Tuesday 3 November 2020

नरेंद्र देव वर्मा.. स्वामी जी..

'नरेंद्र - मेरा अनुज'
-परम पूज्य स्वामी आत्मानंद जी
स्वामी आत्मानंद ने लिखा है- डा.नरेंद्र देव वर्मा द्वारा रचित 'सोनहा बिहान' की मैंने बहुत प्रशंसा सुनी थी। एक दिन मैंने नरेंद्र से कहा, अरे जरा एक बार तो अपना वह 'सोनहा बिहान' सुनवाओ। 1978 के अंत में एक दिन उसने सूचना दी कि महासमुंद में 'सोनहा बिहान' का प्रदर्शन है और मैं चाहूं तो वहां जाकर देख सकता हूं। हम कुछ लोग रायपुर से गए। महासमुंद पहुंचने में कुछ देर हो गई। सर्वसाधारण के साथ ही उसने मेरी भी बैठने की व्यवस्था की। किसी ने उससे कहा कि अरे स्वामी जी को यहां बिठा रहे हो? सबके साथ? वहां अलग से एक कुर्सी क्यों नहीं दे देते? नरेंद्र का उत्तर तो मैं नहीं सुन पाया, पर मुझे सबके साथ ही जमीन पर बैठना पड़ा। बाद में पता चला कि नरेंद्र नहीं चाहता था कि मेरे कारण दूसरों को किसी प्रकार की असुविधा हो अथवा कार्यक्रम में किसी प्रकार से कोई विघ्न उत्पन्न हो। उसकी भावना ने मुझे भाव-विभोर कर दिया और मेरी आत्मा पुकार उठी- 'नरेंद्र, तुम सचमुच मेरे अनुज हो।'
मैंने 'सोनहा बिहान' देखा और सुना। नरेंद्र उसकी कमेंटरी (कार्यक्रम का संचालन) कर रहा था। सब कुछ अपूर्व था। उसकी तेजस्विता और स्वाभिमान के उस दिन मुझे दर्शन हुए। वह दबंग था, अन्याय के समक्ष वह झुकना नहीं जानता था, पर वह अविनयी नहीं था। अपनी जन्मभूमि छत्तीसगढ़ के प्रति उसका आहत अभिमान उसकी कमेंटरी में मानो फूट- फूट पड़ रहा था, पर मुझे लगा कि जनसभा में एक शासकीय कर्मचारी को इतना स्पष्ट होकर अपने विचार को अभिव्यक्ति देना ठीक नहीं है। 'सोनहा बिहान' में छत्तीसगढ़ के शोषण का वर्णन है। शोषण के विरुद्ध माटी की तड़प नरेंद्र के स्वर में अभिव्यंजित हुई थी। वह जब दूसरे दिन मुझसे आश्रम में मिला तो मैंने उसकी कृति की भूरि-भूरि प्रशंसा की, पर साथ ही यह कहते हुए मैं नहीं चूका कि शासकीय नौकरी में रहते हुए तुम्हारी इस प्रकार दोटूक बात को शायद कुछ लोग पसंद न करें। उसने मुझसे तो कुछ नहीं कहा, पर अपने एक मित्र से उसने कहा था, भैया को मेरी कमेंटरी शायद उतनी रास नहीं आई। अब क्या करूं? अपनी इस जन्मभूमि का शोषण सहा भी तो नहीं जाता। इसी के माध्यम से मैं अपनी व्यथा, अपनी टीस प्रकट किया करता हूं। मेरी यही अभिलाषा है कि धरती पुत्र जागें, अपना शोषण समझ सकें। अगर मेरे इस कार्य से रुष्ट होकर सरकार मेरी नौकरी छीन ले तो जिन लोगों के लिए मैं अपना रक्त सूखा रहा हूं, वे मेरे छत्तीसगढ़ के लोग क्या मुझे दो जून की रोटी भी नहीं देंगे?
स्वामी आत्मानंद लिखते हैं कि मैंने इस नरेंद्र को अब तक नहीं पहचाना था। उसमें अपनी माटी के लिए इतना गौरव है, उसके शोषण के लिए इतनी टीस है, उसकी उन्नति के लिए इतनी तड़पहै, यह तो मैंने पहले न जाना था और जब मुझे उसके भीतर जलने वाली आग का पता चला तो मैं अभिभूत हुए बिना नहीं रहा। छत्तीसगढ़ की पीड़ा से उसका हृदय करा रहा था। संभवतः शिक्षा के क्षेत्र में रहकर छत्तीसगढ़ के लिए कुछ न कर पाने की विवशता ही उसे कुछ क्षणों के लिए राजनीति की ओर ले गई थी। मैंने बाद में जाना था कि वह 1977 में चुनाव में भाग लेने की इच्छा रखता था। एक आज्ञाकारी अनुज की भांति उसने मेरी नाही को सम्मान दिया, पर छत्तीसगढ़ के लिए कुछ करने की भावना उसमें इतनी गहरी पैठी थी कि वह छत्तीसगढ़ी गीतों, नाटकों और लोककथाओं के माध्यम से शतधाराओं में फूट पड़ी और उसका फल वह विपुल प्रकाशित और उससे भी विपुल अप्रकाशित साहित्य है, जो वह अपने पीछे छोड़ गया है। छत्तीसगढ़ की धरती माता ने अपने इस कृती पुत्र को, लाड़ले बेटे को लेकर भविष्य के कितने सुनहरे सपने संजोए थे, पर वह तो ममता के सारे बंधन तोड़कर अस्तित्व के महासागर में जा मिला।

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