Thursday 8 February 2024

छत्तीसगढ़ में सांस्कृतिक आन्दोलन की आवश्यकता

छत्तीसगढ़ में सांस्कृतिक आन्दोलन की आवश्यकता...
     किसी भी राज्य की पहचान वहाँ की भाषा और संस्कृति के माध्यम से होती है। इसी को आधार मानकर इस देश में राज्य पुनर्गठन आयोग की स्थापन की गई थी, और नये राज्यों का निर्माण भी हुआ था।

    छत्तीसगढ़ को अलग राज्य के रूप में स्वतंत्र अस्तित्व में आये दो दशक से ऊपर हो गया है, लेकिन अभी भी इसकी स्वतंत्र भाषाई एवं सांस्कृतिक पहचान नहीं बन पाई है। स्थानीय स्तर पर छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग की स्थापना कर छत्तीसगढ़ी को हिन्दी के साथ राजभाषा के रूप में मान्यता दे दी गई है, लेकिन अभी तक उसका उपयोग केवल खानापूर्ति करने से ज्यादा महसूस नहीं हो पाया है। यहाँ के राजकाज और शिक्षा में इसकी कहीं कोई उपस्थिति नहीं है, जिसकी आज सबसे ज्यादा आवश्यकता है।

    छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक पहचान के क्षेत्र में तो और भी दयनीय स्थिति है। यहाँ की मूल संस्कृति की तो कहीं पर चर्चा ही नहीं होती। अलबत्ता यह बताने का प्रयास जरूर किया जाता है, कि अन्य प्रदेशों से लाये गये ग्रंथ और उस पर आधारित संस्कृति ही छत्तीसगढ़ की संस्कृति है।

    छत्तीसगढ़, छत्तीसगढ़ी और छत्तीसगढ़िया के नाम पर यहाँ समय-समय पर आन्दोलन होते रहे हैं, और आगे भी होते रहेंगे। लेकिन एक बात जो अधिकांशतः देखने में आती है, कि कुछ लोग इसे राजनीतिक चंदाखोरी के माध्यम के रूप में ही इस्तेमाल करते रहे हैं। जब उनकी राजनीतिक स्थिति डांवाडोल दिखती है, तो छत्तीसगढ़िया का नारा बुलंद करने लगते हैं, और रात के अंधेरे में उन्हीं लोगों से पद और पैसे की दलाली करने लग जाते हैं, ऐसे ही लोगों के कारण मूल छत्तीसगढ़िया आज भी उपेक्षित और अपने अधिकारों से वंचित है।

    आश्चर्यजनक बात यह है कि आज तक इस राज्य में यहाँ की मूल संस्कृति के नाम पर कहीं कोई आन्दोलन नहीं हुआ है। जो लोग छत्तीसगढ़िया या छत्तीसगढ़ी भाषा के नाम पर आवाज बुलंद करते रहे हैं, एेसे लोग भी संस्कृति की बात करने से बचते रहे हैं। मैंने अनुभव किया है, ये वही लोग हैं, जो वास्तव में आज भी जिन प्रदेशों से आये हैं, वहाँ की संस्कृति को ही जीते हैं, और केवल भाषा के नाम पर ही छत्तीसगढ़िया होने का ढोंग रचते हैं। जबकि यह बात सर्व विदित है कि किसी भी राज्य या व्यक्ति की पहचान उसकी भाषा के साथ ही संस्कृति भी होती है। भाषा और संस्कृति किसी भी क्षेत्र की पहचान की दो आंखें हैं.
    एेसे लोग एक और बात कहते हैं, छत्तीसगढ़ के मूल निवासी तो केवल आदिवासी हैं, उसके बाद जितने भी यहाँ हैं वे सभी बाहरी हैं, तो फिर यहाँ की मूल संस्कृति उन सभी के मानक कैसे हो सकती है? एेसे लोगों को मैं याद दिलाना चाहता हूं, यहाँ पूर्व में दो किस्म के लोगों आना हुआ था। एक वे जो यहां कमाने-खाने के लिए कुदाल-फावड़ा लेकर आये थे या जिनको कामगार बनाकर लाया गया था और एक वे जो  जीने के साधन के रूप में केवल पोथी-पतरा और अन्य व्यापार रोजगार का साधन लेकर आये थे। जो लोग कुदाल-फावड़ा लेकर आये थे, वे धार्मिक- सांस्कृतिक रूप से अपने साथ कोई विशेष सामान नहीं लाए थे,  इसलिए यहाँ जो भी पर्व-संस्कार था, उसे आत्मसात कर लिए। लेकिन जो लोग अपने साथ पोथी-पतरा और रोजगार लेकर आये थे, वे यहाँ की संस्कृति को आत्मसात करने के बजाय अपने साथ लाये पोथी कोे ही यहाँ के लोगों पर थोपने का उपक्रम करते रहे जो आज भी जारी है।  इसीलिए ये लोग आज भी यहाँ की मूल संस्कृति के प्रति ईमानदार नहीं हैं। 
     अभी यहाँ राजिम के प्रसिद्ध पुन्नी मेला को परिवर्तित कर पुनः कुंभ कल्प (वास्तव में नकली कुंभ) के रूप में आयोजित किया जाने वाला है. यह इस बात का स्पष्ट प्रमाण है, कि ये लोग यहाँ की मूल संस्कृति के प्रति न तो पहले कभी ईमानदार रहे हैं, और न ही अब हैं.
    जहाँ तक भाषा की बात है, तो भाषा को तो कोई भी व्यक्ति कुछ दिन यहाँ रहकर सीख और बोल सकता है। हम कई एेसे लोगों को देख भी रहे हैं, जो यहाँ के मूल निवासियों से ज्यादा अच्छा छत्तीसगढ़ी बोलते हैं, लेकिन क्या वे यहाँ की संस्कृति को भी जीते हैं? उनके घरों में जाकर देखिए वे आज भी वहीं की संस्कृति को जीते हैं, जहाँ से आये थे। एेसे में उन्हें छत्तीसगढ़िया की श्रेणी में कैसे रखा जा सकता है ? एेसे लोग यहाँ की कुछ कला को जिसे मंच पर प्रस्तुत किया जाता है, उसे ही संस्कृति के रूप में प्रचारित कर लोगों को भ्रमित करने की कुचेष्ठा जरूर करते हैं। जबकि संस्कृति वह है, जिसे हम संस्कारों के रूप में जीते हैं, पर्वों के रूप में जीते हैं। मंच पर प्रदर्शित किया जाने वाला कोई भी मंचन केवल कला के अंतर्गत आता है, संस्कृति के अंतर्गत नहीं.
    आज की सबसे बड़ी आवश्यकता यह है, कि हम अपनी मूल संस्कृति को जानें, समझें, उसकी मूल रूप में पहचान कायम रखने का प्रयास करें और उसके नाम पर पाखण्ड करने वालों के नकाब भी नोचें। छत्तीसगढ़ी या छत्तीसगढ़िया आन्दोलन तब तक पूरा नहीं हो सकता, जब तक उसकी आत्मा अर्थात संस्कृति उसके साथ नहीं जुड़ जाती।

-सुशील भोले
संजय नगर, रायपुर (छ.ग.)
मो/व्हा.9826992811

No comments:

Post a Comment