Sunday 20 December 2020

कौशल्या जन्मभूमि...???

कौशल्या जन्मभूमि...???
  भगवान राम की माता कौशल्या की जन्मभूमि के नाम पर इन दिनों छत्तीसगढ़ की राजनीति गरमा गई है. कांग्रेस जहाँ राजधानी रायपुर  के पूर्व दिशा में लगभग 25 कि. मी. की दूरी पर स्थित ग्राम चंदखुरी, जहाँ विश्व का एकमात्र "कौशल्या मंदिर" है, जिसमें माता कौशल्या की गोद में भगवान राम बालक रूप में विराजित हैं, उसे ही जन्मभूमि के रूप में मानकर उस स्थल का विकास करना चाहती है, वहीं भाजपा के प्रदेश प्रवक्ता और और पूर्व संस्कृति मंत्री अजय चंद्राकर इस स्थल को केवल कौशल्या मंदिर होने और जन्मभूमि बिलासपुर जिला के ग्राम कोसला में होने का दावा कर रहे हैं. पूर्व मुख्यमंत्री डा. रमनसिंह भी अजय चंद्राकर के बयान के साथ खड़े हो गये हैं. इधर जोगी कांग्रेस ने भी इन दोनों ही पार्टियों को एक सप्ताह के अंदर प्रमाण प्रस्तुत करने की चेतावनी दे दी है.
   यहाँ यह जानना आवश्यक है, कि कौशल्या जन्मभूमि के रूप में यहाँ के विद्वान एकमत नहीं हैं. चंदखुरी को जन्मभूमि मानने वालों की संख्या तो ज्यादा ही है. इसके साथ ही ग्राम कोसला को मानने वाले भी कम संख्या में नहीं हैं. वहीँ कुछ विद्वान जांजगीर जिला के ग्राम कोसिर को भी कौशल्या जन्मभूमि होना मानते हैं. वहाँ स्थित "कोसिर माता" के मंदिर को कौशल्या बताने का प्रयास करते हैं. इनके अतिरिक्त कुछ विद्वानों का यह भी मत है, कि कौशल्या चूंकि दक्षिण कोसल की राजकन्या थी, तो उसका जन्म राजभवन में हुआ होगा, और चूंकि उस समय यहाँ की राजधानी श्रीपुर (सिरपुर) थी, तो कौशल्या का जन्म भी सिरपुर में ही हुआ होगा.
   जितने मत उतनी मान्यता. पर किसी के पास सर्व स्वीकृत प्रमाण नहीं है. किन्तु एक बात अवश्य है, कि चंदखुरी को स्वीकार करने वालों की संख्या निश्चित रूप से अधिक है. पूर्व के सरकार के समय बनी "राम वन गमन पथ शोध समिति" के सदस्य भी चंदखुरी को ही जन्मभूमि मानकर उस स्थल के विस्तार के लिए प्रयास करने का अनुरोध सरकार से किए थे.
  जहाँ तक मेरा व्यक्तिगत विचार है. मैं भी चंदखुरी को ही कौशल्या जन्मभूमि के रूप में स्वीकार करता हूँ. मैं उस समय से चंदखुरी स्थित कौशल्या मंदिर जा रहा हूँ, जब वह स्थल उजाड़ टापू की तरह दिखाई देता था. तब वहाँ तक जाने के लिए आज की तरह कोई पक्का मार्ग नहीं था, लोग तालाब में तैरकर वहाँ तक पहुंचते थे. नवरात्र के अवसर पर श्रद्धालुओं की बाहुल्यता को देखते हुए लकड़ी और बांस बल्लियों से चैलीनुमा अस्थायी मार्ग बना दिया जाता था.
   ग्राम चंदखुरी को देखकर एक बात तो स्पष्ट हो जाता है कि यह कोई ऐतिहासिक गाँव है. वहाँ पुरातात्विक महत्व के मंदिर और मूर्तियां, कारीगरी युक्त पत्थर अनेक स्थानों पर बिखरे हुए दिख जाते हैं, जो इस बात का अहसास कराते हैं, कि भले ही यह किसी राज्य की राजधानी न रहा हो,   किन्तु कोई प्राचीन ऐतिहासिक स्थल तो अवश्य ही है.
   कौशल्या मंदिर के संबंध में मेरा एक आलेख कुछ वर्ष पूर्व राष्ट्रीय स्तर पर प्रकाशित हुआ था. मेरे ब्लाग और फेसबुक पर भी रिलीज़ हुआ था. उसे पढ़कर राम जन्मभूमि समिति अयोध्या से जुड़े एक सदस्य मुझसे चंदखुरी मंदिर स्थल से जटायु समाधि की फोटो खिंचकर भेजने के लिए अनुरोध किए थे. तब तक मैं जटायु समाधि स्थल के संबंध में अपरिचित था. हाँ इतना अवश्य है कि जिस स्थल को जटायु समाधि बताया गया, वहाँ पर पहले एक बेर का पेड़ था, जिसके सहारे से लगा हुआ एक बड़ा सा पत्थर गड़ा हुआ था, जिसमें जटायु की आकृति अंकित थी. अभी दो-तीन वर्ष पूर्व और जाना हुआ, तब वहाँ रावण के राजवैद्य सुषैन की समाधि होने का भी ज्ञान हुआ. इसके संबंध में बताया गया कि लक्ष्मण जी को मूर्छा से बचाने के पश्चात सुषैन वैद्य वापस लंका न जाकर इधर आ गये थे, उन्हें डर था कि लक्ष्मण जी को मूर्छा से जागृत करने के कारण रावण या उसके अन्य कोई अनुयायी इन्हें जान से मार डालेंगे. इसलिए यहाँ आकर राजाश्रय मांगकर रहने लगे. कौशल्या मंदिर परिसर में एक लम्बा सा पत्थर का रखा हुआ है, इसे  ही सुषैन वैद्य का समाधि बताया जाता है. उसके संबंध में यह जन आस्था है कि उस स्थल की मिट्टी को लगाने से अनेक प्रकार के रोगों से मुक्ति मिल जाती है.
  एक प्रश्न मन में बार-बार उठ जाता है कि पंद्रह वर्षों तक यहाँ भाजपा की सरकार थी. अजय चंद्राकर जी स्वयं संस्कृति मंत्री रहे हैं, तब इस कौशल्या जन्मभूमि के विवाद को स्पष्ट कर ऐतिहासिक सच्चाई को प्रमाणित क्यों नहीं किया गया? अब विपक्ष में जाने के पश्चात ज्ञान चक्षु अचानक कैसे जागृत हो गया?
  आप इस पर क्या कहते हैं...???
-सुशील भोले-9826992811
संजय नगर, रायपुर

कौशल्या जन्मभूमि...???

कौशल्या जन्मभूमि...???
  भगवान राम की माता कौशल्या की जन्मभूमि के नाम पर इन दिनों छत्तीसगढ़ की राजनीति गरमा गई है. कांग्रेस जहाँ राजधानी रायपुर  के पूर्व दिशा में लगभग 25 कि. मी. की दूरी पर स्थित ग्राम चंदखुरी, जहाँ विश्व का एकमात्र "कौशल्या मंदिर" है, जिसमें माता कौशल्या की गोद में भगवान राम बालक रूप में विराजित हैं, उसे ही जन्मभूमि के रूप में मानकर उस स्थल का विकास करना चाहती है, वहीं भाजपा के प्रदेश प्रवक्ता और और पूर्व संस्कृति मंत्री अजय चंद्राकर इस स्थल को केवल कौशल्या मंदिर होने और जन्मभूमि बिलासपुर जिला के ग्राम कोसला में होने का दावा कर रहे हैं. पूर्व मुख्यमंत्री डा. रमनसिंह भी अजय चंद्राकर के बयान के साथ खड़े हो गये हैं. इधर जोगी कांग्रेस ने भी इन दोनों ही पार्टियों को एक सप्ताह के अंदर प्रमाण प्रस्तुत करने की चेतावनी दे दी है.
   यहाँ यह जानना आवश्यक है, कि कौशल्या जन्मभूमि के रूप में यहाँ के विद्वान एकमत नहीं हैं. चंदखुरी को जन्मभूमि मानने वालों की संख्या तो ज्यादा ही है. इसके साथ ही ग्राम कोसला को मानने वाले भी कम संख्या में नहीं हैं. वहीँ कुछ विद्वान जांजगीर जिला के ग्राम कोसिर को भी कौशल्या जन्मभूमि होना मानते हैं. वहाँ स्थित "कोसिर माता" के मंदिर को कौशल्या बताने का प्रयास करते हैं. इनके अतिरिक्त कुछ विद्वानों का यह भी मत है, कि कौशल्या चूंकि दक्षिण कोसल की राजकन्या थी, तो उसका जन्म राजभवन में हुआ होगा, और चूंकि उस समय यहाँ की राजधानी श्रीपुर (सिरपुर) थी, तो कौशल्या का जन्म भी सिरपुर में ही हुआ होगा.
   जितने मत उतनी मान्यता. पर किसी के पास सर्व स्वीकृत प्रमाण नहीं है. किन्तु एक बात अवश्य है, कि चंदखुरी को स्वीकार करने वालों की संख्या निश्चित रूप से अधिक है. पूर्व के सरकार के समय बनी "राम वन गमन पथ शोध समिति" के सदस्य भी चंदखुरी को ही जन्मभूमि मानकर उस स्थल के विस्तार के लिए प्रयास करने का अनुरोध सरकार से किए थे.
  जहाँ तक मेरा व्यक्तिगत विचार है. मैं भी चंदखुरी को ही कौशल्या जन्मभूमि के रूप में स्वीकार करता हूँ. मैं उस समय से चंदखुरी स्थित कौशल्या मंदिर जा रहा हूँ, जब वह स्थल उजाड़ टापू की तरह दिखाई देता था. तब वहाँ तक जाने के लिए आज की तरह कोई पक्का मार्ग नहीं था, लोग तालाब में तैरकर वहाँ तक पहुंचते थे. नवरात्र के अवसर पर श्रद्धालुओं की बाहुल्यता को देखते हुए लकड़ी और बांस बल्लियों से चैलीनुमा अस्थायी मार्ग बना दिया जाता था.
   ग्राम चंदखुरी को देखकर एक बात तो स्पष्ट हो जाता है कि यह कोई ऐतिहासिक गाँव है. वहाँ पुरातात्विक महत्व के मंदिर और मूर्तियां, कारीगरी युक्त पत्थर अनेक स्थानों पर बिखरे हुए दिख जाते हैं, जो इस बात का अहसास कराते हैं, कि भले ही यह किसी राज्य की राजधानी न रहा हो,   किन्तु कोई प्राचीन ऐतिहासिक स्थल तो अवश्य ही है.
   कौशल्या मंदिर के संबंध में मेरा एक आलेख कुछ वर्ष पूर्व राष्ट्रीय स्तर पर प्रकाशित हुआ था. मेरे ब्लाग और फेसबुक पर भी रिलीज़ हुआ था. उसे पढ़कर राम जन्मभूमि समिति अयोध्या से जुड़े एक सदस्य मुझसे चंदखुरी मंदिर स्थल से जटायु समाधि की फोटो खिंचकर भेजने के लिए अनुरोध किए थे. तब तक मैं जटायु समाधि स्थल के संबंध में अपरिचित था. हाँ इतना अवश्य है कि जिस स्थल को जटायु समाधि बताया गया, वहाँ पर पहले एक बेर का पेड़ था, जिसके सहारे से लगा हुआ एक बड़ा सा पत्थर गड़ा हुआ था, जिसमें जटायु की आकृति अंकित थी. अभी दो-तीन वर्ष पूर्व और जाना हुआ, तब वहाँ रावण के राजवैद्य सुषैन की समाधि होने का भी ज्ञान हुआ. इसके संबंध में बताया गया कि लक्ष्मण जी को मूर्छा से बचाने के पश्चात सुषैन वैद्य वापस लंका न जाकर इधर आ गये थे, उन्हें डर था कि लक्ष्मण जी को मूर्छा से जागृत करने के कारण रावण या उसके अन्य कोई अनुयायी इन्हें जान से मार डालेंगे. इसलिए यहाँ आकर राजाश्रय मांगकर रहने लगे. कौशल्या मंदिर परिसर में एक लम्बा सा पत्थर का रखा हुआ है, इसे  ही सुषैन वैद्य का समाधि बताया जाता है. उसके संबंध में यह जन आस्था है कि उस स्थल की मिट्टी को लगाने से अनेक प्रकार के रोगों से मुक्ति मिल जाती है.
  एक प्रश्न मन में बार-बार उठ जाता है कि पंद्रह वर्षों तक यहाँ भाजपा की सरकार थी. अजय चंद्राकर जी स्वयं संस्कृति मंत्री रहे हैं, तब इस कौशल्या जन्मभूमि के विवाद को स्पष्ट कर ऐतिहासिक सच्चाई को प्रमाणित क्यों नहीं किया गया? अब विपक्ष में जाने के पश्चात ज्ञान चक्षु अचानक कैसे जागृत हो गया?
  आप इस पर क्या कहते हैं...???
-सुशील भोले-9826992811
संजय नगर, रायपुर

Wednesday 2 December 2020

अगहन बिरस्पत....

अगहन बिरस्पत म होथे लक्ष्मी दाई के बासा...
    कार्तिक पुन्नी के बिहान दिन ले अगहन महीना लगथे। अउ अगहन महीना मा जउन दिन बिरस्पत परथे उही दिन हमर छत्तीसगढ़ म घरो घर अगहन बिरस्पत के परब ल बड़ उछाह ले मनाए जाथे। गजब मान गौन के संग लक्ष्मी दाई के पूजा करथें।
   एकर तैयारी बुधवार के संझा बेरा ले घर के साफ सफाई, अँगना परछी कुरिया के लिपाई। घर के मुहाटी मा सुघर चउँक पुरके माईलोगिन  मन बने चउंक पुरथें, रंगोली बनाथें। लक्ष्मी दाई ल जेन जगा स्थापित करथें उहू जगा ला सफ्फा करके चाउँर पिसान ला घोर के चउँक पुरथें घर के चारों मुड़ा के साफ सफाई करके लक्ष्मी दाई के स्थापना करथें। सुघर आमा पान, फूल पान, नरियर, आँवला फल, आँवला पत्ती, केरा पत्ता,
अउ कंद मूल जिमी काँदा, धान के बाली मा सजा के कलश के स्थापना करथें। अउ बुधवारेच के रतिहा म सबो जूठा बरतन भाड़ा ला माँज धो के रखथें. घर मुहाटी ले लक्ष्मी दाई के वास (स्स्थापना स्थल) तक चाउँर पिसान के सुघर पांव के छापा बनाथें। राते मा माता करा दीया बार के रखथें।
    बिरस्पत के मुँधरहा ले घर के माईलोगिन मन उठ जाथें, नहा धोके घर के दुवारी, रंगोली अउ तुलसी चौंरा मा दीया बारथें। दीया बार के घर के दरवाजा ला खुल्ला राखथें। जेन हा दिन भर खुलेच रहिथे। पूजा पाठ करके माईलोगिन मन उपास घलो रहिथें अउ लक्ष्मी दाई के ध्यान मा मगन रहिथें।
    ये पूजा के एक ठन अउ खास बात हवय, बुधवारे के दिन महिला मन अपन अपन घर मा सबो मनखे ला चेता के रखे रहिथे आज चुंदी, नाखून नइ कटाना हे, साबुन से नहाना नइ हे, बाल नइ धोना हे, पइसा खरचा भी नइ करना हे, कपड़ा लत्ता धोय के मनाही हे कहिके चेताँय रहिथें। माने भारी नियम धियम माने बर परथे। माईलोगिन मन सुघर नवा नवा लुगरा पहिन के टिकली, माँहुर, काजर आँज अपन आप ला सुंदर अउ स्वच्छ बनाय रखथें। ये दिन पीला फल, पीला कपड़ा,  पीला भोग के बड़ महत्व रहिथे। दान मा केला फल, भोग मा चना के दाल ला बड़ शुभदायी मानथे।
     पौराणिक मान्यता के अनुसार कार्तिक पुन्नी के साथे मा अगहन के शुरुआत हो जथे, माईलोगिन मन अपन घर के सुख समृद्धि अउ यश, धन खातिर माता लक्ष्मी के आराधना करथें। येकर पीछू मान्यता इही हे के माता लक्ष्मी अगहन महीना मा क्षीरसागर ले निकल के पृथ्वी लोक मा विचरण करत रहिथें। जेन मन धरम करम से माता के पूजा पाठ करथें तेकर घर आके वोहा वास करथे। अउ ओकर घर मा सुख, शाँति, समृद्धि अउ ऐश्वर्य के वास हो जथे। इही मान्यता खातिर ये तिहार ला हमर छत्तीसगढ़ म घलो नियम धियम अउ पारंपरिक रूप ले मनाये जाथे। ये दिन लक्ष्मी पूजा के संगे-संग सुरुज देवता के पूजा, शंख के पूजा ल भारी फलदायी मानथें। अइसे मान्यता हावय सुरुज देव के किरण हा कीटाणु ला नष्ट कर देथे अउ शरीर ला निरोग बनाथे। तेकर सेती सब बिहनिया बिहनिया जल चढ़ाके आशीष माँगथें।
एक उछाह अउ बिश्वास के साथ अगहन बिरस्पत के परब ल महिला मन बड़ ऊर्जा अउ धरम करम अउ संयमित रहिके मनाथें।
बोलो अगहन बिरस्पत की जय
लक्ष्मी दाई के जय🙏
सुशील भोले-9826992811

Tuesday 24 November 2020

संविधान दिवस...

संविधान दिवस की हार्दिक बधाई.....
आजादी मिलते ही देश को चलाने के लिए संविधान बनाने की दिशा में काम शुरू कर दिया गया। इसी कड़ी में 29 अगस्त 1947 को भारतीय संविधान के निर्माण के लिए प्रारूप समिति की स्थापना की गई और इसके अध्यक्ष के रूप में डॉ. भीमराव अंबेडकर को जिम्मेदारी सौंपी गई। दुनिया भर के तमाम संविधानों को बारीकी से देखने-परखने के बाद डॉ. अंबेडकर ने भारतीय संविधान का मसौदा तैयार कर लिया। 26 नवंबर 1949 को इसे भारतीय संविधान सभा के समक्ष लाया गया। इसी दिन संविधान सभा ने इसे अपना लिया। यही वजह है कि देश में हर साल 26 नवंबर को संविधान दिवस के रूप में मनाया जाता है।
आज यानी 26 नवंबर हमारे संविधान को अंगीकर करने की सालगिरह है। इस अवसर पर आप सभी को हार्दिक बधाई 🌹🌹🌹

सबसे बड़ा लिखित संविधान:-
भारत का संविधान दुनिया का सबसे बड़ा लिखित संविधान है। इसी आधार पर भारत को दुनिया का सबसे बड़ा गणतंत्र कहा जाता है। भारतीय संविधान में 448 अनुच्छेद, 12 अनुसूचियां शामिल हैं। यह 2 साल 11 महीने 18 दिन में बनकर तैयार हुआ था। जनवरी 1948 में संविधान का पहला प्रारूप चर्चा के लिए प्रस्तुत किया गया। 4 नवंबर 1948 से शुरू हुई यह चर्चा तकरीबन 32 दिनों तक चली थी। इस अवधि के दौरान 7,635 संशोधन प्रस्तावित किए गए जिनमें से 2,473 पर विस्तार से चर्चा हुई।

26 नवंबर 1949 को लागू होने के बाद संविधान सभा के 284 सदस्यों मे 24 जनवरी 1950 को संविधान पर हस्ताक्षर किए। इसके बाद 26 जनवरी को इसे लागू कर दिया गया। बताते हैं कि जिस दिन संविधान पर हस्ताक्षर हो रहे थे उस दिन खूब जोर की बारिश हो रही थी। इसे शुभ संकेत के तौर पर माना गया।

भारतीय संविधान की मूल प्रति हिंदी और अंग्रेजी दोनों में ही हस्तलिखित थी। इसमें टाइपिंग या प्रिंट का इस्तेमाल नहीं किया गया था। दोनों ही भाषाओं में संविधान की मूल प्रति को प्रेम बिहारी नारायण रायजादा ने लिखा था। रायजादा का खानदानी पेशा कैलिग्राफी का था। उन्होंने नंबर 303 के 254 पेन होल्डर निब का इस्तेमाल कर संविधान के हर पेज को बेहद खूबसूरत इटैलिक लिखावट में लिखा है। इसे लिखने में उन्हें 6 महीने लगे थे। जब उनसे मेहनताना पूछा गया था तो उन्होंने कुछ भी लेने से इनकार कर दिया था। उन्होंने सिर्फ एक शर्त रखी कि संविधान के हर पृष्ठ पर वह अपना नाम लिखेंगे और अंतिम पेज पर अपने नाम के साथ अपने दादा का भी नाम लिखेंगे।

भारतीय संविधान के हर पेज को चित्रों से आचार्य नंदलाल बोस ने सजाया है। इसके अलावा इसके प्रस्तावना पेज को सजाने का काम राममनोहर सिन्हा ने किया है। वह नंदलाल बोस के ही शिष्य थे। संविधान की मूल प्रति भारतीय संसद की लाइब्रेरी में हीलियम से भरे केस में रखी गई है.

Sunday 22 November 2020

कोसमनारा के तपस्वी बाबा सत्यनारायण...

कोसमनारा के तपस्वी  बाबा सत्यनारायण ...
तपस्यारत 16 फरवरी 1998 से

       शास्त्रों में ऋषि मुनियों की 15-20 साल जंगलों, पहाड़ों और कंदराओं में कठोर तपस्या करने का वर्णन मिलता है। साधारण तौर पर लोग इसे काल्पनिक कथा कहानियां ही समझते हैं,  पर छतीसगढ़ के लोग नहीं।

          छत्तीसगढ़ के रायगढ़ जिला मुख्यालय में 16 फरवरी 1998 से तपस्या में लीन बाबा सत्यनारायण को यह हठ योग करते 22 वर्ष बीत गए। रायगढ़ में गर्मी के मौसम में तापमान 49 डिग्री तक पहुँचता है। ऐसे गर्म मौसम सहित भीषण ठंड और भरी बरसात में बिना छत के हठ योग में विराजे बाबाजी का दर्शन कर लेना ही अपने आप में सम्पूर्ण तीर्थ के समान है। बाबा कब क्या खाते हैं, कब समाधि से उठते हैं, किसी को पता नहीं। भोजन करते किसी ने नहीं देखा। जीवन किसी काल्पनिक कथा सा लगता है।
      कोसमनारा से 19 किलोमीटर दूर देवरी, डूमरपाली में एक साधारण किसान दयानिधि साहू एवं हँसमती साहू के परिवार में 12 जुलाई 1984 को अवतरित हुए बाबाजी बचपन से ही आध्यात्मिक बालक थे। एक बार गांव के ही तालाब के बगल में स्थित शिव मंदिर में वो लगातार 7 दिनों तक तपस्या करते रहे। माँ बाप और गांव वालों की समझाइश पर वो घर लौटे तो जरूर मगर एक तरह से स्वयम शिव जी उनके भीतर विराज चुके थे।
        14 साल की उम्र में एक दिन वे स्कूल के लिए बस्ता ले कर निकले मगर स्कूल नहीं गए। बाबाजी सफेद शर्ट और खाकी हाफ पैंट के स्कूल ड्रेस में ही रायगढ़ की ओर रवाना हो गए। अपने गांव से 19 किलोमीटर दूर और रायगढ़ से सट कर स्थित कोसमनारा वो पैदल ही पहुंचे। कोसमनारा गांव से कुछ दूर पर एक बंजर जमीन में उन्होंने कुछ पत्थरों   को इकट्ठा कर शिवलिंग का रूप दिया और अपनी जीभ काट कर उन्हें समर्पित कर दी। कुछ दिन तक तो किसी को पता नहीं चला मगर फिर जंगल में आग की तरह खबर फैलती चली गई और लोगों का हुजूम वहां पहुचने लगा। कुछ लोगों ने बालक बाबा की निगरानी भी की मगर बाबा जी तपस्या में जो लीन हुए तो आज तक उसी जगह पर हठ योग में लीन हैं। मां बाप ने बचपन में नाम दिया था हलधर...  पिता प्यार से सत्यम कह कर बुलाते थे। उनके हठयोग को देख कर लोगों ने नाम दे दिया "बाबा सत्य नारायण"..। बाबा बात नहीं करते .. मगर जब ध्यान तोड़ते हैं तो भक्तों से इशारे में ही संवाद कर लेते हैं। रायगढ़ की धरा को तीर्थ स्थल बनाने वाले बाबा सत्यनारायण के दर्शन करने वाले भक्तों के लिए अब कोसमनारा में लगभग हर व्यवस्था है, किंतु बाबा ने खुद के सर पर छांव करने से भी मना किया हुआ है। आज भी बाबा जी का कठोर तप जारी है....

तपस्वी स्वामी श्री श्री सत्यनारायण बाबा जी की जय , उनके श्री चरणों में कोटि-कोटि सादर प्रणाम 🙏🙏

Friday 20 November 2020

शिवलिंग की पूजा पहले किसने की..

शिवलिंग की सबसे पहले पूजा किसने की और इसकी स्थापना किसने की?

हिन्दू धर्म में ज्यादातर देव-देवताओं की पूजा  मूर्ति के रूप में की जाती हैं, लेकिन भगवान भोलेनाथ ऐसे हैं जिनकी पूजा शिवलिंग के रूप में करने का विधान है। आइये जानते हैं शिवलिंग की पूजा करने की शुरुवात कैसे हुई? सबसे पहले शिवलिंग की पूजा किसने की? इन सभी तथ्यों का वर्णन "लिंगमहापुराण" में मिलता हैं।

सबसे पहले शिवलिंग की स्थापना की कथा :-

लिंगमहापुराण के अनुसार एक बार भगवान विष्णु और ब्रह्माजी दोनों में स्वयं को श्रेष्ठ बताने को लेकर विवाद उत्पन्न हो गया। जब दोनों का विवाद बहुत ज्यादा बढ़ गया तो अग्नि से लिपटा हुआ एक लिंग, वहीँ पर प्रगट हो गया।

यह लिंग ब्रह्मा जी और भगवान विष्णु जी के बीच में आकर स्थापित हो गया। दोनों ही देव इस अग्नि रुपी लिंग के रहस्य को समझ पाने में सक्षम नहीं थे। तभी उन्होंने निर्णय लिया की दोनों में से सबसे पहले जो इस अग्नि ज्वलित लिंग के स्रोत का पता पहले लगा लेगा, वहीँ उन दोनों में श्रेष्ठ होगा।

इस तरह भगवान विष्णु लिंग के निचे की ओर जाने लगे और ब्रह्मा जी लिंग के उपर की दिशा की जाने लग गये।

हज़ारों वर्षों तक खोज करने के पश्चात भी वह इसके मुख्य स्रोत का पता लगाने में विफल हो गये। परन्तु ब्रह्मा जी ने भगवान विष्णु से आकर यह कहा की उन्होंने इसके स्रोत का पता लगा लिया है और केतकी के फूल को इसका प्रमाण बताया और केतकी के फूल ने भी ब्रह्माजी के झूठ में साथ दिया।

इस बात को भगवान विष्णु जी ने सत्य मान लिया, और तभी उस लिंग से ॐ की ध्वनी सुनाई दी और फिर साक्षात भगवान शिव प्रगट हुए। वह ब्रह्माजी पर काफी ज्यादा क्रोधित हुए, क्योंकि ब्रह्माजी ने झूठ बोला था। इसके अलावा भगवान शंकर ने केतकी के फूल को श्राप दिया की वह कभी भी उसे अपनी पूजा में स्वीकार नहीं करेंगे, इसलिए भगवान शिव को केतकी का फूल नहीं चढ़ाना चाहिए।

साथ ही भगवान शंकर ने भगवान विष्णु पर प्रसन्न होकर उन्हें अपना ही रूप माना। यानी की हरी ही हर हैं और हर ही हरी हैं।

फिर ब्रह्माजी और भगवान विष्णु दोनों ही ॐ स्वर का जाप करने लगे। श्रृष्टिकर्ता ब्रह्मा जी और भगवान विष्णु जी अराधना करने लगे और इस पर भगवान शंकर उनकी तपस्या से प्रसन्न हो कर शिवलिंग के रूप में प्रगट हुए। लिंगमहापुराण के अनुसार वह भगवान शिव का पहला शिवलिंग था।

सर्वप्रथम श्रृष्टिकर्ता ब्रह्मा जी और पालनहार भगवान विष्णु ने ही किया था शिवलिंग का पूजन :-

जब भगवान शंकर वहां से अन्तर्धान हो गये तो वहा पर वह शिवलिंग के रूप में स्थापित हो गये। तब श्रृष्टिकर्ता ब्रह्मा जी और भगवान विष्णु ने शिव के उस लिंग की पूजा की। उसी समय से भगवान शंकर को शिवलिंग के रूप में पूजा जाने लगा।

देव शिल्पी विश्वकर्मा जी ने विभिन्न देवी-देवताओं के लिए विभिन्न शिवलिंग का किया निर्माण :-

लिंगमहापुराण के अनुसार सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी ने देव शिल्पी विश्वकर्मा जी को विभिन्न देवी-देवताओं के लिए अलग-अलग धातु से शिवलिंग बना कर देने के लिए आदेश दिया। फिर देव शिल्पी विश्वकर्मा ने अलग-अलग देवताओं के लिए अलग-अलग प्रकार के शिवलिंग का निर्माण किया जो की इस प्रकार से हैं :-

■ इन्द्रलोक में सभी देवताओं के लिए चांदी का शिवलिंग बनाया गया।

■ भगवान विष्णु के लिए नीलकान्तमणि शिवलिंग का निर्माण किया गया।

■ देवी लक्ष्मी जी के लिए लक्ष्मीवृक्ष (बेल) से शिवलिंग को बनाया गया।

■ देवी सरस्वती जी के लिए रत्नों से शिवलिंग का निर्माण किया गया।

■ रुद्रों को जल से बने शिवलिंग प्रदान किये गये।

■ राक्षसों और दैत्यों के लिए लोहे के बने शिवलिंग प्रदान किये गये।

■ वायु देव को पीतल की धातु से बना शिवलिंग दिया गया।

■ वरुण देव के लिए स्फटिक से शिवलिंग का निर्माण किया गया।

■ सभी देवियों को पूजा करने के लिए बालू से बनाया गया शिवलिंग भेंट किया गया।

■ धन के देवता कुबेर जी के पुत्र विश्रवा को सोने से निर्मित शिवलिंग दिया गया।

■ आदित्यों को तांबे के धातु से बना शिवलिंग प्रदान किया गया।

■ वसुओं को चंद्रकान्तमणि से बना हुआ शिवलिंग प्रदान किया गया।

■ अश्वनीकुमारों को मिट्टी का बना शिवलिंग दिया गया।
("लिंगमहापुराण " से साभार)