Monday 20 October 2014

दीया तरी अंधियार...

(छत्तीसगढ़ी व्यंग्य)

तइहा जमाना ले ये सुनत आवत हवन के *दीया तरी अंधियार* होथे। पहिली समझ म नइ आवत रिहीसे के अइसे कइसे हो सकथे, जिहां बरत दीया रइही तिहां अंधियार कइसे हो सकथे। फेर अब जब थोक बहुत ऐती-तेती झांके-तांके ले सीखत हावन त थोक-थोक जनाए बर धर लिए हे के सिरतोन म दीया तरी अंधियार होथे।

आजे के बात आय माता लक्ष्मी के वाहन घुघुवा ल बइहा-भुतहा बरोबर अकेल्ला किंजरत देखेंव त बड़ा ताज्जुब लागीस। लरी-लरी कपड़ा-लत्ता म धंधाए घुघुवा बर मोला दुख घलोक लागीस। वोकर हाल ल देखके जनाइस के अइसने होथे दीया तरी अंधियार! लक्ष्मी के वाहन, फेर बने गतर के कपड़ा अउ बपरा बिन पनही-भंदई के उखरा किंदरत रिहीसे। पूछे म बताईस के आज माता लक्ष्मी के घरों-घर पूजा-पाठ होवत हे, तेकर सेती वोला वार्षिक अवकाश दे दिए गे हवय।

बपरा रोनहुत होवत बताइस के का करबे भइया साल म एकेच दिन तो छुट््टी मिलथे। बाकी के 364 दिन तो सांस ले के घलोक फुरसुद नइ मिलय। वोकर अतेक भक्त हें के एकक दिन म कई-कई जगा जाये ले परथे। कभू कोनो राजनेता घर तेे कभू बैपारी घर ते कभू फिलमी कलाकार घर फेर मोला अचरज लागथे भइया के ये महतारी ह सिरिफ पइसच वाले घर काबर जाथे ते? अरे कभू-कभार हमार जइसे गरीब-गुरबा घर घलोक चल देतीस त का हो जातीस। मोर घुघवी कई पईत मोला ठेसरा घलोक देथे के लक्ष्मी माता ल तैं रोज कतकों घर लेगथस, एके दिन म कई-कई शिफ्ट ड्यूटी बजाथस फेर हमरो घर तो एको पइत लान लेतेस! लइका मन पूछथें घलोक लक्ष्मी कइसे होथे (दिखथे) कहिके।

का करबे भाई एकरे सेती आजो के दिन अपन घर ले भागे-भागे फिरथौं। लइका मनला चिरोर-बोरोर पइसा खातीर रोवत-गावत देखबे त बड़ा दुख लागथे। मैं पूछेंव- कस जी, तैं लक्ष्मी के वाहन होके गरीबी के गोठ करथस। तोला तनखा-उनखा नइ मिलय। अभी तो ठउका देवारी आय हे बोनस घलोक झोंके होबे।

वोहर मुंह एकदम से ओथरगे। कहीस-कइसे गोठियाथस संगवारी, मैं उहां नौकरी थोरे करथौं जी तेमा तनखा अउ बोनस झोकहूं। अरे भई मैं तो सेवा करथौं गा... धरम सेवा। मोला वोकर गोठ सुनके ताज्जुब लागीस के काबर के एहू ह धारमिक सोसन के शिकार हे। हमर देस म धरम के नांव म कतकों किसम के सोसन होथे। जइसे बड़े-बड़े आसरम खोल के लोगन अपन तो चंदा बरारी अउ भावना बेचे के बैपार करथें, अउ घुघुवा कस अपढ़ भक्त मनला फोकट म सेवक राख लेथें। जादा होगे त दूनो जु़वर के खाना-पीना, साल म एकाद पइत कपड़ा-लत्ता अउ लइका-पिचका मन के बोरे-बासी के पुरती थोर-बहुत चांउर-दार अउ नून-मिरचा द दे देथें। बपरा मन पइसा-कौड़ी के दरसन करे बर घलोक तरस जाथें।

मैं पूछेंव के आज तो घरों-घर पूजा होथे त फेर आज के दिन तोला वार्षिक अवकाश कइसे मिल जाथे। त वो कहीस-आने दिन वोकर पूजा ह सिरिफ लक्ष्मी भर के रूप म होथे ना जे ह एकाद घड़ी म सिरा जाथे, एकरे सेती एती-तेती जावत बन जाथे। फेर आज के दिन महालक्ष्मी के रूप म वोकर पूजा होथे जे ह पूरा रात दिन चलथे, एकरे सेती वो जिहां जाथे, रमडिय़ा के बइठ जाथे, तभे तो मोला साल म एक दिन छुट्टी मिल पाथे।

वोकर बात ल सुन के मोर मन ह थोरुक कोंवर होगे। मैं पूछेंव-अच्छा, ये बता घुघुवा भाई, साल भर के एक छुट्टी ल तैं कइसे मनाथस? का देवारी म तैं ह अपन घर पूजा-पाठ नइ करस? वो कहिस-का बताबे भइया लोग लइका के पइसा मांगे के डर म मैं दिन भर एती-तेती किंजरत रहिथौं, अउ रतिहा म जब लइका मन रो-धो के सूत जथें त कलेचुप घर म जाथौं तहांले घुघुवी संग थोर-बहुत मुंहाचाही कर के सुत जाथौं। काबर ते बिहनियां ले फेर माता लक्ष्मी के दरबार म हाजरी बजाना रहिथे, तेमा वोहा अपन भक्त मन घर पइसा बरसाये बर जा सकय।

घुघुवा के जीवन-यात्रा ल सुन के मोला *दीया तरी अंधियार* काबर होथे तेकर ठउका जानबा मिलगे।

सुशील भोले 
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