Wednesday 21 October 2015

राज्य निर्माण के डेढ़ दशक : क्या खोये क्या पाये?


छत्तीसगढ़ को स्वतंत्र रूप से राज्य का दर्जा मिले डेढ़ दशक होने वाले हैं. ऐसे में यह प्रासंगिक हो जाता है कि क्या जिन उद्देश्यों को लेकर राज्य निर्माण की आधार शिला रखी गई थी, वे पूरे हो सके हैं?

 सन् 1956 में केन्द्र शासन द्वारा भाषाई एवं सांस्कृतिक आधार पर राज्य पुनर्गठन आयोग की स्थापना की गई थी, तब से लेकर 1 नवंबर 2000 तक अर्थात् राज्य निर्माण होने तक यहां विभिन्न संस्थाओं द्वारा हर स्तर पर आन्दोलन किया गया था. एक स्वप्न को लेकर, एक उद्देश्य को लेकर कि यहां के मूल निवासी जो स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात से ही उपेक्षा के शिकार हैं, उनके हाथों में यहां का शासन-प्रशासन आयेगा और वे अपनी अस्मिता की भाषाई एवं सांस्कृतिक आधार पर नई पहचान बनायेंगे. यहां के इतिहास को गौरव के बोध से परिचित करायेंगे. लोगों को रोजगार और विकास के साथ जोड़ेंगे.

तब प्रश्न उठता है कि क्या इन पंद्रह वर्षों में ऐसा हो पाया है? और यदि नहीं हो पाया है तो क्यों नहीं हो पाया है? ऐसे क्या कारण हैं जो राज्य आन्दोलनकारियों के स्वप्न को आज तक उलाहना दे रहे हैं?

सत्ता पर कौन?
सबसे पहला प्रश्न सत्ता को लेकर ही खड़ा किया जाता है, क्योंकि यहां के मूल निवासियों के हाथों में सत्ता का सूत्र देखने को लेकर ही बाकी सब आयाम गढ़े गये थे. 1 नवंबर 2000 को राज्य निर्माण हुआ तब छत्तीसगढ़ में कांग्रेस के विधायकों की संख्या अन्य राजनीतिक दलों से ज्यादा थी. इसलिए स्वभाविक तौर पर यहां कांग्रेस को सरकार की बागडोर सौंप दी गई.

अजीत जोगी के नेतृत्व में छत्तीसगढ़ में पहली सरकार का गठन हुआ. कुछ दिन तो ऐसा लगा कि छत्तीसगढ़ में चारों ओर छत्तीसगढिय़ों का राज्य स्थापित हो गया है. लेकिन धीरे-धीरे यह भ्रम टूटने लगा, जब यहां के मूल निवासियों को जातियों के नाम पर आपस में उलझाने और पिछवाड़े के रास्ते से बाहरी कहे जाने वाले लोगों को सत्ता के गलियारे में प्रवेश करवाया जाने लगा. यहां की भाषा, संस्कृति, गौरव और इतिहास के लिए किसी के पास समय नहीं था. न सत्ता पर काबिज मंत्रियों के पास न अधिकारियों के पास. नतीजा चारों तरफ नाराजगी और परिणाम स्वरूप अजीत जोगी को छत्तीसगढ़ राज्य में हुए प्रथम चुनाव में हार का मुंह देखना पड़ा.

इसके पश्चात डॉ. रमन सिंह के नेतृत्व में भाजपा की सरकार बनी जो अपने तीसरे कार्यकाल के रूप में अभी तक जारी है, लेकिन उनके भी इन तीनों कार्यकाल में जिन आकांक्षाओं के लिए राज्य निर्माण हुआ वह अभी भी आस लगाये बाट जोह रही है. अपितु यह कहना ज्यादा अच्छा होगा कि अब छत्तीसगढिय़ों की पहचान भी मिटने और सिमटने लगी है. बाहर के राज्यों से आ रहे लोगों को पूरी बेशर्मी के साथ बसाया जा रहा है, और स्थानीय लोगों को उनके अपने घरौंदों से बेदखल किया जा रहा है.

 यहां  के लोगों को बेदखल करने का काम हर क्षेत्र में किया जा रहा है, सामाजिक क्षेत्र में, सांस्कृतिक क्षेत्र में, राजनीतिक क्षेत्र में, प्रशासनिक क्षेत्र में और तो और धार्मिक क्षेत्र में भी बाहर के तथाकथित साधु-संतों को यहां थोपा जा रहा है. छत्तीसगढ़ी अस्मिता पूरी तरह तार-तार हो गई है. उसकी कहीं कोई पहचान और अस्तित्व दिखाई नहीं देती. कुछ छत्तीसगढिय़ा कहे जाने वाले लोगों को मंत्रीमंडल में अवश्य स्थान दिया जाता है, लेकिन ये उस श्रेणी के होते हैं, जिन्हें हम चारण भाट या पिछलग्गू होने के नाम पर स्मरण करते हैं. इतिहास के पन्ने ऐसे लोगों के कारनामों और तथाकथित निष्ठा से रंगे हुए हैं, जिन्हें घर के भेदी के नाम से सभी याद करते हैं.

भाषा और संस्कृति कहां?
भाषाई एवं सांस्कृतिक आधार पर निर्मित छत्तीसगढ़ प्रदेश की भाषा और संस्कृति आज किस मुकाम पर खड़ी है, यह किसी से छुपी हुई नहीं है? आज भी यहां की ये मूल पहचान अपने लिए आश्रयदाता की तलाश कर रही है. कहने को तो छत्तीसगढ़ी भाषा को राज्य में हिन्दी के साथ राजभाषा का दर्जा देकर राजभाषा आयोग की स्थापना कर दी गई है, लेकिन उसके नाम पर कुछ लोगों को रेवड़ी खिलाने के अलावा और कुछ भी नहीं हो रहा है.

जहां तक संस्कृति की बात है, तो इसकी स्थिति दिनों दिन बदतर होती जा रही है, क्योंकि राष्ट्रीय संस्कृति के नाम पर यहां अन्य प्रदेशों की संस्कृति को बेशर्मी के साथ थोपा जा रहा है. यहां के मेले-मड़ाई को कुंभ बनाकर बाहरी अपात्र लोगों को यहां साधु-संतों के रूप में महिमा मंडित किया जा रहा है. उनके लिए करोड़ों रूपया खर्च कर राज्य अतिथि का दर्जा दिया जा रहा है. कुल मिलाकर मूल संस्कृति और मूल पहचान को, उन्हें जीने और प्रचार-प्रसार करने वालों को पूरी तरह से नष्ट किया जा रहा है.

कला के क्षेत्र में भी कमोबेश यही स्थिति है. संस्कृति विभाग के बजट को देखकर इस बात की पुष्टि की जा सकती है. यहां के कलाकार उपेक्षा के शिकार हैं और बाहर के कलाकारों को मालामाल किया जा रहा है. छत्तीसगढ़ की कला के लिए कुल बजट का एक चौथाई हिस्सा भी नहीं दिया जाता.

संस्कृति विभाग के द्वारा प्रतिवर्ष यहां के साहित्यकारों को राज्योत्सव के अवसर पर सम्मानित किया जाता है. हिन्दी के साहित्यकारों को ही इसमें प्राथमिकता दी जाती है. छत्तीसगढ़ी भाषा के साहित्यकारों के लिए अलग से पुरस्कार की कोई व्यवस्था नहीं है. इसे हिन्दी के साथ जोड़ दिया गया है. जबकि इसी प्रदेश में उर्दू के लिए अलग से पुरस्कार की व्यवस्था है, जो इस बात का प्रमाण है कि यहां केवल बाहरी लोगों को ही उपकृत करने का अभियान चलाया जा रहा है.

विकास किसका? 
भाजपा की सरकार जब से प्रदेश में काबिज हुई है तब से ही विकास का बड़ा शोर सुनाई दे रहा है. चूंकि यह पार्टी व्यापारी समुदाय की पोषक पार्टी के रूप में पहचानी जाती है, इसलिए व्यापारियों को उपकृत करने के लिए अनेकों प्रयास हुए और उन्हें विकास का नाम दे दिया गया. यहां के उपजाऊ खेतों को उजाड़ कर उनके स्थान पर बड़े-बड़े कल-कारखाने स्थापित करवा दिए गये. जीवनदायिनी नदियों के जल को खेतों को न देकर उन उद्योगों की प्यास बुझाने के लिए दे दिया गया. तब यह प्रश्न उठना लाजिमी है, कि यहां विकास किसका हुआ?

क्या यहां के मूल निवासी किसानों का अथवा बाहर से आकर यहां स्थापित हो रहे व्यापारियों का? इन उद्योगों में स्थानीय लोगों को रोजगार उपलब्ध कराने की बात कही जाती है. लेकिन यह देखा जा रहा है कि बाहर से आने वाले ऐसे सभी उद्योग अपने साथ काम करने वाले अधिकारी और प्रशिक्षित श्रमिक भी साथ में लेकर आते हैं. यहां के लोगों को कुछ छोटे-मोटे ठेकेदारों के साथ दिहाड़ी मजदूरों के रूप में भले ही रख लेते हैं, उससे ज्यादा कुछ भी नहीं. अलबत्ता बाहर से आने वाले ये श्रमिक जरूर यहां की सामाजिक समरसता को विकृत करने का काम कर रहे हैं, यह अलग मुद्दा है.

कृषि की स्थिति?
धान कटोरा के नाम से प्रसिद्ध छत्तीसगढ़ में आज कृषि की क्या स्थिति है, यह विचारणीय है? क्योंकि इसकी पहचान ही कृषि रही है. आज भी यहां की 60 से 70 प्रतिशत आबादी किसी न किसी रूप से कृषि पर आश्रित है. लेकिन यह देखा जा रहा है कि राज्य निर्माण के पश्चात कृषि की उपेक्षा कर उद्योगों को ज्यादा महत्व दिया जा रहा है. किसानों को न तो ठीक से पानी दिया जाता न बिजली दी जाती. खाद, उर्वरक और अन्य आवश्यक चीजों का भी टोटा ही रहता है. फिर भी जद्दोजहद करके किसान फसल उपजा भी लेता है, तो सरकार न तो उसे उचित दर पर खरीदती है, और न ही उसे सही ढंग से संरक्षित ही करती है.

प्रदेश में कृषि रकबा जरूर प्रतिवर्ष घटता जा रहा है, जिसके लिए सरकार की उस नीति को दोषी कहा जा सकता है, जिसमें वह उपजाऊ खेतों को, उनके जल-बिजली जैसे आवश्यक अधिकारों को जबरन छीन कर उद्योगपतियों को समर्पित करती जा रही है.

जंगल और खनिज संपदा?
प्रदेश में जंगल और खनिज संपदा का जिस बेदर्दी से दोहन हो रहा है, यह बात अब किसी को विस्तार से बताने की आवश्यकता नहीं रह गई है. मानसून का दगाबाज बनना भी इसका ही एक परिणाम है. वन प्रदेश के रूप में पहचाने जाने वाला छत्तीसगढ़ प्रदेश में अब शहर और गांवों में हरे-भरे पेड़ देखने के लिए मोहताज होता जा रहा है. जंगली जानवर जंगलों में आवश्यक भोजन-पानी नहीं मिल पाने के कारण गांव और शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं. इस बात की जानकारी प्रतिदिन यहां के अखबारों में सुर्खियों के साथ छपती हैं.

 यहां खनिज संपदा का जिस बेदर्दी के साथ दोहन हो रहा है, यह बेहद आश्चर्य जनक है. ऐसा शायद ही किसी अन्य प्रदेश में घटित हो रहा होगा. एक तरफ शासन खनिज संपदा को भू-गर्भ से निकालने के नाम पर स्थानीय लोगों को जबरिया उनकी जमीन से बेदखल कर रही है तो दूसरी ओर उसके ही नुमाइंदों के संरक्षण में अवैध खनन का कारोबार भी समृद्ध हो रहा है. स्थानीय जनता चारों ओर से हलाकान है. उन्हें उनके जमीन से हंकाला जा रहा है, और साथ ही खनिज उत्खनन में उसको कोई लाभ भी नहीं मिल रहा है. यह लूट और दगाबाजी पराकाष्ठा का उदाहरण है, जो राज्य निर्माण के पश्चात ही बहुतायत में देखने में आ रहा है.
   
रोजगार के अवसर?
राज्य निर्माण के पश्चात इस प्रदेश में रोजगार के अवसर किस मात्रा में बढ़े और उस पर कौन काबिज हुए इस पर भी ध्यान दिया जाना आवश्यक है. क्योंकि राज्य निर्माण की अवधारणा में इसका स्थान प्रमुखता से शामिल था.

जहां तक राज्य में स्थापित हो रहे उद्योगों के माध्यम से रोजगार मिलने की बात है, तो इसे सभी जान रहे हैं कि स्थनीय जनता इसमें केवल ठगे जा रहे हैं, छले जा रहे रहे. शासन के तंत्र के अंतर्गत मिलने वाले रोजगारों में भी यहां के लोगों की स्थिति अच्छी नहीं है. राज्य में निर्मित प्रथम सरकार के समय जिस तरह से राज्य परिवहन निगम को बंद कर  कर्मचारियों को बेरोजगार बनाने का सिलसिला प्रारंभ हुआ, वह आज चौतरफा दिखाई देने लगा है। राजधानी रायपुर का बूढ़ातालाब स्थित धरना स्थल इसका ज्वलंत प्रमाण है, जहां प्रतिदिन सैकड़ों और हजारों की संख्या में लोग शासन की नीतियों और बेरोजगारी के मुद्दे पर डेरा डाले रहते हैं.

मिडिया और प्रसारण तंत्र?
आजादी के आन्दोलन के समय देश की पत्रकारिता की बड़ी इज्जत थी. पत्रकारों को सर्वथा सम्मान के साथ ही देखा और संबोधित किया जाता था. लेकिन जैसे ही देश आजाद हुआ, उसके बाद से इस पेशे में लगातार गिरावट देखी जा रही है. अब मिडिया संस्थान सरकार और विज्ञापन दाता व्यावसायिक प्रतिष्ठानों के प्रचारक और एजेंट के रूप में चिन्हें जाने लगे हैं. आम जनता और उनसे जुड़े मुद्दे इनके लिए गौण होते जा रहे हैं. यह कहना ज्यादा उचित होगा कि ये आमजनों को भ्रमित करने वाले तत्व के रूप में ज्यादा देखे जाने लगे हैं. ऐसे में यह कैसे विश्वास किया जा सकता है कि इनके माध्यम से इस प्रदेश की तथाकथित विकसित और समृद्ध छवि में सच्चाई ही है?

क्या खोये क्या पाये?
कुल मिलाकर राज्य निर्माण के ये पंद्रह वर्ष अपेक्षाओं की कसौटी में असफल ही कहे जायेंगे. राज्य आन्दोलनकारियों के स्वप्न और संर्घष के साथ छलावा करने वाले कहे जायेंगे. इन डेढ़ दशकों में हमारी अस्मिता अपनी पहचान खोने लगी है. हमारे लोग विस्थपित किये जा रहे हैं. शासन-प्रशासन को जिन लोगों से मुक्त करने का स्वप्न देखा गया था, वे और भी ताकत के साथ यहां काबीज होने लगे हैं. अब पाने के नाम पर केवल क्रांति का मार्ग ही दिखाई देता है.

सुशील भोले
 डॉ. बघेल गली, संजय नगर, रायपुर (छ.ग.)
मोबा. नं. 080853-05931, 098269-92811
ईमेल -  sushilbhole2@gmail.com

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