Friday 29 August 2014

भोले के गोले

पुस्तक समीक्षा / भोले के गोले / लेखक - सुशील भोले / समीक्षक - डा. सुखदेव राम साहू "सरस"


छत्तीसगढ़ी गद्य संकलन सक्रिय अद्यवसायी चिंतनशील साहित्यकार श्री सुशील भोले की  सर्जना 'भोले के गोले" समयानुकुल अभिव्यक्ति है। संवेदनशील साहित्यकार हर समय जागरूक रहते हैं, वे समय के साथ नहीं अपितु समय को अपने अनुकूल करने का सामर्थ रखते हैं, संभव है अपने ऐसे लीक से हटकर करने कहने में वे अकेले ही क्यों न हों। सुशील भोले का यही साहित्यिक उपक्रम लेखकीय दायित्व का बोध है, जो अपने साथ सबको चलने का आव्हान करता है, किंतु मार्ग नया मार्ग स्वयं तलाशता है।

छत्तीसगढ़ अंचल की सांस्कृतिक परंपरा के साथ आधार को मजबूत रखने के इस उपक्रम में सुशील भोले ने छत्तीसगढ़ की अस्मिता को ढूंढकर सम्मान बोध किया है। सम्मानपूर्ण जीवन ही हर व्यक्ति की मौलिकता है बशर्ते वह स्वत: को पहचानने का प्रयास तो करे।

'भोले के गोले" लेखों, कहानी और व्यंग्य में समाहित चिंतन पूर्ण ललित निबंधों का संग्रह है। प्रत्येक निबंध में लेखक ने विचारों में कसावट के साथ संभावित समस्या का समाधान भी सुझाया है, 'गद्यं कविनां निकषं वदंति" के प्रश्नापेक्षाओं में यदि पाठक आत्मचिंतन करे तो 'भोले के गोले" का मर्मांतक सुखमय दर्द महसूस किया जा सकता है।

छत्तीसगढ़ी गद्य लेखन अभी विकास की ओर है, जिसमें सतत् निखार की संभावना है। संकलन के लेखों को पांच वर्गों में वर्गीकृत किया जा सकता है यथा लोक संस्कृति-अस्मिता के प्रश्न, पर्व और त्यौहार, व्यक्तित्व परिचय, दर्शन एवं इतिहास तथा व्याकरणिक संदर्भ और हास्य-व्यंग्य। शीर्षक रचना 'भोले के गोले" सरल सहज व्यंग्य में गंभीर बात की प्रस्तुति है। अपने क्षेत्रीय संस्कृति के विनाश के लिए यहां के लोग ही उत्तरदायी हैं, जो भोकवा दाऊ के माध्यम से विचारोत्तेजक चित्रण है। अभिस्वीकृति है कि हमने स्वत: को शोषित होने के लिए समर्पित कर दिया हो।

इस प्रसंग में यह भी प्रेक्षणीय है कि सुशील भोले की यह मौलिकता है, निजी उत्स है कि वे छत्तीसगढ़ी में सोचते हैं और छत्तीसगढ़ी भाषा में ही लिखते हैं, इससे विचारों का प्रवाह स्वत: सतत गतिमान होते हैं, तभी शब्द (भाषा) एवं विचार भावों का सम्यक समन्वय होता है। वर्तमान में इस प्रकार के आत्मबोध प्रवृत्ति के छत्तीसगढ़ी गद्य लेखकों की संख्या न्यून है। इस तारतम्य में सुशील भोले ने छत्तीसगढ़ के मूल संस्कृति से ही तथ्य एवं तर्क पूर्ण उदाहरणों के द्वारा मूल संस्कृति का उल्लेख किया है। कार्य कारण संबंध से सटीक उदाहरणों द्वारा छत्तीसगढ़ की मूल संस्कृति को प्रस्तुत करने का साहसपूर्ण आग्रह है। यथा- 'अइसे कहे जाथे के चातुर्मास म (आसाढ़, अंजोरी एकादशी ले कातिक अंजोरी एकादशी तक) देवता मन सुत जाथें तेकर सेती ए चार महीना तक कोनो किसम के बर-बिहाव या मांगलिक कारज नइ करना चाही"। अब इही बात ल छत्तीसगढ़ के संदर्भ म देखिन- 'कार्तिक अमावस्या के भगवान शंकर अउ देवी पार्वती के बिहाव के परब गौरा-गौरी, 'गौरा पूजा", *** सावन अमावस के 'हरेली", भादो महीना म स्वामी कार्तिकेय के जनम दिन 'कमरछठ", अमावस नंदीश्वर के जनमदिन 'पोरा" अउ तीज के देवी पार्वती के द्वारा भगवान शंकर जी ल पति के रूप में पाये खातिर कठोर तपस्या 'तीजा" परब अउ वोकर बिहान दिन चउथ के भगवान गणेश के 'जन्मोत्सव"।  *** कुंवार महीना म पुरखा मन के सुरता म 'पितर पाख", फेर अंजोरी पाख म माता पार्वती (शक्ति) के जन्मोत्सव परब 'नवरात्र" के रूप म मनाए जाथे।" इत्यादि, संपूर्ण छत्तीसगढ़ में समग्रता के साथ ये सभी मांगलिक कार्य संपन्न होते हैं। इन प्रमाणित तथ्यों के साथ छत्तीसगढ़ की मूल संस्कृति शैव उपासना के आधार तत्व ही समाहित है। हर छत्तीसगढिय़ा इस पर स्वत: आत्मचिंतन करे, समाधान ढूंढे यही तो लेखक सुशील भोले का अभिप्राय है।

इस संग्रह में लेखक ने सार्थक प्रयास किया है कि पाठक मंतव्य/ ध्येय को सहजता से ग्रहण करें एतदर्थ कहानी कथन को आधार मानकर संवाद शैली में लिखा गया अंश है- 'धोंधोबाई, मन के सुख, दीया तरी अधियार जिसमें सहज हास-परिहास के द्वारा अपने मूल दर्द को लेखनीय संवेदना को व्यक्त करने का प्रयास है यथा- 'कहां पाबे सर, आजकल के आयोजक मन रूप-रंग अउ देंह-पांव ल जादा देखथें। ***  कइसे गोटियाथस संगवारी, मैं उहां नौकरी थोरे करथंव तेमा तनखा अउ बोनस झोकहूं। अरे भई मैं तो सेवा करथंव गा-धरम सेवा। मोला ताज्जुब लागीस एहू ह धारमिक सोशन के शिकार हे।"

यहां यह कथन अधिक समीचीन होगा कि लेखक ने सीधा और सपाट बयानी के लिए लोक प्रचलित शब्दों को सहेजा है ताकि अपन बानी अपन गोठ के समवाय में स्वाभाविकता बना रहे यथा- 'मइंता, नचकाहर, मटमटावत, रिगबिग, सैमो-सैमो, खोंची, लुढारे, उजबक, केलोली, गतर, सुवारी, रेटही आदि निसंदेह ये शब्द अल्प प्रचलित हैं तथापि लेखक के लिए पाठकों के साथ प्रसंग सापेक्ष बोधगम्य भी है। यहां यह भी ध्यातव्य है कि लेखक सुशील भोले ने अपनी संवेदनाओं का परिचय शब्द एवं ध्वनि को पाथेय बनाया है, इसलिए अनेक बार छत्तीसगढ़ी के ऐसे अनेक ध्वनि साम्य शब्दों का बहुतायत से प्रयोग करते हैं यथा- अन्ते-तन्ते, कांदी-कुसा बइहा-भुतहा, चिरोर-बोरोर, चंदा-बरारी, मरई-हेरई, पइसा-कउड़ी, लड़े-झगड़े, आंवर-भांवर आदि इसी भाषायी प्रवाह में लेखक ने भाषायी बिंब का सहज प्रयोग किया है। यथा- 'सैकड़ों अउ हजारों बछर ले पर के गुलामी भोगत ये माटी के रूआं-रूआं म लूटे के, चुहके के, टोरे के, फोरे के, दंदोरे के, भटकाये के, भरमाये के, तरसाये के, फटकारे के, चिनहा दिखत हे।" छत्तीसगढ़ी भाषा का यह अपनापन है कि उसमें गुरतुरपन है, मिठास है जो अपनी धरती अपने लोग में समाहित है, जहां आडम्बर रहित ठेठपन है वही सहजतापूर्ण आत्मीय भाव भी लेखक ने स्वाभाविक रीति से छत्तीसगढ़ी भाषा के इस बीज तत्व को स्वीकार्य बना सुघ्घर एवं सराहनीय प्रयोग किया है।

लेखक ने स्वीकार किया है कि वे छत्तीसगढ़ की मूल संस्कृति के समर्थक एवं पोषक हैं"। संस्कृति के विपरीत कार्य चाहे सामान्य जन हो अथवा विद्वतजन सुशील के लिए असहनीय हो जाते हैं इसीलिए गोल्लर ल गरुवा सम्मान, सम्मान के सपना, धोंधो बाई आदि में सीधा सपाट बयानी में व्यंग्य करते हैं। निश्छल व्यंग्य जो संबंधित को आत्मचिंतन करने हेतु बाध्य करते हैं कि वे समय रहते सावचेत हों और संस्कृति से खिलवाड़ न करें।

इसी तारतम्य में पर्व-त्यौहारों पर केंद्रित निबंध तथ्यात्मक हैं, जिसमें इन्हें मनाने के पीछे कौन से आधारभूत कारण हैं वे सहज ही ज्ञात हो जाते हैं और यह संयोग भी बनता है कि छत्तीसगढ़ अंचल में जो उत्तर भारत का सांस्कृतिक आरोहण हुआ या हो रहा है वह कितना मिथ्या व अनावश्यक है। यथा- कातिक नहाना, गुथो हो मालिन, अमरित पाए के परब, एक पतरी रैनी बैनी इत्यादि।

 'भोले के गोले" में व्यक्तित्व चित्रण संग्रह की मांग कह सकते हैं लेखक ने श्री नारायण प्रसाद वर्मा (पंडवानी पुरोधा) श्री मदन निषाद (नाचा के पुरोधा) श्री अनंत राम बर्छिहा (सुराजीवीर) का समावेश कर संग्रह को गरिमापूर्ण ही बनाया है, जिनके आत्मीय संबंधों को स्वीकार कर व्यक्तित्व एवं कृतित्व को लेखक ने नमन किया है।

इसी परिप्रेक्ष्य में छ.ग. व्याकरण के 125 बच्छर, धुर्रा गर्दा ल झटकारे के जरूरत, हीरा गवांगे बनकचरा म आदि में अप्रमाणित कथन करने वाले तथाकथित विद्वानों के लिए चुनौती है कि वे शोधपूर्ण एवं प्रमाणित एवं प्रभावी सही कथन करें, मिथ्यालाप व्यर्थ ही माना जाएगा। निसंदेह संग्रह के सभी निबंध प्रभावशाली हैं, शीर्षक सुविधानुसार छोटे-छोटे होने से भी समाहित हो सकते हैं। वैशिष्ट निरूपण तो पाठ्यांश में संभव ही है।

लेखक श्री सुशील भोले का संवेदनशील साहित्यकार ने हरसंभव तरीके से इस संग्रह में छत्तीसगढ़ की मूल संस्कृति को सहेजने का प्रयास किया है। निष्कपट छत्तीसगढिय़ा किंतु स्वाभिमानी छत्तीसगढिय़ा का छत्तीसगढ़ी भाषा एवं संस्कृति पर केंद्रित 'भोले के गोले" पठनीय सर्जना है।

लेखक सुशील भोले को इस नवोन्मेषी रचना के लिए हार्दिक बधाई। शुभकरोति।

समीक्षक : डॉ. सुखदेव राम साहू 'सरस"
 समाज गौरव प्रकाशन
113 साहू भवन, पुरानी बस्ती, रायपुर (छत्तीसगढ़)
मोबा. 96172 41315
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लेखक : सुशील भोले 
म.नं. 54-191, डॉ. बघेल गली,
संजय नगर (टिकरापारा) रायपुर (छ.ग.)
मोबा. नं. 080853-05931, 098269-92811
ईमेल -  sushilbhole2@gmail.com
ब्लाग - http://mayarumati.blogspot.in/
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प्राप्ति स्थल - वैभव प्रकाशन
अमीनपारा, रायपुर (छ.ग.)
फोन - 0771-4038958

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