Monday 22 April 2013

कवयित्री धोंधो बाई



छत्तीसगढ़ी व्यंग्य


माईलोगिन मन के मुँह ह अबड़ खजुवाथे कहिथें। एकरे सेती जब देखबे तब वोमन बिन सोचे-समझे चटर-पटर करत रहिथें। हमरो पारा म एक झन अइसने चटरही हे, फेर ये चटरही ह आजकल 'कवयित्रीÓ होगे हे। बने मोठ-डाँठ हे तेकर सेती लोगन वोला 'कवयित्री धोंधो बाईÓ कहिथें। वइसे नांव तो वोकर 'मीताÓ हे, फेर 'गीताÓ ह जइसे गुरतुर नइ होवय न, वइसने 'मीताÓ ह घलो मीठ नइए। एकदम करू तेमा लीम चढ़े वाला। वइसे तो माईलोगिन होना ह अपन आप म करू-कस्सा ल मंदरस चुपर के परोसने वाली होना होथे, तेमा फेर कवयित्री लहुट जाना ह सिरिफ करू-कस्सा भर ल नहीं, भलुक जहर-महुरा ल मंदरस चुपर के परोसने वाली होना होथे।
वोला कवि सम्मेलन मन म जब ले जाए के चस्का लगे हे, तबले वोहा कवि मनला लुढ़ारे अउ ठगे के चालू कर दिए हे। एक दिन अपनेच ह मोला बतावत राहय- 'का बतावौं सर, अभी तो मोला चारों मुड़ा बगरना हे कहिके ए मन ल ठगत रहिथौं। मोर आदमी 'मेहलाबानीÓ के हावय कहिके एकर मन जगा 'जालÓ फेंकत रहिथौं। अउ जब वोकर मन के माध्यम ले एकाद-दू मंच मिलगे, अउ संग म दू-चार जगा घूमे-फिरे के खरचा ल वोमन उठा डारिन, तहाँ ले चल जा रे रोगहा तोर ले जादा मोर नांव हे कहिके दुत्कार देथौं।Ó
बाते-बात म महूँ पूछ परेंव- 'फेर मंच मन म तो आदमी के नांव ले जादा रचना अउ प्रस्तुति ह मायने रखथे न?Ó
-'कहाँ पाबे सर, आजकाल के आयोजक मन रूप-रंग अउ देंह-पाँव ल जादा देखथें। जेन जतका जादा फेशन करके रहिथे, वो वतके बड़े कवयित्री।Ó
-'अच्छा...Ó मैं बड़ा अचरज ले कहेंव।
-'हाँ सर... मैं ह तो अपन गुरु के लिखे जेन किताब हे न, उही मनला कविता बानी के ढाल लेथौं अउ मंच म उही ल मेंचका बरोबर उदक-उदक के पढ़ देथौं। अरे ददा रे... तहां ले ताली बजइया मन के का कहिबे। नाचा म परी मनला मोंजरा दे खातिर बलाए बर जइसे सीटी ऊपर सीटी पारथें न, तइसने कस चारों मुड़ा ले इसारा कर- कर के ताली बजाथें।Ó
-'अच्छा...Ó मैं अचरज ले कहेंव अउ गुने लागेंव के लोगन मन के कवि सम्मेलन के पसंद ह अइसन कब ले होगे हे। हमन जब पहिली सुने ले जावन, त अपन भाखा-संस्कृति अउ अस्मिता के बात करइया, अपन गौरवपूर्ण इतिहास के चरचा करइया मन ल 'तालीÓ के सुवाद चीखे ले मिलय। फेर अब कइसेे उल्टा होगे हे, कवयित्री मन के देंह-पाँव अउ सुंदरई म 'तालीÓ बजथे कहिथें। फेर इहू सुनथंव के 'कवि सम्मेलनÓ ह 'कवि नाचाÓ के रूप धर लिए हे। 'नाचाÓ म जइसे जोक्कड़ मन लोगन ल हंसाए बर अन्ते-तन्ते गोठियावत अउ मटकावत रहिथें, वइसने 'कवि नाचाÓ  म कवि मन हा-हा, भक-भक वाला चुटकिला सुनावत रहिथें। अउ सुने ले मिलथे के 'पद्मश्रीÓ ह घलोक अइसने मनला मिल जाथे कहिके।
कवयित्री मीता उर्फ धोंधो बाई ह मोला अन्ते-तन्ते गुनत देख के, हलावत कहिस- 'सर...सर... कहाँ चल दे हस? तोला तो संपादक हे कहिथें सर, मोर कविता ल छाप देेबे का?Ó
-'कविता ल... अरे तैं कविता घलोक लिखथस... अभीच्चे तो काहत रेहेस के अपन गुरु के लिखे किताब मनला सुर म ढाल के पढ़थौं कहिके...?Ó
-'त का होगे सर... उही ल तो आजकाल कविता कहिथें। जतका झन पत्र-पत्रिका छापथें, स्मारिका निकालथें, सबो झन तो उही मनला छापथें, त तैं ह काबर नइ छापबे सर...?Ó
-'मोला दूसर मन ले कोनो लेना-देना नइए भई, के वोमन तोर 'काÓ जिनीस ल कविता मान के छापथें ते, फेर मोर जगा तो अइसन नइ चलय।Ó काहत मैं वो तीर ले आगू बढ़ गेंव।

सुशील भोले
संपर्क : 41-191, कस्टम कालोनी के सामने,
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रायपुर (छ.ग.) मोबा. नं. 098269 92811

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