Monday 10 April 2017

प्रकाशन सहयोग...आखर अंजोर...

किसी राजनीतिक परिवार की छवि रखने वाले कुल में एक अस्मिता प्रेमी का जन्म लेना किसी सद्कार्य के लिए अवतरित होने का संदेश होता है। पूरन बैस जी इसी संदेश-श्रृंखला की एक कड़ी हैं। इनके साथ मेरा पहला परिचय तब हुआ था, जब हम लोग छत्तीसगढ़ी के महान नाटककार-कथाकार स्व. श्री टिकेन्द्रनाथ जी टिकरिहा लिखित नाटक- 'गंवइहा* के मंचन के लिए (सन् 1991 में) अभ्यास कर रहे थे।

तात्यापारा स्थित कुर्मी बोर्डिंग में 'गंवइहा* का लगातार चार महीने तक रिहर्सल होता रहा। पूरन बैस जी इस नाटक के प्रमुख पात्रों में से एक थे, साथ ही निर्देशक मंडल के सदस्य भी थे। मैं इस नाटक में गीतकार और संगीतकार के रूप में जुड़ा हुआ था, इसीलिए हमारा यह परिचय घनिष्ठता में परिवर्तित हो गया। नाटक का मंचन रायपुर के प्रसिद्ध 'रंग मंदिर* में ऐतिहासिक सफलता के साथ संपन्न हुआ। बाद में इसका मंचन भिलाई इस्पात संयंत्र द्वारा आयोजित 'लोकोत्सव* के अंतर्गत भी हुआ।

इसके पश्चात् हम लोगों के इस ग्रुप का बिखराव होने लगा, क्योंकि सभी सहयोगी अलग-अलग नैकरी पेशा और रोजगार से जुड़े हुए थे। मेरे जीवन में इसी दौर में एक नया परिवर्तन आया। मैं गीत-संगीत और साहित्य की दुनिया से विलग होकर आध्यात्मिक साधना के मार्ग पर अग्रसर हो गया। इसलिए इस क्षेत्र के लोगों से मेरा संपर्क लगभग टूट सा गया।

साधना काल में मुझे छत्तीसगढ़ के मैदानी भाग में प्रचलित संस्कृति के मूल स्वरूप का ज्ञान प्राप्त हुआ, जिसे मैं एक संक्षिप्त पुस्तिका का रूप देना चाहता था। 'आखर अंजोर* के रूप में संकलित इस पुस्तिका में यहाँ की मूल संस्कृति पर मेरे द्वारा लिखे गए लेखों के संकलन थे, जिसे सन् 2006 में पहली बार बालाजी प्रिंटर्स के संचालक श्री रामशरण कश्यप जी के सहयोग से प्रकाशित किया गया। तब तक मेरा साधना काल पूर्ण नहीं हो पाया था, इसलिए इसमें कुछ संशोधन और नये लेखन की आवश्यकता महसूस होती थी।

अब जब मेरा साधना काल पूर्ण हो चुका है, और इसमें आवश्यक संशोधन के साथ पुनप्र्रकाशन का संयोग बन रहा है, तब पूरन बैस जी के साथ मेरी पुन: मेल-मुलाकात हो गई है। मेरी साधना, यहाँ की संस्कृति और ऐतिहासिक लेखन के संबंध में उनसे चर्चा होने पर उन्होंने स्व-इच्छा से 'आखर अंजोर* को प्रकाशित करवाने का जिम्मा लिया। पूरन बैस जी और क्रियेटिव कम्प्यूटर के संचालक भाई अनिल चंद्राकर जी के माध्यम से 'आखर अंजोर* आप सब के समक्ष अपने नए कलेवर में मौजूद है।

विश्वास है, यह लघु पुस्तिका अपने नाम के अनुरूप 'आखर अंजोर* अर्थात् 'अक्षर का प्रकाश* फैलाएगी, और हमारी विस्मृत हो रही संस्कृति के मूल स्वरूप को पुनस्र्थापित करने में एक मील का पत्थर साबित होगी।

-सुशील भोले

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