Friday 28 April 2017

पेचका गाल.. तभो चूंदी रंगे हे करिया...




















पेचका-पेचका गाल होगे तभो चूंदी रंगे हे करिया
डोकरा के सउंख चघे हे, घंस-घंस होथे गोरिया
देखबे ते भइंसा पिला कस दिखत हे वोकर देंह
तभो ले खोजत हे रोजे चिक्कन-चांदन बुढ़िया

सुशील भोले
मो. 9826992811

Thursday 27 April 2017

अक्ति - कृषि का नव वर्ष...



छत्तीसगढ़ में जो अक्ति (अक्षय तृतीया) का पर्व मनाया जाता है, उसे कृषि के नव वर्ष के रूप में मनाया जाता है। पुतरा-पुतरी के बिहाव या उस विवाह के लिए शुभमुहुर्त जैसी बातें तो उसका एक अंग मात्र है। हमारे यहां इस दिन किसान अपने-अपने खेतों में नई फसल के लिए बीजारोपण की शुरूआत करते हैं। इसे यहां की भाषा में मूठ धरना कहा जाता है।

 इसके लिए गांव के सभी किसान अपने यहां से धान का बीज लेकर एक स्थान पर एकत्रित होते हैं, जहां गांव का बैगा उन सभी बीजों को मिलाकर मंत्र के द्वारा अभिमंत्रित करता है, फिर उस अभिमंत्रित बीज को सभी किसानों में अापस में बांट दिया जाता है। कृषक इसी बीज को लेकर अपने-अपने खेतों में ले जाकर उसकी बुआई करते हैं।

जिन गांवों में बैगा द्वारा बीज अभिमंत्रित करने की परेपरा नहीं है, वहां कृषक अपने बीज को कुल देवता, ग्राम देवता आदि को समर्पित करने के पश्चात बचे हुए बीज को अपने खेत में बो देता है। इस दिन कृषि या पौनी-पसारी से संबंधित कामगारों की नई  नियुक्ति भी की जाती है।

अक्ती म ढाबा भरे के घलो रीवाज हे, किसान मन अपन अंगना म गोबर के तीन ठिक खंचवा बनाथें जेला ढाबा कहे जाथे , ढाबा म धान , उनहारी, जैसे-तिंवरा या राहेर अउ पानी भरे जाथे उहू म टिपटिप ले फेर ओकर आगू म हूमधूप देके पूजा करे जाथे तेकर बाद फेर बीजबोनी टुकनी म बीजहा, कुदारी, आगी पानी हूमधूप धर के खेत म बोंवाई के मूठ धरे जाथे । घर के देवाला म नवा फल ल नवा करसी के पानी ल चढ़ाय जाथे ।अउ अपन पुरखा मन ल सुरता  कर के तरिया या नंदिया म उराई गड़ा के नवा करसी या फेर तामा के चरु म पानी डालथें अउ पीतर पुरखा मन ल पानी देहे जाथे अरथात पितर तरपन वाला पानी देना ।

अक्ति आगे घाम ठठागे चलव जी मूठ धरबो
हमर किसानी के शुरुवात सुम्मत ले सब करबो
बइगा बबा पूजा करके पहिली सबला सिरजाही
फेर पाछू हम ओरी-ओरी बिजहा ल ओरियाबो

* सुशील भोले 
मो. 98269-92811

Tuesday 25 April 2017

बस्तर के माटी लाल होगे...












न्याय हमर बर काल होगे, बस्तर के माटी लाल होगे
जतका मुखिया-अगुवा हवंय सब सत्ता के दलाल होगें
रोज मरत हे मानवता, जिहां धरे रूप विकराल होगे
रक्षक के खाल ओढ़े भेंड़िया अब नरभक्षी के गाल होगे

माओवाद मुर्दाबाद... .. वीर जवानों को सलाम..

-सुशील भोले
9826992811

Thursday 20 April 2017

कहूं नहाले...


जब सावन के सुरसुरी फूटथे...

सावन के सुरता आते मन म उमंग के सुरसुरी फूट परथे। प्रकृति के जवानी चारों खुंट जब लहलहाथे तब मनखे के रूआं-रूआं कुलके अउ हुलसे लागथे। इही हुलसना अउ कुलकना ह हमर संस्कृति के साज बन जाथे, सिंगार बन जाथे। ं भुइयां के मूल संस्कृति म सावन महीना के बड़ महात्तम हे। ये महीना ल शिव उपासना के महीना घलो कहे जाथे। सृष्टिक्रम प्रारंभ होए के बाद देवता मन के अरजी करे ले परमात्मा ह इही महीना के पुन्नी तिथि म अपन पूजा के प्रतीक के रूप म तेज रूप म सम्पूर्ण ब्रम्हाण्ड म संचरे विराट रूप के प्रतीक स्वरूप शिव लिंग के प्रादुर्भाव करे रहिसे। इही महीना के अंजोरी पाख के पंचमी तिथि म वोकर सबले प्रमुख गण, जे हमेशा वोकर गला म आसन पाथे, वो नांग देवता के घलो जमन होए हे, जेकर सेती हमन नाग पंचमी के रूप म उंकर सुरता अउ पूजा करथन।

परमात्मा के एक रूप प्रकृति ल घलो माने जाथे, अउ प्रकृति के अद्भुत रूप, सिंगार घलो ह ए सावन म देखने-देखन भाथे। ए महीना म झड़ी-बादर, तरिया-नंदिया के घलोक अइसन रूप होथे के मनखे मन एती-वोती जवई ल छोड़ के एके तीर बइठ के पूजा उपासना के मुद्रा म आ जथें। माने हर दृष्टि ले सावन परमात्मा के उपासना खातिर उपयुक्त लागथे। बोल बम के जयकारा पूरा महीना भर सुने ल मिलथे। जेती देखौ साधक रूप के सिंगार करे कांवरिया मन अपन-अपन क्षेत्र के पवित्र नंदिया-नरवा के जल लेके अपन-अपन क्षेत्र के सिद्ध शिव स्थल म जाके वोला समर्पित करथें। अध्यात्म म परमात्मा ल पाए के तीन रस्ता बताए गे हे- ज्ञान मार्ग, भक्ति मार्ग अउ साधना मार्ग। सावन म ये तीनों रस्ता या मार्ग एके संग देखे ले मिलथे।

शिव के प्रमुख गण नागदेव के प्रादुर्भाव इही सावन के अंजोरी पंचमी म खुद भोलेनाथ अपन दाहिना हाथ ले करे रिहिसे। मोर साधना काल म एक ठन बिरबिट करिया शेषनांग हमेशा मोर जगा आवय अउ मोला लपेट डारय। शुरू-शुरू म अड़बड़ डर लागय। मैं वोला फुहर-फुहर के गारी देवौं, पटकिक-पटका होवौं, लड़ौं-झगरौं। धीरे-धीरे मोर अंदर के डर ह कम होए लागिस, त वोकर संग मजा लेए लागेंव। वो समय मोला बताए गिस के संपूर्ण सर्प प्रजाति के उत्पत्ति भोलेनाथ के दाहिना हाथ ले होए हे। वोकरे सेती वोहर एकर जम्मो काम म जेवनी या कहिन दांया हाथ के भूमिका निभाथे। जिहां कहूं शिव उपासना होथे, वोकर मदद खातिर सबले पहिली इही जाथे। शेषनाग के सिरिफ पांच फन होथे, इहू बात ह जाने के लाइक हे। ये पांचों फन ह भोलेनाथ के दाहिना हाथ के पांचों अंगरी के प्रतीक आय। शेषनाग के संबंध म जेन सैकड़ों-हजारों फन के कथा मिलछे वो मनगढ़ंत अउ अतिशयोक्ति आय।

सावन पुन्नी के दिन जेन रक्षा बंधन के तिहार मनाए जाथे वोहर सिरिफ भाई-बहिनी के रक्षा के तिहार नोहय, भलुक जम्मो जीव-जगत के रक्षा परब आय। काबर ते परमात्मा इही दिन अपन पूजा के प्रतीक देके जम्मो झन के सुरक्षा अउ सुख-शांति के आशीष अउ वचन दिए रिहिन हें। इहां ये जानना जररूरी हे, के उपासना के फल हर उपासक ल मिलथे। एकर प्रक्रिया अंजोरी-अंधियारी पाख के आधार म मिलथे। अंधियारी पाख म हमर रद्दा म जेन अवरोधक तत्व होथे, वोला हटाए के बुता होथे, अउ अंजोरी पाख म फेर वो फल जेकर उपासना खातिर साधना करे जाथे वो ह मिलथे। ए सब ह एके दिन या महीना म नइ मिल जाय, जइसे-जइसे कारज होथे, वोकर मुताबिक वतका दिन तक धैर्य रखे के जरूरत होथे।

सुशील भोले
संस्थापक, आदि धर्म सभा
54/191, डॉ. बघेल गली, संजय नगर
(टिकरापारा) रायपुर (छ. ग.)-492001
मो. 98269 92811, 79747 25684

Wednesday 19 April 2017

तब कोरा भरथे अन्नपुरना के

भादो के गहिर बरसा ल अन्नपुरना के गरभ भरे के प्रतीक-महीना माने जाथे। जतका जादा अउ बेरा-बखत म बरसा होथे, अन्न के मोट्ठई अउ पोट्ठई वोकरे अनुसार सुघ्घर अउ गुत्तुर होथे।  एकरे सेती हमर इहां पोरा तिहार के दिन धान के गरभ भरे के प्रतीक स्वरूप 'पोठरी पान" के संस्कार मनाए जाथे। जम्मो किसान पोरा म रोटी-पीठा जोर के अपन-अपन खेत म लेग के राखथें। जइसे नवा बहुरिया ल पहिलावत लइका बखत 'सधौरी" खवाए के नेंग करे जाथे न, बस वइसने अन्नपुरना ल घलो 'पोठरी पान" खातिर 'सधौरी" के रूप म रोटी-पीठा अर्पित करे जाथे। हमर धरम-संस्कृति के जम्मो रीत-नीत अउ गीत ह प्रकृति के ये गुन ल अपन अंचरा म संवांगा करथे।

भादो के जतका महत्व आम जीवन म हे, वतके अध्यात्म घलो हे। हमर इहां के आदि धर्म म ए महीना ल शिव पार्षद मन के प्रादुर्भाव के महीना माने जाथे। भगवान भोलेनाथ के तीन प्रमुख गण के जनम इही महीना म होए हे, संग म माता पार्वती के द्वारा भोलेनाथ ल पति रूप म पाए खातिर करे गे कठोर तपस्या केे प्रतीक स्वरूप 'तीजा" के परब घलोक इहीच महीना म आथे। जइसे शिव उपासना खातिर सावन के महीना के महत्व हे, वइसने वोकर गण-पार्षद मन के उपासना खातिर भादो के महत्व हे। ए भादो के अंधियार पाख के छठ तिथि म स्वामी कार्तिकेय के जनम होए हे, जेला हम 'कमरछठ" के रूप म जानथन। अमावस्या के पोरा के रूप म जेन परब मनाथन वो शिव सवारी नंदीश्वर के जनम तिथि आय, अउ अंजोरी पाख के चतुर्थी तिथि गणनायक गणेश के उत्पत्ति या निरमान होए के तिथि आय।

'कमरछठ" असली म संस्कृत भाखा के 'कुमार षष्ठ" के छत्तीसगढ़ी अपभ्रंश रूप आय। देव मंडल म सिरिफ शिव पुत्र कार्तिकेय ल ही कुमार कहे जाथे, जे हर देव मंडल के सेनापति के घलोक भूमिका निभाथे। एकरे सेती जब भी अंजोरी-अंधियारी वाला पक्ष परिवर्तन होथे त वोकर प्रभाव ह छठ तिथि ले ही परिवर्तित होथे। (ए बात ल सिरिफ साधना-मार्ग के साधक मन ही अनुभव कर पाहीं, सामान्य जीवन जीने वाला मन नहीं। ) हमर इहां एकरे सेती कमरछठ परब म महतारी मन उपास रहि के शिव-पार्वती के पूजा करथें अउ अपन-अपन लोग-लइका मन के सुरक्षा के साथ कार्तिकेय जइसे ही श्रेष्ठ अउ योग्य जीवन के कामना करथें। आजकल 'कमरछठ" ल 'हलषष्ठी" के रूप म बलराम जयंती के नांव म प्रचारित करके हमर संस्कृति के मूल रूप ल भ्रमित करे जावत हे। ए ह बने बात नोहय।

भादो अमावस्या के हमर इहां जेन पोरा के परब मनाए जाथे वो ह शिव-सवारी नंदीश्वर के जन्मोत्सव आय।  हमर इहां एकरे सेती ए दिन नंदिया बइला ल बने सम्हरा के पूजा करे जाथे। हमर संस्कृति म मुख्य देवता के संगे-संग उंकर गण-पार्षद मन के घलोक पूजा होथे, इहू एक अच्छा परंपरा आय। ए दिन लइका मनला माटी के बने बइला ल दंउड़ावत देखबे त बड़ा निक लागथे। लोगन बइला दउड़ के प्रतियोगिता घलोक करथें।

अंजोरी पाख के चतुर्थी तिथि म जब गणपति बाबू दस दिन बर सजे-धजे पंडाल मन म बिराजथे, त बड़ा आनंद आथे। चारोंमुड़ा रिंगी-चिंगी, मेला-मड़ई, नाचा-गम्मत, हल्ला-गुल्ला, पोंगा-बाजा, चिहुर मात जाथे। गणपति ल गणनायक सिरिफ एकरे सेती कहे जाथे, के वोहर बुद्धि म बड़ा तेज रिहिसे, तेकरे सेती वोला जम्मो गण मन के मुखिया के पद दे गइस। समाज संचालन म अइसन बात मनला सुरता करे जाना चाही। फेर आज उल्टा होवत हे, पद अउ पइसा ह योग्यता के मापदंड बनगे हवय। जे मनखे मनला अपन कला-संस्कृति, भाषा-अस्मिता अउ ऐतिहासिक गौरव के ज्ञान अउ गरिमा नइ राहय, तेकर मन के हाथ म समाज के नेतृत्व सौंपे जाना बहुते नुकसान के बात आय।

गणेश चतुर्थी के एक दिन पहिली माने अंजोरी पाख के तीसरा तिथि के हमर महतारी मन अपन-अपन पति के सुरक्षा अउ अखण्ड सौभाग्य खातिर कठोर उपास के माध्यम ले तीजा के परब ल पूरा करथें। 'तीजा" माता पार्वती द्वारा भोलेनाथ ल पति रूप म पाए खातिर करे गे कठोर तपस्या के प्रतीक स्वरूप मनाए जाने वाला परब आय। हमर छत्तीसगढ़ म एक बहुते सुंदर रिवाज हे। ए तीजा परब ल पूरा करे खातिर महतारी मन अपन-अपन मइके जाके एला पूरा करथें। अलस म पार्वती जब कुंवारी रिहिसे तब ये तप ल करे रिहिसे। कुंवारी पन माने माता-पिता के घर म रहना, एकरे सेती ये तीजा के परब ल हमर इहां के महतारी मन अपन पिता के घर जाके ए परब पूरा करथें। ए परब ल कुंवारी नोनी मनला घलोक करना चाही, काबर के पार्वती तो कुंवारीच पन म एला करे रिहिसे।

तीजा के महत्व ह सिरिफ पति पाए या उंकर उमर बढ़ाए भर के परब नोहय। असल म मइके जाये के उत्साह, वोमन म जादा देखे बर मिलथे। बर-बहाव के बाद नारी-परानी मनला ससुरार म जिनगी पहाना होथे। बचपन के संगी-सहेली, हित-पिरित, भइया-भउजी, दाई-ददा के दुलार अउ गोठ ह नोहर कस हो जाथे। तीजा म जम्मो झन संग भेंट हो जाथे, एकरे सेती भोभली डोकरी हो जाय रहिथे, तेनो मन ह मइके ले तीजहार आए के रद्दा देखत रहिथे।

अतेक सुंदर भावना ले भरे संस्कृति ल तो पूरा दुनिया म बगरना चाही। खास करके अइसन समाज जेन बेटी ल बोझा मान के कोंख म ही मरवाए के उदिम करत रहिथे। अइसन लोगन मनला छत्तीसगढ़ के ये महान संस्कृति ले शिक्षा लेना चाही, एला आत्मसात करे जाना चाही।

सुशील भोले
संस्थापक, आदि धर्म सभा
54/191, डॉ. बघेल गली, संजय नगर
(टिकरापारा) रायपुर (छ. ग.)-492001
मो. 98269 92811, 79747 25684
     

कृषि कवि सम्मेलन...



 कृषि विषय पर आधारित कवि सम्मेलन का आयोजन पहली बार डा. गजेन्द्र चंद्राकर के संयोजन में कृषि विश्व विद्यालय, रायपुर के सभागार  में किया गय़ा. 17 अप्रेल 2017 को आयोजित कार्यक्रम के मुख्य अतिथि कुलपति जी थे। इस अवसर पर छत्तीसगढ़ के प्रसिद्ध कवियों मीर अली मीर, सुशील भोले, कृष्ण कुमार भारती, ऋषि कुमार वर्मा एवं चोवा राम बादल ने अपनी कविताओं का पाठ किया।

शक्ति संग ज्ञान के अंजोर बगरय

चम्मास के गहिर बरसा के थोर सुरताए के पाछू जब हरियर धनहा म नवा-नेवरनीन कस ठाढ़े धान के गरभ ले नान-नान सोनहा फुल्ली कस अन्नपुरना के लरी किसान के उमंग संग झूमे लगथे, तब जगत जननी के परब नवरात के रूप म घर-घर, पारा-पारा, बस्ती-बस्ती म जगमग जोत संग उजराए लागथे।

नवरात माने शक्ति के उपासना परब। शक्ति जे भक्ति ले मिलथे। छत्तीसगढ़ आदिकाल ले भक्ति के माध्यम ले शक्ति के उपासना करत चले आवत हे, फेर लगथे के महतारी के सरबस किरपा वोकर लइका मन ऊपर छाहित नइ हो पावत हे। एकरे सेती कहूं न कहूं मेर थोक-मोक चिरहा, फटहा अउ उघरा रहि जाथे। तभे तो इहां के भोला-भाला मूल निवासी ाज तक तन ल पूरा ढांके के जतन नइ कर पाए हें। ये सपना ल पूरा करे के अकाट कारज के रूप म अलग राज के निरमान खातिर खून-पसीना एकमई करीन, फेर लागथे अलग राज बने के बात ह सिरिफ कागज के लिखना बन के रहिगे हे। एक अलग नक्शा के चिन्हारी भर बनके रहिगे हे।

जेन समस्या के निवारन खातिर दिन-रात एक करीन, भूख-पियास संग मितानी बदिन, ओही समस्या बेसरम के जंगल-झाड़ी कस बिन लगाए अपने-अपन बाढ़त जावत हे। इहां के मूल निवासी मन के हाथ म लोकतांत्रिक सत्ता सौंपे के सपना लरी-लरी हो जावत हे। जेन बाहिरी कहे जाने वाले मनखे मन के नांग-फांस ले मुक्ति खातिर आजादी के बीन बजाए गेइस, लागथे वो अकारथ होवत जात हे। वोकर मन के षडयंत्र दिनों-दिन बिन जड़ के अमरबेल अस चारोंमुड़ा छछलत जावत हे।

आज राष्ट्रीयता के मापडदण्ड क्षेत्रीय उपेक्षा अउ छलावा के के नेंव ऊपर खड़े नजर आवत हे। लागथे ये राष्ट्रीयता के परिभाषा ल नवा रूप अउ नवा ढंग संग फिर से परिभाषित करे के बेरा आगे हे। राष्ट्रीयता के नांव म सिरिफ क्षेत्रीय उपेक्षा होवत हे। चाहे वो भाषा के बात हो, संस्कृति के बात हो, रीति-रिवाज या परब-तिहार के बात हो, चाहे लोकतांत्रिक सत्तअउ शासन म भागीदारी के बात हो,। जम्मो डहार स्थानीय पहचान ल समाप्त करे के उदिम रचे जावत हे। अउ अइसन तब तक होवत रइही जब तक इहां के असली अस्मिता प्रेमी मूल निवासी (सत्ता, समाज या साहित्य के दलाल नहीं) के हाथ म सम्पूर्ण सत्ता नइ आ जाही।

मूल नवासी संबंध म घलोक सरकारी दृष्टिकोण अउ मापदण्ड ल बदलना परही। सिरिफ कुछ बरस इहां रहि जाये या जनम भर ले ले म कोनो मूल निवासी नइ हो सकय। जब तक इहां के अस्मिता ल, इहां के संस्कृति ल आत्मसात नइ कर लेवय, तब तक कोनो इहां के मूल निवासी नइ हो सकय। जे मन सौ-पचास साल ले इहां अपन पूरा परिवार सहित राहत हें, फेर आज तक उन अपन संग अपन मूल प्रदेश ले लाने भाषा-संस्कृति ल जीयत हें वोला निश्चित रूप ले बाहिरी ही माने जाही।

ये बछर के उपासना के परब म महतारी ले अरजी हे, वो लोगन ल सद्बुद्धि देवय। उनला बतावय के राम राज के व्यवस्था ल सबले श्रेष्ठ राज व्यवस्था के रूप म उदाहरण दिए जाथे, उहू ह स्थानीय व्यक्ति के हाथ म स्थानीय शासन के रिहिसे। एकरे सेती रावन के मरे के बाद लंका के राजा विभीषण ल बनाए गेइस, अउ बाली के बाद सुग्रीव ल। राम जानत रिहिसे के दूसर के अधिकार अउ अस्मिता ऊपर दूसर मनखे ल लाद के कभू आदर्श राज के स्थापना नइ करे जा सकय।

सुशील भोले
संस्थापक, आदि धर्म सभा
54/191, डॉ. बघेल गली, संजय नगर
(टिकरापारा) रायपुर (छ. ग.)-492001
मो. 98269 92811, 79747 25684
   

Monday 17 April 2017

नंदिया कस आगू बढ़व...

नंदिया के एक सबले बड़े गुन होथे, वोला कतकों रोक ले, छेंक ले, मूंद ले, तोप ले फेर हर बंधन ल टोर के वो आगू बढ़ जाथे। बड़े-बड़े डोंगरी पहार आथे, पखरा अउ पटपर आथे वो जम्मो जगा ले अपन निकले के रद्दा निकाल लेथे। हम सबके जिनगी ल घलो अइसने होना चाही। कोनों कतकों रोके-छेके अउ भरमाए-भटकाए के उदिम रचय फेर, फेर हमार जेन लक्ष्य हे उहां तक पहुंचे के लगन हमेशा लगे रहय। जइसे नंदिया सागर म मिल के ही थिराथे, वसने हमूं मन अपन मंजिल म पहुंच के ही थिराइन।

नंदिया म एक अउ अच्छा गुन होथे। जब वोकर अस्तित्व ल खतम करे खातिर कोनो बड़का बांध के निरमान करे जाथे, त वोहर अपन कस अउ दू-चार छोटे-मोटे नंदिया-नरवा ल सकेल-जोर के बांधा के अहंकार म बूड़े बूड़ान ले अपन स्वाभिमान के अस्तित्व ल ऊँचा बना लेथे, अउ वोकर हर ऊँचाई ले नाहक के अपन मिशन ल पूरा करथे। आज ए माटी ल अइसने मिशन के रूप म काम करने वाला मन के जरूरत हे, जेन तन-मन अउ वचन-कर्म ले इहां के मूल आदि धर्म, संस्कृति अउ सामाजिक-आर्थिक स्वाभिमान खातिर नंदिया कस आगू बढ़ सकंय। बिना स्वार्थ के, बिना पद के, बिना कोनो मोह के। वोकर उद्देश्य केवल परोपकार रहय, परमात्मा राहय अउ हर किसम के पापाचार के संहार राहय।

मोला आज के टिपुर्री छाप राजनीति म तो एको अइसन मनखे नइ दिखय जेकर ऊपर कोनो किसम के भरोसा करे जा सकय। आज तक जतका झन संग मोर भेंट होइस सब फोसवा निकलिन। दू-चार ठोंस दाना कस मनखे घलोक दिखीस त वोमन अपन खुद के अस्तित्व रक्षा अउ पेट-पसिया के जुगाड़ म सरी जिनगी ल खपाए जावत हें।

जे मन सत्-धरम ले चाहथें के इहां के उद्धार होवय, त जइसे बड़का बांधा के गरब टोरे बर दू-चार अउ नंदिया मन अपन संपूर्ण अस्तित्व ल मूल नंदिया के कोरा म समर्पण कर देथें, वइसने मूल मिशन म भिड़े मनखे मन ला अपन ऊर्जा के खजाना ल पौंप देना चाही। प्रकृति के स्वभाव अउ व्यवहार ह हम सबके जीवन बर एक आदर्श के काम करथे, तेकर सेती वोकर हर घटना अउ रूप के गंभीरता ले चिंतन-मनन करना चाही। एक घांव बने-बने मनखे के आदत-व्यवहार ह धोखा दे दिही, फेर प्रकृति के कोनो भी रूप ह चिटको कनी घलो धोखा नइ देवय।

आज हमन इहां के मूल धरम, मूल संस्कृति अउ मूल निवासी मन के अधिकार के रक्षा के नांव म गुन-गुन के सुक्खा पान कस हाले-डोले ले धर लेथन। आपस म गोठियाथन के बाहिरी लोगन तो हमर अस्तित्व ल खतम करे म दिन दूना अउ रात चौगुना षडयंत्र रचत हें। कइसे करबो, कइसे बांचबो? फेर मैं अइसन किसम के चिंता-फिकर म अपन बेरा ल नइ पहावौं। काबर ते मोला दीया के स्वभाव मालूम हे। जब वोकर बुताए के बेरा आथे, त अउ जोर-जोर से भभकथे। अइसने बाहरी मनखे मन घलोक इहां के लोगन के अपन अस्तित्व रक्षा खातिर बाढ़त निष्ठा अउ ज्ञान ल देख के पाखण्ड के मात्रा ल बढ़ा दिए हें। उन बात-बात म राष्ट्रीयता के बात करथें। एक धर्म अउ एक राष्ट्र के बात करथें। फेर प्रश्न ये हे, एमन एक भगवान, एक जाति, एक वर्ण अउ एक संसार के बात काबर नइ करंय?

अइसन जम्मो किसम के पाखण्ड रचइया मन के डमडमा के पेट ल फोरे ले परही। इही मन सब डोंगरी-पहार आय, जे मन हमार मन के अस्तित्व खतम करे खातिर, हमन ल अपन गुलामी के खखौरी म चपके खातिर मुंड़ उठाये खड़े हें। हमन ल अइसन जम्मो बड़का अवरोध बांधा-छांधा मन ले जम्मो छोटे-छोटे नंदिया-नरवा कस एकमई होके आगू बढऩा हे, अपन लक्ष्य तक पहुंचना हे।

सुशील भोले
संस्थापक, आदि धर्म सभा
54/191, डॉ. बघेल गली, संजय नगर
(टिकरापारा) रायपुर (छ. ग.)-492001
मो. 98269 92811, 79747 25684
 
 

चुटइया बढ़ाय...


Thursday 13 April 2017

गुरु बाबा के कहना...


नर-मादा की घाटी


 अलग-अलग धर्मों और उनके ग्रंथों में सृष्टिक्रम की बातें और अवधारणा अलग-अलग दिखाई देती है। मानव जीवन की उत्पत्ति और उसके विकास क्रम को भी अलग-अलग तरीके से दर्शाया गया है। इन सबके बीच अगर हम कहें कि मानव जीवन की शुरूआत छत्तीसगढ़ से हुई है, तो आपको कैसा लगेगा? जी हाँ!  यहाँ के मूल निवासी वर्ग के विद्वानों का ऐसा मत है। अमरकंटक की पहाड़ी को ये नर-मादा अर्थात् मानवी जीवन के उत्पत्ति स्थल के रूप में चिन्हित करते हैं।

 यह सर्वविदित तथ्य है कि छत्तीसगढ़ के इतिहास और संस्कृति के लेखन में अलग-अलग प्रदेशों से आए लेखकों ने बहुत गड़बड़ किया है। ये लोग अपने साथ वहां से लाए ग्रंथों और संदर्भों के मानक पर छत्तीसगढ़ को परिभाषित करने का प्रयास किया है। दुर्भाग्य यह है, इसी वर्ग के लोग आज यहां शासन-प्रशासन के प्रमुख पदों पर आसीन हो गए हैं, और अपने मनगढ़ंत लेखन को ही सही साबित करने के लिए हर स्तर पर अमादा हैं। इसीलिए वर्तमान में उनके द्वारा उपलब्ध लेखन से हम केवल  इतना ही जान पाए हैं कि यहाँ की ऐतिहासिक प्राचीनता मात्र 5 हजार साल पुरानी है। जबकि यहाँ के मूल निवासी वर्ग के लेखकों के साहित्य से परिचित हों तो आपको ज्ञात होगा कि मानवीय जीवन का उत्पत्ति स्थल है छत्तीसगढ़।

 इस संदर्भ में गोंडी गुरु और प्रसिद्ध विद्वान ठाकुर कोमल सिंह मरई द्वारा 'गोंडवाना दर्शन" में धारावाहिक लिखे गए लेख - 'नर-मादा की घाटी" पठनीय है। इस आलेख-श्रृंखला में न केवल छत्तीसगढ़ (गोंडवाना क्षेत्र) की उत्पत्ति और इतिहास का विद्वतापूर्ण वर्णन है, अपितु यह भी बताया गया है कि यहाँ के सतपुड़ा पर्वत श्रृंखला पर स्थित 'अमरकंटक" मानव जीवन का उत्पत्ति स्थल है। यह बात अलग है कि आज मध्यप्रदेश अमरकंटक पर अवैध कब्जा कर बैठा है, लेकिन है वह प्राचीन छत्तीसगढ़ का ही हिस्सा। इसे यहाँ के मूल निवासी वर्ग के विद्वान 'अमरकोट" कहते हैं, और नर्मदा नदी के उत्पत्ति स्थल को 'नर-मादा" की घाटी के रूप में वर्णित किया जाता है। नर-मादा से ही नर्मदा शब्द का निर्माण हुआ है।

 कोमल सिंह जी से मेरा परिचय आकाशवाणी रायपुर में कार्यरत भाई रामजी ध्रुव के माध्यम से हुआ। उनसे घनिष्ठता बढ़ी, उनके साहित्य और यहाँ के मूल निवासियों के दृष्टिकोण से परिचित हुआ। उनका कहना है कि नर्मदा वास्तव में नर-मादा अर्थात मानवीय जीवन का उत्पत्ति स्थल है। सृष्टिकाल में  यहीं से मानवीय जीवन की शुरूआत हुई है। आज हम जिस जटाधारी शंकर को आदि देव के नाम पर जानते हैं, उनका भी उत्पत्ति स्थल यही नर-मादा की घाटी है। बाद में वे कैलाश पर्वत चले गये और वहीं के वासी होकर रह गये। मैंने इसकी पुष्टि के लिए अपने आध्यात्मिक ज्ञान स्रोत से जानना चाहा, तो मुझे हाँ के रूप में पुष्टि की गई।

 मित्रों, जब भी मैं यहाँ की संस्कृति की बात करता हूं तो सृष्टिकाल की संस्कृति की बात करता हूं, और हमेशा यह प्रश्न करता हूं कि जिस छत्तीसगढ़ में आज भी  सृष्टिकाल की संस्कृति जीवित है, उसका इतिहास मात्र पाँच हजार साल पुराना कैसे हो सकता है?  छत्तीसगढ़ के वैभव को, इतिहास और प्राचीनता को जानना है, समझना है तो मूल निवासयों के दृष्टिकोण से, उनके साहित्य से भी परिचित होना जरूरी है। साथ ही यह भी जरूरी है कि उनमें से विश्वसनीय और तर्क संगत संदर्भों को ही स्वीकार किया जाए।

सुशील भोले
संजय नगर, रायपुर (छ.ग.)
मो. 9826992811, 7974725684

Monday 10 April 2017

प्रकाशन सहयोग...आखर अंजोर...

किसी राजनीतिक परिवार की छवि रखने वाले कुल में एक अस्मिता प्रेमी का जन्म लेना किसी सद्कार्य के लिए अवतरित होने का संदेश होता है। पूरन बैस जी इसी संदेश-श्रृंखला की एक कड़ी हैं। इनके साथ मेरा पहला परिचय तब हुआ था, जब हम लोग छत्तीसगढ़ी के महान नाटककार-कथाकार स्व. श्री टिकेन्द्रनाथ जी टिकरिहा लिखित नाटक- 'गंवइहा* के मंचन के लिए (सन् 1991 में) अभ्यास कर रहे थे।

तात्यापारा स्थित कुर्मी बोर्डिंग में 'गंवइहा* का लगातार चार महीने तक रिहर्सल होता रहा। पूरन बैस जी इस नाटक के प्रमुख पात्रों में से एक थे, साथ ही निर्देशक मंडल के सदस्य भी थे। मैं इस नाटक में गीतकार और संगीतकार के रूप में जुड़ा हुआ था, इसीलिए हमारा यह परिचय घनिष्ठता में परिवर्तित हो गया। नाटक का मंचन रायपुर के प्रसिद्ध 'रंग मंदिर* में ऐतिहासिक सफलता के साथ संपन्न हुआ। बाद में इसका मंचन भिलाई इस्पात संयंत्र द्वारा आयोजित 'लोकोत्सव* के अंतर्गत भी हुआ।

इसके पश्चात् हम लोगों के इस ग्रुप का बिखराव होने लगा, क्योंकि सभी सहयोगी अलग-अलग नैकरी पेशा और रोजगार से जुड़े हुए थे। मेरे जीवन में इसी दौर में एक नया परिवर्तन आया। मैं गीत-संगीत और साहित्य की दुनिया से विलग होकर आध्यात्मिक साधना के मार्ग पर अग्रसर हो गया। इसलिए इस क्षेत्र के लोगों से मेरा संपर्क लगभग टूट सा गया।

साधना काल में मुझे छत्तीसगढ़ के मैदानी भाग में प्रचलित संस्कृति के मूल स्वरूप का ज्ञान प्राप्त हुआ, जिसे मैं एक संक्षिप्त पुस्तिका का रूप देना चाहता था। 'आखर अंजोर* के रूप में संकलित इस पुस्तिका में यहाँ की मूल संस्कृति पर मेरे द्वारा लिखे गए लेखों के संकलन थे, जिसे सन् 2006 में पहली बार बालाजी प्रिंटर्स के संचालक श्री रामशरण कश्यप जी के सहयोग से प्रकाशित किया गया। तब तक मेरा साधना काल पूर्ण नहीं हो पाया था, इसलिए इसमें कुछ संशोधन और नये लेखन की आवश्यकता महसूस होती थी।

अब जब मेरा साधना काल पूर्ण हो चुका है, और इसमें आवश्यक संशोधन के साथ पुनप्र्रकाशन का संयोग बन रहा है, तब पूरन बैस जी के साथ मेरी पुन: मेल-मुलाकात हो गई है। मेरी साधना, यहाँ की संस्कृति और ऐतिहासिक लेखन के संबंध में उनसे चर्चा होने पर उन्होंने स्व-इच्छा से 'आखर अंजोर* को प्रकाशित करवाने का जिम्मा लिया। पूरन बैस जी और क्रियेटिव कम्प्यूटर के संचालक भाई अनिल चंद्राकर जी के माध्यम से 'आखर अंजोर* आप सब के समक्ष अपने नए कलेवर में मौजूद है।

विश्वास है, यह लघु पुस्तिका अपने नाम के अनुरूप 'आखर अंजोर* अर्थात् 'अक्षर का प्रकाश* फैलाएगी, और हमारी विस्मृत हो रही संस्कृति के मूल स्वरूप को पुनस्र्थापित करने में एक मील का पत्थर साबित होगी।

-सुशील भोले

Friday 7 April 2017

शिव लिंग की वास्तविकता


आध्यात्मिक जगत में बहुत से ऐसे बहुरूपिए और षडयंत्रकारी लोग भी आते रहे हैं, जिनके कारण इसका वास्तविक स्वरूप और मूल दर्शन भ्रमित होता रहा है। कई मनगढ़ंत किस्सा-कहानी और मूर्खता की पराकाष्ठा को लांघ जाने वाली परंपरा भी इन सबके चलते हमारे बीच स्थान बनाने में सफल रही हैं। शिव लिंग के संबंध में ऐसे अनेक कहानी और तर्क-वितर्क भी इसी श्रृंखला की एक कड़ी है।

साधना काल से पूर्व और अब भी यदा-कदा ऐसे बेहुदा प्रसंग मेरे समक्ष निर्मित हो जाते हैं। आश्चर्य होता है, लोग ऐसी असभ्य बातें कितनी आसानी से कह जाते हैं। जब शिव लिंग को पुरूष प्रतीक और जलहरी को स्त्री (या पार्वती) प्रतीक के रूप में चिन्हित कर उसे अश्लील रूप दिया जाता है, और लोगों को इसकी पूजा से विलग रहने की समझाइश दी जाती है।

निश्चित रूप से ऐसे लोग शिव लिंग की वास्तविकता से अनभिज्ञ रहते हैं। कई बार ऐसा भी देखने को मिलता है, कुछ अन्य पंथावलंबी ऐसी घृणित कहानियाँ गढ़ शिव जी को छोटा बताकर अपने ईष्ट को बड़ा या श्रेष्ठ बताने की कोशिश करते हैं।

वास्तव में शिव लिंग सम्पूर्ण ब्रम्हाण्ड में तेज रूप में व्याप्त परमात्मा का प्रतीक स्वरूप है। हमें साधना काल में इसका बोध होता है। ध्यानावस्था में बैठा साधक जब उच्चावस्था को प्राप्त करता है, तब उसकी दिव्य दृष्टि जागृत होने लगती है। इसी अवस्था में उसे अपने चारों ओर तेज स्वरूप में व्याप्त परमात्मा अद्र्ध गोलाकार के रूप में दिखाई देने लगते हैं। यह अर्द्ध गोलाकार लगभग काला (कभी गाढ़ा बैगनी) रंग का दिखाई देता है। उसका ऊपरी आवरण (परत) हल्का सा लालिमा लिए हुए दिखाई देता है। हमारी संस्कृति में शिव लिंग को अर्द्ध गोलाकार निर्मित करने की परंपरा भी शायद इसी के चलते है, कि सम्पूर्ण ब्रम्हाण्ड में तेज रूप में व्याप्त परमात्मा साधक को उच्चवस्था प्राप्त करने पर वैसा ही दिखाई देते हैं।

मित्रों, मैं हमेशा यहाँ के आध्यत्मिक दर्शन को पुनर्लेखन और संशोधन की बात करता हूं, तो उसका मूल कारण ऐसे ही कुतर्क भरे किस्सा कहानियों के जंजाल से मुक्त होने के लिए ही कहता हूं। आइए, इस देश के मूल धर्म को उसके मूल रूप में पुनर्धारण करें। सर्वव्यापी परमात्मा को उसके मूल प्रतीक (लिंग) रूप में स्वीकार करें।

सुशील भोले
संस्थापक, आदि धर्म सभा
संजय नगर, रायपुर (छ.ग.)
मो. 9826992811