Monday 10 June 2013

गुन-गुन आथे हांसी....

(कवि सम्मेलन के मंचों पर छत्तीसगढ़ी भाषा की इस रचना को मेरी प्रतिनिधि रचना के तौर पर सुना जाता है।)












पहुना मन बर पलंग-सुपेती, अपन बर खोर्रा माची
उंकर दोंदर म खीर-सोंहारी, हमर बर जुच्छा बासी
                   मोला गुन-गुन आथे हांसी, रे मोला......

जेन उमर म बघवा बनके, गढ़ते नवा कहानी
तेन उमर म पर के बुध म, गंवा डारेस जवानी
आज तो अइसे दिखत हावस, जइसे चढग़े हावस फांसी ... रे मोला...

ठग-जग बनके आथे इहां, जइसे के ज्ञानी-ध्यानी
पोथी-पतरा के आड़ म उन, गढ़थें किस्सा-कहानी
तुम कब तक उनला लादे रइहौ, कब तक रही उदासी... रे मोला...

धरम-करम के माने नोहय, पर के बुध म रेंगत राहन
दुख-पीरा अउ सोसन ल, फोकट के साहत राहन
ये तो आरुग अंधरौटी ये, नोहय अंजोर उजासी... रे मोला...
                                               सुशील भोले
                          संजय नगर (टिकरापारा) रायपुर (छ.ग.)
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