Monday 26 October 2015

बांटा हमने अमृत-अमृत......
















बांटा हमने अमृत-अमृत पाया निरा जहर
भलमनसाहत के बदले, टूटा केवल कहर
क्यों हुआ ऐसा, क्यों बदला प्रेम का मंजर
कौन है अपना-बिराना, नहीं थी यही खबर

सुशील भोले
मो. 098269-92811, 080853-05931 

Friday 23 October 2015

निच्चट महुरा कस करू हे....
















निच्चट महुरा कस करू हे मोर सरपट बानी
कतकों के हिरदे हो जाथे सुन के चानी-चानी
फेर करू करेला का मिठाही सुन एकर ले जादा
सिरतोन अइसनेच जनाथे, सच के इही कहानी

सुशील भोले
मो. 080853-05931, 098269-92811

Wednesday 21 October 2015

राज्य निर्माण के डेढ़ दशक : क्या खोये क्या पाये?


छत्तीसगढ़ को स्वतंत्र रूप से राज्य का दर्जा मिले डेढ़ दशक होने वाले हैं. ऐसे में यह प्रासंगिक हो जाता है कि क्या जिन उद्देश्यों को लेकर राज्य निर्माण की आधार शिला रखी गई थी, वे पूरे हो सके हैं?

 सन् 1956 में केन्द्र शासन द्वारा भाषाई एवं सांस्कृतिक आधार पर राज्य पुनर्गठन आयोग की स्थापना की गई थी, तब से लेकर 1 नवंबर 2000 तक अर्थात् राज्य निर्माण होने तक यहां विभिन्न संस्थाओं द्वारा हर स्तर पर आन्दोलन किया गया था. एक स्वप्न को लेकर, एक उद्देश्य को लेकर कि यहां के मूल निवासी जो स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात से ही उपेक्षा के शिकार हैं, उनके हाथों में यहां का शासन-प्रशासन आयेगा और वे अपनी अस्मिता की भाषाई एवं सांस्कृतिक आधार पर नई पहचान बनायेंगे. यहां के इतिहास को गौरव के बोध से परिचित करायेंगे. लोगों को रोजगार और विकास के साथ जोड़ेंगे.

तब प्रश्न उठता है कि क्या इन पंद्रह वर्षों में ऐसा हो पाया है? और यदि नहीं हो पाया है तो क्यों नहीं हो पाया है? ऐसे क्या कारण हैं जो राज्य आन्दोलनकारियों के स्वप्न को आज तक उलाहना दे रहे हैं?

सत्ता पर कौन?
सबसे पहला प्रश्न सत्ता को लेकर ही खड़ा किया जाता है, क्योंकि यहां के मूल निवासियों के हाथों में सत्ता का सूत्र देखने को लेकर ही बाकी सब आयाम गढ़े गये थे. 1 नवंबर 2000 को राज्य निर्माण हुआ तब छत्तीसगढ़ में कांग्रेस के विधायकों की संख्या अन्य राजनीतिक दलों से ज्यादा थी. इसलिए स्वभाविक तौर पर यहां कांग्रेस को सरकार की बागडोर सौंप दी गई.

अजीत जोगी के नेतृत्व में छत्तीसगढ़ में पहली सरकार का गठन हुआ. कुछ दिन तो ऐसा लगा कि छत्तीसगढ़ में चारों ओर छत्तीसगढिय़ों का राज्य स्थापित हो गया है. लेकिन धीरे-धीरे यह भ्रम टूटने लगा, जब यहां के मूल निवासियों को जातियों के नाम पर आपस में उलझाने और पिछवाड़े के रास्ते से बाहरी कहे जाने वाले लोगों को सत्ता के गलियारे में प्रवेश करवाया जाने लगा. यहां की भाषा, संस्कृति, गौरव और इतिहास के लिए किसी के पास समय नहीं था. न सत्ता पर काबिज मंत्रियों के पास न अधिकारियों के पास. नतीजा चारों तरफ नाराजगी और परिणाम स्वरूप अजीत जोगी को छत्तीसगढ़ राज्य में हुए प्रथम चुनाव में हार का मुंह देखना पड़ा.

इसके पश्चात डॉ. रमन सिंह के नेतृत्व में भाजपा की सरकार बनी जो अपने तीसरे कार्यकाल के रूप में अभी तक जारी है, लेकिन उनके भी इन तीनों कार्यकाल में जिन आकांक्षाओं के लिए राज्य निर्माण हुआ वह अभी भी आस लगाये बाट जोह रही है. अपितु यह कहना ज्यादा अच्छा होगा कि अब छत्तीसगढिय़ों की पहचान भी मिटने और सिमटने लगी है. बाहर के राज्यों से आ रहे लोगों को पूरी बेशर्मी के साथ बसाया जा रहा है, और स्थानीय लोगों को उनके अपने घरौंदों से बेदखल किया जा रहा है.

 यहां  के लोगों को बेदखल करने का काम हर क्षेत्र में किया जा रहा है, सामाजिक क्षेत्र में, सांस्कृतिक क्षेत्र में, राजनीतिक क्षेत्र में, प्रशासनिक क्षेत्र में और तो और धार्मिक क्षेत्र में भी बाहर के तथाकथित साधु-संतों को यहां थोपा जा रहा है. छत्तीसगढ़ी अस्मिता पूरी तरह तार-तार हो गई है. उसकी कहीं कोई पहचान और अस्तित्व दिखाई नहीं देती. कुछ छत्तीसगढिय़ा कहे जाने वाले लोगों को मंत्रीमंडल में अवश्य स्थान दिया जाता है, लेकिन ये उस श्रेणी के होते हैं, जिन्हें हम चारण भाट या पिछलग्गू होने के नाम पर स्मरण करते हैं. इतिहास के पन्ने ऐसे लोगों के कारनामों और तथाकथित निष्ठा से रंगे हुए हैं, जिन्हें घर के भेदी के नाम से सभी याद करते हैं.

भाषा और संस्कृति कहां?
भाषाई एवं सांस्कृतिक आधार पर निर्मित छत्तीसगढ़ प्रदेश की भाषा और संस्कृति आज किस मुकाम पर खड़ी है, यह किसी से छुपी हुई नहीं है? आज भी यहां की ये मूल पहचान अपने लिए आश्रयदाता की तलाश कर रही है. कहने को तो छत्तीसगढ़ी भाषा को राज्य में हिन्दी के साथ राजभाषा का दर्जा देकर राजभाषा आयोग की स्थापना कर दी गई है, लेकिन उसके नाम पर कुछ लोगों को रेवड़ी खिलाने के अलावा और कुछ भी नहीं हो रहा है.

जहां तक संस्कृति की बात है, तो इसकी स्थिति दिनों दिन बदतर होती जा रही है, क्योंकि राष्ट्रीय संस्कृति के नाम पर यहां अन्य प्रदेशों की संस्कृति को बेशर्मी के साथ थोपा जा रहा है. यहां के मेले-मड़ाई को कुंभ बनाकर बाहरी अपात्र लोगों को यहां साधु-संतों के रूप में महिमा मंडित किया जा रहा है. उनके लिए करोड़ों रूपया खर्च कर राज्य अतिथि का दर्जा दिया जा रहा है. कुल मिलाकर मूल संस्कृति और मूल पहचान को, उन्हें जीने और प्रचार-प्रसार करने वालों को पूरी तरह से नष्ट किया जा रहा है.

कला के क्षेत्र में भी कमोबेश यही स्थिति है. संस्कृति विभाग के बजट को देखकर इस बात की पुष्टि की जा सकती है. यहां के कलाकार उपेक्षा के शिकार हैं और बाहर के कलाकारों को मालामाल किया जा रहा है. छत्तीसगढ़ की कला के लिए कुल बजट का एक चौथाई हिस्सा भी नहीं दिया जाता.

संस्कृति विभाग के द्वारा प्रतिवर्ष यहां के साहित्यकारों को राज्योत्सव के अवसर पर सम्मानित किया जाता है. हिन्दी के साहित्यकारों को ही इसमें प्राथमिकता दी जाती है. छत्तीसगढ़ी भाषा के साहित्यकारों के लिए अलग से पुरस्कार की कोई व्यवस्था नहीं है. इसे हिन्दी के साथ जोड़ दिया गया है. जबकि इसी प्रदेश में उर्दू के लिए अलग से पुरस्कार की व्यवस्था है, जो इस बात का प्रमाण है कि यहां केवल बाहरी लोगों को ही उपकृत करने का अभियान चलाया जा रहा है.

विकास किसका? 
भाजपा की सरकार जब से प्रदेश में काबिज हुई है तब से ही विकास का बड़ा शोर सुनाई दे रहा है. चूंकि यह पार्टी व्यापारी समुदाय की पोषक पार्टी के रूप में पहचानी जाती है, इसलिए व्यापारियों को उपकृत करने के लिए अनेकों प्रयास हुए और उन्हें विकास का नाम दे दिया गया. यहां के उपजाऊ खेतों को उजाड़ कर उनके स्थान पर बड़े-बड़े कल-कारखाने स्थापित करवा दिए गये. जीवनदायिनी नदियों के जल को खेतों को न देकर उन उद्योगों की प्यास बुझाने के लिए दे दिया गया. तब यह प्रश्न उठना लाजिमी है, कि यहां विकास किसका हुआ?

क्या यहां के मूल निवासी किसानों का अथवा बाहर से आकर यहां स्थापित हो रहे व्यापारियों का? इन उद्योगों में स्थानीय लोगों को रोजगार उपलब्ध कराने की बात कही जाती है. लेकिन यह देखा जा रहा है कि बाहर से आने वाले ऐसे सभी उद्योग अपने साथ काम करने वाले अधिकारी और प्रशिक्षित श्रमिक भी साथ में लेकर आते हैं. यहां के लोगों को कुछ छोटे-मोटे ठेकेदारों के साथ दिहाड़ी मजदूरों के रूप में भले ही रख लेते हैं, उससे ज्यादा कुछ भी नहीं. अलबत्ता बाहर से आने वाले ये श्रमिक जरूर यहां की सामाजिक समरसता को विकृत करने का काम कर रहे हैं, यह अलग मुद्दा है.

कृषि की स्थिति?
धान कटोरा के नाम से प्रसिद्ध छत्तीसगढ़ में आज कृषि की क्या स्थिति है, यह विचारणीय है? क्योंकि इसकी पहचान ही कृषि रही है. आज भी यहां की 60 से 70 प्रतिशत आबादी किसी न किसी रूप से कृषि पर आश्रित है. लेकिन यह देखा जा रहा है कि राज्य निर्माण के पश्चात कृषि की उपेक्षा कर उद्योगों को ज्यादा महत्व दिया जा रहा है. किसानों को न तो ठीक से पानी दिया जाता न बिजली दी जाती. खाद, उर्वरक और अन्य आवश्यक चीजों का भी टोटा ही रहता है. फिर भी जद्दोजहद करके किसान फसल उपजा भी लेता है, तो सरकार न तो उसे उचित दर पर खरीदती है, और न ही उसे सही ढंग से संरक्षित ही करती है.

प्रदेश में कृषि रकबा जरूर प्रतिवर्ष घटता जा रहा है, जिसके लिए सरकार की उस नीति को दोषी कहा जा सकता है, जिसमें वह उपजाऊ खेतों को, उनके जल-बिजली जैसे आवश्यक अधिकारों को जबरन छीन कर उद्योगपतियों को समर्पित करती जा रही है.

जंगल और खनिज संपदा?
प्रदेश में जंगल और खनिज संपदा का जिस बेदर्दी से दोहन हो रहा है, यह बात अब किसी को विस्तार से बताने की आवश्यकता नहीं रह गई है. मानसून का दगाबाज बनना भी इसका ही एक परिणाम है. वन प्रदेश के रूप में पहचाने जाने वाला छत्तीसगढ़ प्रदेश में अब शहर और गांवों में हरे-भरे पेड़ देखने के लिए मोहताज होता जा रहा है. जंगली जानवर जंगलों में आवश्यक भोजन-पानी नहीं मिल पाने के कारण गांव और शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं. इस बात की जानकारी प्रतिदिन यहां के अखबारों में सुर्खियों के साथ छपती हैं.

 यहां खनिज संपदा का जिस बेदर्दी के साथ दोहन हो रहा है, यह बेहद आश्चर्य जनक है. ऐसा शायद ही किसी अन्य प्रदेश में घटित हो रहा होगा. एक तरफ शासन खनिज संपदा को भू-गर्भ से निकालने के नाम पर स्थानीय लोगों को जबरिया उनकी जमीन से बेदखल कर रही है तो दूसरी ओर उसके ही नुमाइंदों के संरक्षण में अवैध खनन का कारोबार भी समृद्ध हो रहा है. स्थानीय जनता चारों ओर से हलाकान है. उन्हें उनके जमीन से हंकाला जा रहा है, और साथ ही खनिज उत्खनन में उसको कोई लाभ भी नहीं मिल रहा है. यह लूट और दगाबाजी पराकाष्ठा का उदाहरण है, जो राज्य निर्माण के पश्चात ही बहुतायत में देखने में आ रहा है.
   
रोजगार के अवसर?
राज्य निर्माण के पश्चात इस प्रदेश में रोजगार के अवसर किस मात्रा में बढ़े और उस पर कौन काबिज हुए इस पर भी ध्यान दिया जाना आवश्यक है. क्योंकि राज्य निर्माण की अवधारणा में इसका स्थान प्रमुखता से शामिल था.

जहां तक राज्य में स्थापित हो रहे उद्योगों के माध्यम से रोजगार मिलने की बात है, तो इसे सभी जान रहे हैं कि स्थनीय जनता इसमें केवल ठगे जा रहे हैं, छले जा रहे रहे. शासन के तंत्र के अंतर्गत मिलने वाले रोजगारों में भी यहां के लोगों की स्थिति अच्छी नहीं है. राज्य में निर्मित प्रथम सरकार के समय जिस तरह से राज्य परिवहन निगम को बंद कर  कर्मचारियों को बेरोजगार बनाने का सिलसिला प्रारंभ हुआ, वह आज चौतरफा दिखाई देने लगा है। राजधानी रायपुर का बूढ़ातालाब स्थित धरना स्थल इसका ज्वलंत प्रमाण है, जहां प्रतिदिन सैकड़ों और हजारों की संख्या में लोग शासन की नीतियों और बेरोजगारी के मुद्दे पर डेरा डाले रहते हैं.

मिडिया और प्रसारण तंत्र?
आजादी के आन्दोलन के समय देश की पत्रकारिता की बड़ी इज्जत थी. पत्रकारों को सर्वथा सम्मान के साथ ही देखा और संबोधित किया जाता था. लेकिन जैसे ही देश आजाद हुआ, उसके बाद से इस पेशे में लगातार गिरावट देखी जा रही है. अब मिडिया संस्थान सरकार और विज्ञापन दाता व्यावसायिक प्रतिष्ठानों के प्रचारक और एजेंट के रूप में चिन्हें जाने लगे हैं. आम जनता और उनसे जुड़े मुद्दे इनके लिए गौण होते जा रहे हैं. यह कहना ज्यादा उचित होगा कि ये आमजनों को भ्रमित करने वाले तत्व के रूप में ज्यादा देखे जाने लगे हैं. ऐसे में यह कैसे विश्वास किया जा सकता है कि इनके माध्यम से इस प्रदेश की तथाकथित विकसित और समृद्ध छवि में सच्चाई ही है?

क्या खोये क्या पाये?
कुल मिलाकर राज्य निर्माण के ये पंद्रह वर्ष अपेक्षाओं की कसौटी में असफल ही कहे जायेंगे. राज्य आन्दोलनकारियों के स्वप्न और संर्घष के साथ छलावा करने वाले कहे जायेंगे. इन डेढ़ दशकों में हमारी अस्मिता अपनी पहचान खोने लगी है. हमारे लोग विस्थपित किये जा रहे हैं. शासन-प्रशासन को जिन लोगों से मुक्त करने का स्वप्न देखा गया था, वे और भी ताकत के साथ यहां काबीज होने लगे हैं. अब पाने के नाम पर केवल क्रांति का मार्ग ही दिखाई देता है.

सुशील भोले
 डॉ. बघेल गली, संजय नगर, रायपुर (छ.ग.)
मोबा. नं. 080853-05931, 098269-92811
ईमेल -  sushilbhole2@gmail.com

'अगुवा" काबर..?

(छत्तीसगढ़ी अखबार *अगुवा* के प्रकाशन पर 30 अक्टूबर 2015 को मेरे द्वारा लिखा गया संपादकीय)

तइहा जुग ले छत्तीसगढ़ अपन अगुवाई खुदे करत आवत रिहिसे, फेर अभी कुछ बछर ले ये देखे म आवत हे के आने-आने ठीहा ले आये मनखे मन इहां के अगुवाई अउ मुखियाई म जुरिया गे हवंय। आखिर काबर अइसन देखब म अवत हे? का छत्तीसगढ़ म अगुवा बने के क्षमता अब कोनो म नइ रहिगे हे, या फेर इहां के मनखे मनला जानबूझ के अगुवाई करे ले छेंके अउ रोके जावत हे?

ये ह आज के सबले जादा गुनान के बात आय। ये देश के अउ कोनो राज म अइसन दृश्य नइ देखे जाय, के उहां अन्ते के मनखे मन राज करत होयँ। हां, ए बात अलग हे के थोड़-बहुत भागीदारी अन्ते ले आये मनखे मन के घलोक उहां के सत्ता म रहिथे, फेर मुखिया या कहिन अगुवा उहां के मूल निवासी समाज के ही मनखे मन होथें।
ये बात चाहे राजनीति के विषय म होय या कला, साहित्य, भाषा, संस्कृति, धर्म, समाज या अउ कोनो भी क्षेत्र के बात होय सबो म अइसने नजारा देखे म आथे।

ये विषय म जब चिंतन करबे त लागथे के राजनीति के राष्ट्रीयकरण होय के सेती अइसन नजारा देखे म आवत हावय। काबर ते आज लोकतांत्रिक व्यवस्था म राजनीतिच ह जम्मो क्षेत्र के रिमोट कंट्रोल बनगे हवय। वो जइसन नचाथे, वइसन सब नाचथें। अउ सबले दुखद बात ये आय के आज राजनीति ह अपन खुद के राज ले चले के बदला केन्द्र ले, माने दिल्ली ले चले बर धर लिए हे। एकरे सेती दिल्ली ह अइसन मनखे मनला इहां लाद देथे, जिनला इहां के न तो कोनो जिनिस ले कोनो लेना-देना होथे, अउ न कोनो किसम के कोनो ठोस जानकारी होथे। इही पाय के चारों मुड़ा बाहिरी कहे जाने वाला मनखे मुखिया के रूप म देखे म आथे, कोनो विशेष योग्यता खातिर नहीं।

आखिर ये बात के समाधान का हो सकथे? अइसन दृश्य ले छुटकारा कइसे मिल सकथे? कइसे इहां के लोगन अगुवा के भूमिका म आ सकथें? एकर ऊपर बड़का गुनान के जरूरत हे। तभे छत्तीसगढ़ राज के अलग राज बने के कोनो सार हे।

सबले पहिली एकर बर जेन विचार आथे, वोकर अनुसार अइसन लागथे के इहां के लोगन के अपन खुद के कोनो राजनीतिक पार्टी होना चाही, जेमा निमार-छांट के अरुग छत्तीसगढिय़ा मनला चुनावी टिकट दिए जा सकय। फेर कई झन मन ये दिशा म काम-बुता घलोक कर डारे हें, छोटे-छोटे क्षेत्रीय दल बना के जोर-आजमाईश कर डारे हें, फेर हासिल आईस कुछु नहीं।

आखिर अइसन काबर होथे? का राष्ट्रीय कहे जाने वाला दल म बइठे लोगन, उनला सफल होय म बाधा डारथें? हां, डारथें तो जरूर, अउ सबले जादा वोमन जेला हम छत्तीसगढिय़ा कहिथन। फेर वास्तव म वोमन दलाल होथें, राजनीतिक दलाल, जेन नानमुन पद के लालच म पूरा अपन राज्य के भाग्य ल बाहिरी मनखे के मुखियाई म सौंप देथें। लागथे के अइसने मन के ठिकाना पुरोना के बुता ल सबले पहिली होना चाही। काबर ते ए 'घर के भेदी लंका ढाये" वाला खेल ल करत रहिथें।

जेन दिन इहां के राजनीतिक सत्ता मूल निवासी मन के हाथ म आ जाही, वो दिन अउ जम्मो क्षेत्र के मुखियाई घलोक मूल निवासी मन के हाथ म आ जाही।

'अगुवा" इही सब के बात के सुरता देवाए अउ वोकर समाधान के रद्दा सुझाए खातिर 'टेबलाइज्ड अखबार" के रूप म आपके हाथ म आज ले आवत हे। भरोसा हे आपके मया-दुलार मिलही अउ छत्तीसगढ़ महतारी ल वोकर असली अगुवा बेटा मिलही, जेमन अपन पुरखा मन के सपना के अनुसार छत्तीसगढ़ राज के निर्माण करहीं।

कब तक पिछवाए रइहू अब तुम अगुवा बनव रे
नंगत लूटे हें हक ल तुंहर, अब बघवा बनव रे।।

* सुशील भोले *

नवा बिहान के आस....


मुंदरहा के सुकुवा बिखहर अंधियारी रात पहाये के आरो देथे। सुकुवा के दिखथे अगास म अंजोर छरियाये के आस बंध जाथे। चिरई-चिरगुन मन चंहचंहाये लगथे, झाड़-झरोखा, तरिया-नंदिया आंखी रमजत लहराए लगथें। रात भर के खामोशी नींद के अचेतहा बेरा के कर्तव्य शून्य अवस्था ले चेतना के संसार म संघराये लगथे। तब कर्म बोध होथे, अपन धरम-करम के गोठ सुझथे, सत्-सेवा के संस्कार जागथे, अपन-बिरान अउ अनचिन्हार के पहिचान होथे।

नवा बछर घलो बीतत बछर के अनुभव के माध्यम ले लोगन ल अइसने किसम के नवा आस देथे, नवा बिसवास देथे, नवा रस्ता देथे, नवा नता-गोता, संगी-साथी अउ हितवा मन के संसार देथे। अपन पाछू के करम मन के गुन-अवगुन अउ सही गलत के पहिचान कराथे। करू-कस्सा, सरहा-गलहा मन ले पार नहकाथे, खंचका-डबरा अउ कांटा-खूंटी मन ले अलगे रेंगवाथे। तब जाके मनखे ह मनखे बनथे, वोकर छाप ह जगजग ले उज्जर अउ सुघ्घर दिखथे। लोगन ओला संहराथें, पतियाथें अउ आदर्श मान के ओकर अनुसरण करथें।

छत्तीसगढ़ अभी विकास के दृष्टि ले बालपन म हवय। कुल जमा डेढ़ दसक तो बीते हे, एकर स्वतंत्र अस्तित्व के सिरजन होये। इही अवस्था ककरो भी निर्माण के बेरा होथे। वोला सुंदर आकार, संस्कार अउ सदाचार के गुन म पागे के। आज जइसे एकर नेंव रचे जाही, तइसे काल के एकर स्वरूप बनही। सैकड़ों अउ हजारों बछर ले पर के गुलामी भोगत ये माटी के रूआं-रूआं म लूटे के, हुदरे के, चुहके के, टोरे के, फोरे के, दंदोरे के, भटकाये के, भरमाये के, तरसाये के, फटकारे के चिनहा दिखत हे।

अभी घलोक एला अपन पूर्ण स्वरूप के चिन्हारी नइ मिल पाये हे। काबर ते कोनो भी राज के चिन्हारी वोकर खुद के भाखा अउ खुद के संस्कृति के स्वतंत्र पहिचान ले होथे, जे अभी तक अधूरा हे। अउ ये स्वतंत्र स्वरूप के चिन्हारी आज के पीढ़ी ल करना परही। हमर ददा-बबा मन के पीढ़ी ह एला स्वतंत्र पहिचान देवाये खातिर एक अलग प्रशासनिक ईकाई के रूप म तो बनवाये के बुता ल पूरा कर देइन। अब एकर संवागा के जोखा हम सबके हे। कइसे एला आकार देना हे, विस्तार देना हे, पहिचान देना हे, साज अउ सिंगार देना हे, ये हमार पीढ़ी के बुता आय।

ददा-बबा मन जेन सपना ल देखे रहिन हें, वो सपना ल, वो सुघ्घर रूप ल हमन ल गढऩा हे। एकर भाखा ल, साहित्य ल, कला ल, संस्कृति ल, जुन्ना आचार-व्यवहार ल, जीये के उद्देश्य अउ धर्म-संस्कार ल हमन ल बनाना हे। एकर बर पूरा ईमानदारी के साथ हर किसम के स्वारथ ले ऊपर उठके समरपित भावना ले काम करे के जरूरत हे। ए बुता सिरिफ राजनीति के माध्यम ले पूरा नइ हो सकय, एकर बर हर वो माध्यम अउ मंच ल आगू आये के जरूरत हे, जेकर द्वारा समाज संचालित होथे।

छत्तीसगढ़ ल अपन पूर्ण स्वरूप के चिन्हारी मिलय इही आसा अउ बिसवास के साथ आप सबो झन ला नवा राज्य निर्माण दिवस के बधाई अउ जोहार-भेंट.....

सुशील भोले
डा. बघेल गली, संजय नगर, रायपुर (छ.ग.)
मोबा. नं. 080853-05931, 098269-92811

Tuesday 20 October 2015

दशहरा या दंसहरा...?


क्वांर मास की शुक्लपक्ष दशमी तिथि को मनाये जाने वाला पर्व दशहरा है या दंस+हरा = दंसहरा है ..?

ज्ञात रहे कि विजया दशमी और दशहरा दो अलग-अलग पर्व हैं। लेकिन हमारी अज्ञानता के चलते इन दोनों को गड्ड-मड्ड कर एक बना दिया गया है।

जहां तक विजया दशमी की बात है, तो इसे प्राय: सभी जानते हैं कि यह भगवान राम द्वारा आततायी रावण पर विजय प्राप्त करने के प्रतीक स्वरूप मनाया जाने वाला पर्व है। लेकिन दशहरा वास्तव में दंसहरा है, और यह पर्व आज की तारीख में केवल छत्तीसगढ़ के बस्तर में जीवित रह गया है, लेकिन दुर्भाग्य से इसकी कथा को भी बिगाड़ कर लिखा जाने लगा है।

दशहरा वास्तव में दंस+हरा=दंसहरा है। दंस अर्थात विष हरण का पर्व है। सृष्टिकाल में जब देवता और दानव मिलकर समुद्र मंथन कर रहे थे, और समुद्र से विष निकल गया था, जिसका पान (हरण) भगवान शिव ने किया था, जिसके कारण उन्हें नीलकंठ कहा गया था। इसीलिए इस तिथि को नीलकंठ नामक पक्षी को देखना आज भी शुभ माना जाता है। क्योंकि इस दिन उन्हें शिव जी (अपने कंठ में विषधारी नीलकंठ) का प्रतीक माना जाता है।

समुद्र मंथन सभी देवता और दानव मिलकर किये थे, इसीलिए बस्तर (छत्तीसगढ़) में जो दशहरा (रथयात्रा) का पर्व मनाया जाता है, उसमें भी पूरे बस्तर अंचल के देवताओं को एक जगह (रथ स्थल पर) लाया जाता है, और रथ को खींचा जाता है। वास्तव में यह रथ मंदराचल पर्वत का प्रतीक स्वरूप होता है।

ज्ञात रहे कि पूर्व में प्रति वर्ष बनने वाले इस रथ को आगे-पीछे खींचा जाता था, और इस दौरान रथ के टूट जाने पर रथ खींचने वाले सभी लोग रथ को छोड़कर चारों तरफ भागते थे। यह विष निकलने के प्रतीक स्वरूप होता था। बाद में सभी लोग पुन: रथ स्थल पर एकत्रित होते थे। तब उन्हें दोना में मंद (शराब) दिया जाता था, जो कि विष (पान या हरण) का प्रतीक स्वरूप होता था।

लेकिन बहुत दुख के साथ यह कहना पड़ रहा है कि इसके मूल स्वरूप और कथा को वैसे ही बिगाड़ा जा रहा है, जैसे कि राजिम (छत्तीसगढ़) के प्रसिद्ध पारंपरिक मेला को कुंभ के नाम पर बिगाड़ा जा रहा है। कुलेश्वर महादेव के नाम पर भरने वाले मेले को राजीव लोचन के नाम पर भरने वाला कुंभ कहा जा रहा है।

आप लोगों को तो यह ज्ञात ही है कि समुद्र से निकले विष के हरण के पांच दिनों के पश्चात अमृत की प्राप्ति हुई थी। इसीलिए हम आज भी दंसहरा के पांच दिनों के पश्चात अमृत प्राप्ति का पर्व शरद पूर्णिमा के रूप में मनाते हैं।

ज्ञात रहे कि छत्तीसगढ़ की मूल संस्कृति, जिसे मैं आदि धर्म कहता हूं वह सृष्टिकाल की संस्कृति है। युग निर्धारण की दृष्टि से कहें तो सतयुग की संस्कृति है, जिसे उसके मूल रूप में लोगों को समझाने के लिए हमें फिर से प्रयास करने की आवश्यकता है, क्योंकि कुछ लोग यहां के मूल धर्म और संस्कृति को अन्य प्रदेशों से लाये गये ग्रंथों और संस्कृति के साथ घालमेल कर लिखने और हमारी मूल पहचान को समाप्त करने की कोशिश कर रहे हैं।

मित्रों, सतयुग की यह गौरवशाली संस्कृति आज की तारीख में केवल छत्तीसगढ़ में ही जीवित रह गई है, उसे भी गलत-सलत व्याख्याओं के साथ जोड़कर भ्रमित किया जा रहा। मैं चाहता हूं कि मेरे इसे इसके मूल रूप में पुर्नप्रचारित करने के सद्प्रयास में आप सब सहभागी बनें...।

सुशील भोले
संस्थापक, आदि धर्म सभा
डा. बघेल गली, संजय नगर, रायपुर (छ.ग.)
मोबा. नं. 080853-05931, 098269-92811
ईमेल - sushilbhole2@gmail.com

Monday 19 October 2015

कुल-देवता और मूल-देवता..


डुमन लाल बड़ा दुखी था. एक दिन मुझसे पूछ बैठा- 'गुरुजी, मैं बहुत मेहनत करता हूं. देवी-देवताओं की पूजा भी करता हूं, तब भी पिछड़ापन और गरीबी मेरा साथ नहीं छोड़ती. आखिर बात क्या है?"

मैंने उससे कहा- 'मेहनत का काम तो अच्छा है, लेकिन ये बताओ कि तुम किसकी पूजा करते हो?"

डुमन बोला- 'पंडित जी ने जिन देवताओं की पूजा करने के लिए कहा है, उन सभी देवताओं की पूजा करता हूं."

मैंने फिर पूछा- 'अच्छा ये बताओ, तुम अपने कुल देवता की पूजा करते हो या नहीं?"

उसने नहीं में सिर हिलाया और कहा- 'गुरुजी, कुल देवता की तो नहीं करता. दरअसल पंडित जी हमारे घर में पूजा करने के लिए एक दिन अपने थैले में जिन देवताओं को लेकर आये थे, उन्हीं देवताओं की रोज पूजा करता हूं."

मैंने आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा- 'अरे डुमन तुम यह बताओ, तुम्हारे घर में खुशहाली कब आयेगी, तुम्हारे अपने देवता के खुश होने पर या बाहर के देवता के खुश होने पर? तुम बाहर के देवता की पूजा करते हो इसीलिए बाहरी कहे जाने वाले लोग खुशहाल हैं, तुम पर राज कर रहे हैं. देख लो पूरी दुनिया में ऐसा ही हो रहा है.

तुमको यदि खुशहाली चाहिए तो तुम्हे अपने कुल देवता की पूजा करनी पड़ेगी. और यदि तुम अपना राज भी चाहते हो तो तुम्हे अपने मूल देवता की भी पूजा करनी पड़ेगी. नहीं तो जीवन भर ऐसी ही गुलामी भोगते रह जाओगे। क्योंकि धर्म और संस्कृति लोगों को गुलाम बनाने का सबसे सरल और आसान साधन है. तुम देख ही रहे हो जिन लोगों को तुमने धर्म के नाम पर अपने सिर पर बिठा लेने का गलत फैसला लिया था, वे आज हर क्षेत्र में काबिज होते जा रहे हैं. और तुम केवल मूक दर्शक बने हुए हो".

मैंने उससे फिर पूछा- 'अच्छा ये बताओ, तुम इन सब चीजों से मुक्ति चाहते हो या नहीं? "

उसने कहा- 'हां गुरुजी, अवश्य मुक्ति चाहता हूं."

तब मैंने कहा- 'यदि तुम राजनैतिक, सामाजिक और अर्थिक गुलामी से मुक्त होना चाहते हो तो सबसे पहले तुमको धार्मिक एवं सांस्कृतिक गुलामी से मुक्त होना पड़ेगा. बाहर से लाये गये देवताओं को छोड़कर अपने कुल देवता और मूल देवता की पूजा करनी पड़ेगी, तभी तुम पहले की तरह सुखी हो पाओगे, और तभी पहले के ही समान यहां का राज भी तुम्हारे अपने हाथों में आ पायेगा।"

मुझे लगा कि डुमन लाल को मेरी बातें समझ में आ गई थीं, क्योंकि उसके चेहरे पर तैरते दृढ़ता के भाव इस बात की पुष्टि कर रहे थे. और तभी डुमन गरज उठा- 'जय कुल देवता... जय मूल देवता..."

सुशील भोले
संस्थापक, आदि धर्म सभा
डॉ. बघेल गली, संजय नगर, रायपुर (छत्तीसगढ़)
मोबा. नं. 098269-92811, 080853-05931
ईमेल -  sushilbhole2@gmail.com

बीत जाही जिनगी ले सिरतो.....






बीत जाही जिनगी ले सिरतो घन अंधियारी रात
मोर पिरित के अंगना म अब सजत हावय साज
मया के बरखा रोजेच होही देही सांस भर साथ
अन्नपूर्णा जब खेत ले आके कोठी म जाही साज

सुशील भोले
 मो. 080853-05931, 098269-92811

Friday 9 October 2015

छट्ठी - बरही धूम-धड़ाका....


















छट्ठी - बरही धूम-धड़ाका उत्सव जस तिहार
समधिन मन सब भेंट होहीं लेहीं गला पोटार
नाचा-गम्मत खेल तमाशा ये सब तो होबे करही
मिल के फेर सब सोहर गाहीं इही हमर संस्कार

सुशील भोले
मो. 080853-05931, 098269-92811

Thursday 8 October 2015

सरहा-गलहा परंपरा ल.....













सरहा-गलहा परंपरा ल अब तो छोड़ देवौ
अंधभक्ति अउ विश्वास ले मुंह ल मोड़ लेवौ
कब तक पूजत रइहौ, बिन मुंह के जीव ल
बोकरा के घलो जीव होथे जिनगी वोला दे देवौ

सुशील भोले
 मो. 080853-05931, 098269-92811

Wednesday 7 October 2015

गोदना की परंपरा और शिव-पार्वती का छत्तीसगढ़ प्रवास

 छत्तीसगढ़ में गोदना की परंपरा उतनी ही पुरानी है, जितनी पुरानी यहां की सभ्यता है। ऐसा कहा जाता है कि शिव जी पार्वती के साथ लगभग 16 वर्षों तक छत्तीसगढ़ प्रवास पर थे, उसी समय इस गोदना प्रथा का यहां पर चलन प्रारंभ हुआ।

इसके संबंध में जो जनश्रुति मिलती है उसके अनुसार शिव जी पार्वती के साथ यहां निवास कर रहे थे। तब उनसे मिलने के लिए यहां के वनवासी और उनके भक्त आते थे। एक बार शिव जी ने अपने यहां भोज का आयोजन किया और सभी लोगों को अपने परिवार के साथ आने का न्यौता दिया।

ेभोज का आमंत्रण प्राप्त होने पर गोंड़ देवता अपनी पत्नी के साथ शिव जी के यहां गये। वहां खूब आव-भगत हुई। छककर खाना-पीना हुआ। वापस घर जाने के समय गोंड़ देवता अपनी पत्नी को, जो अन्य महिलाओं के साथ पीछे मुंह करके खड़ी थी, को पहचान नहीं पाये। उन्होंने डिल-डौल से अंदाज लगाकर एक महिला के कंधे पर हाथ रख दिया। वह महिला उसकी पत्नी नहीं, अपितु पार्वती निकली। उसे देखकर गोंड़ राजा को दुख हुआ, और उसने पार्वती माफी भी मांग ली।



पार्वती इस घटना से दुखी हुई, किन्तु भोलेनाथ गलती को महसूस कर मंद-मंद मुस्कुराए और इस तरह के धोखे से बचने के लिए महिलाओं को अलग-अलग आकार-प्रकार के गोदना गोदाने की सलाह दिए, तब से यहां की आदिवासी महिलाएँ अपने शरीर में विशेष पहचान बनाने और स्थाई श्रृंगार करने के लिए गोदना गोदाने लगीं।

इस जनश्रुति में कितनी सच्चाई है, इसे तो प्रमाणित तौर पर कहा नहीं जा सकता, लेकिन इस बात को असत्य भी नहीं कहा जा सकता। एक और जनश्रुति है, जिससे गोदना वाली परंपरा को बल मिलता है।

कहते हैं कि जब गणेश जी को प्रथम पूज्य का आशीर्वाद दे दिया गया तो उनके बड़े भाई कार्तिकेय रूठकर कैलाश छोड़कर दक्षिण भारत चले आये। ज्ञात रहे कि दोनों भाईयों के बीच इसके लिए प्रतियोगिता रखी गई थी कि जो भी पृथ्वी की पहली परिक्रमा कर आयेगा उसे ही प्रथम पूज्य का अधिकार दिया जायेगा। कार्तिकेय तो अपने मयूर पर उड़कर पृथ्वी की परिक्रमा करने लगे, लेकिन गणेश जी अपने माता-पिता की परिक्रमा कर उनके सामने बैठ गये। माता-पिता को भी पृथ्वी का रूप मानकर गणेश को प्रथम पूज्य का अधिकार दे दिया गया।

नाराज कार्तिकेय को मनाकर वापस कैलाश ले जाने के लिए शिव जी माता पार्वती के साथ सोलह वर्षों तक छत्तीसगढ़ के बस्तर इलाके में रहे। लेकिन  रूठे हुए कार्तिकेय को मना नहीं पाये। कार्तिकेय दक्षिण भारत में ही रम गये, और शिव धर्म का प्रचार-प्रसार करने लगे। दक्षिण भारत में इसीलिए कार्तिकेय की ही सबसे ज्यादा पूजा होती है, उन्हें यहाँ मुरुगन स्वामी के नाम से भी जाना जाता है।

जो लोग छत्तीसगढ़ की प्राचीनता को मात्र रामायण और महाभारत कालीन कहकर इसकी प्राचीनता को बौना बनाने का प्रयास करते हैं, उन लोगों की बुद्धि पर तरस आता है। जिस छत्तीसगढ़ में आज भी सृष्टिकाल की संस्कृति जीवंत रूप में हम सबके समक्ष उपस्थित है, उसकी प्राचीनता मात्र द्वापर या त्रेता तक ही सीमित कैसे हो सकती है। सतयुग तक विस्तारित कैसे नहीं हो सकती?

ज्ञात रहे कि छत्तीसगढ़ की मूल संस्कृति, जिसे मैं आदि धर्म कहता हूं वह सृष्टिकाल की संस्कृति है। युग निर्धारण की दृष्टि से कहें तो सतयुग की संस्कृति है, जिसे उसके मूल रूप में लोगों को समझाने के लिए हमें फिर से प्रयास करने की आवश्यकता है, क्योंकि कुछ लोग यहां के मूल धर्म और संस्कृति को अन्य प्रदेशों से लाये गये ग्रंथों और संस्कृति के साथ घालमेल कर लिखने और हमारी मूल पहचान को समाप्त करने की कोशिश कर रहे हैं।

मित्रों, सतयुग की यह गौरवशाली संस्कृति आज की तारीख में केवल छत्तीसगढ़ में ही जीवित रह गई है, उसे भी गलत-सलत व्याख्याओं के साथ जोड़कर भ्रमित किया जा रहा। मैं चाहता हूं कि मेरे इसे इसके मूल रूप में पुर्नप्रचारित करने के इस सद्प्रयास में आप सब सहभागी बनें...।

सुशील भोले
संस्थापक, आदि धर्म सभा
संजय नगर, रायपुर (छ.ग.)
मोबा. नं. 080853-05931, 098269-92811

ज्ञान-सार...

* ज्ञान और आशीर्वाद चाहे जहां से भी मिले उसे अवश्य ग्रहण करना चाहिए।

* दुनिया का कोई भी ग्रंथ न तो पूर्ण है, और न ही पूर्ण सत्य है। इसलिए सत्य को जानने के लिए साधना के माध्यम से आत्मज्ञान प्राप्त करें।

* जहां तक सम्मान की बात है, तो दुनिया के हर धर्म और संस्कृति का सम्मान करना चाहिए, लेकिन जीयें सिर्फ अपनी ही संस्कृति को। क्योंकि अपनी ही संस्कृति व्यक्ति को आत्म गौरव का बोध कराती है, जबकि दूसरों की संस्कृति गुलामी का रास्ता दिखाती है।

* अपने कुल देवता और मूल देवता की नियमित पूजा-उपासना करें, और अपने ही हाथों से पूजा करें। इसके लिए किसी भी बाहरी व्यक्ति को बुलाने की आवश्यकता नहीं है।

* महत्वपूर्ण यह नहीं है कि आप कितना अच्छा लिखते या बोलते हैं... महत्वपूर्ण यह है कि क्या आप सत्य लिखते और सत्य ही बोलते हैं?

* सब उनकी ही संतान हैं, इसलिए न तो कोई छोटा है न बड़ा... न कोई ऊँच है न ही कोई नीच...

 सुशील भोले
संस्थापक, आदि धर्म सभा
संजय नगर, रायपुर (छ.ग.)
मोबा. नं. 080853-05931, 098269-92811

Tuesday 6 October 2015

बोहरही धाम...


छत्तीसगढ़ विधान सभा भवन से उत्तर दिशा में करीब 10 कि.मी. की दूरी पर एक प्राकृतिक और मनोरम स्थल है, जिसे हम बोहरही दाई के नाम से जानते हैं। कोल्हान नदी के तट पर बसा यह स्थल पटवारी हल्का के अनुसार ग्राम पथरी के अंतर्गत आता है, लेकिन ग्राम नगरगाँव, ग्राम टोर और ग्राम तरेसर भी इसके उतने ही निकट हैं, जितना पथरी है। इसलिए इसे सभी ग्रामवासी अपने ग्राम के अंतर्गत आने वाले स्थल के रूप में मानते हंै, और उसी तरह इसके प्रति आस्था भी रखते हैं।


बोहरही दाई के इस स्थल पर आने और स्थापित होने के संबंध में बड़ी रोचक कथा बताई जाती है। ऐसा कहते हैं कि बोहरही दा किसी अन्य ग्राम से रूठकर नदी मार्ग से बहकर यहाँ आ गई थीं, और ग्राम पथरी के एक संपन्न किसान को स्वप्न देकर कि मैं यहां पर हूं, यदि तुम चाहते हो कि मैं यहीं रहूं तो मेरे रहने के लिए कोई मंदिर आदि का निर्माण करो।


उक्त कृषक ने अपने स्वप्न की बात अन्य ग्रामवासियों को बताई, जिस पर ग्रामवासियों ने उक्त स्थल का परीक्षण करने का निर्णय लिया।


कोल्हान नदी के किनारे स्वप्न में दिखाए गये स्थल पर एक प्रतिमा मिली जिसे ग्रामवासियों के कहने पर नदी से कुछ दूरी पर स्थापित किया गया। इसे ही आज बोहरही दाई के नाम पर लोग जानते हैं। बोहरही नाम  के संबंध में यह बताया बताया जाता है कि वह देवी नदी में बहकर आई थी, जिसे स्थानीय छत्तीसगढ़ी भाषा में बोहाकर आना कहा जाता है, उससे ही इसका नामकरण बोहरही हो गया।


मुंबई-हावड़ा रेल मार्ग पर स्थित बोहरही में तब केवल ग्रामवासियों द्वारा नदी स्थल से लाकर बनाया गया एक छोटा सा मंदिर ही था। उसके पश्चात एक छोटा शिव मंदिर रेल्वे वालों के द्वारा बनवाया गया। इसके संबंध में बताया जाता है कि अंगरेजों के शासन काल में जब मुंबई-हावड़ा रेल मार्ग का निर्माण कायई चल रहा था, तब पास से बहने वाले एक छोटे नाले पर पुलिया का निर्माण कार्य बार-बार बाधित हो रहा था। आधा बनता फिर गिर जाता ।



बताते हैं कि पुल के उस निमाण कार्य को एक बंगाली इंजीनियर के देखरेख में बनाया जा रहा था। उस इंजीनियर को स्वप्न आया कि बोहरही दाई के मंदिर के पास रेल विभाग के द्वारा ेक अन्य मंदिर का निर्माण करवाया जाए तो पुल का निर्माण कार्य निर्विघ्न संपन्न हो जाएगा। स्वप्न की बात पर विश्वास  करके उक्त बंगाली इंजीनियर ने बोहरही दाई के ठीक दाहिने भाग में एक शिव जी का मंदिर बनवाया, तब जाकर पुल का निर्माण कार्य पूर्ण हो पाया। उस पुलिया को आज भी लोग उस बंगाली इंजीनियर की स्मृति में बंगाली पुलिया ही कहते हैं।


बोहरही आज पूरी तरह से एक संपूर्ण धार्मिक स्ल के रूप में विकसित हो चुका है। इस स्थल पर आज विभिन्न समाज के लोगों के द्वारा कई मंदिरों का निर्माण करवाया जा चुका है। अब यह पर्यटन का भी केन्द्र बन गया है, जहां प्रतिदिन श्रद्धालुओं के साथ ही साथ घुमने-फिरने के शौकिन लोगों की भीड़ लगी रहती है। यहां प्रतिवर्ष महाशिव रात्रि के अवसर पर तीन दिनों का विशाल मेला भी भरने लगा है।


सुशील भोले
डॉ. बघेल गली, संजय नगर, रायपुर (छ.ग.)
मोबा. नं. 080853-05931, 098269-92811
ईमेल -  sushilbhole2@gmail.com

Friday 2 October 2015

गुरू घासीदास जी : मनखे-मनखे एक समान...


 गुरुघासीदास जी

 गुरुघासीदास जी की जन्म भूमि

गुरुघासीदास जी की जन्म भूमि में रायपुर के प्रतिष्ठित साहित्यकार

जन्म भूमि में अखण्ड ज्योति कलश

 तप एवं कर्म भूमि गिरौदपुरी मंदिर का प्रवेश द्वार

 तप एवं कर्म भूमि गिरौदपुरी मंदिर 

 विश्व का सबसे उंचा जैतखंब और लेखक सुशील भोले

 विश्व के सबसे उंचे जैतखंब से प्रकृति का विहंगम दृश्य

मनखे-मनखे एक समान की उद्घोषणा करने वाले महान संत गुरु घासीदास जी वर्गविहीन समाज की स्थापना करना चाहते थे. ऊँच-नीच और अमीर-गरीब की भावना से दूर समतामूलक समाज का निर्माण ही उनका दर्शन था, इसी से प्रभावित होकर उस समय के करीब 64 विभिन्न जातीय समुदाय के लोगों ने सतनाम धर्म को आत्मसात किया. जिन्हें आज सतनामी समज के विभिन्न गोत्र के रूप में जाना जाता है.

कौन थे गुरु घासीदास जी -
वर्ण व्यवस्था और मूर्ति पूजा के नाम पर इस देश में भेदभाव और अत्याचार बढऩे लगा, तब यहां निराकार ब्रम्ह की उपासना का संदेश लेकर अनेक संत-महात्माओं ने पीडि़त वर्ग के उत्थान के लिए अभियान चलाया. गौतम बुद्ध, गुरु नानक देव से लेकर कबीर दास जैसे महान विचारकों ने सामाजिक एवं धार्मिक जागरण कर शोषित-पीडि़त एवं उपेक्षित वर्ग के लोगों को आध्यात्मिक एवं सामाजिक ताकत प्रदान की. ऐसे ही निर्गुण ब्रम्ह के उपासकों में छत्तीसगढ़ जैसे अत्यंत पिछड़े इलाके में गुरु घासीदास जी ने शोषित-पीडि़त एवं उपेक्षित वर्ग के लोगों को एक सूत्र में पिरोकर सामाजिक उत्थान का गुरुत्तर कार्य किया.

घासीदास जी के संबंध में जो जानकारी मिलती है, उसमें शासकीय तौर पर लिखे जाने वाले गजेटियर को अत्यधिक प्रमाणित माना जाता है. सन् 1993 में लिखे गये रायपुर जिला गजेटियर के अनुसार गुरु घासीदास जी का जन्म अगहन पूर्णिमा दिन सोमवार 18 दिसंबर 1756 ई. को एक कृषक ुपरिवार में ग्राम-गिरोदपुरी जिला-रायपुर (वर्तमान बलौदाबाजार) में हुआ था.

घासीदास जी के पूर्वज पवित्र दास संपन्न कृषक थे. पवित्र दास से मेदिनी दास, दुकालु दास, सगुन दास, मंहगु दास और फिर घासीदास हुए.घासीदास जी की पीढ़ी 1756 से 1850 तक मानी गई है. घासीदास जी का विवाह सिरपुर निवासी कृषक अंजोरी दास की सुपुत्री सफुरा के साथ बाल्यावस्था में ही हो गया था. उनके चार पुत्र और एक पुत्री हुई. पुत्र- अमरदास, बालकदास, आगरदास और अडग़ढिय़ा दास हुए. पुत्री का नाम सुभद्रा बाई था, जिनका विवाह ग्राम कुटेला जिला-बिलासपुर में हुआ था.

पूर्वज हरियाणा से आये-
गुरु घासीदास जी के पूर्वजों के संबंध में जो जानकारी मिली है, उसके मुताबिक उनका छत्तीसगढ़ राज्य में हरियाणा राज्य के नारनौल नामक स्थान से आना बताया जाता है, जो पहले से ही सतनामी संप्रदाय के अनुयायी थे.

बताया जाता है कि सन् 1672 में मुगल बादशाह औरंगजेब से युद्ध के बाद सतनामी वहां से पलायन कर गये. उनमें से कुछ उत्तर प्रदेश में जा बसे और कुछ ओडिशा के कालाहांडी जिला में जाकर नौकरी-चाकरी के माध्यम से जीवकोपार्जन करने लगे. कुछ परिवार महानदी के किनारे-किनारे छत्तीसगढ़ के चंद्रपुर जमींदारी आ गये.
यह वह समय था, जब औरंगजेब ने यह फरमान जारी कर दिया था, कि जो भी राजा, नवाब, जमींदार या सूबेदार इन सतनामियों को शरण देगा, उसे कठोर दंड दिया जायेगा और इसे मुगल सल्तनत के खिलाफ बगावत मानी जायेगी.

कुछ राजाओं और जमींदारों ने औरंगजेब के खौफ से घबराकर इन सतनामियों को अपने इलाके से भगा दिया. चंद्रपुर इलाके में पहुंचे सतनामी महराजी, नवापार होते हुए सोनाखान क्षेत्र के जंगलों में जा पहुंचे. सतनामी  परिश्रमी तो थे ही, वे वहां के जंगलों को काटकर रहने योग्य बनाकर उसमें खेती करने लगे. इन्हीं सतनामियों में मेदिनीदास का भी परिवार था, जिसमें आगे चलकर उनके पौत्र के रूप में घासीदास जी ने जन्म लिया.

उद्देश्य एवं संदेश-
छुआ-छूत एवं ऊंच-नीच की प्रताडऩा से पीडि़त लोगों का कष्ट देखकर जिस तरह देश के अन्य भागों में अनेक संत-महात्माओं ने नए-नए पंथ और धर्म की स्थापना की उसी कड़ी में गुरु घासीदास जी ने भी छत्तीसगढ़ में पीडि़त समाज को जागृत एवं संगठित करने के उद्देश्य से सतनाम धर्म का सूत्रपात किया. उन्होंने 'मनखे-मनखे एक समान" का तार्किक संदेश दिया, जिसका अर्थ होता है कि सम्पूर्ण जीव-जगत एक ही ईश्वर का अंश है. अर्थात सभी एक समान हैं, उनमें कोई ऊँच-नीच या छोटा-बड़ा नहीं है.

18 वीं शताब्दी में यहां का समाज शिक्षा की रोशनी से दूर था. इसलिए उसमें छुआछूत, ऊँच-नीच, अंधविश्वास, चोरी, नशाखोरी जैसी अनेक बुराईयां व्याप्त हो चुकी थीं. घासीदास जी लोगों को इन बुराईयों से मुक्त कराना चाहते थे. वे इसके लिए कोई मार्ग ढूंढना चाहते थे. तार्किक एवं बहादुर तो वे बचपन से ही थे. इसीलिए साधु-संतों की परंपरा के अनुसार गृहस्थ जीवन को छोड़कर तपस्या करने जंगल चले गये.

उन्होंने सोनाखान क्षेत्र के अंतर्गत आने वाले घनघोर जंगल में स्थित छाता पहाड़ को अपना तप स्थल बनाया. लगभग छ: माह की एकांत साधना के पश्चात फिर गिरोदपुरी वन ग्राम को अपना तप स्थल बनाया, जहां तेन्दू और औरा-धौरा पेड़ के नीचे धूनी लगाकर तपस्या की, और आत्मज्ञान प्राप्त किया. सतनाम और सत्य का ज्ञान प्राप्त किया. उन्होंने जाना कि सत्य ही ईश्वर है, और ईश्वर ही सत्य है.

इसके पश्चात वे अपने प्राप्त ज्ञान के माध्यम से लोगों के बीच अलख जगाते रहे. साथ ही उन्हें शारीरिक एवं मानसिक व्याधियों से भी मुक्ति दिलाते रहे.

उन्होंने अपने अनुयायियों को सात महत्वपूर्ण संदेश दिये- 1. सतनाम को मानो. सत्य ही ईश्वर है, ईश्वर ही सत्य है. सत्य में ही धरती और सत्य में ही आकाश है. 2. सभी जीव समान है. जीव हत्या पाप है. पशुबली अंधविश्वास है. 3. मांसाहारी मत बनो. नशा मत करो. 4. मूर्ति पूजा मत करो. 5. दोपहर में हल मत जोतो. 6. पर नारी को माता जानो. आचरण की शुद्धता पर जोर दो.  7. चोरी करना पाप है. हिंसा करना पाप है. सादा जीवन उच्च विचार रखो.

घासीदास जी की अमृतवाणी-
प्राय: सभी संतों ने अपनी साधना से प्राप्त हुए मौलिक ज्ञान के माध्यम से समाज के लोगों को सत्मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित किया है. घासीदास जी ने भी अपने ज्ञान को समाज का दर्पण बनाने का प्रयास किया है, जिन्हें हम उनकी 42 अमृत वाणियों के रूप में जानते हैं-

1- सत ह मानव के आभूषण आय
2- मनखे-मनखे एक समान
3- पानी पीहू छान के गुरु बनाहू जान के
4-अपन ल हीनहा अउ कमजोर झन मानहू
5- संत ल कमजोर झन मानहू
6- जइसे खाबे अन्न तइसे बनही मन
7- मेहनत के रोटी ह सुख के अधार ये
8- रिस अउ भरम ल तियागथे तेकर बनथे
9- दान के लेवइया पापी, दान के देवइया पापी
10- मोर ह सबो संत के आय, अउ तोर ह मोर बर कीरा आय
11- पहुना ल साहेब समान जानिहौ
12- सगा के जबर बैरी सगा होथे
13- सबर के फल मीठा होथे
14- मया के बंधना असली ये
15- दाई-ददा अउ गुरु ल सनमान देबे
16- दाई हदाई मुरही गाय के दूध ल झन पीबे
17- इही जनम ल सुधारना सांचा हे
18- सतनाम घट-घट म समाय हे
19- गियान के पंथ किरपान के धार ये
20- एक घूवा मारे तेना बराबर आय
21- मोला देख, तोला देख, बेर देख, कुबेर देख, जौन हे  तेला बांट-बिराज के खा ले
22- जतेक हावा सब मोर संत आव
23- गाय-भंइस ल नांगर म झन जोतबे
24- मांस ल झन खाबे, अउ मांस ल कोन कहय वोकर सहिनाव तक ल झन खाबे
25- जान के मरई ह तो मारब आय, कोनो ल सपना म मरई ह घलो मारब आय
26- पान-परसाद, नरियर-सुपारी चढ़ाना ह ढोंग आय
27- मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, संत द्वार बनई ह मोर मन ल भावय नहीं. बनाय बर हे त बांध बना, तरिया बना, कुंआ खोदा, धर्मशाला बना, न्यायालय बनवा, दुर्गम ल सुगम बना
28- कोनो जीव ल झन मारबे, जीव हत्या महापाप आय
29- बारा महीना के खर्चा बटोर लेबे तब भक्ति करबे
30- मरे के बाद पितर मनई मोला बइहाई लागथे
31- बासी भोजन अउ दुर्गुण ले दुरिहा रइहौ
32- चुगली अउ निंदा ह घर बिगाड़थे
33- धन ल उड़ा झन, बने काम म खर्च कर
34- ये धरती तोर ये, एकर सिंगार कर
35- दीन-दुखी के सेवा सबले बड़े धरम आय
36- काकरो बर कांटा झन बो
37- घमंड का करथस सब नठा जाही
38- झगरा के जर नइ होय, ओखी ह खोखी होथे
39- नियाय ह सब बर बरोबर होथे
40- धरमात्मा उही आय जौन ह धरम करथे
41- बैरी संग घलोक पिरित रखबे
42- मोर संत मन मोला ककरो लो बड़े झन कइहौ नइते मोला हुदेसना म हुदेसना आय

लोकप्रियता और समाज में असर-
तपस्या के पश्चात प्राप्त आत्म ज्ञान के द्वारा घासीदास जी लोगों को सभी प्रकार के व्यसन से मुक्त होकर सात्विक एवं आदर्श जीवन जीने का उपदेश देने लगे, जिससे प्रभावित होकर केवल दलित एवं उपेक्षित समाज के लोग ही नहीं अपितु अन्य सामान्य जाति वर्ग के लोग भी उनके अनुयायी बनने लगे. जो लोग उन्हें ज्ञान के माध्यम से, एवं अन्य जो चमत्कार की भाषा को समझते हैं, वे उनके द्वारा किये जाने वाले चमत्कारिक इलाज से प्रभावित होकर उन्हें मानने लगे.

छाता पहाड़ के वे पांच कुंड इस बात के प्रमाण हैं, जिनके जल से घासीदास जी लोगों के असाध्य रोगों को भी जड़ से दबर कर देते थे. यह सब ईश्वरीय कृपा ही है, जिसे आम जन चमत्कार मान लेते हैं. ऐसे अनेक कारण हैं, जिनसे प्रभावित होकर उनके अनुयायी बनते गये और सतनाम धर्म को आत्मसात करते गये.

डॉ. जे.आर. सोनी लिखित एवं गुरु घासीदास साहित्य एवं संस्कृति अकादमी न्यू राजेन्द्र नगर, रायपुर द्वारा प्रकाशित 'सतनाम पोथी" के पृष्ठ क्र. 107 पर राजमहंत रामसनेही सेंदरी वाले से साक्षात्कार के अनुसार जानकारी दी गई है कि छत्तीसगढ़ एवं ओडिशा की विभिन्न छोटी कही जाने वाली जातियां सतनाम धर्म को मानने लगीं, जिनमें प्रमुख रूप से - साहू, तेली, रावत, घसिया, कुर्मी, धोबी, केंवट, नाई, सूर्यवंशी, कन्नौजिया, रामनामी, पैकहरा, गोंड़, कंवर, ढीमर, महरा, पटेल, मरार, पनका, कलार, सोनार, लोहार, कोष्टा, देवांगन, बरई, कुम्हार आदि जातियाँ प्रमुख हैं.

64 जातियाँ 64 गोत्र-
रायपुर नगर पालिक निगम के अपर आयुक्त एवं गुरु घासीदास साहित्य एवं संस्कृति अकादमी के महासचिव डॉ. जे. आर. सोनी ने एक मुलाकात में बताया कि कुल 64 प्रकार की जातियाँ सतनामी समाज में समाहित हो गई, जिन्हें हम सतनामी समाज के विभिन्न गोत्र के रूप में जानते हैं. उन्होंने बताया कि छत्तीसगढ़ में 54 गोत्र प्राप्त होते हैं, जबकि दस अन्य गोत्र ओडिशा, असम जैसे अन्य राज्यों में प्राप्त होते हैं. छत्तीसगढ़ में प्राप्त होने वाले गोत्र हैं-

1- सोनवानी (सोनी, वानी, सुनहले, सोंचे, सोन्डे)
2- सायतोडऱ (तोन्डे. सुमन, सांडिल्य)
3- भतपहरी (भारद्वाज, भरतद्वाज, पहारे, पहारी, भतपहरे, भट्ट, भारती, भास्कर, भार्गव)
4- धिलरहा (धृतलहरे, लहरे)
5- तडैया (टंडन, तारे)
6- आडि़ल (अंचल, आनंद, आदिल)
7- बंजार (बंजारे, बंजारा, बनर्जी)
8- कुर्रा (कुर्रे, कांत, क्रांति, कौशल)
9- जांगड़ (जांगड़े, जोशी)
10- जड़कोढिय़ा (जांगड़े, जोशी)
11- खूंटी (खरे, खूंटे)
12- चेलिक सवई (चेलके, चेलकर, चतुरसेन)
13- चतुर्विदानी (चतुर्वेदी)
14- मन घोघर (मनहर)
15- छितोड़े (छितोड़े, घृतकर)
16- मांछीमुड़ी (मिरी, मिरे)
17- रौतिया (राउतराय, रात्रे, रावत)
18- पहटिया (पात्रे)
19- गार्रा (गेंदले, गायकवाड़)
20- भैंसा (महेश, महिष, मनहर, नृसिंह, भंगी, निराला)
21- खड़बंधिया (खाण्डे, खाण्डेकर)
22- बंधैया (बांधी)
23- महदेवा (अनंत)
24- महिलांग (महिलांगे, महिलाने)
25- बाघमार (बघेल)
26- ढेढ़ी (धीरही, धीरज, धीरे)
27- कोसरिया (कोशले, कौशल)
28- डहरिया (डाहिरे, डहरिया)
29- नौरंगा (नौरंग, नारंग, नोरगे)
30- मरई (मेरसा)
31- पटेल (पटेल, पाटिला, पाटले, पात्रे)
32- हरवंश (हरवंश)
33- पनिका (पनिक, पात्रे, पाण्डु)
34- ओग्गर (ओगरे)
35- जोगी-जोगवंशी (जोगी, जोगवंशी, जोगास, जोगेवार, जोगे)
36- खुशी (खुशी)
37- बारमतावन (बारमते)
38- सोनबोइर (सोनबेर)
39- बारले (बारले)
40- बारी (बारी)
41-  देशलहरा (देशलहरा)
42- अजगल्ला (अजगल्ले)
43-  गौंटिया (गौंटिया, गोटी)
44- पुरेना (पुराइन, पुरेना)
45- मोहलाईन (मोहले)
46- करयिारे
47-जांधी
48- पारे
49- जोल्हे
50- जोशी
51- चंदेल
52- परमार
53- खटकर
54- गायकवाड़

शाखाएं-
सतनाम धर्म की शाखाएं आज विश्वव्यापी हो चुकी हैं. सतनाम के कर्मठ एवं मेहनतकश अनुयायी देश-विदेश के विभिन्न सम्मानित पदों को सुशोभित कर रहे हैं. चाहे राजनीति का क्षेत्र हो, शासन-प्रशासन का क्षेत्र हो अथवा शिक्षा का क्षेत्र हो सभी दिशाओं में इनका परचम लहरा रहा है. यह सब गुरु घासीदास जी के उन सद्प्रयासों का फल है, जिसे मूर्त रूप देने के लिए उन्होंने अपना सर्वस्व अर्पण कर दिया.

वैसे सतनाम धर्म की तीन शाखाओं की जानकारी विद्वानों द्वारा बताई जाती है, जिसमें गुरु घासीदास जी के वंशज जिस हरियाणा राज्य के नारनौल  नामक स्थान से आये थे वहां. एक अन्य शाखा उत्तर प्रदेश के फर्रखाबाद बाराबंकी (कन्नौज) क्षेत्र की बतायी जाती है, तथा तीसरी छत्तीसगढ़ की शाखा के रूप में चिन्हित की जाती है. वैसे जनसंख्या और अन्य गतिविधियों की दृष्टि से देखें तो छत्तीसगढ़ की शाखा ही सबसे सबल और अग्रणी है. इसके अनुयायी देश के हर भाग में अपनी आस्था और निष्ठा का परचम लहरा रहे हैं.

 श्वेत ध्वज और जैतखाम का महत्व-
सतनाम धर्म में जैतखाम और श्वेत ध्वज का अत्यंत महत्व है. श्वेत ध्वज को जहां शांति, अहिंसा, प्रेम, दया, करुणा का प्रतीक माना जाता है, वहीं जौतखाम को इन संदेशों  को आकाश की ऊँचाई तक पहँचाने वाला माध्यम. ऐसी मान्यता है कि जैतखाम को इक्कीस हाथ लम्बी गोलाई वाली लकड़ी से बनाने का विधान है. लेकिन आजकल इसे सीमेंट क्रांकीट के साथ ही साथ अपनी सुविधा के अनुसार बनाने का प्रचलन बन गया है.
श्वेत ध्वज की ऐतिहासिकता के संबंध में बताया जाता है कि घासीदास जी के पूर्वज जो हरियाणा के नारनौल से आये थे, अपने साथ श्वेत ध्वज लेकर आये थे, जिसे वे घर के चुल्हे के पास स्थपित करते थे. कालांतर में यह प्रथा आंगन और फिर घर के बाहर स्थापित करने के रूप में हमारे सामने है.

इसकी ऐतिहासिकता के संबंध में जो जानकारी प्राप्त हुई है, उसके अनुसार मुगल साम्राज्य के पतन के दिनों में जब औरंगजेब का शासन था, तब इस्लाम धर्म अपनाने के लिए काफी अत्याचार किया जाता था, उनसे जबरिया लगान वसूला जाता था. ऐसे ही लगान वसूली के दौरान मथुरा के पास एक सतनामी किसान का औरंगजेब के फौजदार से विवाद हो गया. सतनामी किसान ने फौजदार का कत्ल कर दिया. इससे औरंगजेब क्रोधित हो गया, वह सतनामियों को कुचलने के लिए सेना की टुकड़ी नारनौल भेजा. सतनामियों ने भी संगठित होकर उनसे मुकाबला किया और जीत दर्ज की.

सन् 1672 ई. में वीरभान सिंह ेवं जोगी दास के नेतृत्व में सतनामियों की हुई इस जीत से बौखलाए औरंगजेब ने स्वयं मोर्चा संभाला और छलपूर्वक सफेद झंडे का इस्तेमाल कर सतनामियों को परास्त कर दिया. सफेद ध्वज को शांति और समझौते का प्रतीक माना जाता है, इसलिए सतनामी सैनिक उसके झांसे में आ गये. यही उनकी पराजय का कारण बना.

श्वेत ध्वज और जैतखाम के साथ पंथी नृत्य एवं गीत का आपस में चोली-दामन का संबंध स्थपित हो गया है. पंथी वास्तव में गुरु घासीदास जी की अमरगाथा है, जिसे सतनाम के अनुयायी नृत्य के साथ भी प्रस्तुत करते हैं. पंथी नृत्य आज छत्तीसगढ़ के प्रतीक गीत-नृत्य के रूप में पूरी दुनिया में  बाबा जी के ज्ञान का संदेश दे रहा है.

सुशील भोले
54-191, डॉ. बघेल गली,
संजय नगर (टिकरापारा) रायपुर (छ.ग.)
मोबा. नं. 080853-05931, 098269-92811
ईमेल - sushilbhole2@gmail.com

Thursday 1 October 2015

सारे बंदर उछल रहे हैं....










सारे बंदर उछल रहे हैं, लुटेरों के वेश में
क्या सोचे थे, क्या हो गया, बापू तेरे देश में.....
पहला बंदर आंख मूंदकर, सत्ता पर जा बैठा है
मचा हुआ है हाहाकार, पर अचेत वह लेटा है
तांडव कर रहा भ्रष्टाचार, छद्म सेवा के भेष में....
दूसरा बंदर मुंह छिपाकर, जा बैठा मंत्रालय में
सारा समाधान पा जाता, वह बैठे मदिरालय में
खुशहाली का नारा गूंजता, जनता के अवशेष में....
तीसरा बंदर कान दबाकर, तौल रहा है लोगों को
जन-हित को अनसुना कर, बढ़ा रहा उद्योगों को
तब कैसे आयेगा राम राज्य, बापू इस परिवेश में....
सुशील भोले 
संजय नगर, रायपुर (छ.ग.)
मो.नं. 098269 92811

दाई - ददा के सुरता म ...













दाई उर्मिला ददा रामचंद के सुरता म अरपन
मोर लेखनी के छापा ये आय जिनगी के दरपन
इंकरे बताये रद्दा म रेंगत गढ़े हवन जिनगी ल
एकरे सेती चुरुवा म धरे सब उनला हे तरपन

सुशील भोले
मो. 080853-05931, 098269-92811