Tuesday 28 September 2021

मानव जीवन का उत्पत्ति स्थल..

संदर्भ : मानव जीवन का उत्पत्ति स्थल :
नर -मादा की घाटी....
           अलग-अलग धर्मों और उनके ग्रंथों में सृष्टिक्रम की बातें और अवधारणा अलग-अलग दिखाई देती है। मानव जीवन की उत्पत्ति और उसके विकास क्रम को भी अलग-अलग तरीके से दर्शाया गया है। इन सबके बीच अगर हम कहें कि मानव जीवन की शुरूआत छत्तीसगढ़ से हुई है, तो आपको कैसा लगेगा? जी हाँ! यहाँ के मूल निवासी वर्ग के विद्वानों का ऐसा मत है। अमरकंटक की पहाड़ी को ये नर-मादा अर्थात् मानवी जीवन के उत्पत्ति स्थल के रूप में चिन्हित करते हैं। इस बात को अब वैज्ञानिक मान्यता भी प्राप्त हो गई है.

        यह सर्वविदित तथ्य है कि छत्तीसगढ़ के इतिहास और संस्कृति के लेखन में अलग-अलग प्रदेशों से आए लेखकों ने बहुत गड़बड़ किया है। ये लोग अपने साथ वहां से लाए ग्रंथों और संदर्भों के मानक पर छत्तीसगढ़ को परिभाषित करने का प्रयास किया है। दुर्भाग्य यह है, कि इसी वर्ग के लोग अभी तक यहां शासन-प्रशासन के प्रमुख पदों पर आसीन होते रहे हैं, और अपने मनगढ़ंत लेखन को ही सही साबित करने के लिए हर स्तर पर अमादा  रहे हैं। इसीलिए वर्तमान में उनके द्वारा उपलब्ध लेखन से हम केवल  इतना ही जान पाए हैं कि यहाँ की ऐतिहासिक प्राचीनता मात्र 5 हजार साल पुरानी है। जबकि यहाँ के मूल निवासी वर्ग के लेखकों के साहित्य से परिचित होंगे तो आपको ज्ञात होगा कि मानवीय जीवन का उत्पत्ति स्थल  ही है छत्तीसगढ़।

          इस संदर्भ में गोंडी गुरु और प्रसिद्ध विद्वान ठाकुर कोमल सिंह मरई द्वारा "'गोंडवाना दर्शन"  नामक पत्रिका में धारावाहिक लिखे गए लेख - "'नर-मादा की घाटी" पठनीय है। इस आलेख-श्रृंखला में न केवल छत्तीसगढ़ (गोंडवाना क्षेत्र) की उत्पत्ति और इतिहास का विद्वतापूर्ण वर्णन है, अपितु यह भी बताया गया है कि यहाँ के सतपुड़ा पर्वत श्रृंखला पर स्थित 'अमरकंटक" मानव जीवन का उत्पत्ति स्थल है। यह बात अलग है कि आज मध्यप्रदेश अमरकंटक पर अवैध कब्जा कर बैठा है, लेकिन है वह प्राचीन छत्तीसगढ़ का ही हिस्सा। इसे यहाँ के मूल निवासी वर्ग के विद्वान 'अमरकोट या अमरूकूट" कहते हैं, और नर्मदा नदी के उत्पत्ति स्थल को 'नर-मादा" की घाटी के रूप में वर्णित किया जाता है। नर-मादा के मेल से ही नर्मदा शब्द का निर्माण हुआ है। आज इस बात को पृथ्वी के उद्भव और विकास के शोध कार्य में लगे  वैज्ञानिक भी स्वीकार कर चुके हैं, कि मैकाल पर्वत श्रृंखला, जिसे हम नर्मदा घाटी के नाम से जानते हैं, यही पृथ्वी का नाभि स्थल है, और यहीं से ही मानव जीवन की शुरुआत हुई है.

        कोमल सिंह जी से मेरा परिचय आकाशवाणी (अब दूरदर्शन) रायपुर में कार्यरत भाई रामजी ध्रुव के माध्यम से हुआ। उनसे घनिष्ठता बढ़ी, उनके साहित्य और यहाँ के मूल निवासियों के दृष्टिकोण से परिचित हुआ था, उसके पश्चात वे हमारी संस्था '"आदि धर्म जागृति संस्थान" के साथ जुड़ गये। उनका कहना है कि नर्मदा वास्तव में नर-मादा अर्थात मानवीय जीवन का उत्पत्ति स्थल है। सृष्टिकाल में  यहीं से मानवीय जीवन की शुरूआत हुई है। आज हम जिस जटाधारी शंकर को आदि देव के नाम पर जानते हैं, उनका भी उत्पत्ति स्थल यही नर-मादा की घाटी है। बाद में वे कैलाश पर्वत चले गये और वहीं के वासी होकर रह गये।

    मैंने इसकी पुष्टि के लिए अपने आध्यात्मिक ज्ञान स्रोत से जानना चाहा, तो मुझे हाँ के रूप में पुष्टि की गई। यहां यह उल्लेखनीय है, कि अब भू-गर्भ शास्त्रियों (वे वैज्ञानिक जो पृथ्वी की उत्पत्ति और विकास को लेकर शोध कार्य कर रहे ह़ैं) उन लोगों ने भी इस बात को स्वीकार कर लिए हैं, कि मैकाल पर्वत श्रृंखला, जिसे हम अमरकंटक की पर्वत श्रृंखला के रूप में जानते हैं, इसी की उत्पत्ति सबसे पहले हुई है, इसी लिए इस स्थल को पृथ्वी का "नाभि स्थल" भी माना जाता है।

         मित्रों, जब भी मैं यहाँ की संस्कृति की बात करता हूं, तो सृष्टिकाल की संस्कृति की बात करता हूं, और हमेशा यह प्रश्न करता हूं कि जिस छत्तीसगढ़ में आज भी  सृष्टिकाल की संस्कृति जीवित है, उसका इतिहास मात्र पाँच हजार साल पुराना कैसे हो सकता है?  छत्तीसगढ़ के वैभव को, इतिहास और प्राचीनता को जानना है, समझना है तो मूल निवासयों के दृष्टिकोण से, उनके साहित्य से भी परिचित होना जरूरी है। साथ ही यह भी जरूरी है कि उनमें से विश्वसनीय और तर्क संगत संदर्भों को ही स्वीकार किया जाए।

-सुशील भोले
आदि धर्म जागृति संस्थान
संजय नगर, रायपुर (छ.ग.)
मो/व्हा. 9826992811

Wednesday 22 September 2021

माई बर फूल गजरा.. नवरात

गुंथौ हो मालिन माई बर फूल-गजरा...
चम्मास के गहिर बरसा के थोर सुरताए के पाछू जब हरियर धनहा म नवा-नेवरनीन कस ठाढ़े धान के गरभ ले नान-नान सोनहा फूली कस अन्नपुरना के लरी किसान के उमंग संग झूमे लागथे, तब जगत जननी के परब नवरात के रूप म घर-घर, पारा-पारा, बस्ती-बस्ती जगमग जोत संग जगमगाए लागथे।

नवरात माने शक्ति के उपासना पर्व। शक्ति जे भक्ति ले मिलथे। छत्तीसगढ़ आदि काल ले भक्ति के माध्यम ले शक्ति के उपासना करत चले आवत हे। काबर के ये भुइयां के संस्कृति ह बूढ़ादेव के रूप म शिव अउ शिव-परिवार के संस्कृति आय जेमा माता (शक्ति) के महत्वपूर्ण स्थान हे। वइसे तो नवरात मनाए के संबंध म अबड़ अकन कथा आने-आने ग्रंथ के माध्यम ले प्रचलित हे। फेर इहां के जेन लोक मान्यता हे, वोकर मुताबिक एला भगवान भोलेनाथ के पत्नी सती अउ पारबती के जन्मोत्सव के रूप म मनाए जाथे।

दुनिया म जतका भी देवी-देवता हें उंकर जयंती के पर्व ल साल भर म एके पइत मनाए जाथे, फेर नवरात्र एकमात्र अइसन पर्व आय जेला बछर भर म दू पइत मनाए जाथे। काबर ते माता (शक्ति) के अवतरण दू अलग-अलग पइत दू अलग-अलग नांव अउ रूप ले होए हे। पहिली पइत उन सती के रूप में दक्षराज के घर आए रिहीन हें। फेर अपन पिता दक्षराज के द्वारा आयोजित महायज्ञ म भोलेनाथ ल नइ बलवा के वोकर अपमान करे गीस त सती ह उही यज्ञ के कुंड म कूद के आत्मदाह कर लिए रिहीसे।

ए घटना के बाद भोलेनाथ वैराग्य के अवस्था म आके एकांतवास के जीवन जीए बर लगगे रिहीसे। फेर बाद म राक्षस तारकक्ष के उत्पात ले मुक्ति खातिर देवता मन वोकर संहार खातिर शिवपुत्र के जरूरत महसूस करीन। तब शिवजी ल माता पारबती, जेन हिमालय राज के घर जनम ले डारे रिहीन हे तेकर संग बिहाव करे के अरजी करीन। पारवती ह माता सती जेन शिवजी के पहिली पत्नी रिहीसे वोकरे पुनरजनम (दुसरइया जनम) आय। एकरे सेती हमर इहां माता (शक्ति) के साल म दू पइत जन्मोत्सव के पर्व ल नवरात के रूप म मनाए जाथे। संकृति के जानकार मनके कहना हे के सती के जनम ह चइत महीना के अंजोरी पाख के नवमी तिथि म होए रिहिसे अउ पारवती के जनम ह कुंवार महीना के अंजोरी पाख के नवमी तिथि म।

हमर छत्तीसगढ़ म नवरात म जंवारा बोए के रिवाज हे। लोगन अपन-अपन मनोकामना खातिर बदे बदना के सेती जंवांरा बोथें, जेमा पूरा परिवार ल बर-बिहाव सरीख नेवता देथें। जंवारा बोवइ ह चइत महीना के नवरात म जादा होथे। कुंवार म शक्ति के उपासना के रूप म आजकल दुर्गा प्रतिमा स्थापित करे के चलन ह अभी बने बाढ़त हवय। इहू बखत माता दुर्गा के फुलवारी के रूप म जोत-जंवारा बोये जाथे। अइसने इहां जतका भी सिद्ध शक्ति पीठ हें उहू मनमा जोत-जंवारा जगाए जाथे।

नवरात के एकम ले लेके नवमी तक पूरा वातावरण म शक्ति उपासना के धूम रहिथे। हर देवी मंदिर, दुर्गा प्रतिमा स्थल अउ जंवारा बोए घर म जस गीत गूंजत रहिथे। जब सेउक मन गाथें-
माई बर फूल गजरा,
गुंथौं हो मालिन माई बर फूल गजरा।
चंपा फूल के गजरा, चमेली फूल के हार।
मोंगरा फूल के माथ मटुकिया, सोला ओ सिंगार।

त पूरा वातावरण में शक्ति के संचार हो जाथे। कतकों झन ल देवी घलोक चढ़ जाथे। फेर सोंटा, बोड़बोरा अउ बाना-सांग के दौर चलथे। जेकर जइसन शक्ति वोकर वइसन भक्ति। सरलग नौ दिन ले सेवा करे बाद दसमीं तिथि म माता जी के प्रतिमा के संगे-संग जंवारा के घलोक विसरजन कर दिए जाथे।

हमर छत्तीसगढ़ म ए दिन मितानी बदे के घलोक परंपरा हे। कतकों संगी-जउंरिहा मन जेकर मन के  मया बाढ़ जथे, वो मन ए दिन जंवारा (मितान) घलोक बद लेथें।

-सुशील भोले
संजय नगर, रायपुर (छ.ग.)
मो/व्हा. 9826992811

Friday 17 September 2021

छत्तीसगढ़ी एक शब्द के दुबारा प्रयोग..

उपयोगी समृद्ध छत्तीसगढी
एक शब्द के दोहरे प्रयोग...

बोटोर बोटोर - आंखें फाड़कर देखना
मुटुर मुटुर- असमंजस से देखना
मटर मटर-आगे आगे आना
छरके छरके-दूरी बनाना
कुटूर कुटूर- कड़ी चीज चबाना
खुटूर खुटूर- धीरे धीरे खखटाना
फुटूर फुटूर-धीरे धीरे गिरना
चुटुर चुटुर-अधिक बोलना
सुटूर सुटूर-खामोशी से(चले जाना)
ढकर ढकर- गटागट पीना
लकर लकर-अधिक मेहनत
धकर धकर-कमजोरी
हकर हकर-कड़ी मेहनत
फसर फसर-गहरी नींद के लिए
फुसुर फुसुर-कानाफूसी
मुसुर मुसुर-छुपाकर(खाना)
हुरहा हुरहा-अचानक  अचानक
ढोकर ढोकर के- दंडवत
खुड़ खुड़ ले-अच्छी तरह से सूखने का भाव
ढेंक ढेंक के- आर्तनादपूर्ण रुदन,विलाप
महर महर-खुशबूदार
कोट कोट ले-भरपेट

मिलते जुलते दो शब्दों का प्रयोग
अलवा जलवा-साधारण
जांवर जिंयर -जुड़वा
सांगर मोंगर-हृष्टपुष्ट महिला
किलिर कालर- हल्ला गुल्ला
खिबिड़ खाबड़-झगड़ना
आका तुकी-अनफिट
खदर मसर-मिक्स  कर देना
लकर धकर-जल्दबाजी
छिदिर बिदिर-बिखरा देना
छर्री दर्री-टुकड़े टुकड़े
ओनहा कोनहा-कोना कोना
चितर काबर-रंग बिरंगा
फिसिर फासर- बिमार पड़ना
काँखत पादत-कष्ट से
हेल पेल-पर्याप्त जगह
डटटा खुट्टा-जगह की कमी
पेट अउ पाट-खाने और पहनने
झिलिंग झालंग-ढीला ढाला
चिट के न पोट के-बिल्कुल नही बोलना
मुरहा पोट्टा -लावारिस(बिना मां बाप का)
छकल बकल-खुले हाथ खर्च करना
लदर फदर- मोटे होने का भाव
लंदर फंदर-तिकड़म
लाटा फान्दा-उलझन
हाड़ा हपटा-अत्यधिक कमाना
बांटा खूंटा-बंटवारा
गुड़ गुड़ा-सीधे पहुंचना
बाटे बाट-रास्ते से
चिक्कन चांदो-साफ सुथरा.
🙏

Wednesday 8 September 2021

छत्तीसगढ़ी में संयुक्त शब्द..

छत्तीसगढ़ी में संयुक्त शब्द से अर्थ परिवर्तन और...

-गाड़ा गाड़ा शब्द का सही मायने-
   छत्तीसगढ़ी में कुछ शब्द ऐसे हैं, जिनका एक बार प्रयोग, उनके वास्तविक नाम को दर्शाता है।

जैसे गाड़ा। गाड़ा का नाम लेते ही मन में दो चित्र उभर आते हैं। 
  पहला गाड़ा, जो बैलगाड़ी का थोड़ा बड़ा रूप होता है, और अनाज की बोरियों की ढुलाई के काम आता है।
    दूसरा, यह अनाज नापने की एक इकाई है, जो छत्तीसगढ़ में सदियों से चली आ रही है।

   धान के लिए एक गाड़ा मतलब लगभग 1200  kg और गेंहू के लिए लगभग  1400 kg.

    पर जब हम यह शब्द दो बार संयुक्त रूप में प्रयोग करते हैं,  यथा- गाडा-गाड़ा, तो इसका मतलब इन दो चित्रों से एकदम अलग होकर हजारों गुना खुशी दर्शाने वाला शब्द बन जाता है ‌

   ऐसे ही एक शब्द है-झारा ।।
    झारा का नाम लेते ही मन मे पुड़ी बनाने, या बून्दी बनाने या रसोई के काम आने वाले बर्तन का चित्र आ जाता है ।
पर इसी शब्द को अगर दो बार संयुक्त रूप में इस्तेमाल करें, यथा झारा-झारा, तो यह अपने बर्तन वाले रूप को छोड़कर, भव्य रूप में भोजन निमंत्रण वाला शब्द बन जाता है - समस्त परिवार सहित वाला.

  जैसे मेरा छत्तीसगढ़ महान है, वैसे ही इसकी भाषा और संस्कृति भी महान है ।
जय छत्तीसगढ़.. जय छत्तीसगढ़ी..
🙏🙏

Thursday 2 September 2021

ठेठरी खुरमी अउ जोहार (संशोधित)

मूल संस्कृति के भावनात्मक रूप आय..
        ठेठरी-खुरमी अउ जोहार
   छत्तीसगढ़ के मैदानी भाग म प्रचलित संस्कृति म वइसे तो किसम-किसम के रोटी-पिठा बनाए जाथे, फेर ठेठरी अउ खुरमी के अपन अलगेच महत्व हे। इहां के जम्मो तीज-तिहार म इंकर कोनो न कोनो रूप म उपयोग होबेच करथे। एकर असल कारन का आय? सिरिफ खाए-पीए के सुवाद के अउ कुछू बात?
   असल म ए इहां के मूल आध्यात्मिक संस्कृति के भावनात्मक रूप आय, जेला हम भुलावत जावत हन। ये बात ल तो हम सब जानथन के छत्तीसगढ़ मूल रूप ले बूढादेव के रूप म शिव परिवार के संस्कृति ल जीने वाला अंचल आय। एकरे सेती इंकर हर रूप म इहां भावनात्मक दर्शन देखे ले मिलथे।
    इहां एक "जोहार" शब्द के प्रचलन हे। हमला कोनो ल नमस्कार करना हे, मेल-भेंट करना हे, त वोला 'जोहार' कहिथन। ए "जोहार" का आय? इहू ह इहां के मूल संस्कृति के एक भावात्मक रूप आय, जइसे के ठेठरी-खुरमी आय।
    जोहार ह "जय" अउ "हर" शब्द के मेल ले बने हे, जेकर मूल भाव भगवान शंकर के जयकार करना होथे। "हर" शिव जी ल ही कहे जाथे, ए बात ल आप सब जानथव। वोकरे सेती 'जय' अउ 'हर' के मेल ले बने ए शब्द आय 'जोहार'। अभी एला बिगाड़ के लोगन "जय जोहार" बोले ले धर लिए हें, जे ह असल म एकर गलत रूप आय। संबोधन खातिर 'जोहार' शब्द अपनआप म पूर्ण हे, वोमा अलग से 'जय' जोड़े के जरूरत नइए.
     ठेठरी अउ खुरमी के आकार घलो ह अइसने इहां के मूल आध्यात्मिक संस्कृति के भावनात्मक रूप ल उजागर करे के माध्यम आय। ठेठरी ह जिहां शक्ति के प्रतीक स्वरूप रूप आय त खुरमी ह शिव के। आप मन जानत हवव के पूजा-पाठ म खासकर अभी अवइया पोरा-तीजा तिहार म जब ठेठरी-खुरमी चढ़ाए जाथे, त ठेठरी जेन जलहरी के आकार म बने रहिथे वोकर ऊपर शिव प्रतीक (लिंग)  के रूप म बने खुरमी (मुठिया वाला) ल रखे जाथे । तब दूनों मिल के एक पूर्ण शिव लिंग (जलहरी सहित वाला) बनथे।
    पहिली खुरमी ल मुठिया के आकार म बनाए जाय, जे ह शिव प्रतीक के रूप होय अउ खुरमी जेला जलहरी के  रूप म बनाए जाय वो ह शक्ति के प्रतीक होय। फेर अब बेरा के संग हम अपन मूल आध्यात्मिक संदर्भ ल भुलावत जावत हन। आने-आने क्षेत्र ले आए लोगन अउ उंकर चलन के मुताबिक रेंगई म अपन मूल पहचान अउ स्वरूप ले भटकत जावत हन। एकरे सेती ठेठरी अउ खुरमी ल घलो जलहरी अउ मुठिया के आकार देना छोड़ के, सिरिफ खाना-खजेना मान के आनी-बानी के रूप अउ आकार म बनाए लगे हन।
     जरूरी हे, अपन परंपरा अउ संस्कृति के मूल भाव ल जानना, तभे हमर अस्मिता के मानक अउ शुद्ध रूप बांचे रहि पाही। हमर छत्तीसगढि़या होए के सांस्कृतिक चिन्हारी तभे सुरक्षित रहि पाही।
-सुशील भोले
आदि धर्म जागृति संस्थान रायपुर
मो/व्हा. 9826992811