Friday 3 August 2018

* राज्य निर्माण और अस्मिता की दशा पर संगोष्ठी आयोजित





* पुरखों के स्वप्न को साकार करने पुनः संघर्ष का रास्ता अख्तियार करने की आवश्यकता
रायपुर। "आदि धर्म जागृति संस्थान" की संगोष्ठी में सभी वक्ताओं ने राज्य निर्माण के पश्चात भी यहां की अस्मिता के संवर्धन के लिए कोई ठोस काम नहीं किए जाने की बात कही। "राज्य निर्माण और अस्मिता की दशा" विषय पर चर्चा करते हुए कहा कि, अलग राज्य के लिए संघर्ष का उद्देश्य ही था, कि यहां की भाषा की, यहां की संस्कृति की और सम्पूर्ण अस्मिता की स्वतंत्र पहचान बने, किन्तु अब लगता है कि राज्य आन्दोलन में अपना सर्वस्व अर्पित कर देने वाले पुरखों के स्वप्न को साकार करने के लिए पुनः संघर्ष का रास्ता अख्तियार करना होगा।
सिविल लाईन स्थित वृंदावन हाल में आदि देव के चित्र पर ज्योति प्रज्वलित करने एवं संस्थान की प्रदेश महिला प्रभारी, लोक गायिका ज्योति चंद्राकर द्वारा छत्तीसगढ़ महतारी की वंदना प्रस्तुत करने के पश्चात् प्रारम्भ हुई संगोष्ठी को मुख्य अतिथि की आसंदी से संबोधित करते हुए वरिष्ठ साहित्यकार, समाजसेवी एवं छत्तीसगढ़ी सेवक के संपादक जागेश्वर प्रसाद ने कहा कि छत्तीसगढ़ की मूल पहचान के लिए अभी भी बहुत कुछ किया जाना शेष है। उन्होंने कहा कि किसी भी राज्य की पहचान वहां की भाषा और संस्कृति से होती है, लेकिन राज्य निर्माण के पश्चात भी यहां की सरकारें इसकी स्वतंत्र पहचान स्थापित करने के लिए कोई भी ठोस कार्य नहीं नहीं कर रही हैं। खाना पूर्ति के लिए प्रदेश स्तर पर छत्तीसगढ़ी को राजभाषा का दर्जा दे दिया गया है। राजभाषा आयोग की स्थापना कर दी गई है, लेकिन जमीनी तौर पर राजभाषा के रूप में स्थापित करने की दिशा में कोई ठोस पहल नहीं की जा रही है। 
गोंडी धर्म गुरु ठाकुर कोमल सिंह मरई ने कहा कि आज छत्तीसगढ़ की भौगोलिक चिन्हांकन भले ही एक छोटी इकाई के रूप में हमारे सामने है, किन्तु इसका मूल विस्तार बहुत वृहद है। अमरकंटक की सम्पूर्ण नर्मदा घाटी श्रृंखला से लेकर ओडिशा प्रांत के खड़ियार रोड तक मूल छत्तीसगढ़ का वृहद क्षेत्र है, जहां की सम्पूर्ण संस्कृति को इसके मूल रूप स्थापित करने की आवश्यकता है। उन्होंने कहा कि यहां की मूल संस्कृति को समझने के लिए छत्तीसगढ़ी भाषा के साथ ही गोंडी भाषा को भी समझने की आवश्यकता है। 
विशेष अतिथि के रूप में अपनी उपस्थिति दे रहीं समाज सेविका श्रीमती मिथिला खिचरिया ने कहा कि नया छत्तीसगढ़ राज्य अब 18 वर्ष का हो गया है, यानि कानूनी तौर पर परिपक्वता की अवस्था में आ गया है, इसलिए अब आवश्यक है कि इसका परिपक्व स्वरूप दिखाई दे। पुरखों के दिखाए गये मार्ग पर चलते हुए, लोक संस्कृति को जीवंत करते हुए आदि धर्म की स्थापना की जाए। संस्थान के बिलासपुर संभाग के संयोजक, अस्मिता एवं स्वाभिमान के संपादक भुवन वर्मा ने यहां के मूल आदि धर्म को पुनर्स्थापित करने के लिए निरंतर कार्य करने का आव्हान किया।
कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे संस्थान के प्रदेश अध्यक्ष सुशील भोले ने यहां की संस्कृति के नाम पर जितने भी शोध कार्य हुए हैं, लोगों को विश्वविद्यालयों के माध्यम से उपाधियां बांटी गईं हैं, उन सभी की पुनर्समीक्षा किए जाने की आवश्यकता है। इसके लिए यहां के मूल निवासी वर्ग के विद्वानों की एक समिति गठित की जानी चाहिए और उनके माध्यम से उन सभी शोध ग्रंथों का पुनर्मूल्यांकन किया जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि यहां की संस्कृति और इतिहास के नाम पर अंधा बांटे रेवड़ी की तर्ज पर उपाधियां बांटी गईं हैं, जिसके चलते यहां की मूल पहचान आज भी स्वतंत्र रूप से स्थापित नहीं हो सकी है।
शिक्षाविद् डा. शंकर यादव ने कहा कि शिक्षा से लेकर स्वास्थ्य और खेलकूद जैसे सभी क्षेत्र में कारगर उपाय किए जाने की आवश्यकता है। प्रो. लक्ष्मण प्रसाद मिरी ने पारम्परिक खान-पान, लोकाचार और जीवन पद्धति को प्राचीन रूप में आत्मसात किए जाने की बात कही। संगोष्ठी में डा. सुखदेव राम साहू, सुधा वर्मा, रामकुमार साहू, चेतन भारती, कृष्ण कुमार वर्मा, मनोरमा चंद्रा ने भी अपने विचार रखे।
वरिष्ठ साहित्यकार चेतन भारती, राजिम से पधारी कवयित्री केवरा यदु, संस्थान की सांस्कृतिक सचिव अरुणा व्यास मिरी, आशा पाठक, राजेश्वरी वर्मा, गीता वर्मा, सावित्री वर्मा, नेहरू लाल यादव, मनोरमा चंद्रा ने अस्मिता पर आधारित काव्यपाठ किया।
इस अवसर पर रामशरण कश्यप, कमल निर्मलकर, भोलेश्वर साहू, भगवान सिंह अहिरे, भगत ध्रुव, सत्यभामा ध्रुव, प्रियंका मरकाम, सावित्री वर्मा, राजेन्द्र चंद्राकर, मीना साहू, शारदा देवी साहू, डा. रेखा वर्मा, भारती वर्मा, अरुण वर्मा, चैतराम नेताम, मनहरण चंद्रा, मुकेश शर्मा, दिलीप ताम्रकार, सफदर अली सफदर, हर्षवर्धन साहू, दिलीप सिंह सहित अनेक अस्मिता प्रेमी उपस्थित थे।

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