Wednesday 22 May 2013

मया-पिरित बरसाबे रे बादर...


(गर्मी के तांडव से निजात पाने के लिए वर्षा के बादलों को आमंत्रित करता एक छत्तीसगढ़ी गीत....)












गरजत-घुमरत आबे रे बादर, मया-पिरित बरसाबे
मोर धनहा ह आस जोहत हे, नंगत के हरसाबे... रे बादर....

जेठ-बइसाख के हरर-हरर म, धरती ह अगियागे
अंग-अंग ले अगनी निकलत हे, छाती घलो करियागे
आंखी फरकावत झुमरत आके, जिवरा ल जुड़वाबे ... रे बादर..

तरिया-नंदिया अउ डबरी ह, सोक-सोक ले सुखागे हे
कब के छोड़े बिरहीन सही, निच्चट तो अइलागे हे
बाजा घड़कावत आके तैं ह, फेर गाभिन कर देबे ... रे बादर...

जीव-जंतु अउ चिरई-चिरगुन, ताला-बेली होगे हें
तोर अगोरा म बइठे-बइठे, आंखी ल निटोरत हें
जिनगी दे बर फिर से तैं ह, अमरित बूंद पियाबे.. रे बादर...

नांगर-बक्खर के साज-संवांगा, कर डारे हावय किसान
खातू पलागे गाड़ा थिरागे, अक्ती म जमवा डारे हे धान
अब तो भइगे आके तैं ह, अरा-ररा करवाबे... रे बादर....
                                          सुशील भोले 
                                    संजय नगर, रायपुर (छ.ग.)
                           ई-मेल -   sushilbhole2@gmail.com
                                     मो.नं. 098269 92811

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