Tuesday 16 September 2014

छत्तीसगढ़ की संस्कृति व अस्मिता की चिंता है *भोले के गोले* में...


     सुशील भोले छत्तीसगढ़ी साहित्य बिरादरी में जाना-पहचाना व महत्वपूर्ण नाम है. छत्तीसगढ़ राज्य गठन के पहले व बाद में छत्तीसगढ़ी बोली को भाषा के रूप में दर्जा दिलाने में उनकी कृतियों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है.पेशे से पत्रकार भोलेजी का लेखन बहुआयामी है.वे पत्रकारिता सहित साहित्य की अन्य विधाओं में पारंगत हैं. छत्तीसगढ़ी कविता, कहानी, व्यंग्य, लेख, गीत-भजन और समसामयिक विषयों पर विभिन्न अखबारों में कॉलम लेखन के जरिए उन्होंने अपनी श्रेष्ठता सिद्ध की है.

    छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग के सहयोग से  कहानी, व्यंग्य, लेख और संस्मरणों से गुंफित उनका सद्य प्रकाशित संग्रह भोले के गोले उनकी रचनाधर्मिता को बहुत गहराई से रेखांकित करता है. हालांकि सुशील भोले अपनी इस किताब की भूमिका में लिखते हैं कि इसमें संग्रहित रचनाएं उनके सीखने के दौर की हैं. यदि बम उनकी रचनाओं का विश्लेषण करें तो पाते हैं कि सीखने की प्रक्रिया में ही वे बहुत गहराई में पैठते हैं और अनमोल मोतियां निकाल लाते हैं.

   भोलेजी के मूल चिंतन में छत्तीसगढ़ की मूल संस्कृति व अस्मिता है. वे हर हाल में संस्कृति व अस्मिता की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध हैं. वे संस्कृति को छत्तीसगढ़ की अस्मिता की आत्मा मानते हैं. वे इस आत्मा में पड़ी अपसंस्कृति रूपी गर्द-धूल को झटककर साफ करने की जरूरत महसूस करते हैं. उन्हें मालूम है कि प्रदेश के इस विशाल भूखंड में हमारी परंपराएं, रीतिरिवाज, संस्कृति बहुत समृद्ध है. इनको पोषित करने में यहां के चिंतकों-मनीषियों का महत्वपूर्ण योगदान है. वे संजीदगी से बताते हैं कि इस बनकचरा म हीरा गंवाए हे. वे अपने विभिन्न लेखों में इस हीरे की पहचान करते चलते हैं.

   सर्वविदित है कि सोवियत संघ के विघटन के बाद अमेरिका पूरी दुनिया में हावी हो गया है. समूचे विश्व में उसकी दादागिरी चल रही है. वियतनाम, इराक, अफगानिस्तान की बर्बादी के लिए जिम्मेदार व हथियारों के सौदागर इस देश के राष्ट्रपति बराक ओबामा को जब शांति का नोबल पुरस्कार दिया जाता है तो सुशील भोले कटाक्ष करते हैं कि गोल्लर ल गरवा सम्मान मिल गया है. इसके अलावा वे  पुरस्कार के लिए जोड़-तोड़ की राजनीति करने वाले चाटुकार कलाकारों-लेखकों को भी नहीं बख्शते. वे इस बात को रेखांकित करते हैं कि जो सचमुच में सम्मान के हकदार हैं वे हाशिए पर हैं और जो अयोग्य हैं वे पुरस्कारों का चोंगा ओढ़े मलाईदार ओहदों पर बैठकर दूधभात खा रहे हैं.

   सुशील भोले छत्तीसगढ़ी कवि सम्मेलनों के गिरते स्तर से भी चिंतित हैं. मंचों में आजकल कविगण कविताएं कम चुटकुले अधिक सुनाने लगे हैं.उसमें भी फूहड़ता हावी हो गई है. कुछ स्वघोषित कवयित्रियां तात्कालिक लोकप्रियता हासिल करने के लिए अपनी रचनाओं का नहीं, अपने रूप-सौंदर्य का सहारा ले रही हैं. भोलेजी इसे अपने व्यंग्य धोंधो बाई के माध्यम से उजागर करते हैं.

   जैसा कि उपर लिखा जा चुका है कि सुशील भोले के चिंतन व लेखन के केंद्र में छत्तीसगढ़ की अस्मिता व संस्कृति है. वे पारंपरिक सुआ, करमा, ददरिया, पंडवानी के साथ-साथ यहां के तीज-त्योहारों को भी अक्षुण्ण बनाए रखने के पक्षधर हैं.वे पुरखा मन के सुरता के परब पितर पाख से लेकर देवी उपासना गीत जंवारा, शरद पुन्नी, कार्तिक स्नान, गौरा-गौरी आदि धरोहरों को संजोए रखने के हिमायती हैं.और तो और वे गांवों में आयोजित मेला-मड़ई में ढेलवा-रहिचुली आदि लोक मनोरंजन के साधनों को भी बरकरार रखने के पक्ष में हैं.
    सुशील भोले अपने अग्रजों का स्मरण करना नहीं भूलते. वे बड़ी शिद्दत और सम्मान के साथ सुराजी वीर अनंत राम बर्छिहा, पंडवानी के पुरोधा नारायण प्रसाद वर्मा, नाचा के सिद्धहस्त कलाकार मदन निषाद, छत्तीसगढ़ी के निश्छल कवि बिसंभर यादव मरहा आदि का स्मरण करते हैं.

    पुस्तक की भाषा बहुत सहज और सरल है. भोलेजी की कथ्यशैली रोचक है. कथ्य विषय के हिसाब से शब्दों का सटीक प्रयोग करना वे बखूबी जानते हैं.

समीक्षक :  किशनलाल
संपर्क : ग्राम-पोस्ट - देमार (धमतरी)
जिला-धमतरी (छत्तीसगढ़)

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