Monday 26 February 2024

का तैं मोला मोहनी... के पाछू के दर्शन

सुरता//
'का तैं मोला मोहनी डार दिए गोंदा फूल' के पाछू के दर्शन...
    छत्तीसगढ़ी गीत-संगीत के मयारुक मन सुप्रसिद्ध गायक रहे केदार यादव के गाये ए लोकप्रिय गीत- "का तैं मोला मोहनी डार दिए गोंदा फूल, तोर होगे आती अउ मोर होगे जाती, रेंगते- रेंगत आंखी मार दिए ना..." 
   एला जरूर सुने होहीं अउ घनघोर सिंगारिक गीत के सुरता करत मन भर मुसकाए होहीं. फेर ए गीत के रचयिता लोककवि बद्रीबिशाल यदु 'परमानंद' जी एला का कल्पना कर के कइसन संदर्भ म लिखे रिहिन हें. एला जानहू, त परमानंद जी के कल्पना अउ ओकर गहराई के कायल हो जाहू.
    बात सन् 1989-90 के आय. तब मैं छत्तीसगढ़ी मासिक पत्रिका 'मयारु माटी' के प्रकाशन-संपादन करत रेहेंव. एक दिन रायगढ़ के वरिष्ठ साहित्यकार डाॅ. बलदेव जी के मोर जगा सोर पहुंचिस के हमन लोककवि बद्रीबिशाल यदु 'परमानंद' जी संग भेंट करे बर रायपुर आवत हन. तहूं तइयार रहिबे. काबर ते हमन वोकर घर ल देखे नइ अन, तहीं हमन ल वोकर घर लेगबे. 
   निश्चित दिन 9 जनवरी 1990 के डाॅ. बलदेव जी रायगढ़ के ही एक अउ साहित्यकार रामलाल निषादराज जी संग रायपुर पहुँचगें. इहाँ रायपुर म आकाशवाणी म कार्यरत खगेश्वर प्रसाद यादव अउ मैं उंकर संग संघर गेंन. मोर बचपन रायपुर के कंकालीपारा, अमीनपारा आदि म ही बीते हे, तेकर सेती परमानंद जी के महामाई पारा वाले घर मैं कतकों बेर गे रेहेंव. 
     सबो साहित्यकार मनला लेके परमानंद जी के घर गेन. उहाँ आदर-सत्कार अउ चिन-चिन्हार के बाद साहित्यिक गोठ-बात चालू होइस. सब तो बढ़िया चलत रिहिस. तभे डाॅ. बलदेव जी थोक मुस्कावत, मजा ले असन पूछ परिन- 'परमानंद जी! का तैं मोला मोहनी डार दिए गोंदा फूल' जइसन गीत ल आप कब लिखे रेहेव?
   तब परमानंद जी डाॅ. बलदेव के मनसा भरम ल टमड़ डारिन, अउ घर के दुवारी कोती ल झांक के आरो दिन- 'ए गियां आ तो..' उंकर बुलउवा म एक चउदा-पंदरा बछर के चंदा बरोबर सुग्घर नोनी ओकर आगू म आके ठाढ़ होगे, अउ कहिस- 'काये बबा' तब परमानंद जी अपन उही नतनीन डहर इसारा करत कहिन- 'इही वो गियां आय. जे दिन ए ह ए धरती म आइस, उही दिन ए गीत ल लिखे रेहेंव. 'तोर होगे आती अउ मोर होगे जाती, रेंगते-रेंगत आंखी मार दिए गोंदा फूल'. 
   वो नोनी छी: बबा कहिके घर म खुसरगे. तब परमानंद जी के निरमल हांसी घर-अंगना के संगे-संग हमरो मनके चेहरा म बगर गेइस. उन कहिन- 'डाॅक्टर साहेब, कवि के जाए के बेरा होवत हे, अउ आगू म उन्मत्त प्रकृति हे, उद्दाम कविता के रूप म दंग-दंग ले खड़ा हो गिस.'
     घनघोर सिंगारिक गीत कस लागत ए रचना के मूल म कतका निर्दोष अउ उज्जवल भाव. हमर जइसन आम कवि-लेखक मन के कल्पना ले बाहिर के दृश्य आय. 
    परमानंद जी आगू कहिन- 'नारी सौंदर्य अउ प्रेम बरनन म मैं ह ओकर प्राकृतिक स्वरूप ल जरूर अपनाय हौं, फेर शिथिलता ल कभू स्थान नइ दे हौं... आज तो हमर बड़े कवि मन घलो सीमा लांघ जाथें डाॅक्टर साहेब, सारी-सखा तो बेटी बरोबर होथे, फेर वोकर बरनन म बनेच मजाक होगे हे. शायद उंकर इशारा- ' मोर सारी परम पियारी' जइसन लोकप्रिय सिंगारिक रचना डहर रिहिस.
( ए प्रसंग संग संलग्न चित्र उही दिन के आय, जेमा नीचे म डेरी डहर ले- डॉ. बलदेव साव, बद्रीबिशाल यदु 'परमानंद' अउ रामलाल निषादराज. पाछू म खड़े- खगेश्वर प्रसाद यादव अउ मैं सुशील वर्मा 'भोले')
-सुशील भोले
संजय नगर, रायपुर
मो/व्हा. 9826992811

Monday 19 February 2024

सुरता म प्रदीप वर्मा

सुरता म भइया प्रदीप वर्मा
   रोजेच असन दिन सोमवार 19 फरवरी के घलो मैं मुंदरहा चार बजे उठ के सोशलमीडिया म रात भर के गतिविधि मन के सोर खबर लेवत रेहेंव, उहिच बेरा हमर समिति के व्हाट्सएप ग्रुप म प्रसिद्ध कलाकार नारायण चंद्राकर जी के एक शोक संदेश के पोस्ट आइस. मैं वोला देखेंव त लिखाय राहय श्री प्रदीप कुमार वर्मा जी 18 फरवरी के रतिहा सरग के रद्दा रेंग दिन. उंकर अंतिम यात्रा 19 फरवरी के निकलही. 
   पहिली तो मैं एला जइसे सब के अइसन संदेश आथे वइसने सामान्य समझेंव, फेर बाद म मन होइस, के एमा संदेश के नीचे म लिखाय प्रशांत वर्मा जी ले पूछ के स्पष्ट करे जाय के ए प्रदीप वर्मा ह कोन आय, काबर ते मोर चिन चिन्हार म अबड़ झन प्रदीप वर्मा हें.
   शोक संदेश के खाल्हे म लिखाय प्रशांत वर्मा जी के मोबाइल नंबर म मैं संपर्क करेंव, त स्पष्ट होइस के ए तो हमर दुर्ग वाले भइया वरिष्ठ साहित्यकार प्रदीप वर्मा जी आय. 
   ए खबर के स्पष्ट होए के बाद दू चार मिनट तो मोर दिमागे काम नइ करीस, तभे ओती ले प्रशांत कहिस के अंकल जी पापाजी वाले संदेश ल आप सबो साहित्यकार वाले ग्रुप म भेज देवव, त मैं प्रशांत के भेजे शोक संदेश म थोड़ा एडिट कर के साहित्यकार मन ले जुड़े ग्रुप मन म पठो दिएंव.
   बछर 1945 के 3 जून के गाँव सरफोंगी म जनमे प्रदीप जी संग चारेच दिन पहिली तो मोर मोबाइल म गोठबात होय रिहिसे. दू चार दिन म रायपुर आवत हौं भाई तब तोर घर म आके भेंट करहूं कहे रिहिन हें. 
   असल म प्रदीप भइया के अनुज राम कुमार जी रायपुर म मोरेच घर जगा रहिथें, तेकर सेती उन जब कभू रायपुर म अपन छोटे भाई घर आवंय त संग म मोरो घर जरूर आवंय. महूं ह कभू दुर्ग जाना होवय त प्रदीप भइया घर जरूर जावौं.
   प्रदीप भइया मयारुक साहित्यकार होए के संग कला प्रेमी घलो रिहिन हें. वो मन अपन जिनगी के संगवारी प्रेमा जी के संग मिल के 'दौनापान' कला मंच के स्थापना घलो करे रिहिन हें, जेमा चालीस झन सदस्य मन  जुड़े रिहिन हें.
   प्रदीप भइया के साहित्यिक संसार के सुरता करीन त, उंकर पहिली कृति 'दुवारी' (काव्य संग्रह) आय. एकर पाछू अपन सुवरी प्रेमा जी अउ अपन नाम प्रदीप ले आधा आधा शब्द जोड़ के 'प्रेमदीप' के नॉव ले काव्य संग्रह निकालीन. एकर बाद उंकर एक कहानी संग्रह आइस 'भांवर' नॉव ले, उहें 'सुरता' प्रकाशनाधीन हे.
   छत्तीसगढ़ी भाखा के बढ़ोत्तरी बर जबर समर्पित रहिन प्रदीप भइया. मोर संबंध तो उंकर संग साहित्यिक होय के संगे-संग पारिवारिक अउ सामाजिक घलो रिहिसे, तेकर सेती उंकर संग हर किसम के कार्यक्रम मन म मेल भेंट होतेच राहय. प्रदीप भइया वीणापाणी साहित्य समिति के अध्यक्ष घलो रिहिन, संग म दुर्ग जिला हिंदी साहित्य समिति के कोषाध्यक्ष के जिम्मेदारी घलो निभावत रिहिन हें.
   हमर मनवा कुर्मी समाज के गतिविधि मन म घलो प्रदीप भइया सक्रिय राहत रिहिन. उन 78 बछर के उमर म घलो जबर सक्रिय रहिन. जवान मनखे मन बरोबर खुद स्कूटर चलावत दुर्ग ले भिलाई अउ कुम्हारी तक के कार्यक्रम मन म आके संघर जावत रिहिन हें. फेर दुख के बात आय अभी बीते 18 फरवरी के रतिहा एक बिहाव के कार्यक्रम ले आय के पाछू कार ले उतरत रिहिन हें, तइसने एक अस्पताल के एम्बुलेंस ह उनला पाछू डहार ले ठोक दिस. जेन एम्बुलेंस ह लोगन के जिनगी बचाय बर सरपट दौड़थे, उही ह प्रदीप भइया बर काल बनगे.
   उंकर सुरता ल पैलगी.. जोहार🙏
-सुशील भोले
संजय नगर, रायपुर

Thursday 15 February 2024

कोंदा भैरा के गोठ-15

कोंदा भैरा के गोठ-15

-विदेशी संस्कृति के बड़ोरा ह शहर ले गाँव होवत अब हमर घर-परिवार म घलो निंगत जावत हे जी भैरा.
   -काला कहिबे जी कोंदा.. जवनहा नोनी-बाबू मन ले नाहकत अब तो सियान-सामरत मन घलो एकर चिभिक म परत जावत हें.
   -ठउका कहे संगी.. हमर इहाँ के सियानीन ल देख ले.. वेलेंटाइन डे आवत हे, त ए बछर मोला का-का गिफ्ट देबे कहिके अभीच ले हुदरत रिहिसे.
   -झन पूछ संगी.. तुंहर घर तो वेलेंटाइन डे के एकेच दिन भर बर पूछत रिहिसे.. हमर इहाँ के डोकरी ह तो पूरा हफ्ता भर के लिस्ट ल ओरियावत रिहिसे.. सात ले लेके चौदा फरवरी तक का-का देबे कहिके, त महूं कहि देंव- ए उमर म तोला देवता-धामी मन के पोथी-पतरा ले बढ़ के अउ का मिल सकत हे कहिके.
   -बने कहे संगी.. महूं हमर इहाँ के सियानीन ल.. तीरथ-बरत घूमाए के आश्वासन म निपटा देहूं.
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-आजकाल सोशलमीडिया के नॉव म का फेसबुक, इंस्टाग्राम आय हे तेनो मन गजब हे जी भैरा.
   -कइसे का होगे जी भैरा? 
   -लोगन वोमा चुरुमुरु बूढ़ावत ले घलो जनावेच बने रहिथे भई..! 
   -बड़ा अचरज के बात हे... भला अइसे कइसे हो सकथे? 
   -अरे ओ टूरी.. का नॉव.. हाँ अंजोरी-अंधियारी कहिके नइ कुड़कावन.. स्कूल म पढ़त राहन त.
   -हाँ हाँ..वो झुंडर्री चूंदी वाली बैसाखीन
   -हाँ उही.. प्रायमरी ले मिडिल तक संगे म पढ़े हन.. तेने ल फेसबुक म भेटेंव संगी अभीच ले सतरा बछर के हे.
   -अच्छा.. हमन नाती-नतुरा वाले होवत हन अउ ओ ह अभी ले सतरच बछर के हे..! 
   -हव भई.. पहिली तो महूं आकब नइ कर पाएंव, फेर मेसेंजर म अपने ह चेटिंग कर के बताइस के मैं फलानीन अंव कहिके, त मैं ओकर फोटू के बारे म पूछेंव.. तब बताइस के सोशलमीडिया म अइसने म बने लागथे, सतरा बछर के फोटू ल देख के सब बने-बने कमेंट अउ मेसेज करथे.
   -भाग भइगे उंकर कमैंट अउ मेसेज के ललचही सउंख ल.. बूढ़िया होगे तभो ले मोटियारी के चुलुक.
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-हमर छत्तीसगढ़ सरकार ह जब ले 'महतारी वंदन' योजना शुरू करे के निर्णय लिए हे, तब ले घर म आदमी जात मन के सियानी कमतियाय असन जनावत हे जी भैरा.
   -कइसे गढ़न के जी कोंदा? 
   -या.. नाती-नतुरा मनला कभू-कभार टिकिया-बिस्कुट खाए बर पइसा दे देवत रेहेन त ओ मन हमन ला बड़ा आदर-सम्मान करे अस गोठियावय जी.. फेर अब तो भुसभुस बानी के जनावत हे.
     -कइसे भुसभुस बानी के जी? 
    -अब तो उन अइसन किसम के नान-मुन जेब खर्चा बर हमर मन ऊपर आश्रित नइ रइही.. भलुक हमन ल नटेरे असन कहि दिहीं- 'जेब खर्चा बर पइसा हब ले देवत हस ते दे.. नइते फेर मैं दाई जगा जाके 'महतारी वंदन' कर लेथौं.
   -हाँ ए बात तो हे.. फेर लइका मन सिरिफ पइसा भर के सेती नहीं, भलुक बने असन संस्कार दे म घलो बने अदब के साथ बात करथें, अउ फेर इही संस्कारे ह तो जिनगी भर साथ देथे, हमरो संग अउ दुनिया संग घलो.
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-पहिली हमर मन के उमर म लोगन आवंय तहाँ ले वानप्रस्थ आश्रम के रद्दा धर लेवंय जी भैरा.
   -हाँ ए बात तो हे जी कोंदा.. एकर ले सियान मन घलो बने  जंगल म हरहिंछा रेहे राहंय अउ बेटा बहू मन घलो घर म स्वतंत्र राहंय.
   -हव जी एकरे सेती सबो झन हरहट कटकट ले मुक्त राहंय, फेर अब तो न जंगल झाड़ी बांचीस अउ न ही वानप्रस्थ के परंपरा.. एकरे सेती घर म रात-दिन सास-बहू म खिबिड़-खाबड़ चलत रहिथे.. अउ जब उन  खिसिया जथें त उनला वृद्धाश्रम म ढपेल देथें.
   -ककरो भी स्वतंत्रता के उल्लंघन ठीक नोहय संगी.. न  सियान मन के अउ न जवान मन के.. एकरे सेती सियान मनला घर म रहि के ही वानप्रस्थ के नियम ल मानना चाही.. बेटा बहू के स्वतंत्रता म रोड़ा बने ले बांच के सिरिफ अपन आप म मगन रहना चाही, तभेच घर परिवार म सुख-शांति के बासा हो पाही.
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-अभी इहाँ के वित्त मंत्री ह विधानसभा म बजट पेश करीस हे, तेमा मैं ह हमर असन मावालोग मन बर घलो कुछू नवा उदिम करे हे का कहिके गुनत रेहेंव जी भैरा.
   -कइसे ढंग के नवा उदिम जी कोंदा? 
   -अरे माईलोगिन मन बर 'महतारी वंदन' योजना लागू नइ करे हे जी.. ठउका अइसने हमर मन बर 'ददा सुमरनी' योजना लानिस के नहीं काहत रेहेंव गा.
   -अच्छा.. तेमा तुंहरो मन के चोंगी-माखुर के जुगाड़ बने असन होवत राहय अइसे ढंग के.
   -हव भई.. अब ए उमर म नान-मुन खर्चा बर बेटा-बहू मन के मुंह तकई ह सुहावय नहीं जी.. फेर कभू तिहार-बार म 'कुछू-कांही' के जुगाड़ घलो तो हरहिंछा हो जाही.
   -तोर कहना तो वाजिब हे संगी.. ले अवइया बेरा म चुनावी घोषणापत्र म अइसन प्रावधान करे खातिर नेता जी ल गोहराबोन, काबर ते तुंहरो मन के दवई-दारू जरूरी हे.
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-हमर खेती-किसानी अउ रांधे-गढ़े के तरीका म आवत बदलाव संग एकर ले जुड़े कतकों शब्द मन घलो नंदावत जावत हे जी भैरा.
   -सिरतोन आय जी कोंदा.. अब देखना पहिली माटी के चुल्हा बनावय.. कभू एक-मुंहा कभू दू-मुंहा.. अइसने चुल्हा म बरे लकड़ी ले निकले कोइला के उपयोग बर माटीच के सिगड़ी.. अब सबो के चलागन नंदावत हे अउ एकरे संग इंकर ले जुड़े शब्द मन घलो.
   -हव जी.. अइसने जिनगी के सबो क्षेत्र ले जुड़े बुता काम, परंपरा अउ उंकर ले जुड़े शब्द मन.. ए मन हमर महतारी भाखा के शब्दकोश बर घलो नकसान के बात आय संगी.
   -सिरतोन आय.. हम अपन परंपरा के संग अपन शब्द ल भुलावत जावत हन अउ आने-आने चलागन के अपनई के सेती उंकर ले जुड़े आने भाखा के शब्द मनला अपन म संघारत जावत हन.
   -शायद एकरे सेती भाखा ल सदानीरा कहिथें.. नदिया के बोहावत धारा म जइसे पानी के नवा नवा बूंद मन संघरत अउ आगू बढ़त जाथे, ठउका भाखा म घलो वइसने होवत जाथे.
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-चल तुमा के नार तैं कइसे झूले हिंडोला म.. अरे सेमी कहिथे मोर पान चिकनी महूं फरौं बाहिरी भितरी.. चल तुमा के नार... 
   -का बात हे संगी कोंदा.. आज तो जुन्ना बेरा के सुरता देवावत हे तोर तुमा के नार ह.. 
   -हव जी भैरा.. अभी हमर इहाँ के शोधार्थी किसान कल्प दास ह तुमा के एक अइसे किसम विकसित करे हे, जे हा आने तुमा माने लौकी ले जादा मीठ होय के संग कैंसर अउ ब्लडप्रेशर ल नियंत्रण करे के घलो काम करही. संग म अउ कतकों किसम के फायदा पहुंचाही.
   -वाह भई.. ए तो बढ़िया खबर हे संगी.
   -हव जी हमर रायपुर के कृषि विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक डॉ. दीपक शर्मा ह बताए हे के ए नवा किसम ल भारत सरकार म रजिस्ट्रेशन करवाय जाही. शोधार्थी किसान कल्प दास ह ए तुमा के नामकरण 'नारायणा' करे हे. ए लौकी ल मई जून म बोए जाही त सरलग 9-10 महीना तक फसल देही, अउ दूसर लौकी मन ले जादा बड़का घलो होही.. संग म मात्रा घलो जादा रइही.
🌹

Sunday 11 February 2024

भूमिका.. कोंदा भैरा.. डाॅ. सत्यभामा आड़िल

भूमिका//
दुलरुआ कोन्दा भैरा के गोठ--नवा उदिम
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               सोशल मिडिया  के  कतकोन ग्रुप म अपन झलक देखावत "कोन्दा भैरा के गोठ" ह सुशील भोले के नवा "उदिम"  आय, छत्तीसगढ़ी भाखा अउ साहित्य म!  मंय तो चकित हो गेंव पढ़के। चकित एकर सेती--कि कोन्दा गोठियावत हे अउ भैरा ह  हुंकारु देवत सुनथे! सुशील ह हमर गांव अउ लोकजीवन के संस्कृति के रिवाज बताथे कि कईसे  हमन मया अउ दुलार म अपन भांचा-भांची, नाती-नतुरा अउ गांव के कतकोन मयारुक अउ दुलरुआ लईका मन ला अईसन अलवा-जलवा नांव धरके पुकारथन!
    कोन्दा, भैरा, लेड़गा, सुनसुनहा/ही, खनखनहा,  तोतरी/रा, खोरवा,  डंगचघा, चमकुल, रिसहा,---
अतेक असन नांव धरथें-- गांवलोगन मन! त ये सब मया पिरीत के धरे नांव आय। दुलार म धरे नांव आय! नांव   म  वो  गुन  देखे बर नई मिलय!  ये ह हमर गांव के संस्कृति के खास बात आय! सुशील ह छत्तीसगढ़ी भाखा अउ संस्कृति के जागरूक   रखवारा आय। शब्द अउ अर्थ ल संजो- संजो के  नवा उदिम करे हे! पढ़ के अब्बड़ निक लागथे!
संगी-जवंरिहा के सुग्घर गोठ-बात आय।
"कोन्दा भैरा के गोठ"- बात म--दुनिया भर के विषय हावय! राजनीति के दू चाल, वादा करथे फेर निभावत नइये, करनी अउ कथनी के भेद ल  दूध-पानी सहीं अलग करके गोठियाथे!राजनीति--खाली राजनीति आय , शतरंज के खेल, तिरी-पासा! कोनो पार्टी होवय, सबो एक बरोबर।कुर्सी म बइठिन, तहां ले एक बरोबर!      
   कोन्दा भैरा, तीज तेवहार ल पकड़थे त छत्तीसगढ़ के सबो मूल तेवहार के इतिहास बताथें, उंखर महिमा के बखान करथें! एक -एक रीत रिवाज के सुरता देवाथे!
       धरम-करम के गोठ होथे, त "आदि संस्कृति" के सुरता करके नन्दावत सनातन धरम के दुख मनाथें!  कोन्दा भैरा के गोठ मा अपन देसराज के 
के पहनई--ओढ़ई ल बिसार के परदेसिया रंग म रंगत लोग बर ताना कसथे!
             छत्तीसगढ़ी भाखा म गोठियावत नकलची दरबारी मन के पोल खोलत कोन्दा भैरा के गोठ ह बियंग के धार ल तेज  करथे!

ये बिधा के उदिम म किस्सागोई के आनन्द आथे गोठ म नाचा गम्मत के हांसी घलो होथे। ताना कसके " शब्दभेदी" बान चलाथे।
          समाज म बाढ़त अपराध, चोरी ढारी,  भ्र्ष्टाचार , इज्जत लुटई ,  सराब खोरी, फोकट म पावत चांउर अउ कामचोरी! सबो डहार--चारोमुड़ा के समस्या ऊपर कोन्दा-भैरा के नजर पड़ते! लईकन के पढई-लिखई ल लेके, अस्पताल म होवत लापरवाही अउ घोटाला के  पोल खोलथे!
आखिर म गोठ ल समेटत ,  सुशील के ये नवा उदिम के जतका तारीफ करे जाय, कमती हे!
         छत्तीसगढ़ी भाखा साहित्य के संसार म, कोठी म। "कोन्दा-भैरा के  गोठ"  के स्वागत हे!" मोर असीस फलय -फुलय'"! सुशील जुग  जुग जियय अउ नवा नवा सिरजन करे बर कलम चलावत रहय! 
10फरवरी2024
                                    असीस देवत,
                            डॉ, सत्यभामा आडिल
                 पूर्व अध्यक्ष,--हिन्दी अध्ययन मंडल
                 पं, रविशंकर वि, वि, रायपुर ,(छ,ग,)

Thursday 8 February 2024

मानव जीवन का उत्पत्ति स्थल नर मादा की घाटी

माघ शुक्ल सप्तमी नर्मदा जयंती पर विशेष//
   ** नर -मादा की घाटी **
    अलग-अलग धर्मों और उनके ग्रंथों में सृष्टिक्रम की बातें और अवधारणा अलग-अलग दिखाई देती है। मानव जीवन की उत्पत्ति और उसके विकास क्रम को भी अलग-अलग तरीके से दर्शाया गया है। इन सबके बीच अगर हम कहें कि मानव जीवन की शुरूआत छत्तीसगढ़ से हुई है, तो आपको कैसा लगेगा? जी हाँ! यहाँ के मूल निवासी वर्ग के विद्वानों का ऐसा मत है। अमरकंटक की पहाड़ी को ये नर-मादा अर्थात् मानवी जीवन के उत्पत्ति स्थल के रूप में चिन्हित करते हैं।

    यह सर्वविदित तथ्य है कि छत्तीसगढ़ के इतिहास और संस्कृति के लेखन में अलग-अलग प्रदेशों से आए लेखकों ने बहुत गड़बड़ किया है। ये लोग अपने साथ वहाँ से लाए ग्रंथों और संदर्भों के मानक पर छत्तीसगढ़ को परिभाषित करने का प्रयास किया है। दुर्भाग्य यह है, कि इसी वर्ग के लोग यहाँ शासन-प्रशासन के प्रमुख पदों पर आसीन होते रहे हैं, और अपने मनगढ़ंत लेखन को ही सही साबित करने के लिए हर स्तर पर अमादा  रहे हैं। इसीलिए वर्तमान में उनके द्वारा उपलब्ध लेखन से हम केवल  इतना ही जान पाए हैं कि यहाँ की ऐतिहासिक प्राचीनता मात्र 5 हजार साल पुरानी है। जबकि यहाँ के मूल निवासी वर्ग के लेखकों के साहित्य से परिचित हों तो आपको ज्ञात होगा कि मानवीय जीवन का उत्पत्ति स्थल है छत्तीसगढ़।

     इस संदर्भ में गोंडी गुरु और प्रसिद्ध विद्वान ठाकुर कोमल सिंह मरई  (अब स्वर्गवासी) द्वारा 'गोंडवाना दर्शन" में धारावाहिक लिखे गए लेख - 'नर-मादा की घाटी" पठनीय है। इस आलेख-श्रृंखला में न केवल छत्तीसगढ़ (गोंडवाना क्षेत्र) की उत्पत्ति और इतिहास का विद्वतापूर्ण वर्णन है, अपितु यह भी बताया गया है कि यहाँ के सतपुड़ा पर्वत श्रृंखला पर स्थित 'अमरकंटक" मानव जीवन का उत्पत्ति स्थल है। यह बात अलग है कि आज मध्यप्रदेश अमरकंटक पर अवैध कब्जा कर बैठा है, लेकिन है वह प्राचीन छत्तीसगढ़ का ही हिस्सा। इसे यहाँ के मूल निवासी वर्ग के विद्वान 'अमरकोट या अमरूकूट" कहते हैं, और नर्मदा नदी के उत्पत्ति स्थल को 'नर-मादा" की घाटी के रूप में वर्णित किया जाता है। नर-मादा के मेल से ही नर्मदा (नरमदा, नारगोदा, नर्मदा) शब्द का निर्माण हुआ है।

   कोमल सिंह जी से मेरा परिचय आकाशवाणी (अब दूरदर्शन) रायपुर में कार्यरत भाई रामजी ध्रुव के माध्यम से हुआ। उनसे घनिष्ठता बढ़ी, उनके साहित्य और यहाँ के मूल निवासियों के दृष्टिकोण से परिचित हुआ था, उसके पश्चात वे हमारी संस्था '"आदि धर्म जागृति संस्थान" के साथ जुड़ गये। उनका कहना है कि नर्मदा वास्तव में नर-मादा अर्थात मानवीय जीवन का उत्पत्ति स्थल है। सृष्टिकाल में  यहीं से मानवीय जीवन की शुरूआत हुई है। आज हम जिस जटाधारी शंकर को आदि देव के नाम पर जानते हैं, उनका भी उत्पत्ति स्थल यही नर-मादा की घाटी है। बाद में वे कैलाश पर्वत चले गये और वहीं के वासी होकर रह गये। मैंने इसकी पुष्टि के लिए अपने आध्यात्मिक ज्ञान स्रोत से जानना चाहा, तो मुझे हाँ के रूप में पुष्टि की गई। यहाँ यह उल्लेखनीय है, कि अब भू-गर्भ शास्त्रियों (वे वैज्ञानिक जो पृथ्वी की उत्पत्ति और विकास को लेकर शोध कार्य कर रहे ह़ैं, उन लोगों ने भी इस बात को स्वीकार कर लिया है, कि मैकाल पर्वत श्रृंखला, जिसे हम अमरकंटक की पर्वत श्रृंखला के रूप में जानते हैं, इसी की उत्पत्ति सबसे पहले हुई है, इसी लिए इस स्थल को पृथ्वी का "नाभि स्थल" भी माना जाता है।

    मित्रों, जब भी मैं यहाँ की संस्कृति की बात करता हूं, तो सृष्टिकाल की संस्कृति की बात करता हूं, और हमेशा यह प्रश्न करता हूं कि जिस छत्तीसगढ़ में आज भी  सृष्टिकाल की संस्कृति जीवित है, उसका इतिहास मात्र पाँच हजार साल पुराना कैसे हो सकता है?    छत्तीसगढ़ के वैभव को, इतिहास और प्राचीनता को जानना है, समझना है तो मूल निवासयों के दृष्टिकोण से, उनके साहित्य से भी परिचित होना जरूरी है। साथ ही यह भी जरूरी है कि उनमें से विश्वसनीय और तर्क संगत संदर्भों को ही स्वीकार किया जाए।

-सुशील भोले
संजय नगर, रायपुर (छ.ग.)
मो/व्हा.9826992811

छत्तीसगढ़ में सांस्कृतिक आन्दोलन की आवश्यकता

छत्तीसगढ़ में सांस्कृतिक आन्दोलन की आवश्यकता...
     किसी भी राज्य की पहचान वहाँ की भाषा और संस्कृति के माध्यम से होती है। इसी को आधार मानकर इस देश में राज्य पुनर्गठन आयोग की स्थापन की गई थी, और नये राज्यों का निर्माण भी हुआ था।

    छत्तीसगढ़ को अलग राज्य के रूप में स्वतंत्र अस्तित्व में आये दो दशक से ऊपर हो गया है, लेकिन अभी भी इसकी स्वतंत्र भाषाई एवं सांस्कृतिक पहचान नहीं बन पाई है। स्थानीय स्तर पर छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग की स्थापना कर छत्तीसगढ़ी को हिन्दी के साथ राजभाषा के रूप में मान्यता दे दी गई है, लेकिन अभी तक उसका उपयोग केवल खानापूर्ति करने से ज्यादा महसूस नहीं हो पाया है। यहाँ के राजकाज और शिक्षा में इसकी कहीं कोई उपस्थिति नहीं है, जिसकी आज सबसे ज्यादा आवश्यकता है।

    छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक पहचान के क्षेत्र में तो और भी दयनीय स्थिति है। यहाँ की मूल संस्कृति की तो कहीं पर चर्चा ही नहीं होती। अलबत्ता यह बताने का प्रयास जरूर किया जाता है, कि अन्य प्रदेशों से लाये गये ग्रंथ और उस पर आधारित संस्कृति ही छत्तीसगढ़ की संस्कृति है।

    छत्तीसगढ़, छत्तीसगढ़ी और छत्तीसगढ़िया के नाम पर यहाँ समय-समय पर आन्दोलन होते रहे हैं, और आगे भी होते रहेंगे। लेकिन एक बात जो अधिकांशतः देखने में आती है, कि कुछ लोग इसे राजनीतिक चंदाखोरी के माध्यम के रूप में ही इस्तेमाल करते रहे हैं। जब उनकी राजनीतिक स्थिति डांवाडोल दिखती है, तो छत्तीसगढ़िया का नारा बुलंद करने लगते हैं, और रात के अंधेरे में उन्हीं लोगों से पद और पैसे की दलाली करने लग जाते हैं, ऐसे ही लोगों के कारण मूल छत्तीसगढ़िया आज भी उपेक्षित और अपने अधिकारों से वंचित है।

    आश्चर्यजनक बात यह है कि आज तक इस राज्य में यहाँ की मूल संस्कृति के नाम पर कहीं कोई आन्दोलन नहीं हुआ है। जो लोग छत्तीसगढ़िया या छत्तीसगढ़ी भाषा के नाम पर आवाज बुलंद करते रहे हैं, एेसे लोग भी संस्कृति की बात करने से बचते रहे हैं। मैंने अनुभव किया है, ये वही लोग हैं, जो वास्तव में आज भी जिन प्रदेशों से आये हैं, वहाँ की संस्कृति को ही जीते हैं, और केवल भाषा के नाम पर ही छत्तीसगढ़िया होने का ढोंग रचते हैं। जबकि यह बात सर्व विदित है कि किसी भी राज्य या व्यक्ति की पहचान उसकी भाषा के साथ ही संस्कृति भी होती है। भाषा और संस्कृति किसी भी क्षेत्र की पहचान की दो आंखें हैं.
    एेसे लोग एक और बात कहते हैं, छत्तीसगढ़ के मूल निवासी तो केवल आदिवासी हैं, उसके बाद जितने भी यहाँ हैं वे सभी बाहरी हैं, तो फिर यहाँ की मूल संस्कृति उन सभी के मानक कैसे हो सकती है? एेसे लोगों को मैं याद दिलाना चाहता हूं, यहाँ पूर्व में दो किस्म के लोगों आना हुआ था। एक वे जो यहां कमाने-खाने के लिए कुदाल-फावड़ा लेकर आये थे या जिनको कामगार बनाकर लाया गया था और एक वे जो  जीने के साधन के रूप में केवल पोथी-पतरा और अन्य व्यापार रोजगार का साधन लेकर आये थे। जो लोग कुदाल-फावड़ा लेकर आये थे, वे धार्मिक- सांस्कृतिक रूप से अपने साथ कोई विशेष सामान नहीं लाए थे,  इसलिए यहाँ जो भी पर्व-संस्कार था, उसे आत्मसात कर लिए। लेकिन जो लोग अपने साथ पोथी-पतरा और रोजगार लेकर आये थे, वे यहाँ की संस्कृति को आत्मसात करने के बजाय अपने साथ लाये पोथी कोे ही यहाँ के लोगों पर थोपने का उपक्रम करते रहे जो आज भी जारी है।  इसीलिए ये लोग आज भी यहाँ की मूल संस्कृति के प्रति ईमानदार नहीं हैं। 
     अभी यहाँ राजिम के प्रसिद्ध पुन्नी मेला को परिवर्तित कर पुनः कुंभ कल्प (वास्तव में नकली कुंभ) के रूप में आयोजित किया जाने वाला है. यह इस बात का स्पष्ट प्रमाण है, कि ये लोग यहाँ की मूल संस्कृति के प्रति न तो पहले कभी ईमानदार रहे हैं, और न ही अब हैं.
    जहाँ तक भाषा की बात है, तो भाषा को तो कोई भी व्यक्ति कुछ दिन यहाँ रहकर सीख और बोल सकता है। हम कई एेसे लोगों को देख भी रहे हैं, जो यहाँ के मूल निवासियों से ज्यादा अच्छा छत्तीसगढ़ी बोलते हैं, लेकिन क्या वे यहाँ की संस्कृति को भी जीते हैं? उनके घरों में जाकर देखिए वे आज भी वहीं की संस्कृति को जीते हैं, जहाँ से आये थे। एेसे में उन्हें छत्तीसगढ़िया की श्रेणी में कैसे रखा जा सकता है ? एेसे लोग यहाँ की कुछ कला को जिसे मंच पर प्रस्तुत किया जाता है, उसे ही संस्कृति के रूप में प्रचारित कर लोगों को भ्रमित करने की कुचेष्ठा जरूर करते हैं। जबकि संस्कृति वह है, जिसे हम संस्कारों के रूप में जीते हैं, पर्वों के रूप में जीते हैं। मंच पर प्रदर्शित किया जाने वाला कोई भी मंचन केवल कला के अंतर्गत आता है, संस्कृति के अंतर्गत नहीं.
    आज की सबसे बड़ी आवश्यकता यह है, कि हम अपनी मूल संस्कृति को जानें, समझें, उसकी मूल रूप में पहचान कायम रखने का प्रयास करें और उसके नाम पर पाखण्ड करने वालों के नकाब भी नोचें। छत्तीसगढ़ी या छत्तीसगढ़िया आन्दोलन तब तक पूरा नहीं हो सकता, जब तक उसकी आत्मा अर्थात संस्कृति उसके साथ नहीं जुड़ जाती।

-सुशील भोले
संजय नगर, रायपुर (छ.ग.)
मो/व्हा.9826992811

राजिम मेला बनाम कुंभ कल्प

राजिम मेला बनाम कुंभ कल्प
  छत्तीसगढ़ की संस्कृति मेला-मड़ई की संस्कृति है। यहाँ के लोक पर्व मातर के दिन मड़र्ई जागरण के साथ ही यहाँ मड़ई-मेला की शुरूआत हो जाती है, जो महाशिव रात्रि तक चलती है।
मड़ई का आयोजन जहाँ छोटे गाँव-कस्बे या गाँवों में भरने वाले बाजार-स्थलों पर आयोजित कर लिए जाते हैं, वहीं मेला का आयोजन किसी पवित्र नदी अथवा प्राचीन सिद्ध शिव स्थलों पर आयोजित होता चला आ रहा है। इसी कड़ी में राजिम का प्रसिद्ध मेला भी कुलेश्वर महादेव के नाम पर आयोजित होता था। बचपन में हम लोग आकाशवाणी के माध्यम से एक गीत सुना करते थे- "चल चलना संगी राजिम के मेला जाबो, कुलेसर महादेव के दरस कर आबो।" लेकिन अब पुनः इस पारंपरिक मेला को परिवर्तित कर कुंभ कल्प के रूप में आयोजित करने का निर्णय लिया गया है.
     पूर्ववर्ती सरकार के पहले पॉंच वर्ष पूर्व तक भी हम लोग इसे काल्पनिक कुंभ के रूप में भरते देखते रहे हैं. मुझे स्मरण है, इस कल्प कुंभ में शाही स्नान का भी आयोजन होता था. इसके लिए त्रिवेणी संगम स्थल के एक ओर एक छोटा तालाब नुमा गड्ढा (डबरा) बना लिया जाता था, जिसमें ऊपर के बॉंध से पानी लाकर भर दिया जाता था. फिर इसी में विशेष पर्व पर शाही स्नान का आयोजन होता था.
    मुझे स्मरण है, उक्त डबरानुमा जलाशय में सैकड़ों लोगों के एक साथ स्नान करने के कारण उसका पानी प्रदूषित हो जाता था. इसलिए उसमें जो भी व्यक्ति स्नान करता था, उसे खुजली की तकलीफ जरूर होती थी. इसके संबंध में एक बार छत्तीसगढ़ के गॉंधी के नाम से प्रसिद्ध पं. सुंदरलाल शर्मा जी की पौत्री शोभा शर्मा जी ने कहा था- 'सुशील भैया, ए ह शाही स्नान नोहय, भलुक खजरी स्नान आय. हमन तो राजिम म रहिथन तभो उहाँ नहाय बर नइ जावन.' 
   चूंकि उस समय तक मैं राजधानी रायपुर के एक समाचार पत्र के साथ जुड़ा हुआ था, और राजिम कल्प कुंभ पर विशेषांक प्रकाशित करने की जिम्मेदारी मिलने के कारण मेरा वहाँ नियमित जाना होता था, इसलिए वहाँ की वास्तविकताओं को देखने समझने के साथ ही उस क्षेत्र के तमाम बुद्धिजीवियों के साथ मिलता और उनके विचारों से भी अवगत होता था.
     जहाँ तक इस पारंपरिक राजिम मेला को भव्यता प्रदान करने की बात है, तो इसे हर स्तर पर स्वागत किया जाएगा। सभी लोग इससे सहमत थे, किन्तु इसका नाम और कारण को परिवर्तित करना किसी भी सूरत में स्वीकार नहीं करने की बात कही जाती थी । 
     इस बात से हम सभी परिचित हैं कि छत्तीसगढ़ आदि काल से ही बूढ़ादेव के रूप में शिव संस्कृति का उपासक रहा है, इसीलिए यहाँ के प्रसिद्ध शिव स्थलों पर ऐसे मेलों का आयोजन होता था. लेकिन जब से इसका नाम कुंभ कल्प किया गया था, तब से कुलेश्वर महादेव के नाम पर भरने वाला मेला का नाम परिवर्तित कर राजीव लोचन के नाम पर भरने वाला कुंभ कल्प किया गया था. 
     कितने आश्चर्य की बात है, कि यहाँ के तथाकथित बुद्धिजीवी और जिम्मेदार  जनप्रतिनिधि भी इस पर कभी कोई टिका-टिप्पणी करते नहीं देखे जाते थे। बाद में जब हमारे जैसे कुछ सिरफिरे इस पर कलम चलाने लगे, तब पूर्व मुख्यमंत्री समेत कुछ विपक्ष के राजनीतिक लोग भी इस पर बोलने लगे थे.  जबकि धंधेबाज किस्म के पत्रकार और साहित्यकार और कलाकार लोग तो वहाँ आयोजित होने वाले कार्यक्रमों में भागीदारी पाने के लिए लुलुवाते हुए या अपने पत्र-पत्रिका के लिए विज्ञापन उगाही करने के अलावा और कुछ भी करते नहीं पाये जाते थे।
    सबसे आश्चर्य की बात तो यह है, कि यहाँ के तथाकथित संस्कृति और इतिहास के मर्मज्ञों को भी यह समझ में नहीं आया था कि महाशिव रात्रि के अवसर पर भरने वाला मेला महादेव के नाम पर भरा जाना चाहिए या किसी अन्य के नाम पर? 
    मित्रों, जिस समाज के  बुद्धिजीवी और मुखिया दलाल हो जाते हैं, उस समाज को गुलामी भोगने से कोई नहीं बचा सकता। आज छत्तीसगढ़ अपनी ही जमीन पर अपनी अस्मिता की स्वतंत्र पहचान के लिए तड़प रहा है, तो वह ऐसे ही दलालों के कारण है। शायद छत्तीसगढ़ इस देश का एकमात्र राज्य है, जहाँ मूल निवासियों की भाषा, संस्कृति और लोग हासिए पर जी रहे हैं और बाहर से आकर राष्ट्रीयता का ढोंग करने वाले लोग तमाम महत्वपूर्ण ओहदे पर काबिज हो गये हैं।
    इस देश में जिन चार स्थानों पर वास्तविक कुंभ आयोजित होते हैं, वे भी शिव स्थलों के नाम पर ही जाने और पहचाने जाते हैं, तब यह कुंभ कल्प भी कुलेश्वर महादेव के नाम पर पहचाना जाना चाहिए था? 
    अब देखते हैं, इस वर्ष से पुनः प्रारंभ हो रहे कुंभ कल्प में क्या कुछ देखने को मिलता है, क्योंकि यह पावन स्थल राजनीतिक दल वालों के लिए एक प्रकार से अहम तुष्टि और मनमर्जी का केंद्र बन गया है.
जय कुलेश्वर महादेव... जय राजिमलोचन.. सभी को सदबुद्धि प्रदान करें.
-सुशील भोले
संजय नगर, रायपुर
मो/व्हा. 9826992811