Friday 2 October 2015

गुरू घासीदास जी : मनखे-मनखे एक समान...


 गुरुघासीदास जी

 गुरुघासीदास जी की जन्म भूमि

गुरुघासीदास जी की जन्म भूमि में रायपुर के प्रतिष्ठित साहित्यकार

जन्म भूमि में अखण्ड ज्योति कलश

 तप एवं कर्म भूमि गिरौदपुरी मंदिर का प्रवेश द्वार

 तप एवं कर्म भूमि गिरौदपुरी मंदिर 

 विश्व का सबसे उंचा जैतखंब और लेखक सुशील भोले

 विश्व के सबसे उंचे जैतखंब से प्रकृति का विहंगम दृश्य

मनखे-मनखे एक समान की उद्घोषणा करने वाले महान संत गुरु घासीदास जी वर्गविहीन समाज की स्थापना करना चाहते थे. ऊँच-नीच और अमीर-गरीब की भावना से दूर समतामूलक समाज का निर्माण ही उनका दर्शन था, इसी से प्रभावित होकर उस समय के करीब 64 विभिन्न जातीय समुदाय के लोगों ने सतनाम धर्म को आत्मसात किया. जिन्हें आज सतनामी समज के विभिन्न गोत्र के रूप में जाना जाता है.

कौन थे गुरु घासीदास जी -
वर्ण व्यवस्था और मूर्ति पूजा के नाम पर इस देश में भेदभाव और अत्याचार बढऩे लगा, तब यहां निराकार ब्रम्ह की उपासना का संदेश लेकर अनेक संत-महात्माओं ने पीडि़त वर्ग के उत्थान के लिए अभियान चलाया. गौतम बुद्ध, गुरु नानक देव से लेकर कबीर दास जैसे महान विचारकों ने सामाजिक एवं धार्मिक जागरण कर शोषित-पीडि़त एवं उपेक्षित वर्ग के लोगों को आध्यात्मिक एवं सामाजिक ताकत प्रदान की. ऐसे ही निर्गुण ब्रम्ह के उपासकों में छत्तीसगढ़ जैसे अत्यंत पिछड़े इलाके में गुरु घासीदास जी ने शोषित-पीडि़त एवं उपेक्षित वर्ग के लोगों को एक सूत्र में पिरोकर सामाजिक उत्थान का गुरुत्तर कार्य किया.

घासीदास जी के संबंध में जो जानकारी मिलती है, उसमें शासकीय तौर पर लिखे जाने वाले गजेटियर को अत्यधिक प्रमाणित माना जाता है. सन् 1993 में लिखे गये रायपुर जिला गजेटियर के अनुसार गुरु घासीदास जी का जन्म अगहन पूर्णिमा दिन सोमवार 18 दिसंबर 1756 ई. को एक कृषक ुपरिवार में ग्राम-गिरोदपुरी जिला-रायपुर (वर्तमान बलौदाबाजार) में हुआ था.

घासीदास जी के पूर्वज पवित्र दास संपन्न कृषक थे. पवित्र दास से मेदिनी दास, दुकालु दास, सगुन दास, मंहगु दास और फिर घासीदास हुए.घासीदास जी की पीढ़ी 1756 से 1850 तक मानी गई है. घासीदास जी का विवाह सिरपुर निवासी कृषक अंजोरी दास की सुपुत्री सफुरा के साथ बाल्यावस्था में ही हो गया था. उनके चार पुत्र और एक पुत्री हुई. पुत्र- अमरदास, बालकदास, आगरदास और अडग़ढिय़ा दास हुए. पुत्री का नाम सुभद्रा बाई था, जिनका विवाह ग्राम कुटेला जिला-बिलासपुर में हुआ था.

पूर्वज हरियाणा से आये-
गुरु घासीदास जी के पूर्वजों के संबंध में जो जानकारी मिली है, उसके मुताबिक उनका छत्तीसगढ़ राज्य में हरियाणा राज्य के नारनौल नामक स्थान से आना बताया जाता है, जो पहले से ही सतनामी संप्रदाय के अनुयायी थे.

बताया जाता है कि सन् 1672 में मुगल बादशाह औरंगजेब से युद्ध के बाद सतनामी वहां से पलायन कर गये. उनमें से कुछ उत्तर प्रदेश में जा बसे और कुछ ओडिशा के कालाहांडी जिला में जाकर नौकरी-चाकरी के माध्यम से जीवकोपार्जन करने लगे. कुछ परिवार महानदी के किनारे-किनारे छत्तीसगढ़ के चंद्रपुर जमींदारी आ गये.
यह वह समय था, जब औरंगजेब ने यह फरमान जारी कर दिया था, कि जो भी राजा, नवाब, जमींदार या सूबेदार इन सतनामियों को शरण देगा, उसे कठोर दंड दिया जायेगा और इसे मुगल सल्तनत के खिलाफ बगावत मानी जायेगी.

कुछ राजाओं और जमींदारों ने औरंगजेब के खौफ से घबराकर इन सतनामियों को अपने इलाके से भगा दिया. चंद्रपुर इलाके में पहुंचे सतनामी महराजी, नवापार होते हुए सोनाखान क्षेत्र के जंगलों में जा पहुंचे. सतनामी  परिश्रमी तो थे ही, वे वहां के जंगलों को काटकर रहने योग्य बनाकर उसमें खेती करने लगे. इन्हीं सतनामियों में मेदिनीदास का भी परिवार था, जिसमें आगे चलकर उनके पौत्र के रूप में घासीदास जी ने जन्म लिया.

उद्देश्य एवं संदेश-
छुआ-छूत एवं ऊंच-नीच की प्रताडऩा से पीडि़त लोगों का कष्ट देखकर जिस तरह देश के अन्य भागों में अनेक संत-महात्माओं ने नए-नए पंथ और धर्म की स्थापना की उसी कड़ी में गुरु घासीदास जी ने भी छत्तीसगढ़ में पीडि़त समाज को जागृत एवं संगठित करने के उद्देश्य से सतनाम धर्म का सूत्रपात किया. उन्होंने 'मनखे-मनखे एक समान" का तार्किक संदेश दिया, जिसका अर्थ होता है कि सम्पूर्ण जीव-जगत एक ही ईश्वर का अंश है. अर्थात सभी एक समान हैं, उनमें कोई ऊँच-नीच या छोटा-बड़ा नहीं है.

18 वीं शताब्दी में यहां का समाज शिक्षा की रोशनी से दूर था. इसलिए उसमें छुआछूत, ऊँच-नीच, अंधविश्वास, चोरी, नशाखोरी जैसी अनेक बुराईयां व्याप्त हो चुकी थीं. घासीदास जी लोगों को इन बुराईयों से मुक्त कराना चाहते थे. वे इसके लिए कोई मार्ग ढूंढना चाहते थे. तार्किक एवं बहादुर तो वे बचपन से ही थे. इसीलिए साधु-संतों की परंपरा के अनुसार गृहस्थ जीवन को छोड़कर तपस्या करने जंगल चले गये.

उन्होंने सोनाखान क्षेत्र के अंतर्गत आने वाले घनघोर जंगल में स्थित छाता पहाड़ को अपना तप स्थल बनाया. लगभग छ: माह की एकांत साधना के पश्चात फिर गिरोदपुरी वन ग्राम को अपना तप स्थल बनाया, जहां तेन्दू और औरा-धौरा पेड़ के नीचे धूनी लगाकर तपस्या की, और आत्मज्ञान प्राप्त किया. सतनाम और सत्य का ज्ञान प्राप्त किया. उन्होंने जाना कि सत्य ही ईश्वर है, और ईश्वर ही सत्य है.

इसके पश्चात वे अपने प्राप्त ज्ञान के माध्यम से लोगों के बीच अलख जगाते रहे. साथ ही उन्हें शारीरिक एवं मानसिक व्याधियों से भी मुक्ति दिलाते रहे.

उन्होंने अपने अनुयायियों को सात महत्वपूर्ण संदेश दिये- 1. सतनाम को मानो. सत्य ही ईश्वर है, ईश्वर ही सत्य है. सत्य में ही धरती और सत्य में ही आकाश है. 2. सभी जीव समान है. जीव हत्या पाप है. पशुबली अंधविश्वास है. 3. मांसाहारी मत बनो. नशा मत करो. 4. मूर्ति पूजा मत करो. 5. दोपहर में हल मत जोतो. 6. पर नारी को माता जानो. आचरण की शुद्धता पर जोर दो.  7. चोरी करना पाप है. हिंसा करना पाप है. सादा जीवन उच्च विचार रखो.

घासीदास जी की अमृतवाणी-
प्राय: सभी संतों ने अपनी साधना से प्राप्त हुए मौलिक ज्ञान के माध्यम से समाज के लोगों को सत्मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित किया है. घासीदास जी ने भी अपने ज्ञान को समाज का दर्पण बनाने का प्रयास किया है, जिन्हें हम उनकी 42 अमृत वाणियों के रूप में जानते हैं-

1- सत ह मानव के आभूषण आय
2- मनखे-मनखे एक समान
3- पानी पीहू छान के गुरु बनाहू जान के
4-अपन ल हीनहा अउ कमजोर झन मानहू
5- संत ल कमजोर झन मानहू
6- जइसे खाबे अन्न तइसे बनही मन
7- मेहनत के रोटी ह सुख के अधार ये
8- रिस अउ भरम ल तियागथे तेकर बनथे
9- दान के लेवइया पापी, दान के देवइया पापी
10- मोर ह सबो संत के आय, अउ तोर ह मोर बर कीरा आय
11- पहुना ल साहेब समान जानिहौ
12- सगा के जबर बैरी सगा होथे
13- सबर के फल मीठा होथे
14- मया के बंधना असली ये
15- दाई-ददा अउ गुरु ल सनमान देबे
16- दाई हदाई मुरही गाय के दूध ल झन पीबे
17- इही जनम ल सुधारना सांचा हे
18- सतनाम घट-घट म समाय हे
19- गियान के पंथ किरपान के धार ये
20- एक घूवा मारे तेना बराबर आय
21- मोला देख, तोला देख, बेर देख, कुबेर देख, जौन हे  तेला बांट-बिराज के खा ले
22- जतेक हावा सब मोर संत आव
23- गाय-भंइस ल नांगर म झन जोतबे
24- मांस ल झन खाबे, अउ मांस ल कोन कहय वोकर सहिनाव तक ल झन खाबे
25- जान के मरई ह तो मारब आय, कोनो ल सपना म मरई ह घलो मारब आय
26- पान-परसाद, नरियर-सुपारी चढ़ाना ह ढोंग आय
27- मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, संत द्वार बनई ह मोर मन ल भावय नहीं. बनाय बर हे त बांध बना, तरिया बना, कुंआ खोदा, धर्मशाला बना, न्यायालय बनवा, दुर्गम ल सुगम बना
28- कोनो जीव ल झन मारबे, जीव हत्या महापाप आय
29- बारा महीना के खर्चा बटोर लेबे तब भक्ति करबे
30- मरे के बाद पितर मनई मोला बइहाई लागथे
31- बासी भोजन अउ दुर्गुण ले दुरिहा रइहौ
32- चुगली अउ निंदा ह घर बिगाड़थे
33- धन ल उड़ा झन, बने काम म खर्च कर
34- ये धरती तोर ये, एकर सिंगार कर
35- दीन-दुखी के सेवा सबले बड़े धरम आय
36- काकरो बर कांटा झन बो
37- घमंड का करथस सब नठा जाही
38- झगरा के जर नइ होय, ओखी ह खोखी होथे
39- नियाय ह सब बर बरोबर होथे
40- धरमात्मा उही आय जौन ह धरम करथे
41- बैरी संग घलोक पिरित रखबे
42- मोर संत मन मोला ककरो लो बड़े झन कइहौ नइते मोला हुदेसना म हुदेसना आय

लोकप्रियता और समाज में असर-
तपस्या के पश्चात प्राप्त आत्म ज्ञान के द्वारा घासीदास जी लोगों को सभी प्रकार के व्यसन से मुक्त होकर सात्विक एवं आदर्श जीवन जीने का उपदेश देने लगे, जिससे प्रभावित होकर केवल दलित एवं उपेक्षित समाज के लोग ही नहीं अपितु अन्य सामान्य जाति वर्ग के लोग भी उनके अनुयायी बनने लगे. जो लोग उन्हें ज्ञान के माध्यम से, एवं अन्य जो चमत्कार की भाषा को समझते हैं, वे उनके द्वारा किये जाने वाले चमत्कारिक इलाज से प्रभावित होकर उन्हें मानने लगे.

छाता पहाड़ के वे पांच कुंड इस बात के प्रमाण हैं, जिनके जल से घासीदास जी लोगों के असाध्य रोगों को भी जड़ से दबर कर देते थे. यह सब ईश्वरीय कृपा ही है, जिसे आम जन चमत्कार मान लेते हैं. ऐसे अनेक कारण हैं, जिनसे प्रभावित होकर उनके अनुयायी बनते गये और सतनाम धर्म को आत्मसात करते गये.

डॉ. जे.आर. सोनी लिखित एवं गुरु घासीदास साहित्य एवं संस्कृति अकादमी न्यू राजेन्द्र नगर, रायपुर द्वारा प्रकाशित 'सतनाम पोथी" के पृष्ठ क्र. 107 पर राजमहंत रामसनेही सेंदरी वाले से साक्षात्कार के अनुसार जानकारी दी गई है कि छत्तीसगढ़ एवं ओडिशा की विभिन्न छोटी कही जाने वाली जातियां सतनाम धर्म को मानने लगीं, जिनमें प्रमुख रूप से - साहू, तेली, रावत, घसिया, कुर्मी, धोबी, केंवट, नाई, सूर्यवंशी, कन्नौजिया, रामनामी, पैकहरा, गोंड़, कंवर, ढीमर, महरा, पटेल, मरार, पनका, कलार, सोनार, लोहार, कोष्टा, देवांगन, बरई, कुम्हार आदि जातियाँ प्रमुख हैं.

64 जातियाँ 64 गोत्र-
रायपुर नगर पालिक निगम के अपर आयुक्त एवं गुरु घासीदास साहित्य एवं संस्कृति अकादमी के महासचिव डॉ. जे. आर. सोनी ने एक मुलाकात में बताया कि कुल 64 प्रकार की जातियाँ सतनामी समाज में समाहित हो गई, जिन्हें हम सतनामी समाज के विभिन्न गोत्र के रूप में जानते हैं. उन्होंने बताया कि छत्तीसगढ़ में 54 गोत्र प्राप्त होते हैं, जबकि दस अन्य गोत्र ओडिशा, असम जैसे अन्य राज्यों में प्राप्त होते हैं. छत्तीसगढ़ में प्राप्त होने वाले गोत्र हैं-

1- सोनवानी (सोनी, वानी, सुनहले, सोंचे, सोन्डे)
2- सायतोडऱ (तोन्डे. सुमन, सांडिल्य)
3- भतपहरी (भारद्वाज, भरतद्वाज, पहारे, पहारी, भतपहरे, भट्ट, भारती, भास्कर, भार्गव)
4- धिलरहा (धृतलहरे, लहरे)
5- तडैया (टंडन, तारे)
6- आडि़ल (अंचल, आनंद, आदिल)
7- बंजार (बंजारे, बंजारा, बनर्जी)
8- कुर्रा (कुर्रे, कांत, क्रांति, कौशल)
9- जांगड़ (जांगड़े, जोशी)
10- जड़कोढिय़ा (जांगड़े, जोशी)
11- खूंटी (खरे, खूंटे)
12- चेलिक सवई (चेलके, चेलकर, चतुरसेन)
13- चतुर्विदानी (चतुर्वेदी)
14- मन घोघर (मनहर)
15- छितोड़े (छितोड़े, घृतकर)
16- मांछीमुड़ी (मिरी, मिरे)
17- रौतिया (राउतराय, रात्रे, रावत)
18- पहटिया (पात्रे)
19- गार्रा (गेंदले, गायकवाड़)
20- भैंसा (महेश, महिष, मनहर, नृसिंह, भंगी, निराला)
21- खड़बंधिया (खाण्डे, खाण्डेकर)
22- बंधैया (बांधी)
23- महदेवा (अनंत)
24- महिलांग (महिलांगे, महिलाने)
25- बाघमार (बघेल)
26- ढेढ़ी (धीरही, धीरज, धीरे)
27- कोसरिया (कोशले, कौशल)
28- डहरिया (डाहिरे, डहरिया)
29- नौरंगा (नौरंग, नारंग, नोरगे)
30- मरई (मेरसा)
31- पटेल (पटेल, पाटिला, पाटले, पात्रे)
32- हरवंश (हरवंश)
33- पनिका (पनिक, पात्रे, पाण्डु)
34- ओग्गर (ओगरे)
35- जोगी-जोगवंशी (जोगी, जोगवंशी, जोगास, जोगेवार, जोगे)
36- खुशी (खुशी)
37- बारमतावन (बारमते)
38- सोनबोइर (सोनबेर)
39- बारले (बारले)
40- बारी (बारी)
41-  देशलहरा (देशलहरा)
42- अजगल्ला (अजगल्ले)
43-  गौंटिया (गौंटिया, गोटी)
44- पुरेना (पुराइन, पुरेना)
45- मोहलाईन (मोहले)
46- करयिारे
47-जांधी
48- पारे
49- जोल्हे
50- जोशी
51- चंदेल
52- परमार
53- खटकर
54- गायकवाड़

शाखाएं-
सतनाम धर्म की शाखाएं आज विश्वव्यापी हो चुकी हैं. सतनाम के कर्मठ एवं मेहनतकश अनुयायी देश-विदेश के विभिन्न सम्मानित पदों को सुशोभित कर रहे हैं. चाहे राजनीति का क्षेत्र हो, शासन-प्रशासन का क्षेत्र हो अथवा शिक्षा का क्षेत्र हो सभी दिशाओं में इनका परचम लहरा रहा है. यह सब गुरु घासीदास जी के उन सद्प्रयासों का फल है, जिसे मूर्त रूप देने के लिए उन्होंने अपना सर्वस्व अर्पण कर दिया.

वैसे सतनाम धर्म की तीन शाखाओं की जानकारी विद्वानों द्वारा बताई जाती है, जिसमें गुरु घासीदास जी के वंशज जिस हरियाणा राज्य के नारनौल  नामक स्थान से आये थे वहां. एक अन्य शाखा उत्तर प्रदेश के फर्रखाबाद बाराबंकी (कन्नौज) क्षेत्र की बतायी जाती है, तथा तीसरी छत्तीसगढ़ की शाखा के रूप में चिन्हित की जाती है. वैसे जनसंख्या और अन्य गतिविधियों की दृष्टि से देखें तो छत्तीसगढ़ की शाखा ही सबसे सबल और अग्रणी है. इसके अनुयायी देश के हर भाग में अपनी आस्था और निष्ठा का परचम लहरा रहे हैं.

 श्वेत ध्वज और जैतखाम का महत्व-
सतनाम धर्म में जैतखाम और श्वेत ध्वज का अत्यंत महत्व है. श्वेत ध्वज को जहां शांति, अहिंसा, प्रेम, दया, करुणा का प्रतीक माना जाता है, वहीं जौतखाम को इन संदेशों  को आकाश की ऊँचाई तक पहँचाने वाला माध्यम. ऐसी मान्यता है कि जैतखाम को इक्कीस हाथ लम्बी गोलाई वाली लकड़ी से बनाने का विधान है. लेकिन आजकल इसे सीमेंट क्रांकीट के साथ ही साथ अपनी सुविधा के अनुसार बनाने का प्रचलन बन गया है.
श्वेत ध्वज की ऐतिहासिकता के संबंध में बताया जाता है कि घासीदास जी के पूर्वज जो हरियाणा के नारनौल से आये थे, अपने साथ श्वेत ध्वज लेकर आये थे, जिसे वे घर के चुल्हे के पास स्थपित करते थे. कालांतर में यह प्रथा आंगन और फिर घर के बाहर स्थापित करने के रूप में हमारे सामने है.

इसकी ऐतिहासिकता के संबंध में जो जानकारी प्राप्त हुई है, उसके अनुसार मुगल साम्राज्य के पतन के दिनों में जब औरंगजेब का शासन था, तब इस्लाम धर्म अपनाने के लिए काफी अत्याचार किया जाता था, उनसे जबरिया लगान वसूला जाता था. ऐसे ही लगान वसूली के दौरान मथुरा के पास एक सतनामी किसान का औरंगजेब के फौजदार से विवाद हो गया. सतनामी किसान ने फौजदार का कत्ल कर दिया. इससे औरंगजेब क्रोधित हो गया, वह सतनामियों को कुचलने के लिए सेना की टुकड़ी नारनौल भेजा. सतनामियों ने भी संगठित होकर उनसे मुकाबला किया और जीत दर्ज की.

सन् 1672 ई. में वीरभान सिंह ेवं जोगी दास के नेतृत्व में सतनामियों की हुई इस जीत से बौखलाए औरंगजेब ने स्वयं मोर्चा संभाला और छलपूर्वक सफेद झंडे का इस्तेमाल कर सतनामियों को परास्त कर दिया. सफेद ध्वज को शांति और समझौते का प्रतीक माना जाता है, इसलिए सतनामी सैनिक उसके झांसे में आ गये. यही उनकी पराजय का कारण बना.

श्वेत ध्वज और जैतखाम के साथ पंथी नृत्य एवं गीत का आपस में चोली-दामन का संबंध स्थपित हो गया है. पंथी वास्तव में गुरु घासीदास जी की अमरगाथा है, जिसे सतनाम के अनुयायी नृत्य के साथ भी प्रस्तुत करते हैं. पंथी नृत्य आज छत्तीसगढ़ के प्रतीक गीत-नृत्य के रूप में पूरी दुनिया में  बाबा जी के ज्ञान का संदेश दे रहा है.

सुशील भोले
54-191, डॉ. बघेल गली,
संजय नगर (टिकरापारा) रायपुर (छ.ग.)
मोबा. नं. 080853-05931, 098269-92811
ईमेल - sushilbhole2@gmail.com

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