Monday 30 June 2014

कर्म से बनते हैं भगवान....

सवाल इस बात का नहीं है कि कोई कहाँ से आया है, या उसका जन्म कहाँ हुआ। सवाल इस बात का है कि उसने कर्म क्या किया है। क्योंकि कर्म ही किसी भी व्यक्ति को भगवान बनाता है। 

* सुशील भोले *

Saturday 28 June 2014

जय जगन्नाथ...



छत्तीसगढ़ की संस्कृति में कई ऐसी संस्कृतियों का भी समावेश हो गया है, जो मुख्य रूप से पड़ोसी राज्यों की संस्कृति कहलाती हैं। ऐसी ही संस्कृतियों में आषाढ़ शुक्ल पक्ष द्वितीया को मनाया जाने वाला पर्व रथयात्रा भी शामिल है। आज इस पर्व को समूचे छत्तीसगढ़ राज्य के शहरी एवं ग्रमीण इलाकों में किसी न किसी रूप में मनाया ही जाता है, जबकि मूल रूप से इस पर्व को ओडिशा राज्य के प्रतिनिधि पर्व के रूप में जानते हैं।

छत्तीसगढ़ की लोकसंस्कृति में इससे संबंधित गीत भी गाया जाता है, जिसे जगन्नतिहा गीत कहते हैं। पहले जब आवागमन की कोई खास सुविधा नहीं थी तब यहां के श्रद्धालु तीर्थाटन के लिए पैदल ही जगन्नाथपुरी जाते थे। ऐसा कहा जाता है कि इस कठिन यात्रा से जो लोग वापस जिन्दा आ जाते थे, उन्हें समूचे ग्रामवासी बाजागाजा के साथ भगवान जगन्नाथ का यशगान करते घर तक लाते थे। इसे ही जगन्नतिहा गीत कहते हैं।

पड़ोसी राज्य ओडिशा का पुरी क्षेत्र जिसे पुरुषोत्तम पुरी, शंख क्षेत्र, श्रीक्षेत्र के नाम से भी जाना जाता है, भगवान श्री जगन्नाथ की मुख्य लीला-भूमि है। उत्कल प्रदेश के प्रधान देवता जगन्नाथ जी ही माने जाते हैं। यहां के वैष्णव धर्म की मान्यता है कि राधा और श्रीकृष्ण की युगल मूर्ति के प्रतीक स्वयं श्री जगन्नाथ हैं। इसी प्रतीक के रूप श्री जगन्नाथ से संपूर्ण जगत का उद्भव हुआ है।

श्री जगन्नाथ पूर्ण परात्पर भगवान है और श्रीकृष्ण उनकी कला का एक रूप है। ऐसी मान्यता श्री चैतन्य महाप्रभु के शिष्य पंच सखाओं की है। पूर्ण परात्पर भगवान श्री जगन्नाथ की रथयात्रा आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को जगन्नाथपुरी में आरंभ होती है। यह रथयात्रा पुरी का प्रधान पर्व भी है। इसमें भाग लेने के लिए, इसके दर्शन लाभ के लिए हजारों, लाखों की संख्या में बाल, वृद्ध, युवा, नारी देश के सुदूर प्रांतों से आते हैं। सबसे प्रतिष्ठित समारोह जगन्नाथ पुरी में मनाया जाता है। यह स्थान भुवनेश्वर से साठ किमी की दूरी पर है। यहां का जगन्नाथ मंदिर अपनी ऐतिहासिक रथयात्रा के लिए सम्पूर्ण विश्व में प्रसिद्ध है।

पश्चिमी समुद्रतट से लगभग डेढ़ किमी दूर उत्तर में नीलगिरि पर्वत पर स्थित यह प्राचीन मंदिर कलिंग वास्तुशैली में बना 12वीं सदी का सबसे उत्कृष्ट उदाहरण है। इस मंदिर का निर्माण नरेश चोडग़ंग ने करवाया था। नौ दिनों की यह रथयात्रा धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्रदान करने वाली है। इसे श्री गुण्डिचा यात्रा भी कहते हैं। इस रथयात्रा का विस्तृत वर्णन स्कंद पुराण में मिलता है, जहां श्रीकृष्ण ने कहा है कि पुष्य नक्षत्र से युक्त आषाढ़ मास की द्वितीया तिथि को मुझे, सुभद्रा और बलभद्र को रथ में बिठाकर यात्रा कराने वाले मनुष्य की सभी मनो: कामनाएं पूर्ण होती हैं। इस रथयात्रा महोत्सव में श्रीकृष्ण के साथ राधिका जी न होकर सुभद्रा और बलराम होते हैं, जिसके संबंध में एक विशेष कथा प्रचलित है।

पौराणिक कथा
एक समय द्वारिकापुरी में माता रोहिणी से श्रीकृष्ण की पत्नी रुक्मिणी व अन्य रानियों ने राधारानी व श्रीकृष्ण के प्रेम-प्रसंगों एवं ब्रज-लीलाओं का वर्णन करने की प्रार्थना की। जिस पर माता ने श्रीकृष्ण व बलराम से छिपकर एक बंद कमरे में कथा सुनानी आरंभ की और सुभद्रा को द्वार पर पहरा देने को कहा, किन्तु कुछ ही समय पश्चात् श्रीकृष्ण एवं बलराम वहां आ पहुंचे। सुभद्रा के द्वारा अंदर जाने से रोकने पर श्रीकृष्ण व बलराम को कुछ संदेह हुआ और वे बाहर से ही अपनी सूक्ष्मशक्ति द्वारा अंदर की माता द्वारा वर्णित ब्रजलीलाओं को श्रवण करने लगे।

कथा सुनते-सुनते श्रीकृष्ण, बलराम व सुभद्रा के हृदय में ब्रज के प्रति अद्भुत भाव एवं प्रेम उत्पन्न हुआ तथा उनके हाथ व पैर सिकुडऩे लगे। वे तीनों राधा रानी की भक्ति में इस प्रकार भाव-विभोर हो गए कि स्थायी प्रतिमा के समान प्रतीत होने लगे। अत्यंत ध्यानपूर्वक देखने पर भी उनके हाथ-पैर दिखाई नहीं देते थे।

श्री सुदर्शन ने भी द्रवित होकर लंबा रूप धारण कर लिया। उसी समय देवमुनि नारद वहां आ पहुंचे और भगवान के इस रूप को देखकर अत्यंत आश्चर्यचकित हुए तथा भक्तिपूर्वक प्रणाम करके श्रीहरि से कहा कि हे प्रभु! आप सदा इसी रूप में पृथ्वी पर निवास करें। भगवान श्रीकृष्ण ने कलियुग में इसी रूप में नीलांचल क्षेत्र (पुरी) में प्रकट होने की सहमति प्रदान की। कलियुग आगमन के पश्चात् एक समय मालव देश के राजा इंद्रद्युम्न को समुद्र में तैरता हुआ लकड़ी का एक बहुत बड़ा टुकड़ा मिला। राजा के मन में उस टुकड़े को निकलवा कर भगवान श्रीहरि की मूर्ति बनवाने की इच्छा जागृत हुई।

उसी समय देव शिल्पी विश्वकर्मा ने बढ़ई रूप में वहां आकर राजा की इच्छानुसार प्रतिमा निर्माण का प्रस्ताव रखा और कहा कि 'मैं एक एकांत बंद कमरे में प्रतिमा निर्माण करुंगा तथा मेरी आज्ञा न मिलने तक उक्त कमरे का द्वार न खोला जाए अन्यथा मैं मूर्ति-निर्माण बीच में ही छोड़कर चला जाऊंगा"। राजा ने शर्त मान ली, किन्तु कई दिन व्यतीत होने पर भी जब बढ़ई की ओर से कोई समाचार न मिला तो राजा ने द्वार खोलकर कुशलक्षेम लेने की आज्ञा दी।

जब द्वार खोला गया तो बढ़ई रूपी विश्वकर्मा अंतर्धान हो चुके थे और वहां लकड़ी की तीन अपूर्ण मूर्तियां मिलीं। उन अपूर्ण प्रतिमाओं को देखकर राजा अत्यंत दु:खी हो श्रीहरि का ध्यान करने लगे। राजा की भक्ति-भाव से प्रसंन होकर भगवान ने आकाशवाणी की 'हे राजन! देवर्षि नारद को दिए वरदान अनुसार हमारी इसी रूप में रहने की इच्छा है, अत: तुम तीनों प्रतिमाओं को विधिपूर्वक प्रतिष्ठित करवा दो"।

अंतत: राजा ने श्रीहरि की इच्छानुसार नीलाचल पर्वत पर एक भव्य मंदिर बनवाकर वहां तीनों प्रतिमाओं की स्थापना करवा दी। जिस स्थान पर मूर्ति निर्माण हुआ था, वह स्थान गुण्डिचाघर कहलाता है, जिसे ब्रह्मलोक और जनकपुर भी कहते हैं। ये तीन मूर्तियां ही भगवान जगन्नाथ, बलभद्र एवं सुभद्रा जी के स्वरूप हैं।

दस दिवसीय महोत्सव
पुरी का जगन्नाथ मंदिर के दस दिवसीय महोत्सव की तैयारी का श्रीगणेश अक्षयतृतीया को श्रीकृष्ण, बलराम और सुभद्रा के रथों के निर्माण से हो जाता है। कुछ धार्मिक अनुष्ठान भी किए जाते हैं।

गरुड़ध्वज
जगन्नाथ जी का रथ गरुड़ध्वज या कपिलध्वज कहलाता है। 16 पहियों वाला यह रथ 13.5 मीटर ऊंचा होता है जिसमें लाल और पीले रंग के वस्त्र का प्रयोग होता है। विष्णु का वाहक गरुड़ इसकी रक्षा करता है। रथ पर जो ध्वज है, उसे 'त्रैलोक्यमोहिनी" या 'नंदीघोष" रथ कहते हैं।

तालध्वज
बलराम का रथ 'तलध्वज" के नाम से पहचाना जाता है। यह रथ 13.2 मीटर ऊंचा 14 पहियों का होता है। यह लाल, हरे रंग के कपड़े व लकड़ी के 763 टुकड़ों से बना होता है। रथ के रक्षक वासुदेव और सारथी मताली होते हैं। रथ के ध्वज को 'उनानी" कहते हैं। 'त्रिब्रा", 'घोरा", 'दीर्घशर्मा" व 'स्वर्णनावा" इसके अश्व हैं। जिस रस्सी से रथ खींचा जाता है, वह 'वासुकी" कहलाता है।

दिलों में बसते हैं भगवान...

भगवान तो लोगों के दिलों में बसते हैं। उन्हें कागज और किताबों में खोजने वाले न ज्ञानी होते हैं और न ही गुरु होते हैं। 
*सुशील भोले*

Tuesday 24 June 2014

सत्य...

दुनिया का कोई भी ग्रंथ न तो पूर्ण है, और ना ही पूर्ण सत्य है। इसलिए यदि आप सत्य को जानना या समझना चाहते हैं, तो साधना के माध्यम से आत्मज्ञान प्राप्त करें। केवल साधना और अनुभव के द्वारा प्राप्त ज्ञान ही सत्य तक पहुंचने का एकमात्र उत्तम रास्ता है।
                                                                                                                                       *सुशील भोले*

साईं बनाम स्वरूपानंद...




धर्म पर अपना एकाधिकार समझकर उसे निजी उद्योग की तरह मानने वाले लोगों ने इस देश के मूल धर्म को बहुत नुकसान पहुंचाया है। कुछ किताबों को धर्म का आवरण पहनाकर उसकी आड़ में भी भारी पैमाने पर खेल खेला गया है। आज हमारे सामने वर्ण व्यवस्था और उसकी दत्तक संतान के रूप में जातियों का जो समूह फैलाया गया गया है। ऊंच-नीच का तांडव रचा गया है। ये सब एेसे ही लोगों की शातिर बुद्धि के परिणाम हैं, जिसके कारण इस देश में मूल धर्म के अतिरिक्त अनेकों पंथ और धर्मो का प्रादुर्भाव हुआ। लोगों ने कई विदेशी धर्मों को भी आत्मसात किया।

आज ये स्वंभू जगतगुरु शंकराचार्य स्वरूपानंद सरस्वती नेे शिर्डी वाले सांई बाबा के संबंध में जो कहा है, वह भी एेसे ही शातिराना बुद्धि का ही परिणाम है। सांई बाबा को भगवान नहीं मानने वाले स्वरूपानंद जी से मेरा प्रश्न है कि स्वयं उन्हें इस दुनिया के कितने प्रतिशत लोगों ने मतदान करके जगतगुरु बनाया है। कितने प्रतिशत लोगों ने उन्हें इस तरह का बयान देने के लिए अधिकृत किया है।


जहां तक किसी को भगवान मानने या ना मानने वाली बात तो नितांत निजी मामला। कोई एक व्यक्ति जिसे भगवान मानता है, कोई जरूरी नहीं कि दूसरा भी उसे भगवान माने। मैं तो व्यक्तिगत रूप से संत कबीर दास, गुरु नानक देव,गुरूघासी दास से लेकर महात्मा गांधी तक को अवतार और भगवान मानता हूं। सांई को भी भगवान और अवतार मानता हूं। 


दरअसल धर्म, भगवान और आस्था किसी भी ग्रंथ और निजी मान्यता से परे है। इसे इसी रूप में स्वीकार किया जाय।
आप क्या कहते हैं....

                                                                                                                                        * सुशील भोले *


Monday 23 June 2014

कइसे निटोर दिये बादर....















कइसे आँखी ल फरका के निटोर दिये रे बादर
मोर धनहा-डोली के आसा ल टोर दिये रे बादर
अब्बड़ सोर परत रिहिसे तोर सनसनावत आये के
फेर तैं कोन मेेर लरधिया के धपोर दिये रे बादर
                                                   * सुशील भोले *

आदिधर्म....

भारत संस्कृतियों का देश है। यहाँ हर राज्य की अलग संस्कृति है। हर क्षेत्र की अलग संस्कृति है। हर गाँव की अलग संस्कृति है। हर समूह की अलग संस्कृति है। इसके बावजूद मैं छत्तीसगढ़ के संदर्भ में जिस मूल संस्कृति की बात करता हूं, वह केवल एक संस्कृति ही नहीं, अपितु एक संपूर्ण जीवन पद्धति है। एक संपूर्ण धर्म है, जिसे मैं आदिधर्म कहता हूं। 
http://www.mayarumati.blogspot.in/2013/02/blog-post_11.html

Saturday 14 June 2014

कालिदास के सोरिहा बादर...

(महाकवि कालिदास की अमरकृति *मेघदूतम्* में आषाढ़ मास के प्रथम दिवस पर भेजे गये *मेघदूत* को संबोधित कर लिखा गया एक छत्तीसगढ़ी गीत। फोटो - सरगुजा स्थित रामगिरी पहाड़ी की जहां कालिदास ने * मेघदूत* का सृजन किया था। साभार : ललित डाट काम से।)
(रामगिरी पहाड़ी पर उमड़ते मेघदूत)

(एेतिहासिक  रामगढ़ की पहाड़ी जहां पर कालिदास ने मेघदूत का सृजन किया था।)


अरे कालिदास के सोरिहा बादर, कहां जाथस संदेशा लेके
हमरो गांव म धान बोवागे, नंगत बरस तैं इहां बिलम के...

थोरिक बिलम जाबे त का, यक्ष के सुवारी रिसा जाही
ते तोर सोरिहा के चोला म कोनो किसम के दागी लगही
तोला पठोवत बेर चेताये हे, जोते भुइयां म बरसबे कहिके...

धरती जोहत हे तोर रस्ता, गरभ ले पिका फोरे बर
नान-नान सोनहा फुली ल, पवन के नाक म बेधे बर
सुरुज गवाही देही सिरतोन बात बताही तोर बिलमे के...

रोज बिचारा बेंगवा मंडल बेरा उत्ते तोला सोरियाथे
अपन सुवारी संग सिरतोन, राग मल्हार घंटों गाथे
तबले कइसे जावत हस तैं, काबर सबला अधर करके....

सुशील भोले 
म.नं. 54-191, डॉ. बघेल गली,
संजय नगर (टिकरापारा) रायपुर (छ.ग.)
मोबा. नं. 080853-05931, 098269-92811
ईमेल -   sushilbhole2@gmail.com

Friday 13 June 2014

सुनो कबीर अब युग बदला...


















सुनो कबीर अब युग बदला, क्यूं राग पुराना गाते हो
भाटों के इस दौर में नाहक, ज्ञान मार्ग बतलाते हो.....

कौन यहाँ अब सच कहता, कौन साधक-सा जीता है
लेखन की धाराएँ बदलीं, विचारों का घट रिता है
जो अंधे हो गये उन्हें फिर, क्यूं शीशा दिखलाते हो.....

धर्म पताका जो फहराते, अब वही समर करवाते हैं
कोरा ज्ञान लिए मठाधीश, फतवा रोज दिखाते हैं
ऐसे लोगों को फिर तुम क्यूं, संत-मौलवी कहलवाते हो...

राजनीति हुई भूल-भुलैया, जैसे मकड़ी का जाला
कौन यहाँ पर हँस बना है, और कौन कौवे-सा काला
नहीं परख फिर भी तुम कैसे, एक छवि दिखलाते हो...

सुशील भोले 
म.नं. 54-191, डॉ. बघेल गली,
संजय नगर (टिकरापारा) रायपुर (छ.ग.)
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Thursday 12 June 2014

अब तो देवौ छत्तीसगढ़ी ल संवैधानिक अधिकार...

ये बात सब जानथें के भारतीय जनता पार्टी अउ वोकर संग म जुड़े जमो संगठन मन भाखा, संस्कृति अउ अस्मिता के महत्व ल गजब समझथें, गजब जानथें। अउ सिरिफ समझथें भर नहीं भलुक ठोंसहा बुता घलोक करथे, तेकर सेती जमो छत्तीसगढिय़ा मनला ये पक्का भरोसा हवय के इहां के महतारी भाखा छत्तीसगढ़ी ल संविधान के आठवीं अनुसूची म शामिल करके, वोला इहां के पढ़ई-लिखई, रोजी-रोजगार अउ राज-काज के भाखा जरूर बनाये जाही।

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत जी रायपुर के मेडिकल कालेज सभागार म आयोजित एक कार्यक्रम म ठउका केहे रिहिन हे-'इस देश की हर भाषा राष्ट्रभाषा हैं। इसलिए हमारी जवाबदारी है कि यहां की सभी भाषा और बोलियों को संरक्षित किया जाए।Ó

अइसने किसम के भावना ल लेके सन् 1956 म केंद्र सरकार ह राज्य पुनर्गठन आयोग के स्थापना करे रिहिसे, जेकर उद्देश्य रिहिसे के ये देश म जतका भी स्वतंत्र भाषा-संस्कृति हे वोकर मन के आधार म अलग-अलग राज्य के गठन करे जाय। ये आयोग के सामने म छत्तीसगढ़ राज के घलोक ये कहिके मांग रखे गइस के छत्तीसगढ़ी घलोक एक स्वतंत्र भाषा अउ संस्कृति आए, तेकर सेती ए छत्तीसगढ़ी भाषी क्षेत्र ल घलोक एक स्वतंत्र राज्य के चिन्हारी दिए जाए। फेर सन् 1956 म एला अलग राज के दरजा नइ देके मध्यप्रदेश संग संघार दिए गइस। एकरे संग छत्तीसगढ़ राज अउ छत्तीसगढ़ी भाखा ल संविधान के आठवीं अनुसूची म शामिल करे के मांग चालू होइस। जेन ह राजनीतिक आंदोलन के रूप म कम अउ साहित्यिक-सांस्कृतिक रूप म जादा चलिस।

1 नवंबर सन् 2000 के ये आंदोलन के सुखद परिणाम देखे ल मिलिस जब ये भुइयां ल भौगोलिक रूप ले अलग चिन्हारी मिलिस। फेर एकर भाखा ल तब घलोक संवैधानिक दरजा नइ दिए गइस। वो बखत केंद्र म अटल बिहारी वाजपेयी जी के मुखियाई म भारतीय जनता पार्टी के राजनीतिक संगवारी मन के सरकार रिहिसे। जबकि छत्तीसगढ़ म अजीत जोगी के अगुवाई म कांग्रेस के सरकार रिहिसे। एकरे सेती लोगन अइसन घलोक आरोप लगा देवयं के केंद्र अउ राज्य म अलग-अलग पार्टी के सरकार हवय तेकर सेती एला पूर्ण राज्य के बदला अधूरा राज्य अर्थात भाषा विहिन राज्य के दरजा दे दिए गे हवय।

इही बीच केंद्र म घलोक मनमोहन सिंह के अगुवाई म कांग्रेस के सरकार बनीस अउ तब फेर जेमन भाषा विहिन राज्य बनाये के गोठ करंय उहू मन कोंदा-लेडग़ा बरोबर मौनी बाबा होगें। तब भाजपा वाले मन केंद्र सरकार के खिलाफ आवाज उठाये लागिन।

ए केंद्र अउ राज्य म अलग-अलग पार्टी के सरकार बनई ह चलते रिहिस। केंद्र म कांग्रेस के सरकार बइठिस त प्रदेश म डॉ. रमन सिंह के अगुवाई म भाजपा के सरकार आगे। भारतीय जनता पार्टी तो भाषा, संस्कृति अउ अस्मिता के बुता म हमेशा लगे रहिथे, एकरे सेती इहां घलोक एकर फायदा होइस। 28 नवंबर सन् 2006 के छत्तीसगढ़ विधान सभा म सर्व समति ले प्रस्ताव पास करके छत्तीसगढ़ी ल ये प्रदेश के राजभाषा के रूप म स्वीकार कर लिए गइस। आगू चल के 14 अगस्त 2007 म छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग के स्थापना करके एकर कार्यालय के उद्घाटन घलोक कर दिए गइस। तब ले लेके आज तक छत्तीसगढ़ी राजभाषा आयोग ह अपन सख भर बुता करत हाबे। फेर एला केंद्र सरकार द्वारा मिलइया संवैधानिक दरजा नइ मिल पाय के सेती वतका बुता नइ करे पावत हे, जतका करे के उमीद जमो लोगन करत रहिथे।

गजब दिन के बाद अइसन सुखद संजोग बने हावय के केंद्र अउ राज्य दूनो म एके पार्टी के सरकार बने हावय। सबले बड़े बात ए हावय के भारतीय जनता पार्टी के सरकार बने हावय, जेन ह भाषा, संस्कृति अउ अस्मिता के महत्ता ल समझथे, अउ सिरिफ समझय भर नहीं भलुक एकर खातिर जी परान ले बुता घलोक करथे। अइसन म ये भरोसा होना स्वाभाविक हो जथे के ए बखत छत्तीसगढ़ी ल संवैधानिक दरजा जरूर मिलही। इहां के लोगन ल अपन महतारी भाखा म पढ़े-लिखे अउ जमो किसम के कारज करे के अधिकार जरूर मिलही, रोजी-रोजगार के रस्ता मिलही।

छत्तीसगढ़ के मुखिया डॉ. रमन सिंह के संगे-संग छत्तीसगढ़ ले केंद्र म मंत्री बने विष्णुदेव साय अउ इहां के जमो सांसद मन ले अरजी हवय के छत्तीसगढ़ी ल संवैधानिक दरजा दिए खातिर प्रयास प्रधानमंत्री नरेंद्र मादी जी संग मेल-भेट करके जतका जल्दी हो सकय, इहां के लोगन ल महतारी भाखा म आत्म समान के जमो कारज करे के अधिकार देवंय।

सुशील भोले 
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देखें-- मासिक अंजोर में मेरा लेख----

Tuesday 10 June 2014

छत्तीसगढ़ी कहानी - ढेंकी - का अंश...

मेरी छत्तीसगढ़ी कहानी *ढेंकी * को इस लिंक को क्लिक कर पढ़ा जा सकता है... इसमें कहानी का कुछ अंश ही दिया गया है... कहानी को विस्तृत रूप से पढ़ने के लिए कहानी संकलन - ढेंकी... या फिर अन्य पत्र-पत्रिकाअों में प्रकाशित कहानी को पढ़ा जा सकता है...
http://pustak.org/home.php?bookid=5964

Monday 9 June 2014

गरजत-घुमरत आबे रे बादर...

(गर्मी के तांडव से निजात पाने वर्षा के बादलों को आमंत्रित करता एक छत्तीसगढ़ी गीत....)

गरजत-घुमरत आबे रे बादर, मया-पिरित बरसाबे
मोर धनहा ह आस जोहत हे, नंगत के हरसाबे... रे बादर....

जेठ-बइसाख के हरर-हरर म, धरती ह अगियागे
अंग-अंग ले अगनी निकलत हे, छाती घलो करियागे
आंखी फरकावत झुमरत आके, जिवरा ल जुड़वाबे ... रे बादर..

तरिया-नंदिया अउ डबरी ह, सोक-सोक ले सुखागे हे
कब के छोड़े बिरहिन सही, निच्चट तो अइलागे हे
बाजा घड़कावत आके तैं ह, फेर गाभिन कर देबे ... रे बादर...

जीव-जंतु अउ चिरई-चिरगुन, ताला-बेली होगे हें
तोर अगोरा म बइठे-बइठे, अधमरहा कस होगे हेंं
जिनगी दे बर फिर से तैं ह, अमरित बूंद पियाबे.. रे बादर...

नांगर-बक्खर के साज-संवांगा, कर डारे हावय किसान
खातू पलागे गाड़ा थिरागे, अक्ती म जमवा डारे हे धान
अब तो भइगे आके तैं ह, अरा-ररा करवाबे... रे बादर....

सुशील भोले 
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संजय नगर (टिकरापारा) रायपुर (छ.ग.)


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Sunday 1 June 2014

ये क्या हो रहा है....

(बलात्कार की लगातार आ रही खबरों से पीडि़त होकर लिखा गया गीत...)















ये क्या हो रहा है मेरे देश में,
कांटे खिले हैं फूलों के वेश में
मेरा जख़्म भरा ये बदन देखिये,
कह रहा है कहानी किस क्लेश में...

कोई तो बताये अब कहाँ है अमन
जिस धरा को कहते हैं हम सब चमन
संस्कारों के बीज अब गये गर्दिश में....

गीत गौरव के अपने अब गायें कहाँ
सिर उठाकर सुरों को सजायें कहाँ
इसकी चर्चा तो फैल गई दूर-देश में...

आओ बेटी बचायें पूरी निष्ठा से हम
गरिमा को ना छोड़ें किसी के रहमोकरम
कहीं बदल न जाये ये समाज अवशेष में....

सुशील भोले 
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