Thursday 18 July 2013

छत्तीसगढ़ : जहां देवता कभी नहीं सोते...

छत्तीसगढ़ की संस्कृति निरंतर जागृत देवताअों की संस्कृति है। यहां की संस्कृति में  आषाढ़ शुक्ल एकादशी से लेकर कार्तिक शुक्ल एकादशी तक के चार महीनों को चातुर्मास के रूप में मनाये जाने की परंपरा  नहीं है। यहां देवउठनी पर्व (कार्तिक शुक्ल एकादशी) के दस दिन पूर्व कार्तिक आमावस्या को जो गौरा-गौरी पूजा का पर्व मनाया जाता है, वह वास्तव में  ईसर देव और गौरा का विवाह पर्व है।

यहां पर यह जानना आवश्यक है कि गौरा-गौरी उत्सव को यहां का गोंड आदिवासी समाज शंभू शेक या ईसर देव और गौरा के विवाह के रूप में मनाता है, जबकि यहां का ओबीसी समाज शंकर-पार्वती का विवाह मानता है। मेरे पैतृक गांव में गोंड समाज का एक भी परिवार नहीं रहता, मैं रायपुर के जिस मोहल्ले में रहता हूं यहां पर भी ओबीसी के ही लोग रहते हैं, जो इस गौरा-गौरी उत्सव को मनाते हैं। ये मुझे आज तक यही जानकारी देते रहे कि यह पर्व शंकर-पार्वती का ही विवाह पर्व है। खैर यह विवाद का विषय नहीं है कि गौरा-गौरी उत्वस किसके विवाह का पर्व है। महत्वपूर्ण यह है कि यहां देवउठनी के पूर्व भगवान के विवाह का पर्व मनाया जाता है।

और जिस छत्तीसगढ़ में देवउठनी के पूर्व भगवान की शादी का पर्व मनाया जाता है, वह इस बात को कैसे स्वीकार करेगा कि भगवान चार महीनों के लिए सो जाते हैंं या इन चार महीनों में किसी भी प्रकार का शुभ कार्य नहीं किया जाना चाहिए...? वास्तव में छत्तीसगढ़ की मूल संस्कृति में यही चार महीने सबसे शुभ और पवित्र होते हैं, क्योंकि इन्हीं चारों महीनों में ही यहां के प्राय: सभी प्रमुख पर्व आते हैं।

हां... जो लोग अन्य प्रदेशों से छत्तीसगढ़ में आये हैं और अभी तक यहां की संस्कृति को आत्मसात नहीं कर पाये हैं, ऐसे लोग जरूर चातुर्मास की परंपरा को मानते हैं, लेकिन यहां का मूल निवासी समाज ऐसी किसी भी व्यवस्था को नहीं मानता।  उनके देवता निरंतर जागृत रहते हैं, कभी सोते नहीं।

 अन्य प्रदेशों से लाये गये ग्रंथों के मापदण्ड पर यहां की संस्कृति, धर्म और इतिहास को जो लोग लिख रहे हैं, वे छत्तीसगढ़ के साथ छल कर रहे हैं. यहां के गौरव और प्राचीनता के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं। एेसे लोगों का हर स्तर पर विरोध किया जाना चाहिए। उनका सामाजिक बहिष्कार किया जाना चाहिए।

सुशील भोले
संस्थापक, आदि धर्म सभा
संजय नगर, रायपुर (छ.ग.)
मोबा. नं. 080853-05931, 098269-92811

3 comments:

  1. देवशयनी वैष्णव पंथियों द्वारा मानी जाती है, विष्णु के क्षीरसागर गमन पर कोई भी मांगलिक कार्य नहीं किया जाता. शैव पंथियों के लिए यह लागु नहीं था. क्योंकि शैव उपासना इस चातुर्मास में ही प्रबलता के साथ की जाती है. जब से दोनों पन्थो का घाल-मेल (समन्वय) हुआ, तभी से यह परंपरा सभी पर लद गयी है और ऐसे लगाने लगा कि इसे मानना सभी को अनिवार्य है. इन्ही महीनो में दो नवरात्रियाँ भी मनाई जाती हैं, अगर ऐसा होता तो शाक्त भी इस परम्परा का निर्वाह करते हुए देवशयनी मानते. " जैइसे मितान बद्बे त एक जोड़ी दाई-ददा संग मा मुफ्त मिलते तइसन जाने जाए." :)

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  2. बने कहत हस ग सुशील भाई ! हमर छत्तीसगढ म देवता मन सुतयँ नहीं । महूँ हर एक जरूरी बुता बर मुहुरुत खोजत रहेंव, तहॉं ले हरेली के सुरता आ गे , बस अब हरेली के दिन पूजा ल करबो । एही हर हमर किसान मन के सब ले बडे तिहार ए । वोइसे ललित भाई के विचार ले घलाव मैं सहमत हावौं काबर के ---
    " अयम् निजः परोवेति गणना लघुचेतसाम उदार चरितानाम् तु वसुधैवकुटुम्बकम् ।"

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  3. छत्तीसगढ़ के सांस्कृतिक इतिहास ल एकंगू लिखे गे हवय.. एला फिर से निष्पक्ष हो के लिखे के जरूरत हे...

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