Sunday 20 October 2019

सुवा: गौरा-ईसरदेव बिहाव के संदेशा देथे....

* सुवा गीत-नृत्य के संदेश...
* गौरा-ईसरदेव बिहाव के आरो कराथे
छत्तीसगढ़ी लोक साहित्य के नांव म आज जतका भी किताब, शोध ग्रंथ या आलेख उपलब्ध हे, सबो म कातिक महीना म गाये जाने वाला सुवा नृत्य-गीत ल "नारी-विरह" के गीत के रूप म उल्लेख करे गे हे। मोर प्रश्न हे- सुवा गीत सिरतोन म नारी विरह के गीत होतीस, त एला आने गीत मन सहीं बारों महीना काबर नइ गाये जाय? सिरिफ कातिक महीना म उहू म अंधियारी पाख भर म कुल मिला के सिरिफ पंदरा दिन भर काबर गाये जाथे? गाये जाथे इहां तक तो ठीक हे, फेर माटी के बने सुवा ल टोपली म रख के ओकर आंवर-भांवर ताली पीट-पीट के काबर नाचे जाथे? का बिरहा गीत म अउ कोनो जगा अइसन देखे या सुने बर मिलथे? अउ नइ मिलय त फेर एला नारी विरह के गीत काबर कहे जाथे? का ये हमर धरम अउ संस्कृति ल अपमानित करे के, भ्रमित करे के या वोला दूसर रूप अउ सरूप दे के चाल नोहय?

ये बात तो जरूर जान लेवौ के छत्तीसगढ़ म जतका भी पारंपरिक गीत हे, नृत्य हे सबके संबंध धर्म आधारित संस्कृति संग हे। चाहे वो फुगड़ी के गीत हो, चाहे करमा के नृत्य हो, सबके संबंध विशुद्ध अध्यात्म संग हे। हमर इहां जब भी संस्कृति के बात होथे, त वोहर सिरिफ नाचा-गम्मत या मनोरंजन के बात नइ होय, अइसन जिनिस ल हमन कला-कौशल के अंतर्गत गिनथन, संस्कृति के अंतर्गत नहीं। ये बात ल बने फोरिया के समझना जरूरी हे, संस्कृति वो होथे जेला हम जीथन, आत्मसात करथन, जबकि कला मंच आदि म प्रदर्शन करना, जनरंजन के माध्यम बनना होथे। जे मन इहां के धरम अउ संस्कृति ल कुटिर उद्योग के रूप म पोगरा डारे हें, वो मन जान लेवंय के अब इहां के मूल निवासी खुद अपन धरम, संस्कृति अउ कला वैभव ल सजाए-संवारे अउ चारों खुंट वास्तविक रूप म बगराए के बुता ल सीख-पढ़ डारे हे। अब  ए मन ल ठगे, भरमाए अउ लूटे नइ जा सकय। इंकर अस्मिता ल बिगाड़े अउ सिरवाए नइ जा सकय।

सुवा गीत असल म गौरा-ईसरदेव बिहाव के संदेशा दे के गीत-नृत्य आय। हमर इहां जेन कातिक अमावस के गौरा-गौरी या कहिन गौरा-ईसरदेव के पूजा या बिहाव के परब मनाए जाथे, वोकर संदेश या नेवता दे के कारज ल सुवा के माध्यम ले करे जाथे। हमर इहां कातिक नहाए के घलो रिवाज हे। मुंदरहा ले नोनी मन (कुंवारी मन जादा) नहा-धो के भगवान भोलेनाथ के बेलपत्ता, फूल, चंदन अउ धोवा चांउर ले पूजा करथें, ताकि उहू मनला उंकरे असन योग्य वर मिल सकय। अउ फेर तहां ले संझा के बेरा जम्मो झन जुरिया के सुवा नाचे बर जाथें। सुवा नाचे के बुता पूरा गांव भर चलथे, एकर बदला म वोमन ल जम्मो घर ले सेर-चांउर या पइसा-रुपिया मिलथे, जे हा कातिक अमवस्या के दिन होने वाला गौरा-ईसरदेव के बिहाव के परब ल पूरा करे के काम आथे। उंकर जम्मो व्यवस्था एकर ले ठउका पूर जाथे।

कातिक अमावस के पूरा नेंग-जोंग के साथ ईसरदेव के संग गौरा के बिहाव कर दिए जाथे। इही ल हमर इहां गौरा पूजा परब घलो कहे जाथे। सुवा गीत के संबंध ह एकरे संग हे, जेन ह एक प्रकार ले नेवता या संदेश दे के काम आथे। एला अइसनो कहे जा सकथे के गौरा-ईसरदेव के बिहाव-नेवता ल माईलोगिन मन घरों-घर जाके सुवा गीत-नृत्य के माध्यम ले देथें, अउ बिहाव-भांवर म होने वाला खर्चा के व्यवस्था खातिर सेर-चांउर या रुपिया-पइसा  लेथें।
जिहां तक ए परब अउ वोकर संग सुवा गीत-नृत्य के शुरूवात के बात हे, त इहां के जम्मो मूल संस्कृति सृष्टिकाल के संस्कृति त एकर मतलब इहू आय के एकरो शुरूवात सृष्टिकाल ले ही होही होही।

इहां इहू जाने अउ गुने के बात आय, के ये गौरा-गौरी परब ह कातिक अमावस के होथे। माने जेठउनी (देव उठनी) के दस दिन पहिली। माने हमर परंपरा म भगवान के बिहाव ह देवउठनी के दस दिन पहिली हो जाथे, त फेर वो चार महीना के चातुर्मास के व्यवस्था, सावन, भादो, कुंवार, कातिक म कोनो किसम के मांगलिक कारज या बर-बिहाव के बंधना कइसे लागू होइस? वइसे भी मैं ये बात ले सहमत नइहौं के कोनो भगवान ह चार महीना ले सूतथे या कोनो दिन, पक्ष या महीना ह कोनो शुभ कारज खातिर अशुभ होथे। हमर संस्कृति निरंतर जागृत देवता के संस्कृति आय। एकरे सेती मैं कहिथौं के हर कारज ल कोनो भी दिन करे जा सकथे। भलुक मैं तो कहिथौं के हमर संस्कृति म इही चार महीना (सावन, भादो, कुंवार, कातिक) सबले शुभ अउ पवित्र होथे, तेकर सेती जतका भी शुभ कारज हे इही चार महीना म करे जाना चाही।

-सुशील भोले
आदि धर्म जागृति संस्थान
54/191, डॉ. बघेल गली, संजय नगर , रायपुर (छग.)
मो. 98269 92811

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