Wednesday 7 October 2015

गोदना की परंपरा और शिव-पार्वती का छत्तीसगढ़ प्रवास

 छत्तीसगढ़ में गोदना की परंपरा उतनी ही पुरानी है, जितनी पुरानी यहां की सभ्यता है। ऐसा कहा जाता है कि शिव जी पार्वती के साथ लगभग 16 वर्षों तक छत्तीसगढ़ प्रवास पर थे, उसी समय इस गोदना प्रथा का यहां पर चलन प्रारंभ हुआ।

इसके संबंध में जो जनश्रुति मिलती है उसके अनुसार शिव जी पार्वती के साथ यहां निवास कर रहे थे। तब उनसे मिलने के लिए यहां के वनवासी और उनके भक्त आते थे। एक बार शिव जी ने अपने यहां भोज का आयोजन किया और सभी लोगों को अपने परिवार के साथ आने का न्यौता दिया।

ेभोज का आमंत्रण प्राप्त होने पर गोंड़ देवता अपनी पत्नी के साथ शिव जी के यहां गये। वहां खूब आव-भगत हुई। छककर खाना-पीना हुआ। वापस घर जाने के समय गोंड़ देवता अपनी पत्नी को, जो अन्य महिलाओं के साथ पीछे मुंह करके खड़ी थी, को पहचान नहीं पाये। उन्होंने डिल-डौल से अंदाज लगाकर एक महिला के कंधे पर हाथ रख दिया। वह महिला उसकी पत्नी नहीं, अपितु पार्वती निकली। उसे देखकर गोंड़ राजा को दुख हुआ, और उसने पार्वती माफी भी मांग ली।



पार्वती इस घटना से दुखी हुई, किन्तु भोलेनाथ गलती को महसूस कर मंद-मंद मुस्कुराए और इस तरह के धोखे से बचने के लिए महिलाओं को अलग-अलग आकार-प्रकार के गोदना गोदाने की सलाह दिए, तब से यहां की आदिवासी महिलाएँ अपने शरीर में विशेष पहचान बनाने और स्थाई श्रृंगार करने के लिए गोदना गोदाने लगीं।

इस जनश्रुति में कितनी सच्चाई है, इसे तो प्रमाणित तौर पर कहा नहीं जा सकता, लेकिन इस बात को असत्य भी नहीं कहा जा सकता। एक और जनश्रुति है, जिससे गोदना वाली परंपरा को बल मिलता है।

कहते हैं कि जब गणेश जी को प्रथम पूज्य का आशीर्वाद दे दिया गया तो उनके बड़े भाई कार्तिकेय रूठकर कैलाश छोड़कर दक्षिण भारत चले आये। ज्ञात रहे कि दोनों भाईयों के बीच इसके लिए प्रतियोगिता रखी गई थी कि जो भी पृथ्वी की पहली परिक्रमा कर आयेगा उसे ही प्रथम पूज्य का अधिकार दिया जायेगा। कार्तिकेय तो अपने मयूर पर उड़कर पृथ्वी की परिक्रमा करने लगे, लेकिन गणेश जी अपने माता-पिता की परिक्रमा कर उनके सामने बैठ गये। माता-पिता को भी पृथ्वी का रूप मानकर गणेश को प्रथम पूज्य का अधिकार दे दिया गया।

नाराज कार्तिकेय को मनाकर वापस कैलाश ले जाने के लिए शिव जी माता पार्वती के साथ सोलह वर्षों तक छत्तीसगढ़ के बस्तर इलाके में रहे। लेकिन  रूठे हुए कार्तिकेय को मना नहीं पाये। कार्तिकेय दक्षिण भारत में ही रम गये, और शिव धर्म का प्रचार-प्रसार करने लगे। दक्षिण भारत में इसीलिए कार्तिकेय की ही सबसे ज्यादा पूजा होती है, उन्हें यहाँ मुरुगन स्वामी के नाम से भी जाना जाता है।

जो लोग छत्तीसगढ़ की प्राचीनता को मात्र रामायण और महाभारत कालीन कहकर इसकी प्राचीनता को बौना बनाने का प्रयास करते हैं, उन लोगों की बुद्धि पर तरस आता है। जिस छत्तीसगढ़ में आज भी सृष्टिकाल की संस्कृति जीवंत रूप में हम सबके समक्ष उपस्थित है, उसकी प्राचीनता मात्र द्वापर या त्रेता तक ही सीमित कैसे हो सकती है। सतयुग तक विस्तारित कैसे नहीं हो सकती?

ज्ञात रहे कि छत्तीसगढ़ की मूल संस्कृति, जिसे मैं आदि धर्म कहता हूं वह सृष्टिकाल की संस्कृति है। युग निर्धारण की दृष्टि से कहें तो सतयुग की संस्कृति है, जिसे उसके मूल रूप में लोगों को समझाने के लिए हमें फिर से प्रयास करने की आवश्यकता है, क्योंकि कुछ लोग यहां के मूल धर्म और संस्कृति को अन्य प्रदेशों से लाये गये ग्रंथों और संस्कृति के साथ घालमेल कर लिखने और हमारी मूल पहचान को समाप्त करने की कोशिश कर रहे हैं।

मित्रों, सतयुग की यह गौरवशाली संस्कृति आज की तारीख में केवल छत्तीसगढ़ में ही जीवित रह गई है, उसे भी गलत-सलत व्याख्याओं के साथ जोड़कर भ्रमित किया जा रहा। मैं चाहता हूं कि मेरे इसे इसके मूल रूप में पुर्नप्रचारित करने के इस सद्प्रयास में आप सब सहभागी बनें...।

सुशील भोले
संस्थापक, आदि धर्म सभा
संजय नगर, रायपुर (छ.ग.)
मोबा. नं. 080853-05931, 098269-92811

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