Wednesday 28 January 2015

राजिम में अस्तित्व तलाशती त्रिवेणी



मानव को अपने जीवन-पथ पर अनवरत सुचारु रुप से चलते रहने के लिए संस्कृति और सभ्यता का ठीक वैसा ही महत्वपूर्ण योगदान होता है जैसा कि भोजन, हवा और पानी का योगदान शरीर को स्वस्थ रखने के लिए होता है। संस्कृति और सभ्यता जीवन के सामाजिक, राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक स्वरुप को सुघड़ बनाने के लिए रीढ़ की हड्डी की तरह अनिवार्य आधरशीला होती है। इसके बगैर मनुष्य समुदाय मात्र मांस का लोथड़ा रह जाएगा। चाहे वह कोई भी क्षेत्र का हो, राष्ट्र हो या राज्य हो, सभी पर यह समान रूप से लागू होता है और छत्तीसगढ़ राज्य भी इसका अपवाद नहीं है।

छत्तीसगढ़ में तीज-त्यौहार, मेला-मड़ई और धार्मिक कर्मकांडों और अनुष्ठानों से ओतप्रोत जनमानस सदियों से ही जीवंत रहा है। यहां की संस्कृति ही उत्सवधर्मी है। गांव-गांव में मड़ई का आयोजन बड़े हर्ष और उल्लास के साथ किया जाता है। जहां विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रमों की झलक भी दिखाई पड़ती है। इसी का वृहत रूप मेला है। अक्सर मेला का कार्यक्रम वहीं आयोजित किया जाता है जहां से नदी होकर गुजरती है। छत्तीसगढ़ की संस्कृति में नदियों का विशेष महत्व है। यहां नदियों को पूजनीय माना गया है और माता का दर्जा दिया गया है और जहाँ तीन-तीन नदियों का मेल हो, वह संगम स्थल और भी पावन-प्रणम्य हो जाता है। भारत की बेटी छत्तीसगढ़ के आँचल में राजिम नगरी भी ऐसा ही तीर्थ स्थल है जो तीन-तीन नदियों की धार समेटे अपने अस्तित्व को गौरवान्वित कर रही है। भगवान श्री राजीवलोचन और कुलेश्वरनाथ के पग पखारती महानदी, पैरी और सोंढूर नदियां कलकल प्रवाहित होते उदधि संगम करती हैं। इसी वजह से पुरातन काल से यहां मेला का आयोजन मांघी पूर्णिमा से शिवरात्रि तक बड़े ही धूमधाम से किया जाता रहा है। इस अवसर पर विभिन्न स्थलों  से लोग धार्मिक आस्था लिए आते हैं। वक्त की गहराइयों में दबी परतें अनेक इतिहास लिए राजिम के सांस्कृतिक वैभव में श्रीवृद्धि करती रही हैं, जो कि बदस्तूर जारी है।

 समय की धार में आधुनिक जीवन शैली, राजनीतिक दांवपेंच और सदैव आगे बढऩे की अदम्य लालसा ने कहीं न कहीं मानव को उन्नति के साथ साथ कमजोर भी किया है। छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद राजिम मेला का स्वरूप भी बदल गया। पारंपरिक रूप से मनाए जारे रहे चार कुंभों के साथ-साथ पांचवा कुंभ राजिम में आयोजित होता है। आश्चर्य की बात यह है कि पारंपरिक कुंभों का आयोजन तो कई वर्षों से होता आ रहा है, पर राजिम कुंभ का जन्म लोगों के मानस में पिछले कुछ वर्षों से हुआ। जिसका आयोजन प्रतिवर्ष हो रहा है, यूं लगता है कि विगत पारंपरिक कुंभों के इतिहास से स्पर्धा कर रहा है। कुंभ का अर्थ घट से है। यहां इसका अर्थ नदी के संगम या कुंड से लगाते हैं। राजिम में मेला पहले एक निर्धारित मैदान में ही हुआ करता था। लोग संगम में स्नान करते, मंदिरों के दर्शन कर मेला का आंनद उठाते। अब इसका स्वरूप वृहत हो गया है। पुरानी जगह के साथ साथ अब नदी में दूर दूर तक मेला भरता है। सड़कें बनायी जाती हैं। पानी, बिजली, डोम, साधू-संतों के लिए आवास व्यवस्था और अन्यान्य सुविधाओं के साथ-साथ सांस्कृतिक महोत्सव भी होता है। गंगा आरती भी की जाती है। ये तो हुई मेला के वृहत स्वरूप की बातें, जो बाद में बेटी की विदाई जैसा लगने वाला कार्यक्रम लगता है। जैसे लुटा-पिटा बाप अपने खाली घर को देख छटपटाता और तड़पता है, ठीक वैसी ही अनुभूति होती है।

उन संवेदनशील हृदयों को जिन्हें थोड़ा भी लगाव है महानदी से, राजिम के सांस्कृतिक वैभव से वे सुने एक बार, छत्तीसगढ़ की जीवनदायिनी महानदी, गौरवगंगा चित्रोत्पला, स्वर्गसलिला, कंकनंदिनी, अमृत रस निरझरा माँ त्रिवेणी की करुण आवाज को, जो सोढूर-पैरी को सहचरी बनाती सहस्र सहस्र लहरों से लहराती, उद्दाम वेग से छलछलाती थी, आज अपने वर्तमान स्वरुप को देख स्वयं विस्मित है। इंसान भी बूढ़ा होता है, तो क्रमश: शारीरिक परिवर्तन दिखाई देता है मगर यहां तो बात ही कुछ और है।

संगम में बनती रपटें जो प्रतिवर्ष कुंभ के नाम पर बनायी जाती है, रेत का उत्खनन, कारखानों का रसायन और नवापारा-राजिम की गंदी नालियों का पानी रंग गईं हैं त्रिवेणी को। सिमट रही, सिकुड़ रही बिलख रही नदी और हम कुंभ मना रहे हैं! ऐसा लगता है, कैक्टस लगाने के लिए वृहत पीपल काट रहे हैं। कब तक गाते रहेंगे हम, दिखावे की गंग-आरती? जहां संगम ही नहीं है वहां मटमैला सा पानी बांधकर, हम व्यथित हृदय को बांधने की कोशिश करते हैं। कहां है संगम की धार? आखिर क्यूं पड़ रही उसे अपनों की मार? आस्था दीप अश्रुबनने लगते हैं, जब नदियों पर चलते ट्रैक्टर मिट्टियां उठा उठाकर नदियों का दामन पाटते हैं, धार को मोड़ते हैं। कुंभ आयोजन के पश्चात दृष्टिगोचर होता है मात्र काईयुक्त सड़ांध मारता नाले का कीड़ायुक्त पानी, जो हमारे स्वार्थ और निष्ठुरता की पराकाष्ठा को प्रमाणित करता है। क्या फायदा ऐसे  कुंभ से जहां हम अपने सांस्कृतिक विरासत की रक्षा न कर सकें।

वर्तमान में बांधों से पानी छोड़ कर नदियों का स्वरूप बनाने की कोशिश की जाती है। पर गर्मी में पूरे का पूरा पाट रेगिस्तान हो जाता है। धार्मिक अनुष्ठानों  के हवन राख और भभूतियां रेत में ही डाली जाती हैं। ऐसे में हम अगर चैन से मेला की चकाचौंध में ही चौंधियाए रहें तो वह दिन दूर नहीं जब हमें पछताना पड़ेगा। चिर प्रतीक्षित एनीकट के लम्बे समय बाद निर्माण के बाद भी क्या वजह है जो पीछे पानी नहीं ठहर पाता है। बरसात में अंगड़ाई लेती लहरों को अगर यूं ही छोड़ दिया जाए तो कई गांव काल कवलित कर सकने वाली महासलिला यूं सूख क्यों जाती है।

कार्यक्रमों का शुभारंभ और समापन होता है और संत समागम भी! अनुरोध है सिर्फ आधे धंटे निहारे जाकर महानदी को। पूछें उसकी लहरों से कि उसकी पीड़ा कितनी सुखदायी है या यह कुंभ पर्व कितना दुखदायी है! समस्त संवेदनशील भाई-बहनों से मेरा अनुरोध है कि इस बारे में सोचें। हमारे राजिम का वैभव धूमिल न होने पाए। नदियों को संरक्षित करें, ताकि आने वाली पीढ़ी नदियों के अस्तित्व को पा सकें और ये मेला भी सतत लगता रहे। हवा-पानी और स्वास्थ्य की तरह बची रहे हमारी नदी-संस्कृति और सुदृढ़ रहे हमारी रीड़ की हड्डियां।

श्रीमती सुधा शर्मा
ब्राह्मण पारा, राजिम
जिला-गरियाबंद (छत्तीसगढ़)
मोबाइल-09993048495
(फोटो एवं प्रस्तुति ः सुशील भोले)

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