और राज्य निर्माण के उद्देश्य एवं उसकी आज की स्थिति पर अपना उद्बोधन देकर मूलनिवासियों को राहत पहुंचाने का काम किया।

छत्तीसगढ़ में पिछड़ा वर्ग में आने वाले 84 विभिन्न समाजों को जोड़ लेेने का दावा करने वालों के इस आयोजन में उपस्थिति को देखकर किसी भी वक्ता ने सराहना नहीं की। अलबत्ता कार्यक्रम का संचालन एक गैर पिछड़ावर्गीय द्वारा किये जाने को लेकर अवश्य प्रश्न दागे गये। उंगलियां उस पर भी उठीं, जब पिछड़ा वर्ग के कई प्रतिष्ठितजनों को आयोजन का आमंत्रण भी नहीं दिया गया और शोषक कहे जाने वाले समाज के लोग वहां वक्ता और अतिथि के रूप में सम्मानित होते रहे।

मजेदार बात यह है कि ऐसे श्रवण वर्गीय आमंत्रित वक्ता केवल सामाजिक समरसता की बात करते रहें। जबकि यह सर्वविदित है कि समूचे मानव समाज में वर्ण व्यवस्था और ऊंच-नीच के नाम पर इन्हीं लोगों ने असमानता के बीज बोए हैं।

आज की आवश्यकता यह है कि पिछड़ों को उनकी मूल संस्कृति और अस्मिता की पहचान कराई जाए। सर्वोच्च न्यायालय ने पिछड़ा वर्ग के निर्धारण के समय यह बात स्पष्ट रूप से रेखांकित किया है कि पिछड़ा वर्ग का चिन्हांकन केवल आरक्षण देने के लिए नहीं किया जा रहा है, अपितु इस वर्ग की अपनी मौलिक संस्कृति एवं धार्मिक पहचान है, जो कि सवर्णों से अलग है। उस स्वतंत्र पहचान को कायम रखने के लिए पिछड़ा वर्ग का निर्धारण आवश्यक है। छत्तीसगढ़ के संदर्भ में यहां के मैदानी भाग में प्रचलित मूल संस्कृति को पिछड़ों की अपनी मौलिक संस्कृति के रूप में चिन्हित किया जा सकता है।

एक प्रश्न जो हमेशा मन में कौंधता है कि क्या हम अपने कुल देवता की ी वैसी ही पूजा करते हैं, जैसा कि हमारे घर में पूजा करवाने वाला पुरोहित अपने साथ थैला में भरकर लाने वाले देवता की पूजा करवाता है? प्रश्न यह भी है कि हमारे र में खुशहाली कब आयेगी? पुरोहित के द्वारा लाने वाले भगवान की पूजा करके या हमारे कुल देवता की पूजा-आराधना करके? आप देख रहे हैं, ऐसी पूजा से कौन खुशहाल हो रहे हैं? निश्चित रूप से पिछड़ों को, अपितु समस्त मूल निवासी समुदाय को लोगों को अपने कुल देवता की पूजा और उत्सव का रिवाज प्रारंभ करना चाहिए तभी उनका भी जीवन खुशहाल होगा।

बड़े-बड़े संतों और महापुरुषों का यह कथन है कि किसी भी व्यक्ति या समाज के गौरव का मुख्य कारण उसकी अपनी संस्कृति और मौलिक पहचान होती है। दु:खद है कि यहां के पिछड़ों में अपनी मौलिक पहचान की न तो कोई समझ दिखाई देती है, और न ही उसे बचाए रखने के लिए कोई ललक। ऐसे में यह प्रश्न अवश्य उपस्थित हो जाता है कि ऐसे आयोजन किनके लिए और किस उद्देश्य से किए जाते हैं?

20 सितंबर को ही सर्व पिछड़ा वर्ग की ही तरह इसी रायपुर में सर्व आदिवासी समाज का भी आयोजन रखा गया था। इन दोनों ही आयोजनों में एक बात जो समान रूप से देखी गई, वह है दोनों ही मंचों पर पहली बार चंदन से तिलक लगाकर अतिथियों का स्वागत करना। जबकि यह सभी जानते हैं कि पिछड़ा वर्ग या आदिवासी समाज में ऐसी कोई परंपरा नहीं है, जिसमें चंदन लगाकर अतिथियों का स्वागत किया जाये। यह परंपरा सवर्णों और उसमें भी खासकर एक समूह विशेष की परंपरा है, जिसे हम इस देश में आर.एस.एस. की नकेल थामे रखने वालों के रूप में भी जानते हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि इस तरह के सामाजिक आयोजनों के पीछे कैसे तत्व हैं, और उनका उद्देश्य क्या है?

सर्व पिछड़ा वर्ग महासम्मेलन के मंच पर जिन लोगों की बहुतायत में उपस्थिति थी, वे एक ही जातीय समाज और एक क्षेत्र विशेष के लोग ही थे। मजेदार बात यह है कि कार्यक्रम स्थल पर राजधानी रायपुर के साथ ही साथ इसके आस-पास के लोगों की उपस्थिति नगण्य थी, जिसके कारण इसमें संपूर्ण समाज की भागीदारी  कहीं भी दिखाई नहीं दे रही थी। निश्चित रूप से ऐसे आयोजनों पर प्रश्न चिन्ह अंकित होना लाजिमी है।

सुशील भोले 
संजय नगर, रायपुर (छ.ग.)
मो.नं. 080853-05931, 098269-92811
ई-मेल - sushilbhole2@gmail.com
 

Tuesday 22 September 2015

मानस मर्मज्ञ दाउद खाँ


धमतरी निवासी दाउद खाँ जी को समूचा छत्तीसग़ढ़ मानस मर्मज्ञ के रूप में न सिर्फ जानता है, अपितु सम्मान भी करता है। वे राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित शिक्षक भी हैं। अभी रायपुर में छत्तीसगढ़ शासन के संस्कृति विभाग द्वारा सप्ताह भर तक उनका मानस प्रवचन का आयोजन किया गया । 93 वर्ष की उम्र में भी जब वे लगातार 3-4 घंटे बिना रुके, बिना थके प्रवचन करते हैं, तो लोग दांतों तले उंगली दबा लेते हैं। मुझे भी पहली बार उनका प्रवचन सुनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। ईश्वर उन्हें दीर्घायु प्रदान करें, लोग लंबे समय तक उनके मुख से धर्म चर्चा सुनें।

Monday 21 September 2015

निंदा-चारी गिल्ला गारी बेरा के संगवारी....


















निंदा-चारी गिल्ला गारी, आय सब बेरा के संगवारी
सोचे-समझे अउ सिरजे के, ये समय होथे गुनकारी
झन पछतावा कभूच करहू, अइसन बेरा के तुम तो
इही म मंजा के जिनगी दिखथे, चकचक ले उजियारी

* सुशील भोले
संजय नगर, रायपुर (छ.ग.)
 मो. 080853-05931, 098269-92811

Sunday 20 September 2015

खदर-मसर होगे....


(छत्तीसगढ़ी लोकगीतों की सबसे लोकप्रिय शैली ददरिया में आजादी के बाद देश और समाज में आ रहे परिवर्तनों पर हल्के-फुल्के ढंग से एक प्रयोग...)

अरे खदर-मसर होगे जी अब तो सुराज म
हाय गदर-फदर होगे जी जनता के राज म....

राजा नंदागे अब सांसद आगे
अउ पंच के बदला पार्षद आगे.....

चिट्ठी-पतरी के अब दिन नंदागे
मयारु संग गोठियाये बर मोबाइल आगे....

आमा-अमली ल अब नइ छुवन
मन होथे कभू त मिरिंण्डा पीथन....

नांगर-बइला गय अब टेक्टर आगे
पारा-मोहल्ला के बदला सेक्टर आगे....

नाचा-गम्मत के अब दिन पहागे
मनोरंजन के नांव म टीवी छागे....

धोती-कुरता के अब गम नइ मिलय
जिंस आगे पहिर ले तैं बिना सिलाय.....

मुंह ल रंगावन जब खावन बीरो-पान
अब माखुर-गुटखा आगे लेवथे परान....

* सुशील भोले
41/191,  डा. बघेल गली,
संजय नगर, रायपुर (छ.ग.)
मोबा. नं. 080853-05931, 098269-92811

Saturday 19 September 2015

तीजा मनागे.....



















तीजा मनागे, बासी खवागे, भेंट डारिन संगवारी मन
अब जोंही के चेत आवत हे, लहुटत हें तीजहारिन मन

* सुशील भोले

Thursday 17 September 2015

नवा खाई की शुभकामनाएँ...

छत्तीसगढ़ से लगे ओडिशा प्रांत में आज ऋषि पंचमी के शुभ अवसर पर  नवा खाई का पर्व मनाया जा रहा है। हमारे अपने शहर रायपुर में भी उड़िया भाषी मित्रों की संख्या बहुतायत में है, उन सभी को नवाखाई की शुभकामनाएँ। नवा खाई अपने ईष्ट को नई फसल समर्पित करने का पर्व है, छत्तीसगढ़ में इसे कुछ लोग दशहरा एवं कुछ लोग दीपावली के अवसर पर मनाते हैं।
* सुशील भोले

Wednesday 16 September 2015

अन्न-जल और नमक हरामी...

जहां का अन्न-जल खाकर तुम जी रहे हो, यदि वहां की भाषा, संस्कृति और लोगों से तुम प्यार नहीं करते, तो तुमसे बड़ा नमक हराम और कोई नहीं है।

* सुशील भोले
मोबा. नं. 080853-05931, 098269-92811, 07723831056

अच्छाई भी बुराई का कारण....

कभी-कभी अच्छाई भी बुराई का कारण बन जाती है। इसलिए केवल उतनी ही अच्छाई का प्रदर्शन करो, जितने में सामने वाला उसका दुरुपयोग न कर पाये।

* सुशील भोले
मोबा. नं. 080853-05931, 098269-92811, 07723831056

Monday 14 September 2015

दैनिक नवप्रदेश के रविवारीय अंक में.....

दैनिक नवप्रदेश के रविवारीय अंक 13 सितंबर 2015 में मेरा लेख...




पहिली सुमरनी तोर गजानन......


















पहिली सुमरनी तोर गजानन तहीं विघ्ना के हरता
दाना-दाना जोर-सकेल के शुभकारज के करता
तहीं बिपत के संगी-साथी, सुख के तहीं मितान
तोर सरन म जे-जे आथें, बनथस सबके भरता

सुशील भोले 
मोबा. नं. 080853-05931, 098269-92811, 07723831056

Friday 11 September 2015

हिन्दी दिवस के 62 वर्ष...

14 सितंबर 1949 को संविधान सभा में भारत की राजभाषा के रूप में पारित होने वाली हिन्दी को 14 सितंबर 1953 से 'हिन्दी दिवस" के रूप में मनाकर पूरे देश में प्रचारित और प्रतिष्ठित करने का प्रयास शासकीय और अशासकीय दोनों ही स्तर पर किया जा रहा है। लेकिन आज देश में हिन्दी की जो जमीनी स्थिति है, उसे देखकर ऐेसा नहीं लगता कि इन 62 वर्षों में हिन्दी ने अपने आपको देश की राजभाषा के रूप में स्थापित कर लिया है।

यह दु:खद अवश्य है, लेकिन उससे भी ज्यादा सोचनीय है कि हम अपने देश को सही मायने में एक राजभाषा आज तक क्यों नहीं दे पाये? आज भी अंगरेजी यहां की राजसत्ता पर पूरे दमखम के साथ विराजित है। जिसे हम चाहकर भी अपदस्थ नहीं कर पा रहे हैं। इसके मूल में यह देखा जा रहा है कि इस देश का नौकरशाह वर्ग इसके लिए सबसे ज्यादा दोषी है। चाहे वह किसी भी क्षेत्र से आने वाला हो। यह वर्ग अंगरेजी के माध्यम से ही राजकीय कार्यों को करना चाहता है। देश के गैर हिन्दी भाषी राज्यों में तो ऐसा दृश्य बहुतायत में दिखता है। यहां के हिन्दी भाषी राज्यों में भी  अंगरेजी ही शासन की प्रमुख भाषा बनी हुई है।

यह बात अलग है कि 14 सितंबर को होने वाले 'हिन्दी दिवस" के नाम पर हम रस्मी तौर पर हिन्दी पखवाड़ा, हिन्दी सप्ताह या पूरा हिन्दी महीना ही मना लेते हैं। शासकीय स्तर पर होने वाले आयोजनों में लाखों-करोड़ों रुपए खर्च भी कर देते हैं। लेकिन उस आयोजन के मंच से उतरते ही अंगरेजी की सवारी में आसीन हो जाते हैं। यह दृश्य हर स्तर पर दिखाई देता है, और हम पूरी निर्लज्जता के साथ उसे अपने कार्य और जीवनशैली में समाहित करते जा रहे हैं।

स्वाधीनता के पश्चात् देश की राजनीति में जिस तरह से नीति और निष्ठागत गिरावट देखी जा रही है, लगभग वही स्थिति सामाजिक, सांस्कृतिक और भाषायी निष्ठा के प्रति के देखी जा रही है। इस स्थिति के लिए हम सब किसी न किसी रूप में समान रूप से दोषी हैं।
आखिर ऐसी स्थिति क्यों निर्मित हुई यह विचारणीय है।

एक चीज जो मुझे व्यक्तिगत रूप से पीडि़त करती है, वह है, राष्ट्रभाषा के नाम पर देश की अन्य बोली-भाषाओं की उपेक्षा, जिसके कारण उस भाषा के बोलने वालों के द्वारा हिन्दी के साथ अपेक्षाकृत व्यवहार नहीं मिल पाता।

यह एक सामान्य व्यवहार या मानवीय स्वभाव हो सकता है कि जो हमारी  भाषा की उपेक्षा कर रहा है, हम भी उसकी उपेक्षा करें। ऐसा महसूस होता है कि इसके कारण भी हिन्दी के मार्ग में अवरोध उत्पन्न हो रहे हैं।

मेरी अपनी मातृभाषा छत्तीसगढ़ी है। हम लोग छत्तीसगढ़ राज्य आन्दोलन के साथ ही साथ छत्तीसगढ़ी भाषा और संस्कृति के लिए होने वाले आन्दोलनों के साथ भी जुड़े रहे हैं। आज भी जुड़े हुए हैं। जहां तक छत्तीसगढ़ राज्य की बात है, तो वह 1 नवंबर 2000 को स्वतंत्र रूप से अस्तित्व में आ गया, लेकिन यहां की भाषा और संस्कृति की संवैधानिक रूप से अभी भी पहचान नहीं बन सकी है। इसके लिए यहां लगातार आवाज उठती रही है, लेकिन केन्द्र सरकार इस पर पूरी तरह से मौन है।  परिणाम स्वरूप यहां के कई राजनीतिक और सामाजिक लोगों को हिन्दी और अन्य दिगर भाषाओं के प्रति यहां असम्मान जनक टिपण्णी करते हुए देखा और सुना जा सकता है।

छत्तीसगढ़ जो कि एक प्रकार से हिन्दी भाषी राज्य ही कहलाता है, यहां के लोगों में अपनी मातृभाषा के प्रति हो रही उपेक्षा के कारण यदि ऐसी भावना है, तो सोचिए उन राज्यों के बारे में जहां हिन्दी को किसी भी प्रकार के व्यवहार में उपयोग ही नहीं किया जाता, वहां उसके प्रति कैसा दृष्टिकोण होगा?

निश्चित रूप से यह एक गंभीर प्रश्न है, जिस पर हर प्रकार की संकीर्णता से ऊपर उठकर सोचा जाना चाहिए। राष्ट्रीयता का मापदण्ड किसी भी प्रकार से क्षेत्रीय उपेक्षा नहीं हो सकता। आज संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल होने के लिए देश की कितनी भाषाएँ दावा कर रही हैं, और उनके साथ किस तरह का व्यवहार हो रहा है? यह निश्चित रूप से विचारणीय है।

 ऐसी कितनी भाषाओं को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल कर लिया गया है, जिनकी मानक योग्यता दावेदार भाषाओं की अपेक्षा कई स्तरों पर कमतर है। तो प्रश्न उठता है कि ऐसा क्या कारण रहा है कि कमजोर भाषाएं आठवीं अनुसूची में शामिल हो गईं और समृद्ध भाषाएं आज भी कतार में हैं? क्या ऐसी स्थिति में उनसे संबंधित लोगों से हिन्दी अथवा उन अन्य भाषाओं के प्रति सम्मान की अपेक्षा रखना उचित होगा?

हमें यदि सम्मान पाना है, तो हमको भी अन्यों को सम्मान देना होगा, इस सिद्धांत पर आगे बढऩा होगा। यह सोचना होगा कि इस देश की हर भाषा राष्ट्रभाषा है, हर संस्कृति राष्ट्रसंस्कृति है, और इन सबका संरक्षण हम सबका राष्ट्रीय कर्तव्य है। केवल इसी भावना के द्वारा हिन्दी को संपूर्ण राष्ट्रीय फलक पर स्थापित और सम्मानित किया जा सकता है।

जय हिन्दी... जय राष्ट्रभाषा...

सुशील भोले 
54-191, डॉ. बघेल गली,
संजय नगर (टिकरापारा) रायपुर (छ.ग.)
मोबा. नं. 080853-05931, 098269-92811, 07723831056
ईमेल -  sushilbhole2@gmail.com
 
 
  

Thursday 10 September 2015

सुरता हीरालाल काव्योपाध्याय....


आज 11 सितंबर को छत्तीसगढ़ी व्याकरण के सर्जक हीरालाल काव्योपाध्याय का स्मरण दिवस है। आज ही के दिन 11 सितंबर 1884 को उन्हेें गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर के भाई की समिति द्वारा कोलकाता में काव्योपाध्याय की उपाधि प्रदान की गई थी। 

ज्ञात रहे कि हीरालाल जी ने सन 1885 में छत्तीसगढ़ी व्याकरण की रचना की थी, जिसे उस समय के विश्व प्रसिद्ध व्याकरणाचार्य सर जार्ज ग्रियर्सन द्वारा अंगरेजी में अनुवाद कर छत्तीसगढ़ी और अंगरेजी में संयुक्त रूप से सन 1890 में प्रकाशित करवाया गया था। 

यह भी ज्ञातव्य है कि उस समय तक हिन्दी का भी कोई मानक व्याकरण नहीं बन पाया था। हिन्दी का प्रथम मानक व्याकरण सन 1921 में कामता प्रसाद गुरु के माध्यम से बना।

हीरालाल जी काव्योपाध्याय की उपाधि प्राप्त होने के पूर्व अपना नाम हीरालाल चन्नाहू लिखते थे। वे धमतरी जिला के अंतर्गत ग्राम चर्रा (कुरुद) के मूल निवासी थे, किन्तु बाद में वे रायपुर के तात्यापारा में रहने लगे, जहां उनके पिताश्री तत्कालीन मराठा सेना में नायक के पद पर पदस्थ थे।

उस महान आत्मा को हमारा नमन, जिन्होंने छत्तीसगढ़ी व्याकरण को विश्व पहचान दी।

सुशील भोले
संजय नगर, रायपुर (छ.ग.)
मोबा. नं. 080853-05931, 098269-92811
ब्लॉग -http://www.mayarumati.blogspot.in/
ईमेल - sushilbhole2@gmail.com

Wednesday 9 September 2015

रास्ता और इतिहास...


दूसरों के बनाये हुए रास्तों पर तो सभी चल लेते हैं, लेकिन इतिहास तो केवल उनका बनता है, जो अपना रास्ता स्वयं बनाते हैं।

* सुशील भोले... 
मोबा. नं.  07723831058

Tuesday 8 September 2015

तीजा लेगे बर आही भइया....












तीजा लेगे बर आही भइया सोर-संदेशा आगे
बड़े फजर ले कौंवा आके कांव-कांव नरियागे
साल भर ले रद्दा जोहत हौं ये भादो महीना के
पोरा पटक के जाबो मइके जोरन सबो जोरागे

सुशील भोले 
मोबा. नं. 7723831058

Sunday 6 September 2015

समाजसेवा के होगे हावय.....


















समाजसेवा के होगे हावय अब तो भइगे एक चिन्हारी
डांड़-बोड़ी अउ चंदाखोरी, छलछिद्र संग दांत निपोरी
पहिली मुखिया आने रिहिन जिनगी सरबस सौंप देवंय
अब सेवक के भेष म लगगे हे शासन करे के बीमारी

सुशील भोले
मो. 080853-05931, 098269-92811

Friday 4 September 2015

गधा, शेर और आरक्षण....?

 मित्रों,
 मुझे राजनीतिक विषयों पर टिप्पणी करना पसंद नहीं है। लेकिन इन दिनों आरक्षण के नाम पर जिस तरह से गधा और शेर की तुलना कर राजा बनने की बात कही जा रही है। उस पर मन में एक प्रश्न उठने लगा है।

    आप सभी जानते हैं कि गधा एक परिश्रमी जीव है, जबकि शेर मुफ्तखोर-आतंकी। अब प्रश्न यह है कि क्या किसी देश अथवा राज्य की सत्ता परिश्रमी लोगों के हाथों में सौंपी जाए या मुफ्तखोर-हिंसकों  के हाथों में?

क्या कोई देश एेसे लोगों के हाथों खुशहाल हो सकता है, जो मुफ्तखोर हों, हिंसक हों? अथवा एेसे लोंगों के हाथों खुशहाल रहेगा जो परिश्रमी हों, लोक कल्याण की भावना रखते हों?

  आप इस विषय पर क्या कहना चाहेंगे...?

* सुशील भोले
मोबा. नं. 80853 05931, 98269 92811 

Thursday 3 September 2015

तोर मुरली म जादू हे कन्हैया....


















तोर मुरली म जादू हे कन्हैया, मन मोर झुमर-झुमर जाथे
कोन सखी ल तीर म बलाथे, अउ मन-अंतस मोर बर जाथे
* सुशील भोले

Wednesday 2 September 2015

भोजली विसर्जन.....

छत्तीसगढ़ी की मूल संस्कृति में भोजली का विशेष स्थान और महत्व है। श्रावण शुक्ल पंचमी से लेकर पूर्णिमा तक मनाया जाने वाला यह पर्व पिछले दिनों भोजली विसर्जन के साथ संपन्न हुआ।
ज्ञात रहे  नवरात्र के अवसर पर जिस तरह से ज्वारा जगाने (बोने) का रिवाज है, उसी तरह श्रावण माह में नागपंचमी के दिन भोजली बोया जाता है और पूर्णिमा को या उसके दूसरे दिन इसका विसर्जन किया जाता है। ज्वारा को पुरुष वर्ग के द्वारा बोया जाता है, जबकि भोजली को पूरी तरह से महिलाओं के द्वारा बोया और सेवा की जाती है।


Tuesday 1 September 2015

हमने देखा है...


















कम शब्दों में चुन-चुन कर जो बिन मांगे दुआएँ देते हैं
हमने देखा है, ऐसे चेहरों को कुछ-कुछ माँ जैसे ही होते हैं


















   मुंह में मिश्री, हाथ में छुरा, दिल में कपट बस रखते हैं                                                                        
   हमने देखा है, मीठा बोलने वाले ज्यादा जहरीले होते हैं















                


 बिना परिश्रम मिल जाये हीरा तो मोल नहीं समझ पाते हैं
हमने देखा है, हीरे की नहीं परख जिन्हें, वे पारस नहीं पाते हैं















   स्वप्न लोक में जीने वाले, हर बार भ्रमति हो जाते हैं
 हमने देखा है, छोड़ प्याला अमृत का निरा गरल पी जाते हैं














चांद-सितारे तोड़कर लाने का, जो-जो दंभ भरते हैं
हमने देखा है, आसमान से मुंह के बल ये धरा पर गिरते हैं



















    मुंह से तो फूल झड़ते, पर कर्मों से कांटे बोते हैं
   हमने देखा है, दर्द देने वाले कुछ-कुछ ऐसे ही होते हैं




















सरहद पर शीश कटा कर जो माँ की लाज बचाते हैं
हमने देखा है, ऐसे ही सच्चे वीर घर-घर पूजे जाते हैं
                   ***   ***
सुशील भोले 
54-191, डॉ. बघेल गली,
संजय नगर (टिकरापारा) रायपुर (छ.ग.)
मोबा. नं. 080853-05931, 098269-92811