Friday 6 December 2013

बातचीत / शिवशंकर पटनायक

प्रकाशित रचनाएं केवल लेखक की नहीं अपितु पूरे समाज की होती हैं 




हिंदी साहित्य जगत में अहिंदी भाषी किंतु हिंदी साहित्य साधक शिवशंकर पटनायक का नाम अनजाना कतई नहीं है। छ.ग. शासन सहकारिता विभाग से प्रथम श्रेणी राजपत्रित अधिकारी के पद से सेवा निवृत्त श्री पटनायक की लगभग 45 कहानियां, 38 निबंध तथा 16 चिंतन का प्रकाशन 'इतवारी-अखबारÓ में हो चुका है। एक उपन्यासकार के रूप में उनके उपन्यास 'भीष्म प्रश्नों की शर शैय्या परÓ कालजयी कर्ण, एकलव्य, अग्नि-स्नान, आत्माहुति, समर्पण तथा पंच-कन्याएं (तारा, अहिल्या, मदोदरी, कुंती तथा द्रौपदी) में उन्हें पर्याप्त चर्चित किया है। वहीं एक कहानीकार के रूप में उन्होंने हिंदी साहित्य को 'पराजित पुरूष, प्रारब्ध, पलायन, डोकरी दाई, बचा रे दीपक पुंसत्व तथा अदालत के पहले जैसा कहानी संग्रह भी दिया है।
साहित्य में श्री पटनायक का व्यक्तित्व बहु-आयामी है। उनके लेख तथा चिंतन पाठकों को झकझोरने की क्षमता से युक्त है। भाषा पर पकड़ तथा शब्दों का भंडार के साथ धारा प्रवाह प्रस्तुतीकरण उन्हें खास बना देते हैं। पुरूष लेखक होकर भी नारी अंतर्मन, वेदना, दशा दिशा एवं अस्मिता के प्रति उनका दृष्टिकोण व्यापक है और शिद्दत से कहते हैं 'विश्व की लगभग आधी आबादी (नारी) को मात्र पूजनीया संबोधित कर देना ही पर्याप्त नहीं है। इक्कीसवीं सदी की मांग है कि नारी की अस्मिता को सर्वोच्च मान तथा सुरक्षा मिले। प्रस्तुत है उनके साथ हुई बातचीत के अंश-

0 आपकी दक्षता उडिय़ा, हिंदी, अंग्रेजी तथा छत्तीसगढ़ी में समान रूप से है, यह कैसे संभव हो सका?
मातृभाषा उडिय़ा है। मातृभूमि पिथौरा, छत्तीसगढ़ है। शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी रहा तथा हिंदी हमारी राष्ट्र-भाषा है। वैसे भी बाल्यपन से हिंदी के प्रति विशेष लगाव रहा है।

0 आपने कब से लिखना प्रारंभ कर दिया था?
भोले जी, नवमीं कक्षा में ही मैंने लगभग 200 पृष्ठ का उपन्यास 'पुष्करÓ लिख दिया था। जाने कैसे प्राचार्य स्व. श्री उमाचरण तिवारी जी को जानकारी हो गई। उन्होंने कहा था 'पढ़ाई-लिखाई में ध्यान दो। अभी उपन्यास लिखने की तुम्हारी उम्र नहीं है।Ó आगे उन्होंने कहा था जिसने मेरे अंतर्मन को प्रभावित किया 'शिवशंकर, हमेशा याद रखना लेखन के लिए अध्ययन, अनुभव और अभ्यास आवश्यक है। दसवीं कक्षा तक मैं रामचरित मानस, वाल्मिकी रामायण (हिंदी) महाभारत, शिवाजी, महाराणा प्रताप, गांधी दर्शन के साथ अनेकों पुस्तकों को पढ़ लिया था।Ó

0 क्या आपने यह नहीं सोचा कि इससे आपकी अपनी शिक्षा प्रभावित हो सकती थी?
नहीं इससे मेरी शिक्षा प्रभावित नहीं हुई। मैं अपने पाठ्यक्रम के प्रति भी गंभीर था। मेरे बड़े भाई मेरे सहपाठी थे। मैं विज्ञान का विद्यार्थी था और वे कला के किंतु मैं फिजिक्स, केमेस्ट्री के अलावे उनकी किताबें भूगोल, इतिहास, नागरिक शास्त्र तथा अर्थ शास्त्र भी उतनी ही रूचि से पढ़ जाता था।

0 इससे आपके व्यक्तित्व में क्या परिवर्तन आया या आपको क्या लाभ हुआ?
शिक्षा-शास्त्र में सर्वांगीण विकास को अत्यधिक महत्व दिया गया है। स्वस्थ्य काया ही व्यक्तित्व ही नहीं होता यह बाह्य स्वरूप है मात्र, अत: इसकी पूर्णता के लिए ज्ञान आवश्यक है। ज्ञान के लिए अध्ययन चाहिए और अध्ययन का फलक विशाल होता है। जहां तक मेरी बात है। मुझे सिर्फ किताब चाहिए चाहे लेखक कोई हो या विषय कुछ भी हो। सभी किताबें मुझे प्रिय लगती हैं।

0 आपके साहित्य पर बेमेतरा महाविद्यालय के सहायक प्राध्यापक श्री तिवारी ने पीएच.डी. की है, और भी कुछ कर रहे हैं, कैसा अनुभव होता है?
आत्म-संतुष्टि होती है कि मेरे साहित्य का मूल्यांकन हो रहा है। लगता है जैसे श्रम सार्थक हुआ।

0 क्या साहित्य में स्वांत: सुखाय लेखन भी होता है?
मेरे मत में साहित्य में स्वांत: सुखाय होता ही नहीं है। आप लिखिए, पढिय़े और अपने तक सीमित रखिए यह स्वांत: सुखाय है किंतु यदि आपकी रचना चाहे वह साहित्य की किसी भी विधा पर क्यों न हो, प्रकाशित हो जाए तब वह रचना आपकी नहीं सबकी हो जाती है। अत: साहित्यकार को समाज, राष्ट्र व विश्व मानवता को दृष्टिगत कर अपने लेखकीय दायित्वों का निर्वहन करना चाहिए। साहित्य का उद्देश्य रचनात्मक जागृति हो तथा मूल्यों के प्रति उसकी प्रतिबद्धता असंदिग्ध होना आवश्यक है।

0 साहित्य की किस विधा के प्रति आपका रुझान अधिक हैं और क्यों?
नि:संदेह एक कहानीकार के रूप में प्रथमत: मुझे पहचान मिली। कहानी साहित्य की सर्वाधिक लोक प्रिय विधा है किंतु कहानी लेखन एक प्रभु-प्रदत्त प्रतिभा है। कला है। इसमें पारंगत होना अत्यंत कठिन है। उपन्यास कहानी का विस्तारित रूप है अत: विस्तार में कहीं कुछ कमी आ जाये तो क्षम्य है किंतु कहानी में कहानीकार को शीर्षक से लेकर अंत तक कथानक, पात्र चयन, कथोप कथन, भाषा शैली तथा प्रवाह का ध्यान रखना आवश्यक है। फिर कहानी में एक उद्देश्य होना आवश्यक है। पाठक को संदेश देना अनिवार्य है।

0 आजकल की कहानियां किस स्थिति में हैं?
मैं प्रत्येक प्रकार की कहानियां पढ़ता हूं नि:संदेह कुछ स्तरीय कहानियां लिखी जा रही हैं किंतु अधिकांश कहानियां पाठक के मानस को बोझिल कर देती है। समझ ही नहीं आता कि कहानी कार कहना क्या चाहता है। इन्हें कहानी नहीं कहा जा सकता जो पाठक के मन व मष्तिष्क में एक सकारात्मक सोच उत्पन्न न कर सके।

0 आपने अपने उपन्यासों में पौराणिक पात्रों को अधिक महत्व दिया है तथा सामाजिक उपन्यास एक 'समर्पणÓ ही लिखा है?
देखिए भोलेजी यह सर्वमान्य तथ्य है कि इतिहास अपने आपको दोहराता है। अत: पौराणिक पात्रों को नए संदेश व परिष्कृत रूप में प्रस्तुत करना वह भी बिना यथार्थ से छेड़छाड़ किए आवश्यक है। महाभारत का महाविनाशक युद्ध लड़ा जा चुका है किंतु पूरी निष्पक्षता से विचार करिए कि क्या आज भी महाभारत युद्ध की संभावनाएं मौजूद नहीं है? मैंने पितामह गंगापुत्र भीष्म को प्रश्नों की शरशैय्या पर लिटाया है और आत्म-मंथन कराया है कि उस युग स्वयं वे इच्छा मृत्यु का वरदान प्राप्त समय वीर, भगवान कृष्ण द्वैपायन वेद व्यास, धनुर्विधा के प्रतीक द्रोणाचार्य, कवच कुंडल धारी कर्ण, तथा साक्षात भगवान कृष्ण थे तथापि महाभारत का युद्ध क्यों हुआ? युद्ध के पश्चात स्थिति कितनी भयावह हुई?

0 लोग तो एकलव्य के संबंध में उनके द्वारा दायें हाथ का अंगूठा काटकर गुरु दक्षिण के रूप में मानस-गुरू, द्रोण को दे देने तक की घटना को जानते हैं किंतु आपने एकलव्य के संपूर्ण जीवन वृत्त को उकेर दिया है, यह कैसे संभव हुआ?
 वेद व्यास रचित महाभारत में भी एकलव्य के संबंध में मात्र इतनी ही जानकारी है किंतु एकलव्य पर मेरा गहन अध्ययन है। यह एक तरह से मेरा रिसर्च वर्क है। मैंने कर्ण एवं एकलव्य जैसे चरित्रों के माध्यम से सामाजिक स्थिति के लिए एक सार्थक चिंतन की दिशा को प्रशस्त करने का प्रयास किया है। वनवासी एकलव्य के जीवन दर्शन को जीवंत किया है। नारी अस्मिता, नारी शिक्षा, वन्य संस्कृति, वन-पुत्रों के मौलिक अधिकार, समाज में वनपुत्रों की दोयम दर्जे की नागरिकता के विरूद्ध एक रचनात्मक सोच को प्रस्तुत किया है।

0 क्या साहित्य में कल्पना को स्थान मिलना चाहिए?
 कल्पना और यथार्थ एक ही सिक्के के दो पहलू हंै, वैसे भी साहित्यकार सृजनकर्ता होता है। सामाजिक कल्याण व मूल्यों की पुनस्र्थापना के लिए यदि वास्तविकता को बिना नजर अंदाज किए हुए घटना को सार्थक कल्पना का हल्का पुट देकर प्रस्तुत किया जाता है तो यह स्वीकार्य भी है तथा सृजनधर्मिता के लिए आवश्यक भी।

0 आपके संबंध में कतिपय लेखकों का मत है कि आप नारी पात्रों को प्रमुखता देते हैं?
मुझे कोई आपत्ति नहीं है भोलेजी, कुछ माननीय लेखक मुझसे कहते भी हैं किंतु पुरुष शासित समाज में नारी के अंतर्मन की वेदना, हृदय की पीड़ा तथा उनके अस्तित्व संघर्ष को प्राथमिकता से समझना ही नहीं, निराकरण का मार्ग और उसके बला बनने के पूर्व समाज को सम्हल जाना भी आवश्यक है। विश्व की आधी आबादी को अब न्यून करके नहीं आंका जा सकता। किसी भी स्थिति में नारी अस्मिता से खिलवाड़ स्वीकार्य नहीं होना चाहिए। पुरूष मानसिकता को बदलना, आवश्यक है। तनिक यौन-मनोविज्ञान तो पढिय़े। मैंने तो रेखांकित कर दिया है लिखा है 'हर व्यक्ति स्वभाव से बलात्कारी होता है बशर्ते अनुकूल परिस्थितियां हों।Ó कितनी शर्म की बात है। धर्म के मूल में नारी है। हमारे अस्तित्व के मूल में नारी है। फिर भी नारी के प्रति ये धारणा? भोलेजी, यह साहित्यकारों का नैतिक कर्तव्य है कि नारी अस्मिता, अस्तित्व व अपराध जैसे विषयों पर गंभीर लेखन करें अन्यथा समाज राष्ट्र व विश्व के किसी विकास का कोई मूल्य नहीं।

0 आपके लेखों तथा चिंतन में आपने जीवन मूल्यों को सूक्ष्मता से प्रतिपादित किया है जिसकी सभी प्रशंसा करते हैं, ऐसा आप कैसे लिख लेते हैं?
अध्ययन एवं अनुभव के अतिरिक्त मां सरस्वती एवं प्रथम पूज्य गणपति गणेशजी की कृपा से। हां, भोलेजी, भोगा हुआ यथार्थ किसी पाठशाला से कम नहीं होता। अत: साहित्यकार पूरी निष्ठा से इस यथार्थ को पाठक तक पहुंचाये तब बात बने।

0 टी.वी. और कम्प्यूटर के इस युग में पढऩे के प्रति लोगों में रुझान नहीं रहा, क्या आप इससे सहमत हैं?
 नहीं, भोलेजी- मैं सहमत नहीं हूं। लेखन में यदि दम है तो पाठक पढऩे को विवश हो जाएगा। विषय-वस्तु, भाषा, शैली और प्रस्तुतीकरण में दम तो पैदा करिए फिर देखिए पाठक बस आपकी किताब का एक पन्ना तो पढ़ ले फिर तो अंत तक पढऩे को बाध्य हो जाएगा। साहित्य क्लिष्ट नहीं सरल होना चाहिए। भाषा जन भाषा होनी चाहिए। प्रमाण में रामायण को ही ले लीजिए। रामायण वाल्मिकी एवं बाबा तुलसीदास दोनों ने लिखी किंतु बाबा तुलसीदास जी का रामचरित मानस आज घर-घर में गांव-गांव में लोग पढ़ते एवं सुनते हैं।

सुशील भोले
संपर्क : डॉ. बघेल गली, संजय नगर
 (टिकरापारा) रायपुर (छ.ग.)
ईमेल - sushilbhole2@gmail.com
मोबा. नं. 080853-05931, 098269-92811

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