Tuesday 24 November 2020

संविधान दिवस...

संविधान दिवस की हार्दिक बधाई.....
आजादी मिलते ही देश को चलाने के लिए संविधान बनाने की दिशा में काम शुरू कर दिया गया। इसी कड़ी में 29 अगस्त 1947 को भारतीय संविधान के निर्माण के लिए प्रारूप समिति की स्थापना की गई और इसके अध्यक्ष के रूप में डॉ. भीमराव अंबेडकर को जिम्मेदारी सौंपी गई। दुनिया भर के तमाम संविधानों को बारीकी से देखने-परखने के बाद डॉ. अंबेडकर ने भारतीय संविधान का मसौदा तैयार कर लिया। 26 नवंबर 1949 को इसे भारतीय संविधान सभा के समक्ष लाया गया। इसी दिन संविधान सभा ने इसे अपना लिया। यही वजह है कि देश में हर साल 26 नवंबर को संविधान दिवस के रूप में मनाया जाता है।
आज यानी 26 नवंबर हमारे संविधान को अंगीकर करने की सालगिरह है। इस अवसर पर आप सभी को हार्दिक बधाई 🌹🌹🌹

सबसे बड़ा लिखित संविधान:-
भारत का संविधान दुनिया का सबसे बड़ा लिखित संविधान है। इसी आधार पर भारत को दुनिया का सबसे बड़ा गणतंत्र कहा जाता है। भारतीय संविधान में 448 अनुच्छेद, 12 अनुसूचियां शामिल हैं। यह 2 साल 11 महीने 18 दिन में बनकर तैयार हुआ था। जनवरी 1948 में संविधान का पहला प्रारूप चर्चा के लिए प्रस्तुत किया गया। 4 नवंबर 1948 से शुरू हुई यह चर्चा तकरीबन 32 दिनों तक चली थी। इस अवधि के दौरान 7,635 संशोधन प्रस्तावित किए गए जिनमें से 2,473 पर विस्तार से चर्चा हुई।

26 नवंबर 1949 को लागू होने के बाद संविधान सभा के 284 सदस्यों मे 24 जनवरी 1950 को संविधान पर हस्ताक्षर किए। इसके बाद 26 जनवरी को इसे लागू कर दिया गया। बताते हैं कि जिस दिन संविधान पर हस्ताक्षर हो रहे थे उस दिन खूब जोर की बारिश हो रही थी। इसे शुभ संकेत के तौर पर माना गया।

भारतीय संविधान की मूल प्रति हिंदी और अंग्रेजी दोनों में ही हस्तलिखित थी। इसमें टाइपिंग या प्रिंट का इस्तेमाल नहीं किया गया था। दोनों ही भाषाओं में संविधान की मूल प्रति को प्रेम बिहारी नारायण रायजादा ने लिखा था। रायजादा का खानदानी पेशा कैलिग्राफी का था। उन्होंने नंबर 303 के 254 पेन होल्डर निब का इस्तेमाल कर संविधान के हर पेज को बेहद खूबसूरत इटैलिक लिखावट में लिखा है। इसे लिखने में उन्हें 6 महीने लगे थे। जब उनसे मेहनताना पूछा गया था तो उन्होंने कुछ भी लेने से इनकार कर दिया था। उन्होंने सिर्फ एक शर्त रखी कि संविधान के हर पृष्ठ पर वह अपना नाम लिखेंगे और अंतिम पेज पर अपने नाम के साथ अपने दादा का भी नाम लिखेंगे।

भारतीय संविधान के हर पेज को चित्रों से आचार्य नंदलाल बोस ने सजाया है। इसके अलावा इसके प्रस्तावना पेज को सजाने का काम राममनोहर सिन्हा ने किया है। वह नंदलाल बोस के ही शिष्य थे। संविधान की मूल प्रति भारतीय संसद की लाइब्रेरी में हीलियम से भरे केस में रखी गई है.

Sunday 22 November 2020

कोसमनारा के तपस्वी बाबा सत्यनारायण...

कोसमनारा के तपस्वी  बाबा सत्यनारायण ...
तपस्यारत 16 फरवरी 1998 से

       शास्त्रों में ऋषि मुनियों की 15-20 साल जंगलों, पहाड़ों और कंदराओं में कठोर तपस्या करने का वर्णन मिलता है। साधारण तौर पर लोग इसे काल्पनिक कथा कहानियां ही समझते हैं,  पर छतीसगढ़ के लोग नहीं।

          छत्तीसगढ़ के रायगढ़ जिला मुख्यालय में 16 फरवरी 1998 से तपस्या में लीन बाबा सत्यनारायण को यह हठ योग करते 22 वर्ष बीत गए। रायगढ़ में गर्मी के मौसम में तापमान 49 डिग्री तक पहुँचता है। ऐसे गर्म मौसम सहित भीषण ठंड और भरी बरसात में बिना छत के हठ योग में विराजे बाबाजी का दर्शन कर लेना ही अपने आप में सम्पूर्ण तीर्थ के समान है। बाबा कब क्या खाते हैं, कब समाधि से उठते हैं, किसी को पता नहीं। भोजन करते किसी ने नहीं देखा। जीवन किसी काल्पनिक कथा सा लगता है।
      कोसमनारा से 19 किलोमीटर दूर देवरी, डूमरपाली में एक साधारण किसान दयानिधि साहू एवं हँसमती साहू के परिवार में 12 जुलाई 1984 को अवतरित हुए बाबाजी बचपन से ही आध्यात्मिक बालक थे। एक बार गांव के ही तालाब के बगल में स्थित शिव मंदिर में वो लगातार 7 दिनों तक तपस्या करते रहे। माँ बाप और गांव वालों की समझाइश पर वो घर लौटे तो जरूर मगर एक तरह से स्वयम शिव जी उनके भीतर विराज चुके थे।
        14 साल की उम्र में एक दिन वे स्कूल के लिए बस्ता ले कर निकले मगर स्कूल नहीं गए। बाबाजी सफेद शर्ट और खाकी हाफ पैंट के स्कूल ड्रेस में ही रायगढ़ की ओर रवाना हो गए। अपने गांव से 19 किलोमीटर दूर और रायगढ़ से सट कर स्थित कोसमनारा वो पैदल ही पहुंचे। कोसमनारा गांव से कुछ दूर पर एक बंजर जमीन में उन्होंने कुछ पत्थरों   को इकट्ठा कर शिवलिंग का रूप दिया और अपनी जीभ काट कर उन्हें समर्पित कर दी। कुछ दिन तक तो किसी को पता नहीं चला मगर फिर जंगल में आग की तरह खबर फैलती चली गई और लोगों का हुजूम वहां पहुचने लगा। कुछ लोगों ने बालक बाबा की निगरानी भी की मगर बाबा जी तपस्या में जो लीन हुए तो आज तक उसी जगह पर हठ योग में लीन हैं। मां बाप ने बचपन में नाम दिया था हलधर...  पिता प्यार से सत्यम कह कर बुलाते थे। उनके हठयोग को देख कर लोगों ने नाम दे दिया "बाबा सत्य नारायण"..। बाबा बात नहीं करते .. मगर जब ध्यान तोड़ते हैं तो भक्तों से इशारे में ही संवाद कर लेते हैं। रायगढ़ की धरा को तीर्थ स्थल बनाने वाले बाबा सत्यनारायण के दर्शन करने वाले भक्तों के लिए अब कोसमनारा में लगभग हर व्यवस्था है, किंतु बाबा ने खुद के सर पर छांव करने से भी मना किया हुआ है। आज भी बाबा जी का कठोर तप जारी है....

तपस्वी स्वामी श्री श्री सत्यनारायण बाबा जी की जय , उनके श्री चरणों में कोटि-कोटि सादर प्रणाम 🙏🙏

Friday 20 November 2020

शिवलिंग की पूजा पहले किसने की..

शिवलिंग की सबसे पहले पूजा किसने की और इसकी स्थापना किसने की?

हिन्दू धर्म में ज्यादातर देव-देवताओं की पूजा  मूर्ति के रूप में की जाती हैं, लेकिन भगवान भोलेनाथ ऐसे हैं जिनकी पूजा शिवलिंग के रूप में करने का विधान है। आइये जानते हैं शिवलिंग की पूजा करने की शुरुवात कैसे हुई? सबसे पहले शिवलिंग की पूजा किसने की? इन सभी तथ्यों का वर्णन "लिंगमहापुराण" में मिलता हैं।

सबसे पहले शिवलिंग की स्थापना की कथा :-

लिंगमहापुराण के अनुसार एक बार भगवान विष्णु और ब्रह्माजी दोनों में स्वयं को श्रेष्ठ बताने को लेकर विवाद उत्पन्न हो गया। जब दोनों का विवाद बहुत ज्यादा बढ़ गया तो अग्नि से लिपटा हुआ एक लिंग, वहीँ पर प्रगट हो गया।

यह लिंग ब्रह्मा जी और भगवान विष्णु जी के बीच में आकर स्थापित हो गया। दोनों ही देव इस अग्नि रुपी लिंग के रहस्य को समझ पाने में सक्षम नहीं थे। तभी उन्होंने निर्णय लिया की दोनों में से सबसे पहले जो इस अग्नि ज्वलित लिंग के स्रोत का पता पहले लगा लेगा, वहीँ उन दोनों में श्रेष्ठ होगा।

इस तरह भगवान विष्णु लिंग के निचे की ओर जाने लगे और ब्रह्मा जी लिंग के उपर की दिशा की जाने लग गये।

हज़ारों वर्षों तक खोज करने के पश्चात भी वह इसके मुख्य स्रोत का पता लगाने में विफल हो गये। परन्तु ब्रह्मा जी ने भगवान विष्णु से आकर यह कहा की उन्होंने इसके स्रोत का पता लगा लिया है और केतकी के फूल को इसका प्रमाण बताया और केतकी के फूल ने भी ब्रह्माजी के झूठ में साथ दिया।

इस बात को भगवान विष्णु जी ने सत्य मान लिया, और तभी उस लिंग से ॐ की ध्वनी सुनाई दी और फिर साक्षात भगवान शिव प्रगट हुए। वह ब्रह्माजी पर काफी ज्यादा क्रोधित हुए, क्योंकि ब्रह्माजी ने झूठ बोला था। इसके अलावा भगवान शंकर ने केतकी के फूल को श्राप दिया की वह कभी भी उसे अपनी पूजा में स्वीकार नहीं करेंगे, इसलिए भगवान शिव को केतकी का फूल नहीं चढ़ाना चाहिए।

साथ ही भगवान शंकर ने भगवान विष्णु पर प्रसन्न होकर उन्हें अपना ही रूप माना। यानी की हरी ही हर हैं और हर ही हरी हैं।

फिर ब्रह्माजी और भगवान विष्णु दोनों ही ॐ स्वर का जाप करने लगे। श्रृष्टिकर्ता ब्रह्मा जी और भगवान विष्णु जी अराधना करने लगे और इस पर भगवान शंकर उनकी तपस्या से प्रसन्न हो कर शिवलिंग के रूप में प्रगट हुए। लिंगमहापुराण के अनुसार वह भगवान शिव का पहला शिवलिंग था।

सर्वप्रथम श्रृष्टिकर्ता ब्रह्मा जी और पालनहार भगवान विष्णु ने ही किया था शिवलिंग का पूजन :-

जब भगवान शंकर वहां से अन्तर्धान हो गये तो वहा पर वह शिवलिंग के रूप में स्थापित हो गये। तब श्रृष्टिकर्ता ब्रह्मा जी और भगवान विष्णु ने शिव के उस लिंग की पूजा की। उसी समय से भगवान शंकर को शिवलिंग के रूप में पूजा जाने लगा।

देव शिल्पी विश्वकर्मा जी ने विभिन्न देवी-देवताओं के लिए विभिन्न शिवलिंग का किया निर्माण :-

लिंगमहापुराण के अनुसार सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी ने देव शिल्पी विश्वकर्मा जी को विभिन्न देवी-देवताओं के लिए अलग-अलग धातु से शिवलिंग बना कर देने के लिए आदेश दिया। फिर देव शिल्पी विश्वकर्मा ने अलग-अलग देवताओं के लिए अलग-अलग प्रकार के शिवलिंग का निर्माण किया जो की इस प्रकार से हैं :-

■ इन्द्रलोक में सभी देवताओं के लिए चांदी का शिवलिंग बनाया गया।

■ भगवान विष्णु के लिए नीलकान्तमणि शिवलिंग का निर्माण किया गया।

■ देवी लक्ष्मी जी के लिए लक्ष्मीवृक्ष (बेल) से शिवलिंग को बनाया गया।

■ देवी सरस्वती जी के लिए रत्नों से शिवलिंग का निर्माण किया गया।

■ रुद्रों को जल से बने शिवलिंग प्रदान किये गये।

■ राक्षसों और दैत्यों के लिए लोहे के बने शिवलिंग प्रदान किये गये।

■ वायु देव को पीतल की धातु से बना शिवलिंग दिया गया।

■ वरुण देव के लिए स्फटिक से शिवलिंग का निर्माण किया गया।

■ सभी देवियों को पूजा करने के लिए बालू से बनाया गया शिवलिंग भेंट किया गया।

■ धन के देवता कुबेर जी के पुत्र विश्रवा को सोने से निर्मित शिवलिंग दिया गया।

■ आदित्यों को तांबे के धातु से बना शिवलिंग प्रदान किया गया।

■ वसुओं को चंद्रकान्तमणि से बना हुआ शिवलिंग प्रदान किया गया।

■ अश्वनीकुमारों को मिट्टी का बना शिवलिंग दिया गया।
("लिंगमहापुराण " से साभार)

Tuesday 17 November 2020

संदर्भ : मानव जीवन का उत्पत्ति स्थल...

संदर्भ : मानव जीवन का उत्पत्ति स्थल :
नर -मादा की घाटी....
           अलग-अलग धर्मों और उनके ग्रंथों में सृष्टिक्रम की बातें और अवधारणा अलग-अलग दिखाई देती है। मानव जीवन की उत्पत्ति और उसके विकास क्रम को भी अलग-अलग तरीके से दर्शाया गया है। इन सबके बीच अगर हम कहें कि मानव जीवन की शुरूआत छत्तीसगढ़ से हुई है, तो आपको कैसा लगेगा? जी हाँ!  यहाँ के मूल निवासी वर्ग के विद्वानों का ऐसा मत है। अमरकंटक की पहाड़ी को ये नर-मादा अर्थात् मानवी जीवन के उत्पत्ति स्थल के रूप में चिन्हित करते हैं।

        यह सर्वविदित तथ्य है कि छत्तीसगढ़ के इतिहास और संस्कृति के लेखन में अलग-अलग प्रदेशों से आए लेखकों ने बहुत गड़बड़ किया है। ये लोग अपने साथ वहां से लाए ग्रंथों और संदर्भों के मानक पर छत्तीसगढ़ को परिभाषित करने का प्रयास किया है। दुर्भाग्य यह है, कि इसी वर्ग के लोग आज तक यहां शासन-प्रशासन के प्रमुख पदों पर आसीन होते रहे हैं, और अपने मनगढ़ंत लेखन को ही सही साबित करने के लिए हर स्तर पर अमादा  रहे हैं। इसीलिए वर्तमान में उनके द्वारा उपलब्ध लेखन से हम केवल  इतना ही जान पाए हैं कि यहाँ की ऐतिहासिक प्राचीनता मात्र 5 हजार साल पुरानी है। जबकि यहाँ के मूल निवासी वर्ग के लेखकों के साहित्य से परिचित होंगे तो आपको ज्ञात होगा कि मानवीय जीवन का उत्पत्ति स्थल है छत्तीसगढ़।

          इस संदर्भ में गोंडी गुरु और प्रसिद्ध विद्वान ठाकुर कोमल सिंह मरई द्वारा "'गोंडवाना दर्शन"  नामक पत्रिका में धारावाहिक लिखे गए लेख - "'नर-मादा की घाटी" पठनीय है। इस आलेख-श्रृंखला में न केवल छत्तीसगढ़ (गोंडवाना क्षेत्र) की उत्पत्ति और इतिहास का विद्वतापूर्ण वर्णन है, अपितु यह भी बताया गया है कि यहाँ के सतपुड़ा पर्वत श्रृंखला पर स्थित 'अमरकंटक" मानव जीवन का उत्पत्ति स्थल है। यह बात अलग है कि आज मध्यप्रदेश अमरकंटक पर अवैध कब्जा कर बैठा है, लेकिन है वह प्राचीन छत्तीसगढ़ का ही हिस्सा। इसे यहाँ के मूल निवासी वर्ग के विद्वान 'अमरकोट या अमरूकूट" कहते हैं, और नर्मदा नदी के उत्पत्ति स्थल को 'नर-मादा" की घाटी के रूप में वर्णित किया जाता है। नर-मादा के मेल से ही नर्मदा शब्द का निर्माण हुआ है।

        कोमल सिंह जी से मेरा परिचय आकाशवाणी रायपुर में कार्यरत भाई रामजी ध्रुव के माध्यम से हुआ। उनसे घनिष्ठता बढ़ी, उनके साहित्य और यहाँ के मूल निवासियों के दृष्टिकोण से परिचित हुआ था, उसके पश्चात वे हमारी संस्था '"आदि धर्म जागृति संस्थान" के साथ जुड़ गये। उनका कहना है कि नर्मदा वास्तव में नर-मादा अर्थात मानवीय जीवन का उत्पत्ति स्थल है। सृष्टिकाल में  यहीं से मानवीय जीवन की शुरूआत हुई है। आज हम जिस जटाधारी शंकर को आदि देव के नाम पर जानते हैं, उनका भी उत्पत्ति स्थल यही नर-मादा की घाटी है। बाद में वे कैलाश पर्वत चले गये और वहीं के वासी होकर रह गये। मैंने इसकी पुष्टि के लिए अपने आध्यात्मिक ज्ञान स्रोत से जानना चाहा, तो मुझे हाँ के रूप में पुष्टि की गई। यहां यह उल्लेखनीय है, कि अब भू-गर्भ शास्त्रियों (वे वैज्ञानिक जो पृथ्वी की उत्पत्ति और विकास को लेकर शोध कार्य कर रहे ह़ैं) उन लोगों ने भी इस बात को स्वीकार कर लिया है, कि मैकाल पर्वत श्रृंखला, जिसे हम अमरकंटक की पर्वत श्रृंखला के रूप में जानते हैं, इसी की उत्पत्ति सबसे पहले हुई है, इसी लिए इस स्थल को पृथ्वी का "नाभि स्थल" भी माना जाता है।

         मित्रों, जब भी मैं यहाँ की संस्कृति की बात करता हूं, तो सृष्टिकाल की संस्कृति की बात करता हूं, और हमेशा यह प्रश्न करता हूं कि जिस छत्तीसगढ़ में आज भी  सृष्टिकाल की संस्कृति जीवित है, उसका इतिहास मात्र पाँच हजार साल पुराना कैसे हो सकता है?  छत्तीसगढ़ के वैभव को, इतिहास और प्राचीनता को जानना है, समझना है तो मूल निवासयों के दृष्टिकोण से, उनके साहित्य से भी परिचित होना जरूरी है। साथ ही यह भी जरूरी है कि उनमें से विश्वसनीय और तर्क संगत संदर्भों को ही स्वीकार किया जाए।

सुशील भोले
संजय नगर, रायपुर (छ.ग.)
मो. 9826992811

Thursday 12 November 2020

धनतेरस क्यों...?

धनतेरस क्यों...?
क्या धनतेरस   सोने ,चांदी गाड़ी,मकान खरीदने का ही दिन है .या स्वास्थ्य रूपी धन की अधिक आवश्यकता ...
वास्तव में धनतेरस का उस धन  सम्पत्ति से कोई सम्बन्ध नही है,जिसके विज्ञापनों से सारा बाजार ,सारा मीडिया पटा  हुआ है. आज ही के दिन आयुर्वेदाचार्य एवं चिकित्सक धन्वन्तरि का हुए थे  इन्होंने ही वनस्पतियों से औषधियों  निकालने की परिकल्पना को मूर्त रूप दिया था ।इसलिए ही  इनके एक हाथ में अमृत कलश और दूसरे हाथ में  वनस्पतियों से चिकित्सा याआयुर्वेद  की अवधारणा की गई है ।
"धन तेरस का धन से कोई संबंध नहीं है !"
धन्वंतरि का  जन्म त्रयोदशी के दिन होने के कारण इसे धन तेरस बोला जाता है । पर  बढ़ते हुए वैश्विक बाजारीकरण एवं भौतिकतावाद की अंध दौड़ ने इसके रूप को गलत ढंग से प्रेषित किया है । और कुछ लोगों ने एक कदम आगे बढ़ कर इसे  तारों ,ग्रहो नक्षत्रों को भी बाजार से जोड़ कर खरीदी, बिक्री के अनुकूल बता दिया .
धन्वंतरी ने औषधीय वनस्पतियों के  ज्ञाता होने के कारण उन्होंने यह  बताया  कि समस्त वनस्पतियाँ औषधि के समान हैं  उनके गुणों को जान कर  उनका सेवन करना व्यक्ति के शरीर के अंदर निरोगिता लाएगा जो  स्वस्थ रहने में सहायक है,इसीलिएअमृत भी कहा जा सकता  है .
प्रकृति से जो औषधीय गुण  अनेक वनस्पतियों को प्राप्त हुए हैं ,वह  बेमिसाल हैं।
धन्वंतरि को वनस्पतियों     पर आधारित आयुर्वेद की चिकित्सा करनें वाले वैद्य आरोग्य का देवता कहते हैं। इन्होंने ही वनस्पतियों को  ढूंढ ढूंढ कर अनेक  औषधियों की खोज की थी।  बताया जाता है ,इनके वंश में दिवोदास हुए जिन्होंने 'शल्य चिकित्सा' का विश्व का पहला विद्यालय काशी में स्थापित किया ,जिसके प्रधानाचार्य सुश्रुत बनाये गए थे
सुश्रुत दिवोदास के ही शिष्य और ॠषि विश्वामित्र के पुत्र थे. उन्होंने ही सुश्रुत संहिता लिखी थी। सुश्रुत विश्व के पहले सर्जन (शल्य चिकित्सक) माने जाते हैं ,धन्वंतरि की स्मृति में ही  इस दिन को "राष्ट्रीय आयुर्वेद दिवस" के रूप में भी मनाया जाता है ।
याद रहे, उत्तम  स्वस्थ्य एवम निरोगी शरीर  ही जीवन की अमूल्य पूँजी और धन का प्रतीक है इसलिए आज का दिन धनतेरस के रूप में जाना जाता है ।
ध्यान दें धनतेरस का इस प्रकार भौतिक सम्पत्ति, धनराशि, बहुमुल्य सम्पतियों, सोने चाँदी, वाहनों से कोई संबंध नहो है.
इन कोरोना काल में जब पूरा विश्व कोविड की महामारी से लड़ रहा है ,इस धनतेरस पर सभी नागरिकों के  अच्छे स्वास्थ्य,मानसिक एवं शारीरिक समृद्धि की कामना .
Happy Dhanteras.💐💐💐💐

Sunday 8 November 2020

आरंग कैसे पड़ा नाम...

आरंग कैसे पड़ा नाम....
           राजधानी रायपुर से करीब 35 किलोमीटर दूरी पर स्थित आरंग कई ऐतिहासिक धरोहरों को समेटे हुए हैं, साथ ही धार्मिक आस्था का केंद्र भी है। सोशल मीडिया में इस नगर के नामकरण की कहानी इन दिनों खूब वायरल हो रही है। मान्यता है कि आरा+अंग से नाम पड़ा है आरंग। कहा जाता है कि द्वापर युग में राजा मोरध्वज वीरता व दानशीलता के लिए प्रसिद्ध थे। दानवीरता के बारे में सुनते ही महाभारत काल के वीर योद्धा कर्ण का नाम स्वाभाविक ही मन में आ जाता है, किंतु कर्ण के समकालिक एक और महान योद्धा और परमदानी थे हैहय वंशीय राजा मोरध्वज कोशल राज्य के महाराज। उनकी राजधानी आरंग थी, जिसका नाम आधे अंग को आरे से काटे जाने के कारण आरंग पड़ा।
पौराणिक कथा के अनुसार महाभारत युद्ध के विजय के बाद पांडवों द्वारा अश्वमेघ यज्ञ का आयोजन किया गया। उसमें एक अश्व को स्वत: विचरण करने के लिए छोड़ दिया जाता था और यदि उस अश्व को किसी ने पकड़ लिया तो यह इस बात को सिद्ध करता था कि घोड़ा पकड़ने वाला व्यक्ति युद्ध करना चाहता है। पांडवों द्वारा छोड़ा गया अश्व प्रतापी राजा मोरध्वज ने पकड़ लिया, तो अर्जुन क्रोधित होकर उनके राज्य में चढ़ाई करने के लिए तैयार हो गए। यह देख भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को रोका और कहा कि क्या तुम्हें पता है कि राजा मोरध्वज मेरे बहुत बड़े भक्त हैं। वह युधिष्ठिर के समान धर्मपालक, भीम के समान शक्तिशाली, तुम्हारे समान धनुर्धर, नकुल समान सुंदर और सहदेव जैसे सहनशील हैं। अर्जुन को भगवान की यह बात गले से न उतरी। उन्होंने कहा प्रभु आप कह रहे हैं तो मैं यह मान लेता हूं, परंतु मुझे मोरध्वज के व्यक्तित्व का अनुभव स्वयं करना है। श्रीकृष्ण ने कहा ठीक है तो मैं जैसे बोलता हूं वैसे ही करना।

भगवान श्री कृष्ण और अर्जुन ने ली थी मोरध्वज की परीक्षा

मोरध्वज की परीक्षा लेने को भगवान श्रीकृष्ण स्वयं एक ब्राह्मण और अर्जुनः एक सिंह के रूप में पहुंचे। मोरध्वज उनके स्वागत सत्कार के लिए जैसे ही आए ब्राह्मण-रूपी श्रीकृष्ण ने कहा-राजन मेरा यह सिंह बहुत दिनों से भूखा है। इसे मांस चाहिए, जिस पर मोरध्वज ने कहा- इसे मैं भेड़-बकरी ला के दे देता हूं, तो ब्राह्मण ने कहा मूर्ख यह कोई साधारण सिंह नहीं है। इसे केवल इंसान के दाहिने भाग का मांस ही चाहिए। मोरध्वज तत्काल अपने दाहिने भाग के अंग दान के लिए तैयार होकर उठे, तो फिर ब्राम्हण ने कहा- मेरे सिंह को तुम्हारे पुत्र के दाहिने अंग का मांस चाहिए। यह सुनकर राजा और रानी भावुक हो उठे। तभी नन्हें राजकुमार ताम्रध्वज दरबार में पहुंचे और कहा-हे मुनिवर मैं अपना दाहिना अंग देने के लिए तत्पर हूं।

ब्राह्मण ने एक और शर्त रखी कि राजकुमार ताम्रध्वज के आधे अंग को काटने के लिए राजा और रानी दोनों को मिलकर आरा चलानी होगी। इस पर राजा मोरध्वज ने कहा आपकी आज्ञा शिरोधार्य है। आरा मंगवाई गयी और बालक ताम्रध्वज के सिर से लेकर बीचो-बीच बराबर दो भागों में विभाजित करना प्रारंभ हुआ, तभी ब्राह्मण (श्रीकृष्ण) ने देखा कि ताम्रध्वज के बाएं भाग के आंख से आंसू बहने लगा है। इससे क्रुद्ध होकर ब्राह्मण ने कहा-मुझे यह मांस स्वीकार नहीं जो रोते हुए दिया जाए। तब नन्हें राजकुमार ने कहा- हे! ब्राह्मण देव, मैं रो नहीं रहा, यह तो मेरा बायां अंग रो रहा कि वो कितना अभागा है कि वो दाहिने अंग के समान आपके काम नहीं आ पा रहा है। ऐसा सुनते ही श्रीकृष्ण और अर्जुन अपने वास्तविक रूप में आकर उन्हें दर्शन दिए तथा श्रीकृष्ण ने बालक के मस्तक पर अपना हाथ फिराया, जिससे राजकुमार के अंग पुन: जुड़ गए। यह घटना जहां पर घटी वह आज आरंग के नाम से जाना जाता है।
(संकलित पोस्ट)

Saturday 7 November 2020

चंदैनी गोंदा स्वर्ण जयंती....

चंदैनी गोंदा के स्वर्ण जयंती के बेरा म...
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उपरोक्त चित्र चंदैनी गोंदा के मुख्य पर्दे का है जिसमें स्व. प्यारेलाल गुप्त के कविता की पंक्तियां अंकित हैं। ये पंक्तियां चंदैनी गोंदा का प्रदर्शन कैसा होता रहा होगा, इसकी ओर इशारा करती है।
चंदैनी गोंदा की भव्यता, प्रभाव और उद्देश्यों की एक झलक ‘‘चंदैनी गोंदा-छत्तीसगढ़ की एक सांस्कृतिक यात्रा’’ नामक स्मारिका, जो 7 नवम्बर 1976 को विमोचित हुई थी। उसमें लिखे गए सम्पादकीय से मिलती है, जो यथावत प्रस्तुत है।
*लोक-संस्कृति की देहरी पर दो क्षण*

एक छोटे से खलिहान में छत्तीसगढ़ के शीर्षस्थ साहित्यकार, बुद्धिजीवी, राजनेता, लोक कलाकार और दर्शक जब एकत्रित हुए तो कितनी अशेष जिज्ञासा मन में थी। कितने प्रश्न थे जो रह-रह कर उभर रहे थे। सामने मंच था जो लोकनाट्य-शैली में बनाये गये पर्दे से सजा था। *क्या है ‘‘चंदैनी गोंदा’’ के सर्जक के मन में ?* परिष्कृत मनोरंजन या लोक-जीवन से साक्षात्कार की गंभीर चिंता? तमाशबीन की तरह लोक-संस्कृति का विद्रूप प्रस्तुत करना या लोक-संस्कृति की वास्तविक ऊष्मा को सामने लाना? तथाकथित सहानुभूति या वास्तविक करूणा ? पर्दा के उठते ही शंकायें घटने लग जाती हैं और प्रश्नों के कुहासे से एक चांद का जन्म होता है। चांद बी का पुनर्जन्म। *लोक-संस्कृति का पुनर्जागरण।* छत्तीसगढ़ की मिट्टी की सोंधी खुशबू। ‘‘चंदैनी गोंदा’’ जैसी हृदयग्राही सांस्कृतिक अभिव्यक्ति का जन्म।

*स्थान-बघेरा। 07 नवम्बर 1971 की ठंडी रात। संयोजक-निर्माता और प्रस्तुतकर्ता रामचन्द्र देशमुख।*

गुलाबी ठंड से सीजती हुई पैरी की एक और रात। चारों ओर भीड़। मनुष्यों का महासागर। सघन अमराई। रोशनी से झिलमिलाता हुआ ‘‘चंदैनी गोंदा’’ का मंच। पीछे चांद और सितारों से जड़ा आसमान। मंत्रमुग्ध दर्शक। रात 9.00 बजे से सुबह 6.00 बजे तक अपलक निहारती हुई आंखें। एक दूसरे से सटे बैठे हुए लोग। एक दूसरे के सहारे रात भर खड़े हुए लोग। किसे पता रात कैसे गुजर गई। कौन सा सम्मोहन था जो रात भर अपने जादुई संस्पर्श से लोगों को बांधे रखने में समर्थ था। संगीत का वशीकरण या लोकनृत्य की अद्भुत संरचना ? गीतों की मिठास, अभिनय का अनूठा प्रदर्शन, गायकों का स्वर ? कौन बतायेगा ? नौ घंटे का यह कार्यक्रम कितने नये अनुभवों के साक्षात्कार से पूर्ण था। *गये तो अलग-अलग 50 हजार लोग थे लेकिन लौटते समय सब एक कैसे हो गये ? एक सुबह इतनी सार्थक और नई कैसे हो गई ?*
स्थान बदले। लोग बदले। लेकिन सम्मोहक स्थिति नहीं बदली। चंदैनी गोंदा के छोटे-बड़े उनचास प्रदर्शन हुए। लगभग 25 लाख लोगों ने देखा। शहर से लेकर कस्बों और गाँवों तक इस सम्मोहन का विस्तार होता चला गया। *07 नवम्बर 1971 को बघेरा में जिस अभिनव सांस्कृतिक कार्यक्रम की शुरूआत हुई, वह धीरे-धीरे छत्तीसगढ़ अंचल के लोकजीवन की प्रामाणिक कथा बन गई। महानदी की तरह विराट, इस सांस्कृतिक जलधारा का स्पर्श छत्तीसगढ़ को उस समय मिला जब उसके होंठों पर तृषा की विकराल छाया थी और उसके आत्मगौरव की जमीन पर दरारें पड़ चुकी थीं।*
*इस पूरे दृश्य के पीछे एक चांद बी है। छत्तीसगढ़ की चांद बी। महाराष्ट्र और उड़ीसा की चांद बी। गुजरात और बंगाल की चांद बी। भारत वर्ष की चांद बी। मां की गोद और पिता के स्नेह से वंचित चांद बी। रोग भूख से जर्जर चांद बी। एक दिन इसी चांद बी की आहत पुकार ‘‘चंदैनी गोंदा’’ के सर्जक के भीतर उतरती चली गई थी। लगा था, हजारों कमजोर और असहाय हाथ उससे सहारा मांग रहे हैं। पिता का स्नेह और मां की ममता मांग रहें है। जिस्म को ढंकने के लिए वस्त्र और क्षुधा शांत करने के लिए रोटी मांग रहे हैं। कितने आर्तनाद, आहत और विवश आवाजों के बीच ‘‘चंदैनी गोंदा’’ का जन्म हुआ, यह स्वयं में एक महाकाव्य का विषय है। चांद बी आज निराधार नहीं है। उसकी पीड़ा इस अंचल की सबसे जीवंत घटना बन चुकी है और हजारों चांद बी का दर्द लाखों लोगों के भीतर नई बेचैनी के रूप में ढल चुका है। हर सर्जना के लिए ऐसी बेचैनी का होना जरूरी है। इसके बिना किसी सार्थक कृति का जन्म मुश्किल है।*

*‘‘छत्तीसगढ़ और चंदैनी गोंदा’’ धीरे-धीरे दो अगल-अलग संबोधनों की सीमा लांघकर एक दूसरे में आत्मसात हो गये। ‘‘चंदैनी गोंदा’’ प्रतीक रूप में छत्तीसगढ़ बन गया।* ‘‘चंदैनी गोंदा’’ को प्यार करने वाले लोग छत्तीसगढ़ को और अधिक गहराई से प्यार करने लगे। यहां की मिट्टी उनमें कस्तूरी गंध भरने लगी। यहां की हवा उन्हें मलयानिल का आभास देने लगी। यहां की बोली उनके हृदय में मिठास भरने लगी। यहां के लोग उनके अभिन्न और आत्मीय बनने लगे। उनकी पीड़ा और खुशी सबकी पीड़ा और खुशी बन गई। एक कृषक की जिंदगी खेत के मेड़ों को पार कर कस्बों और शहरों के भीतर समा गई। *पहली बार शहर और गाँव के बीच खड़ी हुई दीवार टूटी और सदियों से असंपृक्त लोग एक दूसरे की जिन्दगी में विलीन हो गये। किसी भी सांस्कृतिक पुनर्जागरण की यह सबसे अनिवार्य शर्त होती है, जो पूरी हुई। विगत तीन दशकों की यह सबसे बड़ी घटना थी। मानवीय रिश्तों को प्रगाढ़ बनाने में सांस्कृतिक उपकरण कितने महत्वपूर्ण और प्रभावशाली माध्यम हैं, इसका ज्वलंत प्रमाण ‘‘चंदैनी गोंदा’’ से मिला।*
जिंदगी को बाटने वाली सैकड़ों चीजें हैं, जोडऩे वाली गिनी चुनी। धर्म, राजनीति, शिक्षा, दर्शन जैसे कितने ही सर्जनात्मक तत्व अपनी परिणति तक पहुंचते-पहुंचते खंडित जिंदगी के अवशेष मात्र रह जाते हैं। जिंदगी को खूबसूरत बनाने की कल्पना नये अभिशाप के रूप में बदल जाती है। विघटन का यह सिलसिला तब और तेज हो जाता है जब बदलने का अहम, सर्जनात्मक प्रयासों से भी बड़ा हो जाता है। क्या यह सच नहीं है कि धर्म और राजनीति आदमी को बदलने में जब असमर्थ हो गये तब खुद जंजीर की तरह आदमी के गतिशील पांवों में जड़ गये। अगर इस जंजीर के पाश को तोडऩे वाली संस्कृति की मानवीय ताकत नहीं होती तो बीसवीं सदी का आदमी आज तक अपनी जिंदगी को दांव पर लगा चुका होता। स्वयं को पहचानने के लिए लोक-जीवन में पैठे हुए लोग लोक-संस्कृति के उदात्त तत्वों में केवल झांकते ही नहीं हैं, अपने परिष्कार के लिए उसका प्रयोग भी करते हैं। *‘‘चंदैनी गोंदा’’ छत्तीसगढ़ की आत्मा से साक्षात्कार के साथ ही आत्मपरिष्कार का एक सांस्कृतिक प्रयोग भी है।*
*‘‘चंदैनी गोंदा’’ के आत्ममुग्ध दर्शकों ने हजारों आत्मीय पत्रों में इस सांस्कृतिक विरासत की जो प्रशंसा की है उसके पीछे कोई मजबूरी या व्यावसायिक छद्म नहीं है। यह आत्म अन्वेषण के बाद हुई, अपनत्व भरी प्रतिक्रिया है। लगता है जैसे लोग खुद को संबोधित कर रहे हों’’ मैंने इस कार्यक्रम के अंतर्गत कुछ गीतों को सुना, उन्होंने मुझे गदगद कर दिया’’ - (स्व. पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी) ’’चंदैनी गोंदा को यदि हम छत्तीसगढ़ की माटी से ओतप्रोत उसकी लोक संस्कृति का प्रतीक मान लें तो उचित और उपयुक्त ही होगा’’-(स्व. प्यारेलाल गुप्त)’’ ऐसा लगा कि इसके आयोजक छत्तीसगढ़ की आत्मा को साकार कर अखिल भारतीय मंच पर प्रस्तुत कर रहे हैं’’ -(पतिराम साव) वस्तुत: इस क्षेत्र की कला को भारतीय स्तर पर लाने के लिए यह महान प्रयोग है (चन्दूलाल चन्द्राकर) हम लोग अपनी छत्तीसगढ़ी संस्कृति को भूल गये। इसे जागृत करने का जो प्रयास किया गया वह प्रशंसनीय है। (मोहन लाल भतरिया) ऐसा लगता था जैसे हम गाँव में बैठे हैं और गाँववासियों का वास्तविक जीवन देख रहे हैं (पाल) अपनी जिंदगी में अभी तक ऐसा अद्भुत कार्यक्रम देखने में नहीं आया था। (दिलेश्वर प्रसाद) यह कार्यक्रम इतना मार्मिक है कि छत्तीसगढ़ के लोगों को अपने इतिहास एवं संस्कृति के लिए जान देने की प्रेरणा मिलती है। (पवन दीवान) चंदैनी गोंदा ने मुझे मुग्ध ही नहीं किया अपितु मुझे अपने छत्तीसगढ़ी होने का आत्म गौरव दिया। (विजेन्द्र कुमार श्रीवास्तव) The Programme was so interesting that we (though non-Chhattisgarhi) sat up to 4.30 and enjoyed ourselves thoroughly. It gave a real glimpse of Chhattisgarh. Indeed a commendable show (Mrs. Grover) *
*आज भी ‘‘चंदैनी गोंदा’’ का आयोजन जहां होता है वहां लोग लहरों की तरह उमड़ पड़ते हैं। साठ-पैंसठ हजार लोग जमीन पर, पेड़ों पर, बैलगाड़ी पर और कभी-कभी हाथी पर बैठकर अपलक यह कार्यक्रम देखते हैं। लगता है जैसे किसी विराट उत्सव में हिस्सा ले रहे हों। आफिसर, राजनेता, अध्यापक, वकील, किसान, मजदूर, वृद्ध, बच्चे, महिलायें सब एक साथ बैठकर इसे देखते हुए यह भूल जाते हैं कि उनके बीच कोई दूरी है। सब समान रूप से उद्वेलित होते हैं। ठहाके लगाते हैं। शोषण के दृश्यों को देखकर क्रोध से भर उठते हैं और जब कभी अत्याचार का जीवंत दृश्य साकार होता है, आंखें भीगने लग जाती है। कोई किसी से कुछ नहीं कहता। सब जैसे अपने में डूब जाते हैं। जागते हैं तो लगता है हम सब अभिन्न हैं। आत्मीय रिश्तों से बंधे हुए जीवन संघर्ष में रत एक ही उद्यान के फूल। फूल जो प्रतीक रूप में ‘‘चंदैनी गोंदा’’ है।*
छत्तीसगढ़ भर में फैले हुए पचास-साठ लोक कलाकारों को एकत्रित करना, लोक धुनों का संग्रह करना, लोक गीतों को समसामयिक जिंदगी के निकट ले जाना, लोक कलाकारों की स्वच्छंद अभिव्यक्ति को सर्जनात्मक आयाम देना, एक उद्देश्य पूर्ण कथानक का निर्माण करना और स्वयं प्रभावशाली अभिनेता के रूप में शरीक होना, यह रामचन्द्र देशमुख के ही वश की बात है। भावुक और संवेदनशील लोगों को एक मंच पर टिकाये रखना कितना मुश्किल काम है, यह सांस्कृतिक कार्यक्रम के संयोजकों से छिपा नहीं है। लोकप्रियता के प्रलोभन में समझौता करने वाले लोगों की भी इस क्षेत्र में कमी नहीं है। सांस्कृतिक कार्यक्रमों को अपने संकीर्ण मंतव्य के प्रचार-प्रसार का माध्यम बनाने वाले लोग कहां नहीं मिलते। लोककला के छद्म में व्यवसाय करने वाले कितने ही लोकधर्मी कलाकारनुमा लोग आये दिनों अपना उल्लू सीधा करते हैं। ऐसी विकट स्थिति में भी लोककला का यह मंच गरिमा और अर्थवत्ता से पूर्ण है। इसका श्रेय रामचन्द्र देशमुख की निश्छल कला-दृष्टि और संवेदनशील मानवीय आस्था को ही है। अगर उनकी प्रेरक-संवेदना और कला-चेतना इसके पीछे नहीं होती तो लोक-जीवन की यह मनोरम झांकी बहुत पहले विसर्जित हो जाती।
छत्तीसगढ़ की यह सांस्कृतिक चेतना जिजीविषा का रूप धारण कर चुकी है, उसकी ऊर्जा अशेष है। यह एक अविराम यात्रा है। एक ऐसी यात्रा जो नदी की यात्रा की तरह शुरू होती है और अंतहीन विराट महासागर के रूप में बदल जाती है।
प्रणम्य हैं वे यात्री जो मानवीय-संबंधों को वास्तविक और आत्मीय रूप देने की इस खोज यात्रा में साथ चल रहे हैं।
*नारायण लाल परमार : त्रिभुवन पांडेय*

(मेरे सम्पादन में शीघ्र प्रकाश्य स्मारिका के ‘संशोधित एवं परिवर्धित’ संस्करण का अंश)
*- प्रो. सुरेश देशमुख, धमतरी*
   मो.नं. 88897-70085