Tuesday, 30 June 2015
Monday, 29 June 2015
माटी के पीरा...
ए माटी के पीरा ल कतेक बतांव,
कोनो संगी-संगवारी ल खबर नइए।
धन-जोगानी चारों खुंट बगरे हे तभो,
एकर बेटा बर छइहां खदर नइए।।...
कोनो आथे कहूं ले लांघन मगर,
इहां खाथे ससन भर फेर सबर नइए।...
दुख-पीरा के चरचा तो होथे गजब,
फेर सुवारथ के आगू म वो जबर नइए।...
अइसन मनखे ल मुखिया चुनथन काबर,
जेला गरब-गुमान के बतर नइए।...
लहू तो बहुतेच उबलथे तभो ले,
फेर कहूं मेर कइसे गदर नइए।...
सुख-शांति के गोठ तो होथे गजब,
फेर पीरा के भोगइया ल असर नइए।...
सुशील भोले
डॉ. बघेल गली, संजय नगर (टिकरापारा)
रायपुर (छ.ग.) मोबा. नं. 098269 92811
ईमेल- sushilbhole2@gmail.com
धर मशाल ल तैं ह संगी.....
धर मशाल ल तैं ह संगी, जब तक रतिहा बांचे हे
पांव संभाल के रेंगबे बइहा, जब तक रतिहा बांचे हे....
अरे मंदिर-मस्जिद कहूं नवाले, माथा ल तैं ह संगी
फेर पीरा तोर कम नइ होवय, जब तक रतिहा बांचे हे....
देश मिलगे राज बनगे, फेर सुराज अभी बांचे हे
जन-जन जब तक जबर नइ होही, तब तक रतिहा बांचे हे...
नवा किरण तो लटपट आथे, तभो उदिम करना परही
चलौ यज्ञ कराबो आजादी के, जब तक रतिहा बांचे हे....
सुशील भोले
संजय नगर, रायपुर (छ.ग.)
मोबा. नं. 080853-05931, 098269-92811
ईमेल - sushilbhole2@gmail.com
Sunday, 28 June 2015
Friday, 26 June 2015
Thursday, 25 June 2015
Wednesday, 24 June 2015
पंडवानी के आदि गुरु - नारायण प्रसाद वर्मा
वर्तमान छत्तीसगढ़ में पंडवानी गायन की एक समृद्ध परंपरा देखी जा रही है। इस विधा के गायक-गायिकाओं को राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिल रही है। पद्मश्री से लेकर अनेक राष्ट्रीय और प्रादेशिक पुरस्कारों से ये नवाजे जा रहे हैं। लेकिन इस बात को कितने लोग जानते हैं कि इस विधा के छत्तीसगढ़ में प्रचलन को कितने वर्ष हुए हैं और उनके पुरोधा पुरुष कौन हैं?
आपको यह जानकर सुखद आश्चर्य होगा कि ग्राम झीपन (रावन) जिला-बलौदाबाजार के कृषक मुडिय़ा राम वर्मा के पुत्र के रूप में जन्मे स्व. श्री नारायण प्रसाद जी वर्मा को छत्तीसगढ़ में पंडवानी गायन विधा के जनक होने का गौरव प्राप्त है। उन्होंने गीता प्रेस से प्रकाशित सबल सिंह चौहान की कृति से प्रेरित होकर यहां की पारंपरिक लोकगीतों के साथ प्रयोग कर के पंडवानी गायन कला को यहां विकसित किया।
मुझे स्व. नारायण प्रसाद जी के पुश्तैनी निवास जाने का अवसर प्राप्त हुआ है। उनकी चौथी पीढ़ी के संतोष और निलेश कुमार के साथ ही साथ ग्राम के ही एक शिक्षक ईनू राम वर्मा, जो नारायण प्रसाद जी के व्यक्तित्व-कृतित्व पर काफी काम कर रहे हैं, तथा आसपास के कुछ बुजुर्गों से यह जानकारी प्रप्त हुई कि नारायण प्रसाद जी अनेक ग्रंथों का अध्ययन किया करते थे। और उन सभी का निचोड़ वे अपने पंडवानी गायन में किया करते थे।
उनके जन्म एवं निधन की निश्चित तारीख तो अभी प्राप्त नहीं हो पायी है (संबंधित थाना एवं पाठशाला में आवेदन दे दिया गया है, और उम्मीद है कि जल्द ही प्रमाणित तिथि हम सबके समक्ष आ जायेगी।) लेकिन यह बताया जाता है कि उनका निधन सन् 1971 में हुआ था, उस वक्त वे लगभग 80 वर्ष के थे।
पंडवानी शब्द का प्रचलन
नारायण प्रसाद जी को लोग भजनहा (भजन गाने वाला) कहकर संबोधित करते थे। यह इस बात का प्रमाण है कि उनके समय तक पंडवानी शब्द प्रचलन में नहीं आ पाया था। पंडवानी शब्द बाद में प्रचलित हुआ होगा, क्योंकि उसके बाद के पंडवानी गायकों को पंडवानी गायक के रूप में संबोधित किया जाता है, साथ ही इन्हें शाखाओं के साथ (वेदमति या कापालिक) जोड़कर चिन्हित किया जाता है। ऐसा इसलिए हो रहा है, क्योंकि पंडवानी गायन के साथ ही साथ इस विषय पर अब काफी काम हो चुका है, लेकिन जिस समय नारायण प्रसाद जी इस विधा को मंच पर प्रस्तुत करना आरंभ किये थे तब यह बाल्यावस्था में था। तब इसे भजन के रूप में देखा जाता था, और इसके गाने वाले को भजनहा अर्थात भजन गाने वाले के रूप में।
नारायण प्रसाद जी को लोग भजनहा (भजन गाने वाला) कहकर संबोधित करते थे। यह इस बात का प्रमाण है कि उनके समय तक पंडवानी शब्द प्रचलन में नहीं आ पाया था। पंडवानी शब्द बाद में प्रचलित हुआ होगा, क्योंकि उसके बाद के पंडवानी गायकों को पंडवानी गायक के रूप में संबोधित किया जाता है, साथ ही इन्हें शाखाओं के साथ (वेदमति या कापालिक) जोड़कर चिन्हित किया जाता है। ऐसा इसलिए हो रहा है, क्योंकि पंडवानी गायन के साथ ही साथ इस विषय पर अब काफी काम हो चुका है, लेकिन जिस समय नारायण प्रसाद जी इस विधा को मंच पर प्रस्तुत करना आरंभ किये थे तब यह बाल्यावस्था में था। तब इसे भजन के रूप में देखा जाता था, और इसके गाने वाले को भजनहा अर्थात भजन गाने वाले के रूप में।
पंडवानी की मंचीय प्रस्तुति के लिए वे अपने साथ में एक सहयोगी जिसे आज हम रागी के रूप में जानते हैं, रखते थे। उनके रागी गांव के ही भुवन सिंह वर्मा थे, जो खंजेड़ी भी बजाते थे और रागी की भूमिका भी निभाते थे। नारायण प्रसाद जी तंबूरा और करताल बजाकर गायन करते थे। उनके कार्यक्रम को देखकर अनेक लोग प्रभावित होने लगे और उनके ही समान प्रस्तुति देने का प्रयास भी करने लगे, जिनमें ग्राम सरसेनी के रामचंद वर्मा का नाम प्रमुखता के साथ लिया जाता है, लेकिन उन लोगों को न तो उतनी लोकप्रियता मिली और न ही सफलता।
रात्रि में गायन पर प्रतिबंध
नारायण प्रसाद जी के कार्यक्रम की लोकप्रियता इतनी ज्यादा थी कि लोग उन्हें सुनने के लिए दूर-दूर से आते थे। जिस गांव में कार्यक्रम होता था, उस गांव के साथ ही साथ आसपास के तमाम गांव तो पूर्णत: खाली हो जाते थे। इसके कारण चोर-डकैत किस्म के लोगों की चांदी हो जाती थी। जहां कहीं भी कार्यक्रम होता, तो उसके आसपास चोरी की घटना अवश्य घटित होती, जिसके कारण उन्हें रात्रि में कार्यक्रम देने पर प्रतिबंध का सामना करना पड़ रहा था। वे पुलिस प्रशासन के निर्देश पर केवल दिन में ही कार्यक्रम दिया करते थे।
नारायण प्रसाद जी के कार्यक्रम की लोकप्रियता इतनी ज्यादा थी कि लोग उन्हें सुनने के लिए दूर-दूर से आते थे। जिस गांव में कार्यक्रम होता था, उस गांव के साथ ही साथ आसपास के तमाम गांव तो पूर्णत: खाली हो जाते थे। इसके कारण चोर-डकैत किस्म के लोगों की चांदी हो जाती थी। जहां कहीं भी कार्यक्रम होता, तो उसके आसपास चोरी की घटना अवश्य घटित होती, जिसके कारण उन्हें रात्रि में कार्यक्रम देने पर प्रतिबंध का सामना करना पड़ रहा था। वे पुलिस प्रशासन के निर्देश पर केवल दिन में ही कार्यक्रम दिया करते थे।
एक मजेदार वाकिया बताया जाता है। महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र में नारायण प्रसाद जी का कार्यक्रम था, वहां भी चोरी की घटनाएं होने लगीं। ब्रिटिशकालीन पुलिस वाले उन्हें यह कहकर थाने ले गये कि कार्यक्रम की आड़ में तुम खुद ही चोरी करवाते हो। असलियत जानने के पश्चात बाद में उन्हें छोड़ दिया गया था। ज्ञात रहे कि उनके कार्यक्रम केवल आसपास के गांवों में ही नहीं अपितु पूरे देश में आयोजित होते थे।
प्रशासनिक क्षमता
नारायण प्रसाद जी एक उच्च कोटि के कलाकार और सांस्कृतिक कार्यक्रमों के पुरोधा होने के साथ ही साथ प्रशासनिक कार्यों में भी निपुण थे। बताते हैं कि वे अपने जीवन के अंतिम समय तक ग्राम पटेल की जिम्मेदारी को निभाते रहे। इसी प्रकार ग्राम के सभी तरह के कार्यों की अगुवाई वे ही करते थे।
नारायण प्रसाद जी एक उच्च कोटि के कलाकार और सांस्कृतिक कार्यक्रमों के पुरोधा होने के साथ ही साथ प्रशासनिक कार्यों में भी निपुण थे। बताते हैं कि वे अपने जीवन के अंतिम समय तक ग्राम पटेल की जिम्मेदारी को निभाते रहे। इसी प्रकार ग्राम के सभी तरह के कार्यों की अगुवाई वे ही करते थे।
लगातार 18 दिनों तक कथापाठ
ऐसा कहा जाता है कि पंडवानी (महाभारत) की कथा का पाठ लगातार 18 दिनों तक नहीं किया जाता। इसे जीवन के अंतिम समय की घटनाओं के साथ जोड़ा जाता है। लेकिन नारायण प्रसाद जी ने अपने जीवनकाल में दो अलग-अलग अवसरों पर 18-18 दिनों तक कथा पाठ किया।
ऐसा कहा जाता है कि पंडवानी (महाभारत) की कथा का पाठ लगातार 18 दिनों तक नहीं किया जाता। इसे जीवन के अंतिम समय की घटनाओं के साथ जोड़ा जाता है। लेकिन नारायण प्रसाद जी ने अपने जीवनकाल में दो अलग-अलग अवसरों पर 18-18 दिनों तक कथा पाठ किया।
एक बार जब वे शारीरिक रूप से सक्षम थे, तब अपने ही गांव में पूरे सांगितीक गायन के साथ ऐसा किया, तथा दूसरी बार जब उनका शरीर उम्र की बाहुल्यता के चलते अक्षम होने लगा था, तब बिना संगीत के केवल कथा वाचन किया था।
ऐसा बताया जाता है कि पहली बार जब वे 18 दिनों का पाठ कर रहे थे, तब यह अफवाह फैल गई थी कि नारायण प्रसाद जी इस 18 दिवसीय कथा परायण के पश्चात समाधि ले लेंगे। इसलिए उन्हें अंतिम बार देख-सुन लेने की आस में लोगों का हुजुम उमडऩे लगा था। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। अलबत्ता यह जरूर बताया जाता है कि दूसरी बार जब वे 18 दिनों का कथा वाचन किये उसके बाद ज्यादा दिनों तक जीवित नहीं रह पाये... कुछ ही समय के पश्चात इस नश्वर दुनिया से प्रस्थान कर गये।
समाधि और जन आस्था
आम तौर पर गृहस्थ लोगों के निधन के पश्चात उनके शव का श्मशान घाट पर अंतिम संस्कार कर दिया जाता है। लेकिन उनके ग्राम वासियों ने नारायण प्रसाद जी के निधन के पश्चात उन्हें श्मशान घाट ले जाने के बजाय ग्राम के तालाब में उनकी समाधि बनाना ज्यादा उचित समझा। और अन्य ग्राम्य देवताओं के साथ उन्हें भी शामिल कर लिया। ज्ञात रहे कि किसी भी पर्व-त्यौहार के अवसर पर नारायण प्रसाद जी की समाधि (मठ) पर ग्रामवासियों के द्वारा अन्य ग्राम्य देवताओं के साथ धूप-दीप किया जाता है।
आम तौर पर गृहस्थ लोगों के निधन के पश्चात उनके शव का श्मशान घाट पर अंतिम संस्कार कर दिया जाता है। लेकिन उनके ग्राम वासियों ने नारायण प्रसाद जी के निधन के पश्चात उन्हें श्मशान घाट ले जाने के बजाय ग्राम के तालाब में उनकी समाधि बनाना ज्यादा उचित समझा। और अन्य ग्राम्य देवताओं के साथ उन्हें भी शामिल कर लिया। ज्ञात रहे कि किसी भी पर्व-त्यौहार के अवसर पर नारायण प्रसाद जी की समाधि (मठ) पर ग्रामवासियों के द्वारा अन्य ग्राम्य देवताओं के साथ धूप-दीप किया जाता है।
पारिवारिक स्थिति
नारायण प्रसाद जी के पारिवारिक वृक्ष के संबंध में जो जानकारी उपलब्ध हो सकी है, उसके मुताबिक उनके पिता मुडिय़ा के पुत्र नारायण जी, नारायण जी के पुत्र हुए घनश्याम जी, फिर घनश्याम जी के पुत्र हुए पदुम और फिर पदुम के दो पुत्र हुए जिनमें संतोष और निलेश अभी वर्तमान में घर का काम-काज देख रहे हैं।
नारायण प्रसाद जी के पारिवारिक वृक्ष के संबंध में जो जानकारी उपलब्ध हो सकी है, उसके मुताबिक उनके पिता मुडिय़ा के पुत्र नारायण जी, नारायण जी के पुत्र हुए घनश्याम जी, फिर घनश्याम जी के पुत्र हुए पदुम और फिर पदुम के दो पुत्र हुए जिनमें संतोष और निलेश अभी वर्तमान में घर का काम-काज देख रहे हैं।
यहां यह बताना आवश्यक लगता है कि नारायण प्रसाद जी के पुत्र घनश्याम भी अपने पिता के समान कथा वाचन करने की कोशिश करते थे। प्रति वर्ष पितृ पक्ष में बिना संगीत के वे कथा वाचन करते थे। लेकिन उनके पश्चात की पीढिय़ों में कथा वाचन के प्रति कोई रूझान दिखाई नहीं देता। आज जो चौथी पीढ़ी संतोष और निलेश के रूप में है, ये दोनों ही भाई केवल खेती-किसानी तक सीमित रहते हैं। शायद इसी के चलते नारायण प्रसाद जी का व्यक्तित्व-कृतित्व हमें पूर्ण रूप से उपलब्ध नहीं हो पाया। यदि इस क्षेत्र में रुचि रखने वाले वारिश होते तो शायद उनका संपूर्ण इतिहास लोगों के समक्ष उपलब्ध होता।
सुशील भोले
संपर्क - 41/191, डा. बघेल गली,
संजय नगर (टिकरापारा) रायपुर (छ.ग.)
ईमेल - sushilbhole2@gmail.com
संपर्क - 41/191, डा. बघेल गली,
संजय नगर (टिकरापारा) रायपुर (छ.ग.)
ईमेल - sushilbhole2@gmail.com
Saturday, 20 June 2015
छत्तीसगढ़ी व्याकरण के सर्जक - हीरालाल काव्योपाध्याय
छत्तीसगढ़ी व्याकरण की रचना सर्वप्रथम सन् 1885 में हीरालाल काव्योपाध्याय द्वारा की गई थी, जिसका सन् 1890 में विश्व प्रसिद्ध व्याकरणाचार्य सर जार्ज ग्रियर्सन ने अंगरेजी अनुवाद कर छत्तीसगढ़ी और अंगरेजी भाषा में संयुक्त रूप से छपवाया था, तथा यह टिप्पणी की थी कि उत्तर भारत की भाषाओं को समझने में यह छत्तीसगढ़ी व्याकरण काफी उपयोगी साबित होगा।
ज्ञात रहे, उस समय तक हिन्दी का कोई सर्वमान्य व्याकरण प्रकाशित नहीं हो पाया था। हिन्दी व्याकरण सन् 1921 में कामता प्रसाद गुरु के माध्यम से प्रकाशित हो पाया था।
हीरालाल काव्योपाध्याय का वास्तविक नाम हीरालाल चन्नाहू था, लेकिन 11 सितंबर 1884 को गुरुदेव रविन्द्रनाथ टैगोर के भाई की संस्था द्वारा कलकत्ता में उन्हें काव्योपाध्याय की उपाधि प्रदान की गई थी, तब से वे अपना नाम हीरालाल काव्योपाध्याय लिखते थे। हीरालाल जी का जन्म छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के तात्यापारा नामक मोहल्ले में हुआ था। किन्तु उनका पैतृक गांव धमतरी जिला के अंतर्गत ग्राम चर्रा (कुरुद) है।
* सुशील भोले
Thursday, 18 June 2015
छत्तीसगढ़ की मूल संस्कृति की उपेक्षा और नये मंत्री से अपेक्षा...
प्रति,
श्री दयालदास बघेल जी,
संस्कृति मंत्री, छत्तीसगढ़ शासन
महोदय,
छत्तीसगढ़ राज्य का निर्माण हुए एक दशक से ऊपर हो चुका है, लेकिन अभी भी यहां की मूल-संस्कृति की स्वतंत्र पहचान नहीं बन पायी है। आज भी जब छत्तीसगढ़ की संस्कृति की बात होती है, तो अन्य प्रदेशों से लाये गये ग्रंथों के मापदण्ड पर इसे परिभाषित कर दिया जाता है।
आप तो इस बात से अच्छी तरह से वाकिफ हैं कि किसी भी प्रदेश की संस्कृति का मानक वहां के मूल निवासियों की संस्कृति होती है, न कि अन्य प्रदेशों से आये हुए लोगों की संस्कृति। लेकिन यह छत्तीसगढ़ का दुर्भाग्य है कि यहां आज भी मूल-निवासियों की संस्कृति को दरकिनार कर अन्य प्रदेशों की संस्कृति को छत्तीसगढ़ की संस्कृति के रूप में चिन्हित किया जा रहा है।
आप इस बात से भी वाकिफ हैं कि यहां का मूल निवासी समाज सदियों तक शिक्षा की रोशनी से काफी दूर रहा है, जिसके कारण वह अपनी संस्कृति और इतिहास को लिखित रूप नहीं दे पाया। परिणाम स्वरूप अन्य प्रदेशों से आये हुए लोग यहां की संस्कृति और इतिहास को लिखने लगे।
लेकिन यहां पर एक गलती यह हुई कि वे यहां की मूल-संस्कृति और इतिहास को वास्तविक रूप में लिखने के बजाय अपने साथ अन्य प्रदेशों से लाये गये ग्रंथों और संस्कृति के साथ घालमेल कर लिखने लगे। यही मूल कारण है, जिसके कारण छत्तीसगढ़ की मूल-संस्कृति और इतिहास का स्वतंत्र और वास्तविक रूप आज तक लोगों के समक्ष नहीं आ सका है।
यहां पर यह जान लेना भी आवश्यक है कि कला और संस्कृति दो अलग-अलग चीजें हैं। इसे इसलिए अलग-अलग चिन्हित किया जाना आवश्यक है, क्योंकि छत्तीसगढ़ी संस्कृति के नाम पर यहां की कुछ कला को और कला-मंडलियों को उपकृत कर संपूर्ण छत्तीसगढ़ी संस्कृति को कृतार्थ कर लेने का कर्तव्य पूर्ण हो जाना मान लिया जाता है।
कला और संस्कृति के मूल अंतर को समझने के लिए हम यह कह सकते हैं कि मंच के माध्यम से जो प्रदर्शन किया जाता है वह कला है, और जिन्हें हम पर्वों एवं संस्कार के रूप में जीते हैं वह संस्कृति है।
आप यहां के मूल-निवासी समाज के हैं, इसलिए यहां की पीड़ा को अच्छी तरह से जानते और समझते हैं। इसीलिए आपसे अपेक्षा भी ज्यादा की जा रही है, कि आप इस दिशा में ठोस कदम उठायेंगे और छत्तीसगढ़ को उसकी मूल-सांस्कृतिक पहचान से गर्वान्वित करेंगे।
मुझे लगता है कि यहां की मूल-संस्कृति की तार्किक रूप से संक्षिप्त चर्चा कर लेना भी आवश्यक है।
वास्तव में छत्तीसगढ़ की संस्कृति एक मौलिक संस्कृति है, जिसे हम सृष्टिकाल की या युग निर्धारण के मानक पर कहें तो सतयुग की संस्कृति कह सकते हैं। यहां पर कई ऐसे पर्व और संस्कार हैं, जिन्हें इस देश के किसी अन्य अंचल में नहीं जिया जाता। ऐसे ही कई ऐसे भी पर्व हैं, जिन्हें आज उसके मूल स्वरूप से परिवर्तित कर किसी अन्य घटना के साथ जोड़कर प्रचारित किया जा रहा है। आइए कुछ ऐसे ही दृश्यों पर तार्किक चर्चा कर लें।
सबसे पहले उस बहुप्रचारित व्यवस्था पर, जिसे हम चातुर्मास के नाम पर जानते हैं। ऐसा कहा जाता है कि चातुर्मास (आषाढ़ शुक्ल पक्ष एकादशी से लेकर कार्तिक शुक्ल पक्ष एकादशी तक) में देवता सो जाते हैं, (कुछ लोग इसे योग निद्रा कहकर बचने का प्रयास करते हैं।) इसलिए इन चारों महीनों में किसी भी प्रकार का मांगलिक कार्य नहीं करना चाहिए। अब छत्तीसगढ़ के संदर्भ में देखें, तो यह व्यवस्था यहां लागू ही नहीं होती। यहां चातुर्मास पूर्ण होने के दस दिन पहले ही भगवान शंकर और देवी पार्वती का विवाह पर्व 'गौरा-गौरी उत्सव", जिसे सुरहुत्ती भी कहते हैं, के रूप में मनाया जाता है। अब जब भगवान की ही शादी देवउठनी से पहले हो जाती है, तो फिर उनके सोने (शयन करना) या फिर इन महीनों को मांगलिक कार्यों के लिए किसी भी प्रकार से अशुभ मानने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। बल्कि यहां पर यह कहना ज्यादा अच्छा होगा कि छत्तीसगढ़ की संस्कृति में चातुर्मास के इन चारों महीनों को ही सबसे ज्यादा शुभ और पवित्र माना जाता है, क्योंकि इन्हीं चारों महीनों में यहां के सभी प्रमुख पर्व संपन्न होते हैं।
श्रावण अमावस्या को मनाए जाने वाले पर्व 'हरेली" से लेकर देखें तो इस महीने की शुक्ल पक्ष पंचमी को 'नागपंचमी" तथा पूर्णिमा को 'शिव लिंग प्राकट्य" दिवस के रूप में मनाया जाता है। भादो मास में कृष्ण पक्ष षष्ठी को स्वामी कार्तिकेय का जन्मोत्सव पर्व 'कमर छठ" के रूप में, अमावस्या तिथि को नंदीश्वर का जन्मोत्सव 'पोला" के रूप में, शुक्ल पक्ष तृतीया को देवी पार्वती द्वारा भगवान शंकर को पति रूप में प्राप्त करने के लिए किए गए कठोर तप के प्रतीक स्वरूप मनाया जाने वाला पर्व 'तीजा" तथा चतुर्थी तिथि को विघ्नहर्ता और देव मंडल के प्रथम पूज्य भगवान गणेश का जन्मोत्सव पर्व।
क्वांर मास का कृष्ण पक्ष हमारी संस्कृति में स्वर्गवासी हो चुके पूर्वजों के स्मरण के लिए मातृ एवं पितृ पक्ष के रूप में मनाया जाता है। शुक्ल पक्ष माता पार्वती (आदि शक्ति) के जन्मोत्सव का पर्व नवरात्र के रूप में (यहां यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि यहां की संस्कृति में वर्ष में दो बार जो नवरात्र मनाया जाता है, उसका कारण आदि शक्ति के दो बार अवतरण को कारण माना जाता है। प्रथम बार वे सती के रूप में आयी थीं और दूसरी बार पार्वती के रूप में। सती के रूप में चैत्र मास में तथा पार्वती के रूप में क्वांर मास में)। क्वांर शुक्ल पक्ष दशमीं तिथि को समुद्र मंथन से निकले विष का हरण पर्व दंसहरा (दशहरा) के रूप में मनाया जाता है। (बस्तर में इस अवसर पर जो रथयात्रा का आयोजन किया जाता है, वह वास्तव में मंदराचल पर्वत के माध्यम से समुद्र मंथन का पर्व है। आगे इसकी विस्तृत चर्चा करेंगे)। तथा विष हरण के पांच दिनों के बाद क्वांर पूर्णिमा को अमृत प्राप्ति का पर्व 'शरद पूर्णिमा" के रूप में मनाया जाता है।
इसी प्रकार कार्तिक मास में अमावस्या तिथि को मनाया जाने वाला भगवान शंकर तथा देवी पार्वती का विवाह पर्व 'गौरा-गौरी उत्सव" में सम्मिलित होने के लिए लोगों को संदेश देने का आयोजन 'सुआ नृत्य" के रूप में किया जाता है, जो पूरे कृष्ण पक्ष में पंद्रह दिनों तक उत्सव के रूप में चलता है। इन पंद्रह दिनों में यहां की कुंवारी कन्याएं 'कार्तिक स्नान" का भी पर्व मनाती हैं। यहां की संस्कृति में मेला-मड़ई के रूप में मनाया जाने वाला उत्सव भी कार्तिक मास की पूर्णिमा तिथि से ही प्रारंभ होता है, जो भगवान शंकर के जटाधारी रूप में प्रागट्य होने के पर्व महाशिवरात्रि तक चलता है।
चातुर्मास के अंतर्गत हम 'दंसहरा" की चर्चा कर रहे थे। तो यहां यह जान लेना आवश्यक है दशहरा (वास्तव में दंस+हरा) और विजया दशमी दो अलग-अलग पर्व हैं। दशहरा या दंसहरा सृष्टिकाल के समय संपन्न हुए समुद्र मंथन से निकले दंस विष के हरण का पर्व है तो विजयी दशमी आततायी रावण पर भगवान राम के विजय का पर्व है। यहां के बस्तर में दशहरा के अवसर पर जो 'रथयात्रा" का पर्व मनाया जाता है, वह वास्तव में दंस+हरा अर्थात दंस (विष) हरण का पर्व है, जिसके कारण शिवजी को 'नीलकंठ" कहा गया। इसीलिए इस तिथि को नीलकंठ पक्षी (टेहर्रा चिरई) को देखना शुभ माना जाता है, क्योंकि इस दिन उसे विषपान करने वाले शिवजी का प्रतीक माना जाता है।
बस्तर के रथयात्रा को वर्तमान में कुछ परिवर्तित कर उसके कारण को अलग रूप में बताया जा रहा है, बिल्कुल वैसे ही जैसे राजिम के प्रसिद्ध पारंपरिक 'मेले" के स्वरूप को परिवर्तित कर 'कुंभ" का नाम देकर उसके स्वरूप और कारण को परिवर्तित कर दिया गया है। पहले दशहरा के अवसर पर प्रतिवर्ष नया रथ बनाया जाता था, जो कि मंदराचल पर्वत का प्रतीक होता था, क्योंकि मंदराचल पर्वत के माध्यम से ही समुद्र मंथन किया गया था। चूंकि मंदराचल पर्वत को मथने (आगे-पीछे खींचने) के कार्य को देवता और दानवों के द्वारा किया गया था, इसीलिए इस अवसर पर बस्तर क्षेत्र के सभी ग्राम देवताओं को इस दिन रथयात्रा स्थल पर लाया जाता था। उसके पश्चात रथ को आगे-पीछे खींचा जाता था, और जब आगे-पीछे खींचे जाने के कारण रथ टूट-फूट जाता था, तब विष निकलने का दृश्यि उपस्थित करने के लिए उस रथ को खींचने वाले लोग इधर-उधर भाग जाते थे। बाद में जब वे पुन: एकत्रित होते थे, तब उन्हें विष वितरण के रूप में दोने में मंद (शराब) दिया जाता था।
इस बात से प्राय: सभी परिचित हैं कि समुद्र मंथन से निकले 'विष" के हरण के पांच दिनों के पश्चात 'अमृत" की प्राप्ति हुई थी। इसीलिए हम लोग आज भी दंसहरा तिथि के पांच दिनों के पश्चात अमृत प्राप्ति का पर्व 'शरद पूर्णिमा" के रूप में मनाते हैं।
यहां के मूल पर्व को किसी अन्य घटना के साथ जोड़कर लिखे जाने के संदर्भ में हम 'होली" को उदाहरण के रूप में ले सकते हैं। छत्तीसगढ़ में जो होली मनाई जाती है वह वास्तव में 'काम दहन" का पर्व है, न कि 'होलिका दहन" का। यह काम दहन का पर्व है, इसीलिए इसे मदनोत्सव या वसंतोत्सव के रूप में भी स्मरण किया जाता है, जिसे माघ महीने की शुक्ल पक्ष पंचमी तिथि से लेकर फाल्गुन मास की पूर्णिमा तिथि तक लगभग चालीस दिनों तक मनाया जाता है।
सती आत्मदाह के पश्चात तपस्यारत शिव के पास आततायी असुर के संहार के लिए शिव-पुत्र प्राप्ति हेतु देवताओं द्वारा कामदेव को भेजा जाता है, ताकि उसके (शिव) अंदर काम वासना का उदय हो और वे पार्वती के साथ विवाह करें, जिससे शिव-पुत्र के हाथों मरने का वरदान प्राप्त असुर के संहार के लिए शिव-पुत्र (कार्तिकेय) की प्राप्ति हो। देवमंडल के अनुरोध पर कामदेव बसंत के मादकता भरे मौसम का चयन कर अपनी पत्नी रति के साथ माघु शुक्ल पक्ष पंचमीं को तपस्यारत शिव के सम्मुख जाता है। उसके पश्चात वासनात्मक शब्दों, दृश्यों और नृत्यों के माध्यम से शिव-तपस्या भंग करने की कोशिश की जाती है, जो फाल्गुन पूर्णिमा को शिव द्वारा अपना तीसरा नेत्र खोलकर उसे (कामदेव को) भस्म करने तक चलती है।
छत्तीसगढ़ में बसंत पंचमी (माघ शुक्ल पंचमी) को काम दहन स्थल पर अंडा (अरंडी) नामक पेड़ गड़ाया जाता है, वह वास्तव में कामदेव के आगमन का प्रतीक स्वरूप होता है। इसके साथ ही यहां वासनात्मक शब्दों, दृश्यों और नृत्यों के माध्यम से मदनोत्सव का सिलसिला प्रारंभ हो जाता है। इस अवसर पर पहले यहां 'किसबीन नाच" की भी प्रथा थी, जिसे रति नृत्य के प्रतीक स्वरूप आयोजित किया जाता था। 'होलिका दहन" का संबंध छत्तीसगढ़ में मनाए जाने वाले पर्व के साथ कहीं पर भी दृष्टिगोचर नहीं होता। होलिका तो केवल एक ही दिन में चिता रचवाकर उसमें आग लगवाती है, और उस आग में स्वयं जलकर भस्म हो जाती है, तब भला उसके लिए चालीस दिनों का पर्व मनाने का सवाल ही कहां पैदा होता है? और फिर वासनात्मक शब्दों, दृश्यों और गीत-नृत्यों का होलिका से क्या संबंध है?
मूल संस्कृति की चर्चा करते हुए कुछ बातें यहां के इतिहास लेखन की भी हो जाए तो बेहतर होगा, क्योंकि यहां की मूल संस्कृति के नाम पर अभी तक हम सृष्टिकाल या कहें कि सतयुग की संस्कृति की चर्चा करते आए हैं तो फिर प्रश्न उठता है कि छत्तीसगढ़ के इतिहास को केवल रामायण और महाभारत कालीन ही क्यों कहा जाता है? इसे सतयुग या सृष्टिकाल तक विस्तारित क्यों नहीं कहा जाता? जबकि बस्तर के लोक गीतों में इस बात का उल्लेख मिलना बताया जाता है, कि शिवजी देवी पार्वती के साथ अपने जीवन काल में सोलह वर्षों तक बस्तर में व्यतीत किए हैं।
इस संदर्भ में एक कथा प्राप्त होती है, जिसके अनुसार भगवान गणेश को प्रथम पूज्य का आशीर्वाद प्राप्त हो जाने के कारण उनके ज्येष्ठ भ्राता कार्तिकेय नाराज हो जाते हैं, और वह हिमालय का त्याग कर दक्षिण भारत में रहने के लिए चले जाते हैं। उन्हीं रूठे हुए कार्तिकेय को मनाने के लिए शिवजी देवी पार्वती के साथ यहां बस्तर में आकर सोलह वर्षों तक रूके हुए थे। छत्तीसगढ़ की मूल संस्कृति में शिव और शिव परिवार का जो वर्चस्व है, शायद उसका यही कारण है कि शिवजी यहां सोलह वर्षों तक निवासरत रहे थे।
यह भी ज्ञातव्य है कि दक्षिण भारत में कार्तिकेय की ही सबसे ज्यादा पूजा होती है। उन्हें मुरगन स्वामी के नाम पर जाना जाता है। शायद उनके दक्षिण भारत में निवासरत रहने के कारण ही ऐसा संभव हुआ है। तब प्रश्न यह उठता है कि हमारे इतिहासकारों को इतना गौरवशाली अतीत क्यों ज्ञात नहीं हुआ? क्यों वे यहां के इतिहास को मात्र द्वापर और त्रेता तक सीमित कहते हैं?
मुझे ऐसा लगता है कि इन सबका एकमात्र कारण है, उनके द्वारा मानक स्रोत का गलत चयन। वे जिन ग्रंथों को यहां के इतिहास एवं संस्कृति के मानक के रूप में उद्घृत करते हैं, वास्तव में उन्हें छत्तीसगढ़ के मापदंड पर लिखा ही नहीं गया है। इस बात से तो सभी परिचित हैं कि यहां के मूल निवासी शिक्षा के प्रकाश से कोसों दूर थे, इसलिए वे अपनी संस्कृति और इतिहास को लिखित स्वरूप नहीं दे पाए। इसलिए जब अन्य प्रदेशों से यहां आकर बस जाने वाले लोगों ने यहां के इतिहास और संस्कृति को लिखित रूप देना प्रारंभ किया तो वे अपने साथ अपने मूल प्रदेशों से लाए गए ग्रंथों और संस्कृति को मानक मानकर 'छत्तीसगढ़" को परिभाषित करने लगे।
आज उस लिखित स्वरूप और यहां की मूल (अलिखित) स्वरूप में जो अंतर दिखाई देता है, उसका वास्तविक कारण यही है। इसलिए यहां के मूल निवासी जो अब स्वयं भी शिक्षित हो चुके हैं, वे चाहते हैं कि यहां की संस्कृति एवं इतिहास का पुनर्लेखन हो, और उस लेखन का आधार अन्य प्रदेशों से लाए गए ग्रंथों की बजाय यहां की मूल संस्कृति और लोक परंपरा हो।
सुशील भोले
कवि एवं पत्रकार
म.नं. 41-191, डॉ. बघेल गली,
संजय नगर (टिकरापारा) रायपुर (छ.ग.)
मोबा. नं. 080853-05931, 098269-92811
ईमेल - sushilbhole2@gmail.com
श्री दयालदास बघेल जी,
संस्कृति मंत्री, छत्तीसगढ़ शासन
महोदय,
छत्तीसगढ़ राज्य का निर्माण हुए एक दशक से ऊपर हो चुका है, लेकिन अभी भी यहां की मूल-संस्कृति की स्वतंत्र पहचान नहीं बन पायी है। आज भी जब छत्तीसगढ़ की संस्कृति की बात होती है, तो अन्य प्रदेशों से लाये गये ग्रंथों के मापदण्ड पर इसे परिभाषित कर दिया जाता है।
आप तो इस बात से अच्छी तरह से वाकिफ हैं कि किसी भी प्रदेश की संस्कृति का मानक वहां के मूल निवासियों की संस्कृति होती है, न कि अन्य प्रदेशों से आये हुए लोगों की संस्कृति। लेकिन यह छत्तीसगढ़ का दुर्भाग्य है कि यहां आज भी मूल-निवासियों की संस्कृति को दरकिनार कर अन्य प्रदेशों की संस्कृति को छत्तीसगढ़ की संस्कृति के रूप में चिन्हित किया जा रहा है।
आप इस बात से भी वाकिफ हैं कि यहां का मूल निवासी समाज सदियों तक शिक्षा की रोशनी से काफी दूर रहा है, जिसके कारण वह अपनी संस्कृति और इतिहास को लिखित रूप नहीं दे पाया। परिणाम स्वरूप अन्य प्रदेशों से आये हुए लोग यहां की संस्कृति और इतिहास को लिखने लगे।
लेकिन यहां पर एक गलती यह हुई कि वे यहां की मूल-संस्कृति और इतिहास को वास्तविक रूप में लिखने के बजाय अपने साथ अन्य प्रदेशों से लाये गये ग्रंथों और संस्कृति के साथ घालमेल कर लिखने लगे। यही मूल कारण है, जिसके कारण छत्तीसगढ़ की मूल-संस्कृति और इतिहास का स्वतंत्र और वास्तविक रूप आज तक लोगों के समक्ष नहीं आ सका है।
यहां पर यह जान लेना भी आवश्यक है कि कला और संस्कृति दो अलग-अलग चीजें हैं। इसे इसलिए अलग-अलग चिन्हित किया जाना आवश्यक है, क्योंकि छत्तीसगढ़ी संस्कृति के नाम पर यहां की कुछ कला को और कला-मंडलियों को उपकृत कर संपूर्ण छत्तीसगढ़ी संस्कृति को कृतार्थ कर लेने का कर्तव्य पूर्ण हो जाना मान लिया जाता है।
कला और संस्कृति के मूल अंतर को समझने के लिए हम यह कह सकते हैं कि मंच के माध्यम से जो प्रदर्शन किया जाता है वह कला है, और जिन्हें हम पर्वों एवं संस्कार के रूप में जीते हैं वह संस्कृति है।
आप यहां के मूल-निवासी समाज के हैं, इसलिए यहां की पीड़ा को अच्छी तरह से जानते और समझते हैं। इसीलिए आपसे अपेक्षा भी ज्यादा की जा रही है, कि आप इस दिशा में ठोस कदम उठायेंगे और छत्तीसगढ़ को उसकी मूल-सांस्कृतिक पहचान से गर्वान्वित करेंगे।
मुझे लगता है कि यहां की मूल-संस्कृति की तार्किक रूप से संक्षिप्त चर्चा कर लेना भी आवश्यक है।
वास्तव में छत्तीसगढ़ की संस्कृति एक मौलिक संस्कृति है, जिसे हम सृष्टिकाल की या युग निर्धारण के मानक पर कहें तो सतयुग की संस्कृति कह सकते हैं। यहां पर कई ऐसे पर्व और संस्कार हैं, जिन्हें इस देश के किसी अन्य अंचल में नहीं जिया जाता। ऐसे ही कई ऐसे भी पर्व हैं, जिन्हें आज उसके मूल स्वरूप से परिवर्तित कर किसी अन्य घटना के साथ जोड़कर प्रचारित किया जा रहा है। आइए कुछ ऐसे ही दृश्यों पर तार्किक चर्चा कर लें।
सबसे पहले उस बहुप्रचारित व्यवस्था पर, जिसे हम चातुर्मास के नाम पर जानते हैं। ऐसा कहा जाता है कि चातुर्मास (आषाढ़ शुक्ल पक्ष एकादशी से लेकर कार्तिक शुक्ल पक्ष एकादशी तक) में देवता सो जाते हैं, (कुछ लोग इसे योग निद्रा कहकर बचने का प्रयास करते हैं।) इसलिए इन चारों महीनों में किसी भी प्रकार का मांगलिक कार्य नहीं करना चाहिए। अब छत्तीसगढ़ के संदर्भ में देखें, तो यह व्यवस्था यहां लागू ही नहीं होती। यहां चातुर्मास पूर्ण होने के दस दिन पहले ही भगवान शंकर और देवी पार्वती का विवाह पर्व 'गौरा-गौरी उत्सव", जिसे सुरहुत्ती भी कहते हैं, के रूप में मनाया जाता है। अब जब भगवान की ही शादी देवउठनी से पहले हो जाती है, तो फिर उनके सोने (शयन करना) या फिर इन महीनों को मांगलिक कार्यों के लिए किसी भी प्रकार से अशुभ मानने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। बल्कि यहां पर यह कहना ज्यादा अच्छा होगा कि छत्तीसगढ़ की संस्कृति में चातुर्मास के इन चारों महीनों को ही सबसे ज्यादा शुभ और पवित्र माना जाता है, क्योंकि इन्हीं चारों महीनों में यहां के सभी प्रमुख पर्व संपन्न होते हैं।
श्रावण अमावस्या को मनाए जाने वाले पर्व 'हरेली" से लेकर देखें तो इस महीने की शुक्ल पक्ष पंचमी को 'नागपंचमी" तथा पूर्णिमा को 'शिव लिंग प्राकट्य" दिवस के रूप में मनाया जाता है। भादो मास में कृष्ण पक्ष षष्ठी को स्वामी कार्तिकेय का जन्मोत्सव पर्व 'कमर छठ" के रूप में, अमावस्या तिथि को नंदीश्वर का जन्मोत्सव 'पोला" के रूप में, शुक्ल पक्ष तृतीया को देवी पार्वती द्वारा भगवान शंकर को पति रूप में प्राप्त करने के लिए किए गए कठोर तप के प्रतीक स्वरूप मनाया जाने वाला पर्व 'तीजा" तथा चतुर्थी तिथि को विघ्नहर्ता और देव मंडल के प्रथम पूज्य भगवान गणेश का जन्मोत्सव पर्व।
क्वांर मास का कृष्ण पक्ष हमारी संस्कृति में स्वर्गवासी हो चुके पूर्वजों के स्मरण के लिए मातृ एवं पितृ पक्ष के रूप में मनाया जाता है। शुक्ल पक्ष माता पार्वती (आदि शक्ति) के जन्मोत्सव का पर्व नवरात्र के रूप में (यहां यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि यहां की संस्कृति में वर्ष में दो बार जो नवरात्र मनाया जाता है, उसका कारण आदि शक्ति के दो बार अवतरण को कारण माना जाता है। प्रथम बार वे सती के रूप में आयी थीं और दूसरी बार पार्वती के रूप में। सती के रूप में चैत्र मास में तथा पार्वती के रूप में क्वांर मास में)। क्वांर शुक्ल पक्ष दशमीं तिथि को समुद्र मंथन से निकले विष का हरण पर्व दंसहरा (दशहरा) के रूप में मनाया जाता है। (बस्तर में इस अवसर पर जो रथयात्रा का आयोजन किया जाता है, वह वास्तव में मंदराचल पर्वत के माध्यम से समुद्र मंथन का पर्व है। आगे इसकी विस्तृत चर्चा करेंगे)। तथा विष हरण के पांच दिनों के बाद क्वांर पूर्णिमा को अमृत प्राप्ति का पर्व 'शरद पूर्णिमा" के रूप में मनाया जाता है।
इसी प्रकार कार्तिक मास में अमावस्या तिथि को मनाया जाने वाला भगवान शंकर तथा देवी पार्वती का विवाह पर्व 'गौरा-गौरी उत्सव" में सम्मिलित होने के लिए लोगों को संदेश देने का आयोजन 'सुआ नृत्य" के रूप में किया जाता है, जो पूरे कृष्ण पक्ष में पंद्रह दिनों तक उत्सव के रूप में चलता है। इन पंद्रह दिनों में यहां की कुंवारी कन्याएं 'कार्तिक स्नान" का भी पर्व मनाती हैं। यहां की संस्कृति में मेला-मड़ई के रूप में मनाया जाने वाला उत्सव भी कार्तिक मास की पूर्णिमा तिथि से ही प्रारंभ होता है, जो भगवान शंकर के जटाधारी रूप में प्रागट्य होने के पर्व महाशिवरात्रि तक चलता है।
चातुर्मास के अंतर्गत हम 'दंसहरा" की चर्चा कर रहे थे। तो यहां यह जान लेना आवश्यक है दशहरा (वास्तव में दंस+हरा) और विजया दशमी दो अलग-अलग पर्व हैं। दशहरा या दंसहरा सृष्टिकाल के समय संपन्न हुए समुद्र मंथन से निकले दंस विष के हरण का पर्व है तो विजयी दशमी आततायी रावण पर भगवान राम के विजय का पर्व है। यहां के बस्तर में दशहरा के अवसर पर जो 'रथयात्रा" का पर्व मनाया जाता है, वह वास्तव में दंस+हरा अर्थात दंस (विष) हरण का पर्व है, जिसके कारण शिवजी को 'नीलकंठ" कहा गया। इसीलिए इस तिथि को नीलकंठ पक्षी (टेहर्रा चिरई) को देखना शुभ माना जाता है, क्योंकि इस दिन उसे विषपान करने वाले शिवजी का प्रतीक माना जाता है।
बस्तर के रथयात्रा को वर्तमान में कुछ परिवर्तित कर उसके कारण को अलग रूप में बताया जा रहा है, बिल्कुल वैसे ही जैसे राजिम के प्रसिद्ध पारंपरिक 'मेले" के स्वरूप को परिवर्तित कर 'कुंभ" का नाम देकर उसके स्वरूप और कारण को परिवर्तित कर दिया गया है। पहले दशहरा के अवसर पर प्रतिवर्ष नया रथ बनाया जाता था, जो कि मंदराचल पर्वत का प्रतीक होता था, क्योंकि मंदराचल पर्वत के माध्यम से ही समुद्र मंथन किया गया था। चूंकि मंदराचल पर्वत को मथने (आगे-पीछे खींचने) के कार्य को देवता और दानवों के द्वारा किया गया था, इसीलिए इस अवसर पर बस्तर क्षेत्र के सभी ग्राम देवताओं को इस दिन रथयात्रा स्थल पर लाया जाता था। उसके पश्चात रथ को आगे-पीछे खींचा जाता था, और जब आगे-पीछे खींचे जाने के कारण रथ टूट-फूट जाता था, तब विष निकलने का दृश्यि उपस्थित करने के लिए उस रथ को खींचने वाले लोग इधर-उधर भाग जाते थे। बाद में जब वे पुन: एकत्रित होते थे, तब उन्हें विष वितरण के रूप में दोने में मंद (शराब) दिया जाता था।
इस बात से प्राय: सभी परिचित हैं कि समुद्र मंथन से निकले 'विष" के हरण के पांच दिनों के पश्चात 'अमृत" की प्राप्ति हुई थी। इसीलिए हम लोग आज भी दंसहरा तिथि के पांच दिनों के पश्चात अमृत प्राप्ति का पर्व 'शरद पूर्णिमा" के रूप में मनाते हैं।
यहां के मूल पर्व को किसी अन्य घटना के साथ जोड़कर लिखे जाने के संदर्भ में हम 'होली" को उदाहरण के रूप में ले सकते हैं। छत्तीसगढ़ में जो होली मनाई जाती है वह वास्तव में 'काम दहन" का पर्व है, न कि 'होलिका दहन" का। यह काम दहन का पर्व है, इसीलिए इसे मदनोत्सव या वसंतोत्सव के रूप में भी स्मरण किया जाता है, जिसे माघ महीने की शुक्ल पक्ष पंचमी तिथि से लेकर फाल्गुन मास की पूर्णिमा तिथि तक लगभग चालीस दिनों तक मनाया जाता है।
सती आत्मदाह के पश्चात तपस्यारत शिव के पास आततायी असुर के संहार के लिए शिव-पुत्र प्राप्ति हेतु देवताओं द्वारा कामदेव को भेजा जाता है, ताकि उसके (शिव) अंदर काम वासना का उदय हो और वे पार्वती के साथ विवाह करें, जिससे शिव-पुत्र के हाथों मरने का वरदान प्राप्त असुर के संहार के लिए शिव-पुत्र (कार्तिकेय) की प्राप्ति हो। देवमंडल के अनुरोध पर कामदेव बसंत के मादकता भरे मौसम का चयन कर अपनी पत्नी रति के साथ माघु शुक्ल पक्ष पंचमीं को तपस्यारत शिव के सम्मुख जाता है। उसके पश्चात वासनात्मक शब्दों, दृश्यों और नृत्यों के माध्यम से शिव-तपस्या भंग करने की कोशिश की जाती है, जो फाल्गुन पूर्णिमा को शिव द्वारा अपना तीसरा नेत्र खोलकर उसे (कामदेव को) भस्म करने तक चलती है।
छत्तीसगढ़ में बसंत पंचमी (माघ शुक्ल पंचमी) को काम दहन स्थल पर अंडा (अरंडी) नामक पेड़ गड़ाया जाता है, वह वास्तव में कामदेव के आगमन का प्रतीक स्वरूप होता है। इसके साथ ही यहां वासनात्मक शब्दों, दृश्यों और नृत्यों के माध्यम से मदनोत्सव का सिलसिला प्रारंभ हो जाता है। इस अवसर पर पहले यहां 'किसबीन नाच" की भी प्रथा थी, जिसे रति नृत्य के प्रतीक स्वरूप आयोजित किया जाता था। 'होलिका दहन" का संबंध छत्तीसगढ़ में मनाए जाने वाले पर्व के साथ कहीं पर भी दृष्टिगोचर नहीं होता। होलिका तो केवल एक ही दिन में चिता रचवाकर उसमें आग लगवाती है, और उस आग में स्वयं जलकर भस्म हो जाती है, तब भला उसके लिए चालीस दिनों का पर्व मनाने का सवाल ही कहां पैदा होता है? और फिर वासनात्मक शब्दों, दृश्यों और गीत-नृत्यों का होलिका से क्या संबंध है?
मूल संस्कृति की चर्चा करते हुए कुछ बातें यहां के इतिहास लेखन की भी हो जाए तो बेहतर होगा, क्योंकि यहां की मूल संस्कृति के नाम पर अभी तक हम सृष्टिकाल या कहें कि सतयुग की संस्कृति की चर्चा करते आए हैं तो फिर प्रश्न उठता है कि छत्तीसगढ़ के इतिहास को केवल रामायण और महाभारत कालीन ही क्यों कहा जाता है? इसे सतयुग या सृष्टिकाल तक विस्तारित क्यों नहीं कहा जाता? जबकि बस्तर के लोक गीतों में इस बात का उल्लेख मिलना बताया जाता है, कि शिवजी देवी पार्वती के साथ अपने जीवन काल में सोलह वर्षों तक बस्तर में व्यतीत किए हैं।
इस संदर्भ में एक कथा प्राप्त होती है, जिसके अनुसार भगवान गणेश को प्रथम पूज्य का आशीर्वाद प्राप्त हो जाने के कारण उनके ज्येष्ठ भ्राता कार्तिकेय नाराज हो जाते हैं, और वह हिमालय का त्याग कर दक्षिण भारत में रहने के लिए चले जाते हैं। उन्हीं रूठे हुए कार्तिकेय को मनाने के लिए शिवजी देवी पार्वती के साथ यहां बस्तर में आकर सोलह वर्षों तक रूके हुए थे। छत्तीसगढ़ की मूल संस्कृति में शिव और शिव परिवार का जो वर्चस्व है, शायद उसका यही कारण है कि शिवजी यहां सोलह वर्षों तक निवासरत रहे थे।
यह भी ज्ञातव्य है कि दक्षिण भारत में कार्तिकेय की ही सबसे ज्यादा पूजा होती है। उन्हें मुरगन स्वामी के नाम पर जाना जाता है। शायद उनके दक्षिण भारत में निवासरत रहने के कारण ही ऐसा संभव हुआ है। तब प्रश्न यह उठता है कि हमारे इतिहासकारों को इतना गौरवशाली अतीत क्यों ज्ञात नहीं हुआ? क्यों वे यहां के इतिहास को मात्र द्वापर और त्रेता तक सीमित कहते हैं?
मुझे ऐसा लगता है कि इन सबका एकमात्र कारण है, उनके द्वारा मानक स्रोत का गलत चयन। वे जिन ग्रंथों को यहां के इतिहास एवं संस्कृति के मानक के रूप में उद्घृत करते हैं, वास्तव में उन्हें छत्तीसगढ़ के मापदंड पर लिखा ही नहीं गया है। इस बात से तो सभी परिचित हैं कि यहां के मूल निवासी शिक्षा के प्रकाश से कोसों दूर थे, इसलिए वे अपनी संस्कृति और इतिहास को लिखित स्वरूप नहीं दे पाए। इसलिए जब अन्य प्रदेशों से यहां आकर बस जाने वाले लोगों ने यहां के इतिहास और संस्कृति को लिखित रूप देना प्रारंभ किया तो वे अपने साथ अपने मूल प्रदेशों से लाए गए ग्रंथों और संस्कृति को मानक मानकर 'छत्तीसगढ़" को परिभाषित करने लगे।
आज उस लिखित स्वरूप और यहां की मूल (अलिखित) स्वरूप में जो अंतर दिखाई देता है, उसका वास्तविक कारण यही है। इसलिए यहां के मूल निवासी जो अब स्वयं भी शिक्षित हो चुके हैं, वे चाहते हैं कि यहां की संस्कृति एवं इतिहास का पुनर्लेखन हो, और उस लेखन का आधार अन्य प्रदेशों से लाए गए ग्रंथों की बजाय यहां की मूल संस्कृति और लोक परंपरा हो।
सुशील भोले
कवि एवं पत्रकार
म.नं. 41-191, डॉ. बघेल गली,
संजय नगर (टिकरापारा) रायपुर (छ.ग.)
मोबा. नं. 080853-05931, 098269-92811
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Wednesday, 17 June 2015
बियंग के रंग...

बियंग के रंग
संजीव तिवारी छत्तीसगढ़ी भाखा के चिन्हारी आय। छत्तीसगढ़ के नक्शा ले जब कभू बाहिर छत्तीसगढ़ी के गोठ होथे त 'गुरतुर गोठ डॉट कॉम" के माध्यम ले ही होथे, जेन उंकर सफल संपादन म इंटरनेट म सरलग कई बछर ले पूरा दुनिया म छत्तीसगढ़ी के सोर करत हावय। सोसल मीडिया के माध्यम ले छत्तीसगढ़ी खातिर वोहर जेन बुता करे हावय ते ह इतिहास के बात आय। ठउका अइसने 'बियंग के रंग" के माध्यम ले घलो छत्तीसगढ़ी के गद्य लेखन संसार अउ खासकर व्यंग्य विधा के जोरन-सकेलन वोहर करे हावय, उहू हर इतिहास के बात आय। मोर असन कतकों कम जनइया मन अइसन कहि देवँय के 'छत्तीसगढ़ी के लेखन ह अभी लइकई अवरधा म हावय..' 'बियंग के रंग" ल पढ़ के उंकर मन के भरम ह दुरिहा जाही।
साहित्य संसार म व्यंग्य के ठउर वइसने हे जइसे फूल के पेंड़ म कांटा के होथे। जइसे कांटा ह फूल ल टोर के वोला रउँदे के उदिम करइया मनला छेंकथे, वइसने व्यंग्य घलो ह मानव समाज के मनसुभा ल रउँदे के उदिम करइया मनला हुदरथे, कोचकथे अउ उनला छेंके खातिर दंदोर के चेत कराथे।
छत्तीसगढ़ी म व्यंग्य के रूप तो जब ले इहां सांस्कृतिक विकास होय हे तब ले देखे ले मिलथे। हमर संस्कृति म बर-बिहाव के बखत जेन भड़ौनी गाये जाथे, वोहर व्यंग्य के मयारुक-रूप आय। एकर पाछू हमर कला-यात्रा के रूप म जेन नाचा-गम्मत के मंच म जोक्कड़ के माध्यम ले हास्य-व्यंग्य के स्वरूप दिखथे, वोहर एकर विकास यात्रा के ही स्वरूप आय। हमर लोक गीत मन म घलोक एकर रूप समाये हे। ददरिया म नायक-नायिका एक-दूसर ल ताना अउ आभा मारथे इहू ह व्यंग्य के सुघ्घर छापा आय।
जिहां तक प्रकाशित साहित्य म व्यंग्य-लेखन के देखे के बात आय त ए ह आजादी के आन्दोलन के समय ले देखे म आथे। इहां वो दौर म कई ठन नाटक लिखे गइस जेमा हास्य-व्यंग्य के समिलहा रूप देखे म आथे। आरुग गद्य-व्यंग्य लेखन के रूप घलोक इही बखत ले देखब म आथे। इहां के सबले जुन्ना साप्ताहिक पेपर 'अग्रदूत" के फाइल लहुटावत मैं टिकेन्द्रनाथ टिकरिहा के कतकों व्यंग्य देखे अउ पढ़े हावंव।
'बियंग के रंग" म संजीव तिवारी जी एकर इतिहास के गजब सुघ्घर उल्लेख करे हावँय । ए किताब ल पढ़ के एकर आदि रूप ले लेके मंझोत बेरा अउ आज के नवा जुग के लेखक अउ उँकर लेखनी ले परिचित होय के अवसर मिलथे- छत्तीसगढ़ी म गद्य साहित्य : विकास के रोपा, बियंग के अरथ अउ परिभासा, बियंग म हास्य अउ बियंग, हास्य अउ बियंग के भेद, देसी बियंग, बियंग के उद्देश्य अउ तत्व, बियंग विधा, बियंग के अकादमिक कसौटी, बियंग के महत्व : बियंग काबर, बियंग के भाखा, छत्तीसगढ़ी बियंग के रंग, अउ बाढ़े सरा जइसे बारा ठन खांचा म बांध के व्यंग्य के जम्मो इतिहास ल पिरोये के उदिम करे गे हवय।
सिरिफ छत्तीसगढ़ी भर के नहीं भलुक ये देश अउ दुनिया के जम्मो नामी अउ पोठ व्यंग्य लेखक मन के विचार ल एमा संघारे गे हवय। डॉ. सुधीर शर्मा के विद्वता ले भरे भूमिका, तमंचा रायपुरी के अपनी बात अउ खुद संजीव तिवारी के दू आखर ये किताब ल अउ एकर उद्देश्य ल समझे खातिर बनेच पंदोली दे के बुता करथे।
वैभव प्रकाशन रायपुर ले प्रकाशित 'बियंग के रंग" ल पढ़े के बाद मोला कतकों नवा व्यंग्यकार मनके नांव घलोक जाने बर मिलिस। उंकर रचना संसार के जानकारी मिलिस अउ उंकर सोंच के घलोक जानबा होइस। एकर संगे-संग विविध पत्र-पत्रिका मन म छत्तीसगढ़ी कालम के माध्यम ले कतका झन व्यंग्य लेखन करत हावँय एकरो जानकारी ए किताब ले मिलथे।
'बियंग के रंग" के लेखक संजीव तिवारी ल ए किताब खातिर बधाई अउ संगे-संग ए अरजी घलोक के अइसने छत्तीसगढ़ी के अउ आने विधा मन के घलोक ऐतिहासिक जोरन-सकेलन के बुता ल अपन सख भर करत रहँय।
सुशील भोले
म.नं. 54-191, डॉ. बघेल गली,
संजय नगर (टिकरापारा) रायपुर (छ.ग.)
मोबा. नं. 080853-05931, 098269-92811
ईमेल - sushilbhole2@gmail.com
Tuesday, 16 June 2015
Monday, 8 June 2015
Friday, 5 June 2015
महापुरुष सब बंट रहे हैं,....
महापुरुष सब बंट रहे हैं, राजनीति के फेरे में
कब तक कैद रहेंगे ये सब, तेरे-मेरे के घेरे में
क्षेत्रवाद भी देता है, इस अग्नि में खुलकर होम
इसीलिए सब सिमट गये हैं, अपने-अपने डेरे में
सुशील भोले
मो. 080853-05931, 098269-92811
कब तक कैद रहेंगे ये सब, तेरे-मेरे के घेरे में
क्षेत्रवाद भी देता है, इस अग्नि में खुलकर होम
इसीलिए सब सिमट गये हैं, अपने-अपने डेरे में
सुशील भोले
मो. 080853-05931, 098269-92811
Thursday, 4 June 2015
Wednesday, 3 June 2015
कालिदास के सोरिहा बादर...
(महाकवि कालिदास की अमरकृति *मेघदूतम्* में आषाढ़ मास के प्रथम दिवस पर भेजे गये *मेघदूत* को संबोधित कर लिखा गया एक छत्तीसगढ़ी गीत। फोटो - सरगुजा स्थित रामगिरी पहाड़ी की जहां कालिदास ने * मेघदूत* का सृजन किया था। साभार : ललित डाट काम से।)
( फोटो-1. रामगिरी पहाड़ी पर उमड़ते मेघदूत। 2. एेतिहासिक रामगढ़ की पहाड़ी जहां पर कालिदास ने मेघदूत का सृजन किया था।)
अरे कालिदास के सोरिहा बादर, कहां जाथस संदेशा लेके
हमरो गांव म धान बोवागे, नंगत बरस तैं इहां बिलम के...
हमरो गांव म धान बोवागे, नंगत बरस तैं इहां बिलम के...
थोरिक बिलम जाबे त का, यक्ष के सुवारी रिसा जाही
ते तोर सोरिहा के चोला म कोनो किसम के दागी लगही
तोला पठोवत बेर चेताये हे, जोते भुइयां म बरसबे कहिके...
ते तोर सोरिहा के चोला म कोनो किसम के दागी लगही
तोला पठोवत बेर चेताये हे, जोते भुइयां म बरसबे कहिके...
धरती जोहत हे तोर रस्ता, गरभ ले पिका फोरे बर
नान-नान सोनहा फुली ल, पवन के नाक म बेधे बर
सुरुज गवाही देही सिरतोन बात बताही तोर बिलमे के...
नान-नान सोनहा फुली ल, पवन के नाक म बेधे बर
सुरुज गवाही देही सिरतोन बात बताही तोर बिलमे के...
रोज बिचारा बेंगवा मंडल बेरा उत्ते तोला सोरियाथे
अपन सुवारी संग सिरतोन, राग मल्हार घंटों गाथे
तबले कइसे जावत हस तैं, काबर सबला अधर करके....
अपन सुवारी संग सिरतोन, राग मल्हार घंटों गाथे
तबले कइसे जावत हस तैं, काबर सबला अधर करके....
सुशील भोले
म.नं. 54-191, डॉ. बघेल गली,
संजय नगर (टिकरापारा) रायपुर (छ.ग.)
मोबा. नं. 080853-05931, 098269-92811
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Tuesday, 2 June 2015
सुनो कबीर, अब युग बदला.....
सुनो कबीर, अब युग बदला, क्यूं राग पुराना गाते हो।
भाटों के इस दौर में नाहक, ज्ञान मार्ग बतलाते हो।।
भाटों के इस दौर में नाहक, ज्ञान मार्ग बतलाते हो।।
कौन यहाँ अब सच कहता, कौन साधक-सा जीता है
लेखन की धाराएँ बदलीं, विचारों का घट रीता है
जो अंधे हो गये उन्हें फिर, क्यूं शीशा दिखलाते हो....
लेखन की धाराएँ बदलीं, विचारों का घट रीता है
जो अंधे हो गये उन्हें फिर, क्यूं शीशा दिखलाते हो....
धर्म-पताका जो फहराते, वही समर करवाते हैं
कोरा ज्ञान लिए मठाधीश, फतवा रोज दिखाते हैं
ऐसे लोगों को तुम क्यूं, संत-मौलवी कहलवाते हो....
कोरा ज्ञान लिए मठाधीश, फतवा रोज दिखाते हैं
ऐसे लोगों को तुम क्यूं, संत-मौलवी कहलवाते हो....
राजनीति हुई भूल-भुलैया, जैसे मकड़ी का जाला
कौन यहाँ पर हँस बना है, और कौन कौवे-सा काला
नहीं परख फिर भी तुम कैसे, एक छवि दिखलाते हो...
कौन यहाँ पर हँस बना है, और कौन कौवे-सा काला
नहीं परख फिर भी तुम कैसे, एक छवि दिखलाते हो...
सुशील भोले
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