Tuesday, 30 January 2018
कनिहा मटक जाथे बाबा...
कनिहा मटक जाथे बाबा,
तोर डमरू के भाखा सुन मटक जाथे..
संगी-सहेली संग किंजरे बर गुनथौं
ततके बेर ठउका एकर भाखा सुनथौं
उठे पांव मोर अटक जाथे बाबा, तोर---
काम-बुता तो घलो अब होवय नहीं
गारी देथें मोला सब्बोच झन जोहीं
बुता ले चेत अब भटक जाथे बाबा, तोर---
तने-तनाय रहिस पहिली ये तन ह
लरी-लरी होगे जोहीं देंह-रतन ह
उपास के मारे देंह झटक जाथे बाबा , तोर---
-सुशील भोले
संजय नगर, रायपुर
मो नं 9826992811
गारी देथें मोला सब्बोच झन जोहीं
बुता ले चेत अब भटक जाथे बाबा, तोर---
तने-तनाय रहिस पहिली ये तन ह
लरी-लरी होगे जोहीं देंह-रतन ह
उपास के मारे देंह झटक जाथे बाबा , तोर---
-सुशील भोले
संजय नगर, रायपुर
मो नं 9826992811
वंदे मातरम...

घर-घर ले अब सोर सुनाथे वंदे मातरम
लइका-लइका अलख जगाथें वंदे मातरम...
देश के पुरवाही म घुरगे वंदे मातरम
सांस-सांस म आस जगाथे वंदे मातरम
रग-रग म तब जोश जगाथे वंदे मातरम....
उत्तर-दक्षिण-पूरब-पश्चिम मिलके गाथें
कहूं बिपत आये म सब खांध मिलाथें
तब तोर-मोर के भेद भुलाथे वंदे मातरम....
हितवा खातिर मया लुटाथे वंदे मातरम
बैरी बर फेर रार मचाथे वंदे मातरम
अरे पाक-चीन के छाती दरकाथे वंदे मातरम...
सुवा-ददरिया-करमा धुन म वंदे मातरम
भोजली अउ गौरा म सुनथन वंदे मातरम
तब देश के खातिर चेत जगाथे वंदे मातरम...
सुशील भोले
म.नं. 54-191, डॉ. बघेल गली,
संजय नगर (टिकरापारा) रायपुर (छ.ग.)
मोबा. नं. 98269-92811
कहूं बिपत आये म सब खांध मिलाथें
तब तोर-मोर के भेद भुलाथे वंदे मातरम....
हितवा खातिर मया लुटाथे वंदे मातरम
बैरी बर फेर रार मचाथे वंदे मातरम
अरे पाक-चीन के छाती दरकाथे वंदे मातरम...
सुवा-ददरिया-करमा धुन म वंदे मातरम
भोजली अउ गौरा म सुनथन वंदे मातरम
तब देश के खातिर चेत जगाथे वंदे मातरम...
सुशील भोले
म.नं. 54-191, डॉ. बघेल गली,
संजय नगर (टिकरापारा) रायपुर (छ.ग.)
मोबा. नं. 98269-92811
माघ महीना आगे संगी..
माघ महीना आगे संगी लगगे आमा म मउर
अमरइया म आके कोइली छेड़ दिए हे सुर
मन कुलकत हे भाग जही अब दिन जाड़ के
अबड़ दंदोरत रिहिसे जे मुंह-कान ल फार के
-सुशील भोले
संजय नगर, रायपुर
मो नं 9826992811
-----------------------------------------
माघ महीना आगे संगी आमा म लगगे मउर
देख पुरवाही छेड़ दिए हे राग बसंती -सुर
-सुशील भोले


छत्तीसगढ : जहां देवता कभी नहीं सोते....
छत्तीसगढ की मूल संस्कृति निरंतर जागृत देवताओं की संस्कृति है। हमारे
यहां वह व्यवस्था लागू नहीं होती, जिसमें यह कहा जाता है, कि चातुर्मास के
चार महीनों में शादी-विवाह जैसे मांगलिक कार्य नहीं करने चाहिए, क्योंकि इन
महीनों में देवता सो जाते या आराम करते हैं।
मित्रों, हमारे यहां
कार्तिक अमावस्या को मनाया जाने वाला पर्व गौरा-ईसरदेव जिसे हम गौरी-गौरा
के नाम पर भी जानते हैं, वह इसका सबसे बड़ा जवाब है, कि छत्तीसगढ में ऐसी
व्यवस्था लागू नहीं होती।
जिस छत्तीसगढ में कार्तिक अमावस्या अर्थात देवउठनी से दस दिन पहले गौरा-ईसरदेव पर्व के रूप में यहां के सबसे बड़े देव के विवाह का पर्व मनाया जाता हो, वह इस बात पर कैसे विश्वास करेगा कि सावन, भादो, क्वांर और कार्तिक माह के अंतर्गत आने वाले चातुर्मास में किसी प्रकार का मांगलिक कार्य नहीं किया जाना चाहिए?
हमारे यहां गौरी-गौरा पूजा या विवाह के साथ ही श्रावण के महीने में भीमादेव का भी विवाह पर्व मनाया जाता है। इसी प्रकार वर्षा ऋतु में कम वर्षा होने की स्थिति में मेढक-मेढकी की शादी करने की परंपरा भी यहां देखने को मिलती है।
मित्रों, जो देव हमारी हर सांस में बसे हों, हमारी हर धड़कन में अपनी उपस्थिति का अहसास कराते हों, वे सो कैसे सकते हैं? वह भी चार महीनों तक?
दर असल यह हमारी मूल संस्कृति को समाप्त कर उसके ऊपर अन्य संस्कृति को थोपने की साजिश मात्र है। क्योंकि यहां की मूल संस्कृति में सावन, भादो, क्वांर और कार्तिक यही चार महीने सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण होते हैं। इन्हीं चार महीनों में यहां के सारे प्रमुख पर्व हरेेेेली से लेकर गौरा ईसरदेव विवाह तक के पर्व आते हैं। इसीलिए मैं हमेशा कहता हूं, कि इन चार महीनों को ही सबसे ज्यादा शुभ, पवित्र और फलदायी माना जाना चाहिए। जितने भी मांगलिक और विशिष्ट कार्य हैं, इन्हीं चार महीनों में किए जाने चाहिए।
जिस छत्तीसगढ में कार्तिक अमावस्या अर्थात देवउठनी से दस दिन पहले गौरा-ईसरदेव पर्व के रूप में यहां के सबसे बड़े देव के विवाह का पर्व मनाया जाता हो, वह इस बात पर कैसे विश्वास करेगा कि सावन, भादो, क्वांर और कार्तिक माह के अंतर्गत आने वाले चातुर्मास में किसी प्रकार का मांगलिक कार्य नहीं किया जाना चाहिए?
हमारे यहां गौरी-गौरा पूजा या विवाह के साथ ही श्रावण के महीने में भीमादेव का भी विवाह पर्व मनाया जाता है। इसी प्रकार वर्षा ऋतु में कम वर्षा होने की स्थिति में मेढक-मेढकी की शादी करने की परंपरा भी यहां देखने को मिलती है।
मित्रों, जो देव हमारी हर सांस में बसे हों, हमारी हर धड़कन में अपनी उपस्थिति का अहसास कराते हों, वे सो कैसे सकते हैं? वह भी चार महीनों तक?
दर असल यह हमारी मूल संस्कृति को समाप्त कर उसके ऊपर अन्य संस्कृति को थोपने की साजिश मात्र है। क्योंकि यहां की मूल संस्कृति में सावन, भादो, क्वांर और कार्तिक यही चार महीने सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण होते हैं। इन्हीं चार महीनों में यहां के सारे प्रमुख पर्व हरेेेेली से लेकर गौरा ईसरदेव विवाह तक के पर्व आते हैं। इसीलिए मैं हमेशा कहता हूं, कि इन चार महीनों को ही सबसे ज्यादा शुभ, पवित्र और फलदायी माना जाना चाहिए। जितने भी मांगलिक और विशिष्ट कार्य हैं, इन्हीं चार महीनों में किए जाने चाहिए।
कोन कहिथे देवता सूतथे उहू म चार महीना
सांस सांस म जे बसे हे वोकर का सूतना जगना
उजबक होही वो मनखे जे अइसन गोठियाथें
अउ परबुधिया हे उहू मन जे एला पतियाथें
-सुशील भोले
संयोजक, आदि धर्म सभा
संजय नगर, रायपुर
मो. नं. 9826992811
-सुशील भोले
संयोजक, आदि धर्म सभा
संजय नगर, रायपुर
मो. नं. 9826992811
समीक्षा के घेरे में धर्म, संस्कृति और परंपरा.....
धर्म एक ऐसा विषय
है, जिसे आमतौर पर लोग मधुमक्खी के छत्ते की तरह देखते हैं। लोग उससे शहद
तो प्राप्त करना चाहते हैं, किन्तु उसके काट खाने के भय से उसे छूना या
छेड़ना भी नहीं चाहते।यही कारण है, कि आज हमारे समक्ष धर्म, संस्कृति और
परंपरा के नाम पर अनेक विसंगतियां दिखाई देती हैं। जो लोग चिंतन-मनन और
समाधान की प्रक्रिया में उलझना नहीं चाहतेद, वे ऐसी तमाम विसंगतियों को धर्म
और परंपरा के नाम पर ढोते रहते हैं। और जो लोग ऐसी विसंगतियों से
खिन्न होकर उसका त्याग करना चाहते हैं, वे धर्म के रास्ते से ही विलग होने
की कोशिश करने लगते हैं। हमारे समक्ष धर्म परिवर्तन के ऐसे अनेक उदाहरण
दिखाई देते हैं, जो ऐसी विसंगतियों के कारण ही हुए हैं। क्या आपको ऐसा नहीं
लगता कि ऐसी तमाम विसंगतियों पर समय-समय पर सार्थक चर्चा होनी चाहिए?
-सुशील भोले
संयोजक, आदि धर्म सभा
संजय नगर, रायपुर
मो.नं . 9826992811
-सुशील भोले
संयोजक, आदि धर्म सभा
संजय नगर, रायपुर
मो.नं . 9826992811
Wednesday, 10 January 2018
पर्व और मान्यताएं.....
हमारे यहां बहुत से ऐसे पर्व हैं, जिन्हें अलग-अलग समुदायों के द्वारा अलग-अलग अवसर पर या अलग-अलग संदर्भों के अंतर्गत मनाया जाता है। उदाहरण के लिए हम "नवा खाई" का पर्व ले सकते हैं।
छत्तीसगढ में "नवा खाई" का पर्व तीन अलग-अलग अवसरों पर मनाया जाता है। अनुसूचित जाति के अंतर्गत आने वाले कई समाज के लोग इसे ऋषि पंचमी को, जो कि भादो मास को संपन्न होने वाले गणेश चतुर्थी के पश्चात् आता है, उस दिन मनाते हैं।
अनुसूचित जन जाति के अंतर्गत आने वाले कई समाज के लोग इसे कुंवार मास की दशहरा तिथि को मनाते हैं। इसी तरह अन्य पिछड़ा वर्ग और सामान्य वर्ग के अंतर्गत आने वाले लोग कार्तिक मास में मनाए जाने वाले दीपावली पर्व के दूसरे दिन गोवर्धन पूजा के अवसर पर मनाते हैं।
नवा खाई पर्व मनाने का सभी का उद्देश्य एक ही है, अपने ईष्ट को अपनी नई फसल को समर्पित करना। किन्तु अलग-अलग तिथि और अलग-अलग रूप में इसे मना लिया जाता है। ऐसे ही बहुत से ऐसे पर्व हैं, जिन्हें अलग-अलग संदर्भ के अनुसार अलग-अलग समूह के लोग मनाते हैं।
हम "छेरछेरा" पर्व को उदाहरण के रूप में ले सकते हैं। गोंडवाना की संस्कृति को मानने वाले लोग इसे "गोटुल/घोटुल" की शिक्षा में पारंगत हो जाने के पश्चात पूस पूर्णिमा के अवसर पर तीन दिनों का पर्व मनाते हैं।
यहां के मैदानी भाग में रहने वालो अन्य पिछड़े और सामान्य वर्ग के अंतर्गत आने वाले लोग केवल एक दिन का पर्व फसल की लुवाई-मिंजाई के पश्चात् अन्न दान के रूप में मनाते हैं। इन सबसे अलग मुझे अपने साधना काल में जो ज्ञान प्राप्त हुआ, उसके अनुसार यह पर्व शिव जी द्वारा पार्वती से विवाह पूर्व लिए गये परीक्षा के अंतर्गत नट बनकर मांगा गया भिक्षा का प्रतीक स्वरूप मनाया जाने वाला पर्व है।
मित्रों, यहां यह जानना आवश्यक है कि यहां के हर पर्व का संबंध किसी न किसी रूप में अध्यात्म से अवश्य है। आज हम उचित जानकारी के अभाव में उसे अन्य संदर्भों के अंतर्गत मनाये जाने को स्वीकार कर लेते हैं। लेकिन मेरा मानना है कि सभी पर्वों का मूल कारण जानने के लिए कागजी प्रमाणों से ऊपर उठ कर तर्क और लोक परंपरा की कसौटी पर उसे परखना आवश्यक है।
यहां पर मैं "होली" पर्व को उदाहरण के रूप में रखना चाहूंगा। हम आम तौर पर यह जानते हैं कि "होलिका दहन" के रूप में इस पर्व को मनाया जाता है। जहां तक हम छत्तीसगढ की मूल संस्कृति के संदर्भ में बात करें तो यह सही नहीं है।यहां जो पर्व मनाया जाता है, वह "काम दहन" का पर्व है। इसीलिए हम इसे "मदनोत्सव" या "वसंतोत्सव" के रूप में भी मनाते हैं।
आप सभी को यह स्मरण होगा कि शिव पुत्र के हाथों मरने का वरदान प्राप्त ताड़कासुर के संहार के संहार के लिए तपस्यारत शिव की तपस्या भंग करने के लिए कामदेव को भेजा गया था। तब कामदेव वसंत का मादक भरे मौसम का चयन कर अपनी पत्नी रति के साथ शिव तपस्या भंग करने का प्रयास कर रहे थे। इस पर शिव जी कुपित हो गये और कामदेव को अपने तीसरे नेत्र से भस्म कर दिए।
हमारे छत्तीसगढ में इसी लिए इस पर्व को वसंत पंचमी से लेकर फाल्गुन पूर्णिमा तक लगभग चालीस दिनों का पर्व मनाया जाता है। वसंत पंचमी के दिन अरंडी नामक पौधे को होली दहन स्थल पर गड़ाया जाता है, जो कि कामदेव के आगमन के प्रतीक स्वरूप होता है। उसके पश्चात् वासनात्मक गीतों और नृत्यों के माध्यम से फाल्गुन पूर्णिमा तक इस पर्व को मनाया जाता है। फाल्गुन पूर्णिमा को होली दहन स्थल पर एकत्रित लकड़ी आदि में अग्नि संचार के पश्चात यह पर्व संपन्न होता है।
आप सोचिए, होलिका तो एक ही दिन में लकड़ी एकत्रित करवा कर उसमें अग्नि प्रज्वलित करवाती है, और स्वयं ही उसमें जलकर भस्म हो जाती है। फिर उसके लिए चालीस दिनों का पर्व मनाने की क्या आवश्यकता है? इस पर्व के अवसर पर प्रयोग किए जाने वाले वासनात्कम शब्दों, दृश्यों और नृत्यों से होलिका का क्या संबंध है?
मित्रों, मैं हमेशा यह कहता हूं कि यहां की मूल संस्कृति को उसके वास्तिवक रूप में पुनः लिखने की आवश्यकता है, तो उसका यही सब कारण है।
-सुशील भोले
संयोजक, आदि धर्म सभा
संजय नगर, रायपुर
मो नं 9826992811
छत्तीसगढ में "नवा खाई" का पर्व तीन अलग-अलग अवसरों पर मनाया जाता है। अनुसूचित जाति के अंतर्गत आने वाले कई समाज के लोग इसे ऋषि पंचमी को, जो कि भादो मास को संपन्न होने वाले गणेश चतुर्थी के पश्चात् आता है, उस दिन मनाते हैं।
अनुसूचित जन जाति के अंतर्गत आने वाले कई समाज के लोग इसे कुंवार मास की दशहरा तिथि को मनाते हैं। इसी तरह अन्य पिछड़ा वर्ग और सामान्य वर्ग के अंतर्गत आने वाले लोग कार्तिक मास में मनाए जाने वाले दीपावली पर्व के दूसरे दिन गोवर्धन पूजा के अवसर पर मनाते हैं।
नवा खाई पर्व मनाने का सभी का उद्देश्य एक ही है, अपने ईष्ट को अपनी नई फसल को समर्पित करना। किन्तु अलग-अलग तिथि और अलग-अलग रूप में इसे मना लिया जाता है। ऐसे ही बहुत से ऐसे पर्व हैं, जिन्हें अलग-अलग संदर्भ के अनुसार अलग-अलग समूह के लोग मनाते हैं।
हम "छेरछेरा" पर्व को उदाहरण के रूप में ले सकते हैं। गोंडवाना की संस्कृति को मानने वाले लोग इसे "गोटुल/घोटुल" की शिक्षा में पारंगत हो जाने के पश्चात पूस पूर्णिमा के अवसर पर तीन दिनों का पर्व मनाते हैं।
यहां के मैदानी भाग में रहने वालो अन्य पिछड़े और सामान्य वर्ग के अंतर्गत आने वाले लोग केवल एक दिन का पर्व फसल की लुवाई-मिंजाई के पश्चात् अन्न दान के रूप में मनाते हैं। इन सबसे अलग मुझे अपने साधना काल में जो ज्ञान प्राप्त हुआ, उसके अनुसार यह पर्व शिव जी द्वारा पार्वती से विवाह पूर्व लिए गये परीक्षा के अंतर्गत नट बनकर मांगा गया भिक्षा का प्रतीक स्वरूप मनाया जाने वाला पर्व है।
मित्रों, यहां यह जानना आवश्यक है कि यहां के हर पर्व का संबंध किसी न किसी रूप में अध्यात्म से अवश्य है। आज हम उचित जानकारी के अभाव में उसे अन्य संदर्भों के अंतर्गत मनाये जाने को स्वीकार कर लेते हैं। लेकिन मेरा मानना है कि सभी पर्वों का मूल कारण जानने के लिए कागजी प्रमाणों से ऊपर उठ कर तर्क और लोक परंपरा की कसौटी पर उसे परखना आवश्यक है।
यहां पर मैं "होली" पर्व को उदाहरण के रूप में रखना चाहूंगा। हम आम तौर पर यह जानते हैं कि "होलिका दहन" के रूप में इस पर्व को मनाया जाता है। जहां तक हम छत्तीसगढ की मूल संस्कृति के संदर्भ में बात करें तो यह सही नहीं है।यहां जो पर्व मनाया जाता है, वह "काम दहन" का पर्व है। इसीलिए हम इसे "मदनोत्सव" या "वसंतोत्सव" के रूप में भी मनाते हैं।
आप सभी को यह स्मरण होगा कि शिव पुत्र के हाथों मरने का वरदान प्राप्त ताड़कासुर के संहार के संहार के लिए तपस्यारत शिव की तपस्या भंग करने के लिए कामदेव को भेजा गया था। तब कामदेव वसंत का मादक भरे मौसम का चयन कर अपनी पत्नी रति के साथ शिव तपस्या भंग करने का प्रयास कर रहे थे। इस पर शिव जी कुपित हो गये और कामदेव को अपने तीसरे नेत्र से भस्म कर दिए।
हमारे छत्तीसगढ में इसी लिए इस पर्व को वसंत पंचमी से लेकर फाल्गुन पूर्णिमा तक लगभग चालीस दिनों का पर्व मनाया जाता है। वसंत पंचमी के दिन अरंडी नामक पौधे को होली दहन स्थल पर गड़ाया जाता है, जो कि कामदेव के आगमन के प्रतीक स्वरूप होता है। उसके पश्चात् वासनात्मक गीतों और नृत्यों के माध्यम से फाल्गुन पूर्णिमा तक इस पर्व को मनाया जाता है। फाल्गुन पूर्णिमा को होली दहन स्थल पर एकत्रित लकड़ी आदि में अग्नि संचार के पश्चात यह पर्व संपन्न होता है।
आप सोचिए, होलिका तो एक ही दिन में लकड़ी एकत्रित करवा कर उसमें अग्नि प्रज्वलित करवाती है, और स्वयं ही उसमें जलकर भस्म हो जाती है। फिर उसके लिए चालीस दिनों का पर्व मनाने की क्या आवश्यकता है? इस पर्व के अवसर पर प्रयोग किए जाने वाले वासनात्कम शब्दों, दृश्यों और नृत्यों से होलिका का क्या संबंध है?
मित्रों, मैं हमेशा यह कहता हूं कि यहां की मूल संस्कृति को उसके वास्तिवक रूप में पुनः लिखने की आवश्यकता है, तो उसका यही सब कारण है।
-सुशील भोले
संयोजक, आदि धर्म सभा
संजय नगर, रायपुर
मो नं 9826992811
Subscribe to:
Posts (Atom)