Saturday 26 February 2022

ढेंकी... कहानी

कहानी//   ढेंकी
   अगास के छाती म मुंदरहा के सुकुवा टंगा गे राहय. सुकुवा के दिखते सुकवारो के पॉंव खटिया छोड़ माटी संग मितानी बद लय. तहाँ ले सबले पहिली वोकर बुता होवय अपन पहाटिया ल जगाना, तेमा वो बेरा राहत बरदी लेके दइहान जा सकय. फेर पाछू वो लिपना-बहारना, माँजना-धोना करय. आजो अपन पहाटिया ल जगाए के पाछू तिरिया धरम के बुता म भीड़गे.
      सुकवारो रतिहा के जूठा बर्तन मनला रखियावत राहय, ततके बेर पहाटिया ह मुंह-कान धोके कोला-बारी तनी ले आईस अउ पंछा म मुंह पोंछत कहिस- 'पहाटनीन थोरिक चाय बनाना, आज बुजा ह थोरिक जाड़ असन जनावत हे.'
   'ले राहन दे तुंहर चोचला ल, रोजेच तो आय कुछू न कुछू ओढ़र करके चाहे पीयई. ये रोज के ताते-तात म तुंहर पेट नइ अगियावय तेमा?' सुकवारो बर्तन धोवत कहिस.
     सुकवारो के गोठ म पहाटिया थोक मुसकाइस, तहाँ ले बेलौली करे अस कहिस- 'अओ नेवरनीन... जब ले आए हस भइगे हुदरे असन गोठियाथस.. कभू तो...
     पहाटिया के बात पूरा नइ हो पाइस, अउ पहाटनीन बीचे म बोल परिस- 'नहीं त.. तुंहर संग लेवना लगाय सहीं गोठियावौं.'
     'त का हो जाही.. पहाटिया के जात, दूध-दही.. लेवना सहीं गोठिया लेबे त.'
    'ले राहन दे.. ये सब काम ल कोन लगवार आय तेन कर दिही? तुंहर का हे, सूत के उठेव तहाँ ले चाहे पीयई... तहाँ ले माखुर झर्रावत बरदी कोती रेंग देथौ. ये लोगन के बुता ल कभू देखे हौ? कतका मरथन-खपथन तेला हमीं जानथन, फेर तिरिया के काम.. नाम के न जस के.' काहत सुकवारो बर्तन धोना ल छोड़ के चाय बनाए बर चल दिस.
     पाछू पहाटिया ल बिदा करके फेर बर्तन-भांड़ा म भीड़गे. घर के जम्मो बुता जब झरगे, तब काठा भर धान लेके वोला ढेंकी म कूटे लागिस. ढेंकी के पूछी ल पॉंव म चपके के बाद वोकर मुसर लगे मुंह के उठई अउ फेर बाहना म गिरई के साथ जेन सुघ्घर सुर अउ ताल निकलय तेकर संग सुकवारो गुनगुनाय लागिस-
   रोपा लगाये कस हमूं लग जाथन
   मइके ले खना के ससुरार म बोवाथन
   फर-फूल धरथे फेर हमरो परान
   कइसे तिरिया जनम तैं दिए भगवान
   ' ...सुकवारो.. ये सुकवारो... अई भैरी होगे हस का?' बाहिर ले मनभरहा भाखा सुनाइस. लागिस के वोला कोनो हुंत करावत हे. सुकवारो ढेंकी कूटे ल छोड़ के बेंस हेरे बर चल दिस. फरिका ल तिरियाइस त आगू म भागा ल खड़े पाइस.
    'आ भागा आ.. भीतर आ' काहत पाछू लहुटगे.
    भागा भीतर आवत कहिथे- 'भारी बिधुन होके ढेंकी कूटथस दई तहूं ह. तोर फरिका के संकरी ल हला-हला के मोर हाथ घलो पिरागे.. फेर कोन जनी.. कान म काय जिनिस के ठेठा बोजे रहिथस ते?'
    भागा डहार ल देख के सुकवारो मुसका दिस, फेर कहिस कुछू नहीं. अॅंगना नहाक के फेर दूनों ढेंकी कुरिया म आगें. अउ आते सुकवारो भागा ल बइठे बर कहिके फेर ढेंकी कूटे बर भीड़गे.
    बाहना तीर धान खोए बर बइठत भागा फेर कहिथे- 'तोला ये रोजे-रोज के भुंकरूस-भुंकरूस ढेंकी कुटई ह बने लागथे वो सुकवारो? हम तो दई.. एकर भाखा ल सुनथन ततके म हाथ-पांव म फोरा परगे तइसे कस जनाए लागथे.'
    'एमा बने अउ गिनहा के का बात हे भागा?'
     'तभो ले दई.. गाँव म धनकुट्टी आगे हे, तभो ले तैं हंकरस-हंकरस करत रहिथस?'
    'काय करबो बहिनी... हमर पहाटिया ल धनकुट्टी म कूटे चाॅंउर के भात ह नइ मिठावय त?'
    'अई, भारी रंगरेला हे दई तोरो पहाटिया ह. हमर पहाटिया के आगू म जइसन परोस दे, तइसन खा लेथे.' भागा अपन पहाटिया के सिधई ल बताइस.
    सुकवारो अउ भागा के जोड़ी एके पहाट म लगे राहयं, तेकर सेती भागा अउ सुकवारो अपन ठाकुर मन घर संगे म पानी भरंय, तेही पाय के भागा रोज बिहन्चे सुकवारो घर आवय, तहाँ ले दूनों कुआँ कोती चले जायं.

* * * * *
    'छत वाले मन आज काय जिनिस पाले हें ओ, तेमा भारी खुलखुलावत हें?' पहाटिया रतिहा के जेवन करत सुकवारो मेर पूछिस.
    सुकवारो कहिथे- 'वोकर बेटी-दमांद मन शहर ले आए हें न, तेकर सेती थोरिक जोरहा भाखा सुनावत हे.'
    'हूँ.. कब आइन हें?'
    -आजे सॉंझ किन तो आइन हें. लेवौ न, तुमन जल्दी-जल्दी खावौ.. नींद लागत हे, हमूं बोर-सकेल के सूतबोन... वोती मुंदरहा ले उठे बर लागथे, अउ एती रात ल अधिया देथौ. बने गतर के नींद घलो नइ परय- सुकवारो जम्हावत-जम्हावत कहिस.
    -खातेच तो हौं- काहत पहाटिया जल्दी-जल्दी खाए लागिस... रात जादा गहराय नइ रिहिसे, फेर गाँव म कोलिहा नरियावत सांय-सांय करे बर धर लेथे. छत वाले घर ले अभो हांसे-भकभकाए के भाखा सुनावत राहय. सुकवारो ए सबले अनचेत खटिया म पांव पसार डरे राहय. बपरी ल बिहाने उठ के जम्मो बुता करे बर जेन लागथे. पहाटिया घलो चोंगी चुहकत खटिया म धंस गे. चोंगी ल आखरी चुक्का तिरिस तहाँ ले भुइंया म रगड़ के बुता दिस. फेर कथरी ओढ़ के सुकवारो के सपना म समागे.

* * * * *
     सुकुवा के दिखते सुकवारो रोजे कस खटिया ले उठिस अउ तिरिया धरम म बूड़गे. पहाटिया ल चाय पिया के बिदा करिस तहाँ ले काठा भर धान लेके ढेंकी संग जूझे लागिस. थोरके पाछू लागिस के बाहिर ले कोनो बेंस ल बजावत हे. सोंचिस भागा होही, पानी भर बर आए होही. वो ढेंकी कूटे ल छोड़ बेंस ल हेरे बर चल दिस.
    बेंस ल हेर के देखिस त छत वाले घर के सेठइन ल आगू म पाइस. सुकवारो ल उनत बनिस न गुनत, काबर ते सरी जिनगी बीतगे फेर सेठइन कभू मरे-परे म घलो एती झांके बर घलो नइ आए रिहिसे, फेर आज कइसे चेत लहुटगे ते? तभो सुकवारो कथे- 'आवा सेठइन भीतर आव, का जिनिस के सेती अटक गे रेहेव ते, आज भिनसरहेच एती भुला परेव?'
     सुकवारो के बात पूरे नइ पाइस, अउ सेठइन वोकर ऊपर बंगबंगाए बर धर लिस- 'कस रे भड्डो! तैं भकरस-भकरस ढेंकी कूट के हमर नींद के तो सरी दिन सइतानास करथस. आज तो कम से कम एला सुरतातेस. जानस नहीं.. हमर बेटी-दमांद मन पहिली बेर शहर ले इहाँ आए हें, तोर सेती उंकर नींद उमचगे हे.'
    सेठइन के उदुपहा गोठ म सुकवारो अकचकागे, तभो ले बात झन बाढ़य अइसे गुन के कथे- 'का करबे सेठइन.. तुंही मालिक मन घर ले काठा-पइली पाथन, तेने ल अतके बेर कूट-काट के राखथन, तभे घर के चुल्हा बरथे... तहाँ ले तो दिन भर बुतेच-बुता.. बइठे तक के फुरसुद नइ मिलय.'
    सुकवारो के सरल सुभाव सेठइन ल जुड़ नइ कर पाइस, अउ तिल ले ताड़ बनगे. देखते-देखत अरोस-परोस के मन अपन-अपन घर ले निकल के वो मेर सकलाए लागिन. सेठइन के सेठ, वोकर बेटी-दमांद जम्मो जुरियागें. सबो सुकवारो ल चुप रेहे बर काहयं, फेर सेठइन के फुहर-फुहर के गारी देवई ल सुन के घलो वोला चुप रेहे बर कोनो नइ कहे सकयं. कहिथें न सिधवा के सुवारी ल सबो भौजी कहि देथें, फेर बदमाश बर एको देवर नइ मिलय, तइसे कस.
    सुकवारो भभका आगी म पानी रितोएच के उदिम करय, फेर सेठइन माटी तेल कस बानी उगलय. फेर अब तो वोकर बेटी घलो हुमन म धूप-दशांग डारे बर धर ले रहय. फेर सुकवारो कोती कोनो नइ बोलय. अउ ते अउ भागा पानी भरे खातिर वोला बलाए बर आगे राहय, फेर उहू सुकुरदुम खड़े राहय. सेठइन अउ वोकर बेटी मिलके सुकवारो के चूंदी ल धर के हपट डारिन, छाती म चढ़ के गाल ल अंगाकर रोटी कस पो डारिन, हाथ-पांव के हांड़ा ल भरवा काड़ी सहीं टोर डारिन, फेर वाह रे जनता.. कोनो ल पइसा वाले जान के कइसे तुंहला लकवा मार देथे.. अउ ते अउ तुंहर जीभ घलो नइ फड़फड़ाए सकय...!

* * * * *
    बरदी के धरसते पीपर पेंड़ के खाल्हे लोगन सकलाए लगिन. देखते-देखत पंचइती चौंरा खचाखच भरगे. कतकों मनखे चौंरा म जगा नइ मिलिस त एती-तेती जेने कोती जगा मिलिस तेने कोती बइठगे. कतकों फूलपेंठ वाले जवनहा छोकरा मन ठाढ़े-ठाढ़ घलो राहयं. चारों मुड़ा मार सैमो-सैमो. सरपंच बुद्धूराम संग जम्मो पंच मन घलो अपन-अपन जगा म बइठगें. सुकवारो के पहाटिया किंजर-किंजर के जम्मो झन ला चोंगी-माखुर बांटत राहय. फेर सेठ अभी ले नइ पहुंचे हे. इही बात ल लेके लोगन खांसे-खखारे कस गोठियाए घलो लागयं- 'बड़का मनखे आय न.. हमन होतेन त अतेक देरी होगे कहिके डांड़-डुड़ा देतीन, फेर वोला.. राम कहिले.. पूछयं तक नहीं काबर देरी करेस कहिके.'
    पहिली के गोठ ल सुनके दूसर कथे- 'जानत हन गा.. ए बड़का मनके चाल ल! वो पहाटनीन बपरी ल अतका मारे-पीटे हे, तभो ले सबो एक होके अनीत ल वोकरेच डहार खपलहीं. ए पहाटिया बपुरा के दू-चार सौ अउ खंगे हे तेला रपोटहीं!' तभे छत वाला सेठ ह दू-चार लठेंगरा मन संग वो मेर आइस, तहाँ ले पंचइती शुरू होगे.
    सरपंच ह पहाटिया ल पूछिस-' कस जी पहाटिया, काय खातिर पंचइती सकेले हस?'
    पहाटिया हाथ जोर के अपन जगा म खड़ा होइस अउ बिहन्चे पहाटनीन संग ढेंकी कूटे के नांव म होए जम्मो बात ल फोरिया के बता डारिस.
    वोकर जम्मो बात ल सुने के बाद एक झन पंच ह पूछथे-' तैं वो मेर रेहे का?'
    -'नइ रेहेंव मालिक, मोर पहाटनीन जइसे बताइस, तेला तुंहर मन जगा कहि देंव.'
    पंच फेर कथे-' हम तोर बात ल कइसे मान लेइन पहाटिया, जा तोर पहाटनीन ल ए मेर बला के लान, उही बताही के सेठइन अउ वोकर बेटी सिरतो म वोला मरीसे धुन नहीं ते?'
    पहाटिया कहिस-' वोला तो ए मन अधमरा कर देहें पंच ददा, वो बपरी तो खटिया ले उठे नइ सकत हे, त ए मेर आवय कइसे?'
    पहाटिया के बात ल पंच मन नइ मानिन त बपुरा ह अपन पहाटनीन ल खटिया म सूता के चार झन मनखे संग बोह के लानिस. पंच मन पहाटनीन जगा खोधर-खोधर के पूछयं, फेर बपरी तो अचेत बरोबर परे राहय, हूँ-हाँ केहे के लाइक घलो नइ राहय.
    गाँव के कुछ पढ़े लिखे जवनहा मनला ये सब देख-सुन के अचरज लागिस, के एक झन ह लास बरोबर परे हे, तेकर संग पंच मन कइसे बेवहार करत हें? वोकर मन से ये सब नइ सहे गिस, त खिसिया के एक झन लइका ह बोलेच डरिस-' सेठइन अउ वोकर बेटी ल घलो इहाँ बला के पूछव न, के ढेंकी कूटे जइसन मामूली बात म ए बपरी ल कइसे कूटे-छरे बरोबर कर डारे हें.'
    वो जवनहा छोकरा के गोठ ह सेठ ल बने नइ लागिस. वो कथे-' हमर घर के बहू-बेटी मन पंचइती-संचइती म नइ आवयं.'
    दू-चार पंच मन घलो वो सेठ कोती मुड़ी हलाइन. फेर जवनहा छोकरा मन के आवाज एक ले दू अउ दू ले चार होवत गिस. उन अंड़ी दिन के सेठइन ल अपन बेटी संग इहाँ आएच ले परही. जवनहा मन के बल पा के पहाटिया के घलो मेंछा अंटियाए लागिस, उहू अपन मुड़ भर के लउड़ी ल धर के गरज परीस- 'जब मैं ह अपन पहाटनीन ल यहा दसा म घलो खटिया म बोह के लान सकथौं, त सेठ के बेटी-गोसइन ल घलो इहाँ आना चाही. अरे वोकर घर म कुल-मरजाद के बात हे, त मरो बर मोर मरजाद ह सबले बढ़के हे.'
    सरपंच बुद्धूराम चारों मुड़ा ले उठत सत् के भाखा के मरम ल समझगे, के अब मोर गाँव जागे बर धर लिए हे. अइसन म अन्याय के पक्ष लेंव, ते सरबस नास हो जाही. आखिर वोला बोले ले परिस-' सेठ तोला अपन बेटी अउ सुवारी ल इहाँ बलाएच बर लागही, अउ कहूँ नइ बलाबे त एके पक्ष के बात ल देख-सुन के लिए निरनय ल तोला माने बर लागही.'
    सेठ ल सरपंच ऊपर अइसन भरोसा नइ रिहिस. फेर का करबे समय बलवान होथे. उहू बेरा के बात ल टमड़ डारिस के एकक करके सत् के जोत जेन बरे बर धर लिए हे, तेला मशाल बने म जादा जुवर नइ लागय. अउ जब कोनो सत् के जोती ह मशाल बन परथे त वोमा झूठ-फरेब, सोसन-अत्याचार के कतकों घनघोर घटा राहय, सबके नास हो जाथे.
    सेठ अपन जगा म बइठेच कहिथे-' वो घटना के बेरा तो महूं रेहेंव भई, जेन होइस तेला देखे-सुने हौं, मैं अपन बेटी अउ सुवारी कोती ले माफी मांगत हौं, जेन भी सजा दे जाही वोला मानहूं.'
    पंच-सरपंच मनला सेठ के अइसन सुभाव ऊपर बड़ा अचरज लागिस, फेर सेठ के मुड़ नवई गोठ म वोकरो मनके हिम्मत बाढ़ीस, तहाँ ले उन झट फैसला सुना दिन-' सेठ ह पहाटनीन ल दवाई-दारू के खरचा खातिर पाॅंच सौ रुपिया देवय, अउ पंचइती म घलो अतके अकन जमा करय.' संग म इहू चेताय गिस के ये हर तुंहर घर के पहिली गलती आय, ते पाय के जादा कुछू नइ करत हन, फेर आगू कहूँ कोनो किसम के आरो मिलही, त अउ बड़का सजा दे जाही.'
    जनता पंचइती के फैसला सुन के चिहुर पारे लागिन, अपन गाँव म सत् अउ न्याय के अंजोर बगरत देख के मनभरहा चिल्लाए लागिन-' बोलो पंच परमेश्वर के जय..  पंच परमेश्वर के जय...'
    (1990 के दशक म लिखे गे कहानी मन के संकलन 'ढेंकी' ले साभार)
-सुशील भोले
संजय नगर, रायपुर
मो/व्हा. 9826992811

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