Monday 9 January 2017

छेरछेरा...



छत्तीसगढ़ में पौस माह की पूर्णिमा तिथि को *छेरछेरा* का जो पर्व मनाया जाता है, वह भगवान शिव द्वारा पार्वती के घर जाकर भिक्षा मांगने के प्रतीक स्वरूप मनाया जाने वाला पर्व है।

आप सभी को यह ज्ञात है कि पार्वती से विवाह पूर्व भोलेनाथ ने कई किस्म की परीक्षाएं ली थीं। उनमें एक परीक्षा यह भी थी कि वे नट बनकर नाचते-गाते पार्वती के निवास पर भिक्षा मांगने गये थे, और स्वयं ही अपनी (शिव की) निंदा करने लगे थे, ताकि पार्वती उनसे (शिव से) विवाह करने के लिए इंकार कर दें।

छत्तीसगढ़ में जो छेरछेरा का पर्व मनाया जाता है, उसमें भी लोग नट बनकर नाचते-गाते हुए भिक्षा मांगने के लिए जाते हैं। छत्तीसगढ़ के मैदानी भागों में तो अब नट बनकर (विभिन्न प्रकार के स्वांग रचकर) नाचते-गाते हुए भिक्षा मांगने जाने का चलन कम हो गया है, लेकिन यहां के बस्तर क्षेत्र में अब भी यह प्रथा बहुतायत में देखी जा सकती है। वहां बिना नट बने इस दिन कोई भी व्यक्ति भिक्षाटन नहीं करता।

ज्ञात रहे इस दिन यहां के बड़े-छोटे सभी लोग भिक्षाटन करते हैं, और इसे किसी भी प्रकार से छोटी नजरों से नहीं देखा जाता, अपितु इसे पर्व के रूप में देखा और माना जाता है। और लोग बड़े उत्साह के साथ बढ़चढ़ कर दान देते हैं। इस दिन कोई भी व्य्क्ति किसी भी घर से खाली हाथ नहीं जाता। लोग आपस में ही दान लेते और देते हैं।

इस छेरछेरा पर्व के कारण यहां के कई गांवों में कई जनकल्याण के कार्य भी संपन्न हो जाते हैं। हम लोग जब मिडिल स्कूल में पढ़ते थे, तब हमारे गुरूजी पूरे स्कूल के बच्चों को बैंडबाजा के साथ पूरे गांव में भिक्षाटन करवाते थे, और उससे जो धन प्राप्त होता था, उससे बच्चों के खेलने के लिए और व्यायाम से संबंधित तमाम सामग्रियां लेते थे।

मुझे स्मरण है, हमारे गांव में कलाकारों की एक टोली थी, जो इस दिन पूरे रौ में होती थी। मांदर-ढोलक और झांझ-मंजीरा लिए जब नाचते-गाते, डंडा के ताल साथ कुहकी पारते (लोकनृत्य में यह एक शैली है ताल के साथ मुंह से आवाज निकालने की इसे ही कुहकी पारना कहते हैं) यह टोली निकलती थी तो लोग उन्हें दान देने के लिए अपनी बारी की प्रतीक्षा करते थे। उस टोली को अपने यहां आने का अनुरोध करते थे। छेरछेरा का असली रूप और असली मजा ऐसा ही होता था, जो अब कम ही देखने को मिलता है।

ज्ञात रहे कि छत्तीसगढ़ की मूल संस्कृति, जिसे मैं आदि धर्म कहता हूं वह सृष्टिकाल की संस्कृति है। युग निर्धारण की दृष्टि से कहें तो सतयुग की संस्कृति है, जिसे उसके मूल रूप में लोगों को समझाने के लिए हमें फिर से प्रयास करने की आवश्यकता है, क्योंकि कुछ लोग यहां के मूल धर्म और संस्कृति को अन्य प्रदेशों से लाये गये ग्रंथों और संस्कृति के साथ घालमेल कर लिखने और हमारी मूल पहचान को समाप्त करने की कोशिश कर रहे हैं।

मित्रों, सतयुग की यह गौरवशाली संस्कृति आज की तारीख में केवल छत्तीसगढ़ में ही जीवित रह गई है, उसे भी गलत-सलत व्याख्याओं के साथ जोड़कर भ्रमित किया जा रहा। मैं चाहता हूं कि मेरे इसे इसके मूल रूप में पुर्नप्रचारित करने के सद्प्रयास में आप सब सहभागी बनें...।

सुशील भोले
संजय नगर, रायपुर (छ.ग.)
मोबा. नं. 080853-05931, 098269-92811
ईमेल - sushilbhole2@gmail.com

No comments:

Post a Comment