Sunday 15 October 2017

"साबरमती के तट पर छत्तीसगढ़ी का शंखनाद"



      छत्तीसगढ़ी राजभाषा का एक अविस्मरणीय आयोजन विगत दिनों गुजरात और देश के ऐतिहासिक नगर अहमदाबाद में सम्पन्न हुआ। इस आयोजन में छत्तीसगढ़ के पाँच पाण्डवों ने सहभागिता देकर ऐसा अहसास दिलाया है कि छत्तीसगढ़ी अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा छूट गया है। अगर किसी में दम है तो उसे पकड़ के दिखा दे। यह सुअवसर था 08 अक्टूबर की संध्या 4.30 बजे का। शुभ स्थान था कवि दलपतराम चौक, रिलीफ रोड, अहमदाबाद का।

 उक्त गरिमामय समारोह में उद्घाटन सत्र में साहित्यकार एवं भाषाविद्  डॉ. केशरी लाल वर्मा ने छत्तीसगढ़ी भाषा और संस्कृति के गौरवशाली इतिहास का परिचय कराया। हमारे छत्तीसगढ़ के अगुवा छत्तीसगढ़ी कहानीकार द्वय डॉ. परदेशी राम वर्मा और रामनाथ साहू जी ने छत्तीसगढ़ी कहानीपाठ किया। कवितापाठ  में छत्तीसगढ़ी के दुलरुआ कवि मीर अली मीर और मयारू कवि सुशील भोले जी ने छत्तीसगढ़ी भाषा के सामर्थ्य को स्थापित किया। निस्संदेह यह आयोजन छत्तीसगढ़ी भाषा के विकास और विस्तार में मील का पत्थर साबित होगा।

         यहाँ पर सहभागी रचनाकारों की उन कृतियों का उल्लेख करना समीचीन होगा। परदेशीराम वर्मा ने अपनी प्रसिद्ध कहानी 'मरिया'  और उपन्यास 'आवा' के अंश का पाठ किया। 'मरिया' जहाँ  मृत्युभोज के थोथेपन को उजागर करती है और यह बताती है कि देश का कोई भी हिस्सा हो ऐसी अंध परंपराओं से आज भी जकड़ा हुआ है वहीं 'आवा' उपन्यास में यह बताने की कोशिश की गई है कि छत्तीसगढ़ में महात्मा गांधी का कितना अधिक असर है। कहानीकार रामनाथ साहू जी ने अपनी कहानी 'गति-मुक्ति' का पाठ किया।

        कवितापाठ सत्र में छत्तीसगढ़ के दुलरुआ कवि मीर अली मीर जी ने अपनी सर्वाधिक प्रसिद्ध और लोकप्रिय कविता 'नँदा जाही' का सस्वर पाठ किया जिसमें इस पीड़ा की घनीभूत अभिव्यक्ति है कि कैसे हम अपनी प्राचीन संस्कृति और पहचान को खोते जा रहे हैं। छत्तीसगढ़ में अभिवादन के लिए 'जोहार' शब्द का प्रयोग होता है। इसी पर आधारित कविता 'जोहार दाई' का पाठ मयारू कवि सुशील भोले जी द्वारा किया गया। विविध विषयों पर अनवरत कलम चलाने वाले भोले जी ने किन्नरों पर आधारित कविता का पाठ भी इस अवसर पर किया। छत्तीसगढ़ी एवं गुजराती भाषा की इस जुगलबंदी ने निश्चित रूप से दो संस्कृतियों में आपसी समझ बढ़ाने में नये उत्साह का संचार करने का काम किया है।

       हम सभी जानते हैं कि गुजराती एक संवैधानिक भाषा है। उसकी अपनी स्वतंत्र लिपि है। वह अपने प्रदेश में  स्कूली शिक्षा का माध्यम है। पत्र-पत्रिका, अखबार और पूरा प्रदेश गुजरातीमय है। जब हम गुजरात से अपने प्रदेश छत्तीसगढ़ की तुलना करते हैं तो हमारे सामने प्रश्नों की शृंखला सामने आकर खड़ी हो जाती है। सभी जानते हैं वे प्रश्न कौन से हैं। यहाँ छत्तीसगढ़ी में कुछ भी नहीं है सिवाय छत्तीसगढ़ी रचनाकारों और उनकी कृतियों के। सरकार छत्तीसगढ़ी के साथ सौतेला और तुष्टिकरण का व्यवहार करती है। छत्तीसगढ़ी को संविधान की आठवीं अनुसूची मे शामिल करने से केन्द्र सरकार द्वारा स्पष्ट रूप से इंकार कर दिया गया है। हमारे राजनेता और जनप्रतिनिधि छत्तीसगढ़ी को केवल वोट बटोरने का साधन मानते हैं। यदि ये चाहें और संकल्पित हो जाएं तो संविधान की अनुसूची में शामिल करवाना कोई मुश्किल काम नहीं है।

चलो मान लिया केन्द्र के अपने तर्क और विवशताएँ हो सकती है पर राज्य सरकार की ऐसी क्या विवशता है कि वह छत्तीसगढ़ी को स्कूलों में माध्यम या एक पृथक अनिवार्य विषय नहीं बना सकती। यदि राज्य सरकार ऐसा कर दे तो केन्द्र जो अभी ना-नुकर कर रहा है स्वयं संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने के लिए विवश हो जाएगा। अब छत्तीसगढ़ी के साहित्यकारों को सोचना है कि वे छत्तीसगढ़ी को स्कूलों में सम्मानजनक स्थान दिलाने के लिए कैसा रुख अपनाते हैं। अभी तक तो ऐसा ही प्रतीत होता रहा है कि स्कूलों मे छत्तीसगढ़ी उनके एजेंडे से बाहर है।

--दिनेश चौहान,
  छत्तीसगढ़ी ठीहा,
 शीतला पारा, नवापारा- राजिम,
 जिला-रायपुर ( छ.ग.)

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